शनिवार, 9 मार्च 2013

महाशिवरात्रि

          आज महाशिवरात्रि है, शिव तो जन-जन के देवता हैं| शिव के जिस स्वरूप की कल्पना की गई है वह हमें सीधे प्रकृति से जोड़ देती है, उनके मस्तक पर चन्द्रमा, जटा से निकलती पवित्र गंगा की धारा, गले में साँपों की माला तथा शरीर पर लिपटा भभूत यही उनके श्रृंगार हैं; वह मुकुट नहीं पहनते, आभूषण नहीं धारण करते वह किसी को छोटा नहीं बनाते और यहाँ तक कि उनके गण भी इसी बात को सिद्ध करते है क्योंकि उनके गणों का स्वरूप भी ऐसा ही है, वे भी जैसे आम जनों के प्रतिनिधि हों| और तो और शिव ने तो अपने इस स्वरूप का और सरली करण कर शिवलिंग के रूप में पत्थरों में भी आ गए, जन-जन तक की उनकी पहुंच सुलभ है| बचपन की स्मृतियाँ भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती हैं, जब अपने बाबा के साथ हम गाँव से लगभग ढाई किलोमीटर दूर महाशिवरात्रि के मेले में जाया करते थे, खेतों के मेड़ों से, बगीचों और रास्ते में पड़ने वाले तालाबों के किनारों से होते हुए हम वहाँ पहुँचते थे| उस मेले में ग्रामीणों की बहुत भीड़ हुआ करती थी; सभी वर्गों के बड़े-बूढ़ों को वहाँ एक साथ बैठ कर मस्ती भरे फाग के गीत भी गाते हुए देखा-सुना था| हाँ, वहाँ स्थित शिव मंदिर में श्रद्धालुओं की बहुत भीड़ हुआ करती थी , मुझे याद है, एक-दो वर्षों तक शायद होने वाली भीड़ के कारण  बाबा मुझे उस मंदिर में नहीं ले गए थे लेकिन बाद में दूसरे या तीसरे वर्ष मंदिर के प्रति मेरी जिज्ञासा को समझते हुए वह किसी तरह भीड़ से बचाते हुए मुझे उस शिव मंदिर में ले गए; पहले तो वहाँ मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया कि लोग यहाँ क्यों उमड़े हैं और क्या कर रहे है ; हाँ मंदिर के बीच में फूलों और बेलपत्तियों का ढेर सा लगा हुआ दिखा, लोग झुक रहे थे, दूध भी उड़ेल वहाँ माथा टेक रहे थे तब मैंने भी उनकी देखा-देखी वैसे ही किया और फिर किसी तरह भीड़ से बचाते हुए बाबा मुझे मंदिर से बाहर ले आये, जहाँ तक मुझे आज भी याद है किसी मंदिर में जाने का मेरा वह पहला अवसर था| उस मेले से लौटने के बाद मैंने बाबा से पूँछा था, ''बाबा वहाँ मंदिर में क्या था|'' तब बाबा ने बताया था, "वहाँ भगवान शिव थे|" मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी मैंने फिर पूँछा था, "लेकिन वह तो मुझे दिखाई नहीं दिए|" उन्होंने कुछ समझाया था उसमें से एक बात मुझे आज भी याद है, "शिव भगवान बड़े भोले हैं वह सबका जहर स्वयं पीते हैं|" मैंने सोचा था शायद उस मंदिर में भीड़ का करण यही था, सभी अपना- अपना जहर शिव पर उड़ेल रहे थे| यही कारण है कि शिव मंदिरों की संख्या  व्यापक है, मूर्ति पूजा कह इसकी आलोचना भी हम नहीं कर सकते वह तो साकार और निराकार दोनों रूपों में आराध्य हैं ; वास्तव में शिव समाज के सभी वर्गों के देवता हैं| उनकी यह महत्ता इसी बात से सिद्ध है कि वह अमृत की राजनीति नहीं करते बल्कि जगत को बचने के लिए विषपान कर लेते हैं इसी लिए तो वह नीलकंठ हैं! ईश्वर-रूप कल्याणकारी शिव की यह कल्पना हमें भी जन-जन से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है| ॐ नम: शिवाय !