शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

भारत माता की जय...

             कस्बे में आयोजित प्राथमिक विद्यालयों में ड्रेस वितरण कार्यशाला और बच्चों के भव्य सम्मान समारोह (पता नहीं हो सकता है आतिथ्य के रूप में अधिकारियों के लिए ही सम्मान समारोह का आयोजन रहा हो..) में दीप प्रज्ज्वलित करने-कराने के बाद एक गाँव में भ्रमण के दौरान मुसहरों की बस्ती में स्थित प्राथमिक विद्यालय में संयोगवश पहुँचा...वहाँ किसी स्वयं सेवी संगठन की एक महिला सदस्या बच्चों को स्कूल आने के लिए प्रेरित करती हुई दिखी... बेहद गरीब मुसहरों के बच्चे उससे तादात्म्य स्थापित किये हुए थे..उस महिला ने बताया कि यहाँ एक ही शिक्षामित्र है..एक योग्य शिक्षक की और आवश्यकता है....
             मैंने नोटिस किया कि मेरे वहाँ पहुंचते ही उस महिला ने सारे बच्चों से "भारत माता की जय" का नारा लगवाना आरम्भ कर दिया...बच्चों को चुप कराते हुए मैंने उनसे बात किया..किसी तरह एक बच्चे से मैंने गिनती सुनी...आखिर में जब मैं लौटने लगा तो बच्चे फिर से समवेत स्वर में "भारत माता की जय" का नारा लगाने लगे थे...मैं आकास्मत बच्चों को लगभग डाटने के अंदाज में चुप करा दिया और उन बच्चों की ओर देखते हुए मेरे मुँह से निकला... "भारत माता की जय कहने से भारत माता का जय नहीं होगा...तुम लोग पढोगे तभी भारत माता की जय होगा.." पता नहीं ये बच्चे इसका अर्थ भी जानते होंगे या नहीं...हाँ मैं "भारत माता की जय सुनकर असहज हो जाता हूँ...इस नारे को मैं इस तरह पसंद नहीं करता...शायद यही कारण है कि बचपन से ही मैं इस आदत का शिकार हो गया हूँ कि इस नारे के समय मैं मौन हो जाता हूँ......

कम से कम अच्छे संस्कारों को निर्मित होने दें...

          आज दशहरा है...! और कल दो अक्टूबर था...! एक तरह से स्वच्छ भारत अभियान का श्रीगणेश....! और...ये दोनों दिन प्रत्येक वर्ष आते हैं…आते रहेंगे...! लेकिन...क्या फर्क पड़ता है...कुछ तो लोग कहेंगे..उनका काम है कहना...पुनः लेकिन..! फिर भी प्रतीकात्मक ही सही इन दोनों दिवसों का अपना महत्व तो है ही....
           
       "अहिंसा परमो धर्मः"
       
        एक कार्ड-बोर्ड पर करीने से उकेरा गया यह वाक्य गाँव के कच्चे घर की कोठरी के दीवालों पर टंगा होता था..! निहायत छोटा था...! सुबह-सुबह सूर्य की पड़ती किरणों में मैं रोज ही उसे देखा करता...! कई वर्षों तक मैं अबोध..! उसका अर्थ ही नहीं समझ पाया था..! फिर..एक दिन मैंने माँ से इसका अर्थ पूँछा था..मेरी माँ ने बताया था.. "बेटा..! इसका मतलब होता है किसी भी जीव-जंतु को मत मारो और किसी आदमी को कष्ट मत दो..और हाँ झूठ भी मत बोलो..." फिर कुछ-कुछ उसका अर्थ समझ में आने लगा था..उसके बाद भी कई वर्षो तक एक बालक के रूप में मैं देखता रहा था...

           संयोग से मेरी माँ शिक्षिका भी थी..शायद तब मैं पाचवीं या छठी कक्षा में रहा होऊँगा माँ के संदूक से एक किताब निकल कर मैंने बड़े चाव से उसी समय पढ़ी थी..किताब थी.. "महात्मा गांधी की जीवनी" अब "अहिंसा परमो धर्मः" का मतलब मेरे लिए एक-दम साफ हो चुका था..!
   
     फिर मेरे दादा जी...! बचपन से ही मैं उनसे यह सुनते आया था....
   
                   जो तोको काँटा बोवै, ताहि बोव तू फूल
                   तोको फूल को फूल है वाको है तिरशूल
हाँ..दादा जी से इसका अर्थ भी जान गया था..।
   
         फिर...दादा जी गाँव से कुछ दूर पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले दशहरे के मेले में मुझे ले जाया करते थे ..! शाम के धुंधलके..में जलते रावण को उनकी उँगली पकड़ कर मैं कौतूहल से देखा करता..! दादा जी समझाते.."रावण जल रहा है क्योंकि वह बुरा था..!" बाद में धीरे-धीरे बात समझ में आने लगी थी...!
     
