गुरुवार, 15 अगस्त 2013

ताली....लेकिन सचेत होकर!

               आज स्वतन्त्रता  दिवस की वर्षगांठ थी एक सभा में मुझे भी बोलने के लिए पुकारा गया. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि  मैं क्या बोलूं क्योंकि उस सभा में बैठे सभी लोग स्वतंत्रता दिवस और इसे क्यों मनाया जाता है इसका मतलब बखूबी समझते थे और मुझे इसका भी अहसास था कि जो मैं बोलना चाहता हूँ उसके विरुद्ध हम सब क्या करते हैं, फिर भी मुझे बोलना था मैंने बोलना प्रारंभ किया , ''सभा की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय......और सम्मानित......आज हम प्रत्येक वर्ष की तरह स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ मना रहे हैं....इस वर्षगांठ के मनाने के पीछे के उद्देश्य को हमें समझना होगा......आजादी के समय की भावनाओं, संघर्षों एवं आजादी के लिए किए गए त्याग को समझना होगा और उन्हें अपने अन्दर जीवित रखना होगा तभी इस वर्षगांठ मानाने का कोई मतलब है....नहीं तो इसे हर साल मानाने का मतलब किसी कवि के शब्दों में, 'क्या आजादी केवल तीन थके हुए रंगों का नाम है....' प्रत्येक वर्ष हम तिरंगा ही फहराते चले आ रहे हैं लेकिन हमने क्या बदलाव लाया...आज भी हमारा देश मानव जनानंकीय विकास के सर्वेक्षणो में लगभग अंतिम पायदान पर आता है....हम क्या खास बदलाव कर पाए हैं...? आखिर हमने किया क्या...केवल तिरंगा फहराने तक सीमित हो चुके हैं...एक कवि की दो लाइनें हम सुनाते हैं...हमने जीवन क्या जिया / लिया लिया बहुत ज्यादा/दिया दिया बहुत कम/मर गया देश/ जीवित रह गए तुम   हमें आजादी की भावना को समझना होगा उसे आत्मसात करना होगा ...जय हिन्द'' इस प्रकार  मैंने अपना  भाषण समाप्त किया...लोगों ने ताली बजाई मैंने नोटिस किया मैंने भी ताली बजाई....शीघ्र मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि स्वयं मुझे अपने भाषण पर ताली नहीं बजानी चाहिए.....मैं अपने इस नादान हरकत पर मन ही मन शर्मिंदा होने लगा और सोचने लगा किसी ने इसका नोटिस तो नहीं लिया....खैर मैंने मन ही मन इसका विश्लेषण करना शुरू कर दिया कि मैंने अपने ही भाषण पर स्वयं ताली क्यों बजाई...मैंने पाया कि मेरे पूर्व के जो वक्ता बोलते थे उनके भाषण समाप्त होने पर लोग ताली बजाने लगते थे ...और सबकी देखादेखी और कुछ औपचारिकता निभाने हेतु मैं भी ताली बजाने लगता था....शायद मेरे अवचेतन में इसका प्रभाव था और इसी प्रभाव के कारण मैंने स्वयं अपने ही भाषण पर ताली बजाई....मुझे सजग रहना चाहिए था....
             फिर मैंने अपने दिए भाषण का मन ही मन श्रोताओं पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का विश्लेषण करने लगा....मुझे लगा कि जैसे मैंने एक मानसिक त्रुटिवश अपने ही भाषण पर ताली बजाई वैसे ही अन्य लोगों ने या तो उसी मानसिक त्रुटिवश ताली बजाई होगी या फिर औपचारिकता वश......इस भाषण ने किसी पर कोई प्रभाव नहीं डाला होगा....क्योंकि यहाँ बैठा हर शख्श केवल बैठने की औपचारिकता निभा रहा है...ऐसे में भाषण से प्रभावित होने का कोई प्रश्न ही नहीं है...अगले दिन बैंक बैलेंश कैसे बढे मेरे समेत सभी इसके तरीके पर सोच रहे होंगे....और.... ऐसे ही किसी अन्य अवसर पर देने वाले भाषण की मन ही मन तैयारी कर रहे होंगे.....जय हिन्द...! ....पुन:  ताली.......लेकिन सचेत होकर !  
  

सोमवार, 12 अगस्त 2013

बी काँन्शस....!

