एक कहावत है कि ‘ईमानदारी सर्वोत्तम नीति होती है’ इस
नीति के पालनकर्ता में क्या ईमानदारी का तत्व वास्तव में होता है..? या फिर उसकी
‘नीयत’ में कोई खोट होता है और ईमानदारी उसके लिए केवल ‘पालिसी मैटर’ तक ही सीमित होता
है...| यह प्रश्न मन में इसलिए उठा है कि अभी-अभी राजनीति में उभरी एक नयी पार्टी
ने अपने मुद्दों पर सरकार बनाने और इन्हीं मुद्दों की शर्त पर कुछ अन्य लोगों को
उसे समर्थन देने की चुनौती दे डाली है...उसके मुद्दे इस नयी पार्टी को बेहद
ईमानदार दिखाते है जो उसके ईमानदार नियत के प्रतीक हो सकते हैं..लेकिन संदेह इस
बात का हो सकता है कि कहीं यह पार्टी का ‘पालिसी मैटर’ तो नहीं है..?
इस संदेह का कारण राजनेताओं पर से उठता विश्वास, संतों-योगगुरुओं एवं
तथाकथित भगवानों के कारनामें और इन सब से बढ़ कर ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता जिनसे पूरे देश को एक
उम्मीद जगी...लेकिन उनसे भी टूटती उम्मीदें..! समाज के विभिन्न क्षेत्रों का
नेतृत्व करने वाले हर उस व्यक्ति में बुराइयां नजर आने लगी हैं जो अपने-अपने
क्षेत्रों का मसीहा बनने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं...और तो और...कौन
कितना बड़ा मसीहा है इसके लिए भी लड़ते हुए लोग..! हर तरफ जैसे एक तमाशे का मंच सा
सजा हुआ है..! परिदृश्य में फिर भी निराशा...! हम किससे उम्मीद करे...! या फिर
जिनसे उम्मीदें हैं वे परिदृश्य में ही नहीं हैं...! क्या यहीं पर ‘नीति’ और ‘नीयत’
का प्रश्न नहीं उठता...!
कुछ लोगों ने नीति तो बनाई लेकिन नीयत को ठीक नहीं रखा तो कुछ के पास अपनी
नीयत पर चलने के लिए नीति नहीं..या फिर नीयत पर ही संकट छा गया। ’ईमानदारी की सर्वोत्तम नीति’ वास्तव में
ईमानदारी को एक साधन के रूप में स्वीकार करती है, यहाँ ईमानदारी अपने व्यापक
स्वरुप में नहीं होती और साधन के रूप में इतर नीतियों को भी अपनाया जाता है जो साध्य
के स्वरुप को भी बदल देता है| यही कारण है कि लोगों ने आज ‘जनकल्याण के लिए सत्ता’
को ‘सत्ता के लिए जनकल्याण’ में बदल दिया है, फलतः तमाम उम्मीदों के टूटते जाने के
हम शिकार हो गए हैं| यदि कोई परिवर्तन लाना है तो हमें अपनी नीयत को सर्वोपरि रखना
होगा और नीतियों को भी अपनी इसी ‘नीयत’ के लिए बनाना होगा नहीं तो एक बिछे हुए
चौसर पर मात्र हम पासे फेंकते हुए ही नजर आएंगे.. आज हमें ‘ईमानदारी की नीति’ नहीं
बल्कि एक ‘ईमानदार नीयत’ की आवश्यकता है |