          इन घटनाओं से मैं कितना सीखा..यह बताना पाखंड हो सकता है...लेकिन इतना मैं स्वयं समझ सकता हूँ...एक संस्कार निर्मित तो हुआ ही..! मैं मानता हूँ कि हर चीज का अपना महत्त्व है...हम बड़े उम्र के लोगों लिए हो सकता है ये सब दिखावे या फोटो-बाजी की चीजे हों लेकिन...उन अबोध बालकों के लिए जो इन चीजों को देख रहे हैं इन सबसे उनमें अच्छे संस्कारों का श्रीगणेश भी हो सकता है...!
          और..! चलते-चलते..एक बात बता दें मृत्युशैया पर पड़े रावण से भी सीख या कहे उपदेश प्राप्त करने के लिए लक्ष्मण को श्री राम ने उसके पास भेजा था...!
          आइए...! किसी भी बौद्धिक-पूर्वाग्रह से मुक्त होकर हर अच्छी चीजों को आज की जटिल होती दिनचर्या में स्वीकार करे....

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

"लड़िका रोवइ माई माई हम मलाई लेबई ना.."

         बात बचपन के पंद्रह अगस्त की है...उस समय मैं गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ता था...हम बच्चों में पंद्रह अगस्त मनाने का बहुत उत्साह होता था..मेरी बड़ी बहन जो इस दुनियाँ में अब नहीं हैं इस दिवस पर आयोजित होने वाले बाल-गोष्ठी के लिए मुझे दो गीत सिखाए थे...पहला.. “हम बच्चे हैं छोटे-छोटे, काम हमारे बड़े-बड़े...”...और..दूसरा.. “लहरे तिरंगावा तोर रे सिपहिया..” मैंने बड़े उत्साह से बहन के सिखाये हुए इन दोनों गीतों को उस बाल-गोष्ठी में सुनाया था...फिर मास्टर जी अन्य बच्चों को भी कुछ न कुछ सुनाने के लिए प्रेरित करने लगे थे...अचानक उसी समय एक बेहद गरीब परिवार के बच्चे ने आगे बढ़ कर अपना वह गाना सुनाया था... “लड़िका रोवैं माई-माई हम मलाई लेबइ ना...” हम अन्य बच्चे इस गाने को सुनकर हँसने लगे थे...इसी लिए वह लड़का और उसका वह गीत आज के दिन मुझे याद आ जाता है....आज मैं सोचता हूँ...मैं तो गाने सीख कर गया था लेकिन उस साथी बच्चे ने जो सुनाया था वह स्वतःस्फूर्त था...!
      खैर...इस स्मृति में कोई खास बात नहीं है...बात तो बस इतनी है कि मेरे गाँव के बगल के गाँव का वह लड़का बाद में रोडवेज में नौकरी पा गया था..और उसकी पत्नी  वहाँ की प्रधान चुनी गयी थी...और.. मैं...फेसबुक में कभी-कभी कुछ न कुछ पोस्ट करने लायक बन गया..! हाँ..पिछले दिन एक प्राइमरी विद्यालय के निरीक्षण के समय मैं विद्यालय के उन मासूम बच्चों में अपने बचपन के प्राथमिक स्कूली दिनों के उन्हीं चेहरों को तलाशते हुए से कुछ-कुछ भावुक सा होने लगा था..और वहाँ मास्टर जी के रूप में जो भी थे मैंने उनसे कहा था...इन बच्चों के चेहरों की ओर देखिए...इनमें कहीं न कहीं कुछ ललक झलक रही है...इनकी आँखों में झाँक कर हमें इसे पहचानना होगा..
      हाँ....पंद्रह अगस्त १९४७ ने इसे पहचानने का अवसर हमें उपलब्ध करा दिया है अब हमारी ज़िम्मेदारी है... बच्चे को मलाई जरुर देना है....इनको रोने न दें...! देखें कितना कर पाते है.....लोग कहते हैं कि “लिखता हूँ..” इससे डर लगता है...कहीं लिखने-कहने में ही समय न बीत जाए...! 

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रविवार, 10 अगस्त 2014

महिलायें एक असुरक्षित दुनियाँ में रह रही हैं......!