               विचारों का मानसिक प्रवाह चेतना का लक्षण है, विचारों का केन्द्र-विंदु कुछ भी हो सकता है, यह तीन प्रकार का हो सकता है- सकारात्मक, नकारात्मक और निरर्थक| विचारों का अधिकांश प्रवाह निरर्थक होता है, जिनका हमारे मन मस्तिष्क पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, और इन विचारों से हमारे कार्य भी प्रभावित नहीं होते| लेकिन सकारात्मक और नकारात्मक विचारों का हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है| सकारात्मक विचार जहाँ उर्जा के श्रोत होते हैं वहीँ नकारात्मकता हमें निराशा और अवसाद के गर्त में धकेलते हैं| सकारात्मक और नकारात्मक विचारों का पहचान होना बहुत महत्वपूर्ण है, इन दोनों में बहुत झीना सा अंतर हो सकता है क्योंकि नकारात्मक विचार हमें स्वयं के लिए सकारात्मकता का अहसास कराने लगते हैं तभी हम ऐसे विचारों को छोड़ नहीं पाते और उन्हें ही सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं| वास्तव में नकारात्मक विचार धीमा जहर होते हैं यह किसी भी चीज के प्रति हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित कर लेते है, जिससे उस विचार या वस्तु के वास्तविक स्वरुप को समझने की हमारी शक्ति कमजोर हो जाती है तथा हम मानसिक भटकाव के शिकार बन जाते हैं, इस प्रकार ऐसे ही विचार हमारे लिए तमाम समस्याओं को जन्म देकर हमें मानसिक रोगी भी बना देते हैं| इनसे छुटकारा पाने के लिए एक ही तरीका है, जिस प्रकार चिकित्सा विज्ञान में रोगी-जीवाणु से लड़ने के लिए शरीर में एंटीबाडी का विकास कराया जाता है उसी प्रकार मन में नकारात्मक विचारों से लड़ने के लिए सकारात्मक विचारों का प्रवाह बनाए रखना चाहिए और यह अपने देखने के नजरिए में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेने भर से हो जाता है|
          विचारों का मानसिक प्रवाह नकारात्मक दिशा की ओर कब होता है और यह नकारात्मकता क्या है, इस पर चिंतन किया जा सकता है| वास्तव में हमारा मन अन्तर्जगत और वाह्यजगत दोनों के प्रति स्वभावतः प्रतिक्रियात्मक होता है; अर्थात हमारा मन स्वयं अपने मानसिक आवेगों, उद्वेगों आदि के प्रति धारणाएँ निर्मित करता रहता है, इसी प्रकार मन वाह्य-जगत के प्रति भी अपना एक दृष्टिकोण निर्मित करता हैं. चीजों के प्रति हमारी धारणाओं से ही हमारे विचार नकारात्मक या सकारात्मक हो सकते हैं, इसका सबसे सरल और प्रचलित उदाहरण गिलास को आधा भरा या आधा खाली देखना| वास्तव में यह दोनों, देखने के अलग-अलग दृष्टिकोण है; एक से मन में आशा और उत्साह का संचार होता है तो दूसरे दृष्टिकोण से निराश और हतोत्साहित होना पड़ सकता है| वास्तव में मन में उठने वाले जिन विचारों से हम उर्जस्वित नहीं होते तथा आलस्य और प्रमाद से ग्रसित हो जाते हैं ऐसे ही मानसिक विचार नकारात्मक होते हैं|
       किसी भी विषय-वस्तु, विचार आदि के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएं या दृष्टिकोण  हमारे सोचने के तरीकों पर निर्भर करता है| हमारे सोचने या देखने का तरीका और कुछ नहीं बल्कि यह एक प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है; इस प्रक्रिया के तत्व हैं- मन, बुद्धि और विवेक| प्रथम दृष्टया किसी भी चीज पर हमारी प्रतिक्रियाएं हमारे देखने के दो तरीकों पर निर्भर करती है; आत्म-केन्द्रित दृष्टि और वाह्य-केन्द्रित दृष्टि अर्थात हमारे विचार आत्म-सापेक्ष और वाह्य-सापेक्ष दो आधार लेकर चलते हैं| वास्तव में हमारे चिंतन के यह दोनों आधार एकांगी होते हैं, क्योंकि इस स्थिति में हमारा मन हमें जो दिखाता है हम वही देखना और सोचना चाहते हैं या फिर हम जो देखते हैं उतना ही उस विषय में जानते और देखने की उसी सीमा तक सोचते हैं; ऐसी स्थिति में किसी विषय पर हमारे चिंतन की सीमा ‘मन’ या फिर केवल ‘दृश्य’ तक ही सीमित होती हैं, इस प्रकार केवल ‘मन’ या केवल ‘दृश्य’ की सीमा में आने वाले हमारे विचार दूषित हो सकते हैं|
