शनिवार, 27 अप्रैल 2013

क्या सेक्युलर होने के लिए किसी ढोंग की आवश्यकता है...?

             पिछले दिनों टोपी और तिलक को लेकर सेक्युलरिज्म पर एक नई बहस छिड़ी, आशय यह हो सकता था कि इन प्रतीकों से परहेज न कर इनका समान रूप से सम्मान करने वाला व्यक्ति सेकुलर हो सकता है, लेकिन इससे सेक्युलरिज्म की बहुत सतही परिभाषा निकलती है। यह परिभाषा राजनीति की भूमि पर ही उपजती है, जहाँ राजनीतिकों की सुविधानुसार यह परिभाषा उलझती जाती है और तो और उनकी राजनीति भी मात्र प्रतीकों तक ही सीमित हो जाती है। राजनीति से भिन्न भावभूमि पर सेकुलरिज्म की परिभाषा खोजने की कोशिश करने लगा .....।
                  बात बचपन के दिनों की थी ... मैं  तेरहवीं के एक भोज में अपनी एक बुआ के यहाँ गया था ... मुझे याद है दूर -दूर से लोग उस भोज में आए थे, खाने के लिए पाँत दर पाँत उठ और बैठ रही थी, और कुछ लोग चारपाइयों पर बैठ कर अपनी बारी की प्रतीक्षा भी कर रहे थे। ऐसी ही एक चारपाई पर मैं भी बैठा था जैसा कि अपने पारिवारिक संस्कारों वश मैं चारपाई के पैंताने की ओर  बैठा था क्योंकि सिरहाने की तरफ एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हुए थे साथ ही एक-दो लोग और उस चारपाई पर बैठे थे। बुजुर्ग का चेहरा सफेद दाढ़ी और सिर पर सफ़ेद गोल टोपी के साथ दीप्तवान और गरिमापूर्ण लग रहा था .... वह कोई मौलवी जैसे लग रहे थे और मुस्लिम थे  ....वह भी उस तेरहवीं के भोज में सम्मिलित हुए थे, वहाँ उनके जैसे कुछ और लोग भी थे ...बाद में जानकारी हुई कि उस गाव में हिन्दू या मुस्लिम एक दूसरे के यहाँ कार्यक्रमों में इसी तरह सम्मिलित होते हैं। बुआ के घर एक बड़े सदस्य ने बातों -बातों में यह भी बताया था कि मुहर्रम पर उठने वाले ताजिए के लिए हम लोगों का प्रयास रहता हैकि हमारे गाँव  का ताजिया अन्य  गाँवों के ताजियों से ऊंचा ही रहे। और हाँ कभी कोई आपस में झगड़ा होता  भी तो किसी ने यह नहीं कहा कि यह टोपी वाला है या यह तिलक वाला है ...। उसे आज भी याद है स्कूली दिनों की वे बातें जब साथ में पढनेवाले एक मुस्लिम सहपाठी से उसका अकसर किसी बात पर झगड़ा हो जाया करता था लेकिन तब किसी ने यह अहसास नहीं होने दिया था कि यह एक मुस्लिम और हिन्दू बच्चे के बीच का झगड़ा है ...लेकिन आज…! आज की यह राजनीति शायद यही अहसास करने पर तुली हुई है।
             वास्तव में सेक्युलर होने की कोई परिभाषा नहीं दी जा सकती और शायद इसकी कोई परिभाषा होती भी नहीं ...।  मैं कभी-कभी तिलक भी लगा लेता हूँ लेकिन टोपी नहीं पहनता .... और वह भी कभी-कभी टोपी पहन लेता है लेकिन तिलक नहीं लगता .... हम मिलकर बिना भेदभाव के साथ में काम भी करते हैं ....वह अपनी इबादतगाह की ओर चला जाता है और मैं भी कभी -कभी मंदिर की ओर चला जाता हूँ .... हम अपने धार्मिक प्रतीकों को खुले-आम धारण करने में थोड़ा परहेज भी कर लेते हैं , तभी तो जहीर बाबू को एक बार अपनी गोल टोपी को मेरी नजरों से उन्हें छिपाते हुए देखा था, मैंने मुस्कराते हुए उस टोपी को उनके जेब से निकालते हुए उनके सिर पर लगा दिया था। हाँ मैंने भी तो अपने धार्मिक चिह्नों को बेवजह धारण करने में परहेज ही किया है, हम एक दूसरे को अपने को यह या वह होने का अहसास नहीं कराते। हम एक साथ जीते हैं, एक साथ जीना  है..., आखिर इस एक साथ जीने के लिए किस परिभाषा की आवश्यकता हो सकती है ...?  क्या हम सेक्युलर नहीं हैं …! या फिर सेक्युलर होना किसको कहते हैं .....? क्या सेक्युलर होने के लिए किसी ढोंग की आवश्यकता है ...?     

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

बातें हैं इन बातों का क्या ..!

         वास्तव में ये बातें हैं इन बातों  का क्या ...! अन्नाहजारे हों चाहे केजरीवाल हों या कोई और अन्य हो इनकी तमाम बातें हैं पर  इन बातों का क्या ...! है कोई ध्यान देने वाला ..? हाँ एक बात देखने में आ रही है, आजकल कार बाजार की मार्केट  बहुत गिर गई है ....। आर्थिक समीक्षक इसके चाहे जो कारण समझते हों लेकिन कार बाजार के उठने और गिरने का सीधा संबंध भारत सरकार की आर्थिक नीतियों से नहीं बल्कि भारत सरकार की चलाई जा रही तमाम विकास की योजनाओं से है, इन योजनाओं के लिए जारी धन और योजनाओं के क्रियान्वयन के तरीकों पर ही ऐसे बाजारों का उठना-गिरना निर्भर करता है। केवल कार-बाजार ही नहीं अन्य कई तरह के बाजार इन्हीं योजनाओं से अपनी उर्जा ग्रहण करते हैं, उस पर निर्भर होते हैं ....! शायद हम योजनाए भी तो बाजार को ही ध्यान में रखकर बनातें हैं ...! और ढिढोरा हम अपनी आर्थिक नीतियों का पीटते हैं ...। आखिर क्या कर लेंगे अन्नाहजारे या केजरीवाल अपनी बातों से ....! हम तो बाजार की ओर चले .....।