                 जैसे ही टी.वी. चलाया एक गीत चल रहा था... “बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बाँधा है....” आज रक्षाबंधन है...! शायद इसीलिए चित्रहार जैसे कार्यक्रम में ऐसे ही गीत चल रहे थे...सोचने लगा..! जितने खूबसूरत ये गीत हैं क्या उतनी ही खूबसूरती से हम इसके भावों को ग्रहण करते हैं..? मन में विचार उठा...आज का भाई शायद अपनी बहना को भूल चुका है..तभी तो भाई की कलाई में उसे एक रक्षासूत्र बाँधकर अपने होने का अहसास दिलाना पड़ता है...! वास्तव में इसी भूलने का परिणाम है कि “women in an Insecure world” याद आ गया..!
       हाँ यह एक किताब का नाम भी है जिसे हाल ही में मैंने पढ़ा था...इसमें विश्व में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का एक भयावह चित्र खींचा गया है...जिसके कुछ आंकड़े इस प्रकार है..
  1. संयुक्तराष्ट्र के आकड़ों के अनुसार लगभग 200 मिलियन महिलायें जनसांख्यकीय ढंग से “गायब” हैं, क्योंकि जैविक मानकों में प्रत्येक 103 नवजात लड़कों पर 100 नवजात लडकियां होनी चाहिए..यदि इन आकड़ों में लड़कियों की “मिसिंग” दिखाई दे रही है तो वे या तो मार दी गयी हैं या उपेक्षा और दुर्व्यवहार से उनकी मृत्यु हो गई|
2.        2. आकड़ों के अनुसार प्रति वर्ष लगभग 5000 महिलायें “रसोई दुर्घटना” में दहेज़ आदि कारणों से जला दी जाती हैं.
       “A shocking number of women are killed within their own walls through domestic violence. Rape and sexual exploitation remain, moreover, a reality for countless women; millions are trafficked; some sold like cattle.
      “A sustained demographic ‘deficit’ of 100-200 million women implies that each year 1.5 to 3 million girls and women are killed through gender related violence. Incomparison: each year some 2.8 millionpeople die of AIDS, 1.27 million ofmalaria.3 Or, put in the most horrible terms: violence against women causesevery 2 to 4 years a mountain of corpses equal to the Jewish Holocaust.
       “इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारी धरती पर मृत्यु का एक सबसे बड़ा कारण अन्य कारणों की अपेक्षा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा ही है.”
3.           3. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में पाँच में से एक महिला बलात्कार या बलात्कार के प्रयास से पीड़ित होती हैं, अन्य पश्चिमी देशों में यह आकड़ा 6 में से 1 है.
The number of women forced or sold into prostitution is estimated at anywhere
between 700,000 and 4 million per year. Between 120,000 and 500,000 of them are
sold to pimps and brothels in Europe alone. Profits from the sex slavery market are estimated at US$7-12 billion per year.”
Some facts on women’s status
In all manifestations of poverty, women tend
to fare worse than men:
66 per cent of the world’s illiterate people are women.
Women provide 70 per cent of the unpaid time spent in caring for family members. This unpaid work provided by women is estimated at US$11 trillion per year – onethird of the global GDP.
Women own one per cent of the land in the world.
Women’s participation in managerial and administrative posts is around 33 per cent in the developed world, l5 per cent in Africa and 13 per cent in Asia and the Pacific.
There are only five women chief executives in the ‘Fortune 500’
corporations, the most valuable publicly owned companies in the United States.
Worldwide, only about fourteen per cent of members of parliament are women.
Seven per cent of the world’s cabinet ministers are women. 


       आइए..! रक्षाबंधन का त्यौहार तो हम मनाएं लेकिन ध्यान रखना होगा कि यह त्यौहार तक ही सीमित न रहे..और...आधुनिक फैशन की दुनियाँ का हिस्सा भर बन कर न रह जाए..! वास्तव में महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव ही हमको इस त्यौहार को मानाने का अधिकार देता है...!   

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

ये गर्व के खाँचे...!

    वह शक्ति हमें दो दयानिधे,
                  कर्तव्य मार्ग पर डट जावें | 
पर सेवा पर उपकार में हम, 
                           
निज जीवन सफल बना जावें || 
हम दीन दुखी निबलों विकलों 
                           
के सेवक बन सन्ताप हरें | 
जो हों भूले भटके बिछुड़े 
                           
उनको तारें ख़ुद तर जावें || 
छल-द्वेष-दम्भ-पाखण्ड- झूठ, 
                           
अन्याय से निशदिन दूर रहें | 
जीवन हो शुद्ध सरल अपना 
                           
शुचि प्रेम सुधारस बरसावें || 
निज आन मान मर्यादा का 
                           
प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे | 
जिस देश जाति में जन्म लिया 
                           