                  विचारों का दूषित होना एक प्रकार से भ्रम का शिकार होना ही होता है और यह भ्रम चीजों को सही तरीके से समझने में बाधा पहुंचाती हैं| यदि ‘मन’ और ‘दृश्य’ इन दो आधारों तक ही हमारे विचार सीमित होकर चलते हैं तो इसका प्रभाव हम पर किस प्रकार पड़ सकता है इसे हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं, जिसकी चर्चा बचपन में पिता जी ने मुझसे की थी- एक बार रुई के एक व्यापारी ने पहली बार अपने लड़के को व्यापार की कुछ बातें समझाने के लिए उसे रुई के अपने एक बड़े गोदाम में नौकर के साथ भेजा| उस गोदाम में रुई के विशाल ढेर को देख कर व्यापारी का लड़का हतप्रभ रह गया और आश्चर्य से बोला, ‘इतनी ढेर सारी रुई...! इसका क्या होगा..?’ नौकर ने उसे समझाया कि इसे बेचा जाएगा तो पैसा प्राप्त होगा| व्यापारी के लड़के ने सोचा- ‘ढेर सारी रुई का ढेर सारा पैसा...!’ और यही बात उसके मन-मस्तिष्क में घर कर गई और वह सारा काम छोड़ कर रात-दिन यही सोचने लगा- ‘ढेर सारे रुई का ढेर सारा पैसा|’ और वह अकसर यही बुदबुदाता भी रहता था| व्यापारी को पुत्र की इस हालत से दुःख होने लगा क्योंकि अब उसके लड़के का मन किसी अन्य कार्य में भी नहीं लगता था| व्यापारी ने उसे कई चिकित्सकों को दिखाया लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ| धीरे-धीरे व्यापारी-पुत्र में अन्य लक्षण भी प्रकट होने लगा, जैसे कार्यों में उसकी अरूचि, नई परिस्थितियों में असहजता और घबड़ाहट| वह किसी नए कार्य और नई परिस्थितियों से बचने का प्रयास भी करने लगा, परिणामस्वरूप उसकी मानसिक शक्ति क्षीण होने लगी| किसी की सलाह पर व्यापारी ने पुत्र को मनोचिकित्सक को दिखाया, चिकित्सक ने परिक्षण के उपरान्त व्यापारी को कुछ सलाह दिया|
       एक दिन सुबह-सुबह व्यापारी ने पुत्र को जगाते हुए कहा, ‘अरे बेटा..! बहुत बुरा हुआ...|” पुत्र की जिज्ञासा पर व्यापारी ने उसे बताया कि उसने रुई के जिस गोदाम को देखा था उसमें बीती रात आग लग गई....और..गोदाम की सारी रुई जल गई....सुनकर उसका पुत्र आवक रह गया...और बोला, ‘ओह..! यह क्या हुआ...!’ और शांत हो गया| धीरे-धीरे उसकी स्थिति सुधरने लगी और उसे अहसास होने लगा कि वह किस स्थिति में पहुँच गया था|
          उक्त उदाहरण के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि व्यापारी-पुत्र ने जो देखा उसे अपने ‘दृश्य’ की सीमा तक ही सत्य मानते हुए अपने उस मानसिक सत्य से जोड़ दिया जहाँ प्रथम बार गोदाम देखने का उद्देश्य व्यापार की सीख लेना और उद्देश्य धनार्जन था| इस प्रकार वह दोनों ही परिस्थितियों में एकांगी सोच का शिकार हुआ और उसके मानसिक विचार भ्रमात्मक होते हुए नकारात्मक स्वरूप ग्रहण कर लिए, फलत: वह मानसिक रोगी बन गया| यहाँ नकारात्मकता का आशय देखे हुए या अपने सोचे हुए को ही सत्य मानना और उसमें निहित अन्य सत्य को न मानना है, यह स्थिति क्यों उत्पन्न होती है, हम इसका विश्लेषण कर सकते हैं|