बलिदान उसी पर हो जावें ||
          ब्लॉगर मिहिरभोज ने अपने ब्लॉग “तत्वचर्चा” में इस प्रार्थना का उल्लेख यह कहते हुए किया है कि आज भी इस स्कूली प्रार्थना के याद आने पर वह स्वयं को लाइन में खड़ा हुआ पाते हैं...इस प्रार्थना की कुछ पंक्तियाँ मुझे भूल रही थीं जिसे याद करने के चक्कर में उनका यह ब्लॉग मैंने खोजा....
        खैर...! यह प्रार्थना इतने सीधे साधे शब्दों में थी कि इसका भाव मुझमें भी गहरे तक धँस गया था...मेरे भी भाव मिहिर जी के भावों से एकाकार हो जाते हैं... हाँ..!यह प्रार्थना अकसर मुझे तब याद आ जाती है जब कोई कहता है कि उसे अपनी जाति या धर्म पर अभिमान या गर्व है...  
          इस प्रार्थना की अंतिम चार लाइनें मेरे सामने प्रश्नचिह्न बनाती है...आखिर...! हम किस पर अभिमान करें और किस पर बलिदान हों....हाँ..क्या हम अपने-अपने खांचों में रहकर सभी के खांचों की कद्र करें या इन सभी खांचों को ही मिटा दें...? आखिर ये खांचे ही क्यों हैं....? भारतीय समाज के ये खाँचे किस बात को प्रतिबिंबित करते हैं...? ये खाँचे हमारे समाज की सफलता है या असफलता..! कि इस पर गर्व हो या बलिदान हो जाएँ...कभी-कभी लगता है ये खाँचे मिटने चाहिए पर चाह कर भी ऐसा नहीं हो पाता...इन खांचों की लकीरे बहुत गहरी हैं...!
        इन खांचों पर गर्व करने और इन पर बलिदान हो जाने का संस्कार बहुत पुराना है...वैदिक भारत से लेकर यह आजतक चला आ रहा है...तभी तो आज भी पांच हजार वर्ष पुरानी सस्कृति का हम गर्व के साथ उल्लेख करते रहते हैं... हम अपने पौराणिक या महाकाव्य कालीन मिथकों पर दृष्टि डाले तो हम सदैव अपने लिए ही या अपने अहंकार के लिए ही लड़ते हुए दिखाई देते हैं..और वह भी जब तक कि किसी ने हमें लड़ने के लिए बाध्य नहीं कर दिया..! देव और दानवों ने अमृत के लिए लड़ा..! ...तो...राम ने सीता के लिए रावण को मारा..! तो...कृष्ण ने कंस को इस लिए मारा कि वह सीधे ही उनसे टकराने लगा था...यहाँ तक कि महाभारत में उनकी भूमिका भी मात्र दो परिवारों को न्याय दिलाने तक ही सीमित रही...! बात यहाँ इन आख्यानों पर चोट करना नहीं है....इसके पीछे केवल खोजना यह है कि इतने महान (अवतारी) पुरुषों या महान लडाइयों वाले इस देश में जातिप्रथा की वह काली छाया आज भी क्यों बनी हुई है...? जहाँ छुआ-छूत, घृणा, असमानता का भाव आज भी बना हुआ है...वास्तव में देश की बहुसंख्यक आबादी आज भी दलित बन कर क्यों रह रही है..हम चाह कर भी इसे नहीं मिटा पाए हैं...! आखिर क्यों..? शायद इसका कारण यही है कि...हमें अपने इतिहास के आख्यानों से कमजोरों, असहायों, और पीड़ितों के लिए लड़ने का संस्कार ही नहीं मिला है..! हम लड़े तब जब हम पर चोट पड़ी...! हाँ आजादी की लड़ाई जरूर हमने कुछ बदलाव लाने के लिए लड़ी थी लेकिन संविधान बनाकर और आगे की लडाइयों को उसके हवाले कर हम सब कुछ फिर भूल गए...! जबकि विश्व के दूसरे देशों  का इतिहास बताता है कि वहाँ के लोगों का संघर्ष जनहित और सामाजिक सुधारों को लेकर होता था न कि किसी गर्व करने वाले व्यक्तिगत विषयों को लेकर...! आज तमाम पश्चिमी देश हर मायने में इसीलिए हमसे आगे हैं....
        इन विचारों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं..लेकिन जरा सोचें.....किस पर गर्व करें...? और.. किस पर बलिदान हो जायें...? और ऐसा कौन करेगा...? क्या हमने सभी खाँचों को इस लायक बनाया है...कि...इन खाँचों के लोग अपने-अपने खांचों पर गर्व और उस पर बलिदान हो जाने का भाव रख सकें.....? 

रविवार, 3 अगस्त 2014

उद्धव ! मन न भये दस बीस

उद्धव! मन न भये दस बीस
एक हुतौ सो गयो श्याम संग, को अवराधे ईश|
        
      सूरदास की ये पंक्तियाँ जहाँ भक्ति के सगुण और निर्गुण भाव के आपसी द्वंद्व को दर्शाती हैं वहीँ गोपियों और उद्धव के उक्त संवाद में गोपियों के ईमानदार मन की झलक भी मिलती है..वह उद्धव के निर्गुण भक्ति संबंधी किसी ज्ञानोपदेश को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं...क्योंकि उनका मन तो श्याम की भक्ति में रम चुका है...तभी तो वे उद्धव से कहती हैं कि मन दस-बीस नहीं होता..मन तो एक ही होता है जो श्याम संग चला गया है..तो अब किस मन से हम आपके ब्रह्म की आराधना करे..
       वास्तव में मानव ही मन वाला होता है और उसका यह मन बड़ा चंचल होता है..! क्या वह गोपियों के मन जैसा स्थिर हो सकता है..! मानव मन की इसी चंचलता का संकेत युधिष्ठिर ने मन को सबसे तेज गति वाला बताते हुए यक्ष के प्रश्न का उत्तर दिया था...मन सदैव भ्रमणशील भौंरे के समान ही होता है..! मन को साधना मानव के लिए असंभव तो नहीं बल्कि उसके लिए एक दुरूह कार्य अवश्य है...लेकिन सूर की गोपियों ने जैसे उस मन को साध लिया है..तभी तो उद्धव के तमाम तर्कों के बाद भी उनका मन विचलित नहीं होता और उद्धव को गोपियों से फटकार सुननी पड़ती है...
       आज हम अपने उस एक मन को खंडशः विभाजित कर उसे संदिग्ध बना दिए हैं...इस मन की विश्वसनीयता पर स्वयं हमें ही संदेह है..कृष्ण भक्ति में लीन गोपियों के जैसे असंदिग्ध मन की कल्पना हम कर ही नहीं सकते...सभी गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में पागल हैं..लेकिन यहाँ एक दूसरे के प्रति इर्ष्या-द्वेष नहों है..! वास्तव में मन की यह शुद्धता ही इस असंदिग्ध मन का कारण है..
       बात यहाँ गोपियों के मन की ही नहीं हैं... ‘एक चित्त मन’ की हम आलोचना भी कर सकते हैं उसे मानव विकास में रोड़ा भी मान सकते हैं..हम गतिशील मन को चेतना का लक्षण भी कह सकते हैं...लेकिन यदि यह मन ही संदिग्ध हो तो हम क्या कहेंगे...? आज इसी संदिग्ध मन की छाया सर्वत्र मंडरा रही है...सारे वितंडावाद और समस्याओं की जड़ हमारा संदिग्ध मन ही है....
      आइए..! प्रतिदिन के छिपे..! और आज के खुले ‘मित्रता दिवस’ के दिन हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक ईमानदार और सही मन की कामना करे जो हम सभी के जीवन को सुगम और सरल बना दे.....

        

बुधवार, 23 जुलाई 2014

यह बदलाव....!!

         बहुत दिन बाद अपने गाँव जाना हुआ था..उस दिन फुर्सत का दिन था...! सूर्य अस्ताचल की ओर था..हाँ..याद आ गया कि इधर कई वर्षों से सीवान की ओर नहीं गया था..अपने खेतों को तो लगभग मैं भूल ही चुका था..मिट्टी से अपनेपन की लालसा जागी तो नहर की पटरी पकड़े सीवान की ओर चल दिया.. सीवानशब्द का प्रयोग तो केवल मैं अपनी इस लेखनी में कर रहा हूँ वैसे बचपन से हम उसे ताल ही कहते आये हैं..वह कई किलोमीटर में फैला निर्जन क्षेत्र है जहाँ लोगों के खेत हैं..आज...मैं सोचता हूँ कि उसे ‘ताल’ का संबोधन क्यों दिया गया था..तो..बचपन की स्मृतियों पर थोड़ा जोर डालना पड़ता है..तब उस ताल में आज के जैसे लोगों के खेत नहीं थे...उसका अधिकांश भाग परती हुआ करता था..और वर्षाकाल में उसका अधिकांश भाग जल से डूबा रहता था..जिसका जल उसके एक छोर से बहते नाले से धीरे-धीरे निकलता रहता था..यह क्रम वर्षाकाल समाप्त होने के बाद लगभग कुवार मास के अंत तक चलता रहता था...और आज मनरेगा से ड्रेन की ऐसी खुदाई की गई है कि पानी कब बरसा और कब उस ड्रेन से निकल गया पता ही नहीं चलता...जबकि भू-जल रिचार्ज का रोना रोया जाता है...हाँ...तब उस क्षेत्र में धान के आलावा यदा-कदा गेहूँ की फसलें ही हुआ करती थी..और वह भी उस ताल में स्थित छोटे-मोटे तालाबों में एकत्रित वर्षा-जल के सहारे..! लोग 'दुबले' के सहारे सिचाई करते थे..बचपन में एक बार मेरे परिवार के एक बुजुर्ग ने हम बच्चों को एक कहानी सुनाई थी कि कैसे उसी ताल में एक भूत के साथ उनके किसी पूर्वज ने रात भर दुबला चलाया था..! इस कहानी के याद आने पर मेरे चेहरे पर बरबस मुस्कुराहट तैर जाती है... 
     उस ताल के संबंध में एक बात और याद आती है..हाँ मोहन..! शायद यही नाम रहा होगा उसका..! अपनी बाल्यावस्था में मैंने प्रतिदिन प्रातः मोहन को पशुओं के एक बड़े समूह को उसी ताल में ले जाते हुए देखा करता था.....दादा जी कहते थे कि पशुओं को वह ताल में चराने ले जाता है.. और सायं इसी प्रकार वह पशुओं के समूह को लेकर वापस लौटता था..तब दादा जी उसे देखते हुए कहते थे कि देखो गोधूलि की बेला हो गयी है पशु अब लौट रहे है.. “गोधूलि” शब्द से मेरा परिचय बखूबी उसी समय हुआ था...तब दादा जी ने यह भी समझाया था कि शाम को लौटते पशुओं के खुरों से धूल उड़ती है इसीलिए सायंकाल को गोधूलि बेला कहते हैं...खैर..! अब न तो पशु बचे हैं और न वह ताल बचा है... 
            बाद में चक-बंदी आई..! तमाम विवादों के बाद उसी ताल में गाँव के लोगों के चक काटे गए...जहाँ गाँव के किसानों ने खेती प्रारंभ कर दिया..उसी समय यह नहर निकली थी.. तब हम बच्चे बड़े कौतूहल से इस नहर की खुदाई का कार्य देखते थे और खुदे हुए भाग में खूब दौड़ लगाते थे...अब वहाँ न कोई भूत आता है और न ही दुबला चलाने की जरुरत होती है....इसी नहर के कारण आज उस ताल में गेहूँ और धान की फसलें बराबर हुआ करती है...उसी नहर की पटरी से आज मैं सीवान की ओर चला जा रहा था..आचानक मेरी नजर नहर की पटरी पर पड़ी अब उस पर मनरेगा से खडंजा भी लगाया जा चुका था जो कुछ दूर नहर की पटरी से होते हुए गाँव की सीमा से थोड़ा बाहर मुसहरों की बस्ती की ओर घूम जाती हैं..मन में आया कि गाँव के प्रधान ने खडंजा लगा कर अच्छा कार्य किया है...दृष्टि मुसहरों की बस्ती की ओर घूमी..आज भी उस बस्ती का रंग ढंग नहीं बदला था...वही छोटे-छोटे छप्पर वाले घर..! हाँ इंदिरा आवास योजना से बने घर भी दिखाई दे रहे थे...लेकिन उस बस्ती में चहल-पहल झोपड़ियों की ओर ही थी...फिर...मैं नहर की पटरी पकड़े हुए आगे ताल की ओर बढ़ता रहा...