         मानव स्वभाव मूलतः जिज्ञासु होता है और यह प्रवृत्ति उसकी अपनी अन्त:प्रज्ञा से स्वत: उत्पन्न होती है, यह गुण केवल मनुष्य में ही होता है जबकि अन्य जीवों में यह आतंरिक न होकर उनके व्यावहारिक अभ्यास पर निर्भर होता हैं| वैज्ञानिकों ने इस पर कुछ प्रयोग किए हैं जैसे, एक बाड़े में कैद कर जानवरों को कुछ दिनों तक रखा गया कुछ दिनों बाद बाड़े को हटा लेने पर यह देखा गया कि बाड़ा हटने के बाद भी जानवर बाड़े लगे स्थान तक जाकर वहाँ से वापस लौट आते थे| इस प्रयोग से यह प्रमाणित है कि पशुओं में ‘जिज्ञासु मन’ नहीं होता जिससे वे बाड़ा हटने के बाद की स्थिति को नहीं समझ पाए| इसी ‘जिज्ञासु मन’ की कमी के कारण मनुष्य भी भ्रमात्मक विचारों को ग्रहण कर कभी-कभी चीजों के प्रति नकारात्मक अवधारणा बना लेता है|
              आइये हम मन को समझें हमारा मन कोरा मन होता है मन किसी ज्ञान का आधार नहीं हो सकता क्योंकि भ्रम अकसर केवल मन और केवल वाह्य के संयोग से उत्पन्न होता है जिसमें एक तीसरे तत्व ‘विवेक’ का आभाव होता है| जब हमारा मन ‘जानने की प्रवृत्ति’ से संपृक्त होता है तभी ज्ञान उत्पन्न होने की प्रक्रिया उत्पन्न होती है| व्यापारी-पुत्र और बाड़े में कैद जानवरों के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है| प्रारम्भिक स्तर पर दोनों का ज्ञान समान है, व्यापारी-पुत्र के उदाहरण में 'दृश्य' के बाद केवल मन में उठे विचारों को ही ज्ञान मान लिया गया तथा इस ज्ञान में विवेक का अभाव था और बाड़े में रखे गए पशुओं में अनुभव-जनित प्रवृत्तियां ही उनमें ज्ञान के रूप में संचित हुआ और बाड़ा हटने के बाद की स्थिति को वे समझ नहीं पाए अर्थात पशुओं में अंत:प्रज्ञा जनित ज्ञान का अभाव था| उपरोक्त दोनों ही स्थितियों में ‘जानने की प्रवृत्ति’ का अभाव देखा जा सकता है; जिससे उनका मन वास्तविक ज्ञान तक पहुँचने का प्रयास नहीं करता और मन में, देखी स्थितियों से गलत अवधारणाओं का वे निर्माण कर लेते हैं| इसी प्रकार त्रुटिपूर्ण मानसिक अवधारणाओं से उत्पन्न नकारात्मक विचारों से प्रभावित हो हम अँधेरे में रस्सी को सांप समझ निरर्थक उछल-कूद करते रहते हैं| 
                       वास्तव में ‘मन’ और ‘दृश्य’ के प्रभाव से उत्पन्न हमारे ‘विचार’ जब तक ‘जिज्ञासा’ की आधार भूमि ग्रहण कर नहीं चलते तब तक वे दिशाहीन होते हैं| इस तरह के दिशाहीन विचार हमें स्थितियों का सही ज्ञान नहीं होने देते और इसी दिशाहीनता के कारण हमारे विचार नकारात्मकता की ओर मुड़ जाते हैं| मन जब ‘जानने की प्रवृत्ति’ से संपृक्त होता है तब ‘तर्क’ की उत्पत्ति होती है और यह तर्क मन को विचारों, स्थितियों के विश्लेषण की ओर प्रवृत्त करता है, इस पूरी प्रक्रिया को हम ‘बुद्धि’ कह सकते हैं, अर्थात ‘जिज्ञासु-मन’ विवेकी होकर व्यक्ति को ‘बुद्धिमान’ बना देता है और ऐसा व्यक्ति स्थितियों, विचारों एवं दृश्यों आदि के प्रति ‘काँन्शस’ हो जाता है| यह ‘काँन्शसनेस’ व्यक्ति के विचारों को एक सकारात्मक दिशा प्रदान करती है और ‘त्रुटिपूर्ण मानसिक अवधारणा’ के प्रति सचेत होकर चीजों को हम उसके सही सन्दर्भ में समझ सकते हैं जिससे हमारा व्यावहारिक जीवन प्रभावित हो सकता है| इस पूरी प्रक्रिया को हम इस तरह समझ सकते हैं- हमें अपने 'पशु-मन' में अंत:प्रज्ञा जनित 'जिज्ञासु-मन' का प्रवेश कराते हुए उसे 'विवेकी मानव-मन' का रूप दे देना है| अंत में हम कह सकते हैं ‘आत्मदीपो भव..!’ या ‘बी काँन्शस...!’
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