          हाँ...उस तालाब के पास मैं पहुँच गया था...जो इस नहर की पटरी के बायीं ओर स्थित है..उस तालाब को मै बहुत गौर से देखने लगा..तब नहर नहीं हुआ करती थी..मेरे बचपन के दिनों में उस तालाब में सिंघाड़े की खेती भी हुआ करती थी कई बार बचपन में लगभग दादागीरी तो कई बार चोरी के अंदाज में सिंघाड़े निकाल कर खाए थे..! खैर बाद में दादा जी के भय से सुधार हो गया..तो..उसके मालिक से सिघाड़े खरीद लिया करता था.. हाँ तालाब को देखने से एक बात और याद आ गई...तब इस तालाब के भीटों पर बहुत सारे नीम के पेड़ हुआ करते थे..और इन नीम के पेड़ों पर शाम के समय कौओं के इतने झुंड बैठा करते थे कि दूर घर से ये नीम के पेड़ काले नजर आते थे..तथा उनका काँव-काँव दूर घर तक सुनाई पड़ता था..! लेकिन..आज अब वे पेड़ ही नहीं बचे हैं, ले दे कर मात्र नीम के दो जर्जर पेड़ ही नजर आ रहे हैं वे भी पेड़ों के अवशेष जैसे लग रहे हैं..और कौवे तो एकदम नदारत..! हाँ..भीटों का भी अवशेष ही बचा है..! अरे..! इस तालाब से थोड़ी ही दूर एक बहुत पुराना भीटा भी था अब वह नहीं दिखाई दे रहा है...उसके बारे में बचपन में कई किवदंतियां भी सुनी है..शायद मिट्टी के माफियाओं ने उसकी मिट्टी को खोद कर बेंच दिया है..सोचा...सियार बेचारे अब अपनी माँद कहाँ बनायेंगे..! इन सब को देखते हुए मैं थोड़ा और आगे बढ़ गया...उस ताल के दूर..अंतिम छोर की ओर निगाहें चली गयी..देखा कई ऊँची-ऊँची चिमनियाँ घना काला धुँआ उगल रही थी..हाँ ये चिमनियाँ उस औद्योगिक क्षेत्र की हैं जो बीसेक वर्ष पूर्व वहां स्थापित हुआ था..जहाँ कई छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां स्थापित हो चुकी हैं...
        हाँ.. अब शाम थोड़ी गहराने लगी थी..उन चिमनियों और उस क्षेत्र के भवनों पर विजली की रोशनियाँ जगमगा रही थी..इन सब को देख पता नहीं मन क्यों नहीं खुश हुआ..फिर वापस लौटने को हो गया...तो उन महुओं के विशाल पेड़ों की ओर ध्यान चला गया...जो एक दूसरे तालाब के किनारे स्थित थे..हाँ..याद आ रहा है उसी तालाब पर गुड़ुई के त्यौहार (नागपंचमी) पर कई बार मैं अपनी बहनों के साथ दादा जी के बनाए रंगीन नीम के डंडे के साथ गुड़ुई पीटने आया था..और महुए के उन्हीं पेड़ों के नीचे कजरी के गीत गाते हुए बहनों की याद घनी हो गयी...पर अफ़सोस वे विशाल महुए के पेड़ अब नहीं थे...बल्कि उनके स्थान पर मनरेगा से एक बड़ा तालाब खुदवा दिया गया था...पता नहीं क्यों..आखें भर आई...! थोड़ा तालाब के पास जाकर देखा तो खुदाई से निकले मिट्टी के भीटों पर एक छोटी सी झोपड़ी दिखाई दी..सोचा इतने निर्जन में यह झोपड़ी कैसे तो ध्यान में आया अब इस तालाब में मछली पालन होने लगा है और यह झोपड़ी उसके रखवाले की है...अब वहाँ गुड़ुई नहीं पीटी जाती...और न ही बहनें कजरी गाने आती हैं...
       अब मैं लौट पड़ा पुरानी यादों को मन से झटक चुका था....अचानक थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर मेरी निगाह जमीन की ओर देखते हुए ठिठक पड़ी..कारण...वहाँ फावड़े से खुदा हुआ एक छोटा सा गड्ढा दिखा था..लगा जैसे कोई किसी बिल को खोद रहा होगा...देखा मुसहरों की बस्ती नजदीक थी..याद आ गया बचपन में मैंने कई बार मुसहरों को इसी तरह गेहूँ की फसलों के कटने के बाद खेतों में बिलों को खोदते हुए देखा था...और उनसे चूहों को पकड़ते हुए भी देखा करता था..चूहों को वे पटक कर मार डालते और उसे अपने पास रख लेते थे..बाद में दादा जी ने बताया था कि वे इसे भून कर खाते है..इसी लिए इनका नाम 'मुसहर' पड़ा है... हाँ..तो क्या इतने वर्षों बाद भी उनकी वह पुरानी आदत नहीं गयी..? आज भी वे उसी तरह चूहे मार कर खाते हैं...? हाँ..आज भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया है..मैंने आज तक नहीं सुना कि मेरे गाँव के उस मुसहर बस्ती का कोई बच्चा प्राथमिक शिक्षा को पार किया हो...बल्कि शायद ही कोई मुसहर का बच्चा हो जो उस बस्ती के थोड़ी ही दूर स्थित प्राइमरी विद्यालय में...जिसमें मैंने शिक्षा ग्रहण की थी...पढ़ने गया हो..! और तो और..उनके लिए बने इंदिरा आवास निर्जन पड़े हैं वे उसमें नहीं रहते..पता नहीं क्यों उन्हें अभी भी झोपड़ियों में ही रहना पसंद है...कई बार पूँछने पर किसी अज्ञात भय या भूत का डर मानते हुए वे उन बने इंदिरा आवासों में नहीं रहना चाहते...हाँ खेत उनके पास नहीं है..किसी-किसी मुसहर परिवार को एकाध विस्वा भूमि ग्रामसभा ने पट्टा कर रखा है...लेकिन उनमें वे खेती भी नहीं करते...हाँ आज भी रोज कुआं खोद कर पानी पीने जैसी उनकी पुरानी आदत बरकरार है...संचय की कोई प्रवृत्ति उनमें नहीं आ पाई है...
       हाँ याद आ गया आज ही तो पिता जी ने कहा था कि अरे..! धान की रोपाई के लिए खेत तैयार होना है लेकिन ‘हरी’ अभी तक नहीं आया है..हरी और कोई नहीं बल्कि तीसों साल से हमारे खेतों का काम देखने वाला पुराना...नौकर तो नहीं कहेंगे...और न ही हलवाहा..क्योंकि अब तो हल बैल तो है नही..हाँ उसका काम यही होता है कि वह समय-समय पर मजदूरों को पकड़ कर खेती का काम करा दिया करता है...और छिट-पुट अन्य छोटे-मोटे काम कर दिया करता है..कई बार जब पिता जी उसके काम की लापरवाही से नाराज होकर खेतों को बटाई पर दे देने की बात उससे कहते हैं तब वह कामों में थोड़ी तेजी दिखाने लगता है...लेकिन आजकल वह कुछ अधिक ही पीने लगा है...पीते-पीते अब वह अपने स्वास्थ्य के प्रति भी लापरवाह हो चुका है..पिता जी ने बताया कि उसमें अब चोरी करने की आदत भी पड़ चुकी है...बाद में जब उसने सुना कि मैं गाँव आया हूँ तो मुझसे मिलने आया था...मैंने उसे कुछ रुपये भी दिए हालाँकि पिता जी ने कहा था कि वह इन रुपयों को पीने में खर्च कर डालेगा..यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुःख हुआ मेरे बचपन के दिनों में वह ऐसा नहीं था...सोचने लगा शायद यही कारण है कि ये अल्पायु में ही गुजर जाते हैं तभी तो मेरे देखते-देखते इसकी तीन पीढ़िया गुजर रही है...बाद में पिता जी ने बताया कि आजकल मनरेगा में काम करता है..कभी-कभी बिना काम किए भी पैसा पा जाता है..मेठगीरी भी करता है...और बी०पी०एल० का अनाज भी पाता है...तो मेहनत क्यों करेगा..!
     खैर..कुछ भी हो इन मुसहरों की स्थिति में आज भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है...वही आदिवासियों जैसा रहा-सहन किसी तरह की कोई आर्थिक सोच नहीं..जब तक झोपड़ी में खाने के लिए कुछ है तब तक काम पर भी जाने से कतराते हैं..बीमारी को आज भी भूतों का चक्कर मानते हैं...इनका विकास कैसे होगा..यह मनरेगा, अन्त्योदय,बी.पी.एल. आदि जैसी योजनाएँ इनमें बदलाव क्यों नहीं ला पाई हैं..
      सोचता जा रहा था...सरकारों ने इन्हें जनजाति का दर्जा क्यों नहीं दिया...साँझ अब गहरा चुकी थी..हाँ इनकी बस्तियों की ओर फिर निहारा..अँधेरा गहराया हुआ था...फैक्ट्री की चिमनियों के काले घने धूएँ इस मुसहर की बस्ती के ऊपर भी काले साए की तरह दिखाई देने लगे थे....दो-चार-एक बिजली के बल्व अपनी रोशनी वहाँ बिखेर रहे थे...और..कोई लाउडस्पीकर से बम्बइया फ़िल्मी गाने भी बजा रहा था...इनकी मनोवृत्ति कैसे बदलेगी इनकी इस स्थिति के लिए कौन दोषी है...सोचते-सोचते मैं घर की ओर बढ़ गया..
     कल जिले के आलाधिकारी मुसहरों के विकास के संबंध में एक बैठक करने वाले हैं उस बैठक की भी तैयारी करनी है..कुछ रिपोर्टें भी लेनी है...सोचता हूँ अब इस लेखनी को यहीं विराम दे दें...
       

शुक्रवार, 13 जून 2014

अरे इन दोऊ राह न पाई

            आज मन कुछ उदास था..अन्यमनस्कता में मन काम के प्रति एकाग्र नहीं हो पा रहा था..मन को कुरेदा..आखिर ऐसा क्यों? तो पता चला इधर कई दिन हो गए थे स्वजनों से मिले हुए..! मुझे अपनी मन:स्थिति का कारण समझ में आ गया...अकसर जीवन में एकरसता, वैचारिक उलझाव और इन सबसे बढ़कर अपनों से कटाव मन को उद्विग्न बनाकर उदासी की ओर ढकेल देता है, जो धीरे-धीरे अवसाद का भी कारण बन जाता हैं...खैर, ऐसी मनःस्थिति में मित्र महोदय से मिलना जरूरी था...क्योंकि...हम दोनों एक दूसरे के अकेलेपन के साथी भी हैं और इस अकेलेपन में आपसी कुरेदबाजी से हम अपनी समस्याओं का हल खोजकर मन को भी समझा लेते हैं..

           कुछ देर बाद मैं मित्र के घर के सामने था...घर के खुले दरवाजे के सामने मैं ठिठक पड़ा, उसी समय उनकी आवाज सुनायी पड़ी, “अन्दर आ जाओ भाई...!” मैं सीधे उनके कमरे में प्रवेश कर गया..देखा, वे अभी भी अपने बिस्तर पर आराम की मुद्रा में लेटे हुए हैं....थोड़ा एक ओर खिसकते हुए उन्होंने मुुझे भी उसी बिस्तर पर बैठने का संकेत किया...खैर मैं बैठा...कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद उनके गंभीर मुखमुद्रा पर निगाह जमाते हुए मैं पूँछ बैठा, “क्या बात है..किसी चिंतन में लीन हैंं क्या..? या फिर यह अकेलेपन की समस्या है..?” मेरे इस प्रश्न पर बिस्तर पर थोड़ा उठते हुए पीठ को सिरहाने टिकाकर आराम की मुद्रा में बोले, “अरे यार..अभी तो मैं कल ही घर से आया हूँ...अकेला-फकेलापन वगैरह कुछ नहीं है...मुझे अकेलापन कभी नहीं सालता..! क्योंकि मेरा अकेेलापन मुझे स्वयं को सहेेजने के काम आता है.."  "फिर तो ऐसी मुखमुद्रा में आपको नहीं  होना चाहिए...?” मैंने विनोद भाव मेंं कहा। इसपर मेरी ओर ध्यान से देखा और बोल पड़े-

           “बस यार..आजकल अजीब सी असहमतियों का दौर चल निकला है..न जाने क्यों अब असहमतियाँ पीड़ादायी बनती जा रही हैं..असहमतियों के बीच में बातें बड़ी आसानी से गुम हो जाती हैं...चलो अच्छा संयोग है तुम आ गए..!"

            “अरे भाई अगर असहमतियाँ नहींं होंगी तो फिर बातें ही क्योंकर होगी..! लेकिन पीड़ादायी..! यह मैं समझा नहीं.." मुझे मित्र की बात में रुचि हो आई और कुछ देर के लिए ही सही मुझे उनकी बातों से अपनी अन्यमनस्क मनःस्थिति से निकल आने का मार्ग दिखाई दे गया..!

            “देखो यार तुम तो जानते ही हो, आज-कल मैं भी गाहे-बगाहे कुछ लिखने की कोशिश करता रहता हूँ...इस बार अभी जब मैं घर गया था..एक ऐसा ही अपना लिखा श्रीमती जी को सुनाने का प्रयास किया था...” कहते हुए मित्र ने मेरी ओर देखा..

           मैं तपाक से पूँछ बैठा, “तो क्या उनने सुनने से मना कर दिया...!”

           “नहीं यार..! जैसे उनकी सुनना मेरी मजबूरी, वैसे ही मेरी भी सुनना तो उनकी मजबूरी है..! और तुम तो जानते ही हो, पत्नी से बढ़िया श्रोता कम से कम कोई दूसरा नहीं हो सकता...बस उनकी इसी मजबूरी का फायदा मैंने उठाया और उनसे अपनी लेखकीय क्षमता की डींग मारना चाहा..क्योंकि उनकी नज़रों में मैं बेवकूफ ही हूँ...!”

           मेरी प्रतिक्रिया की परवाह न करते हुए मित्र महोदय ने आगे फिर जैसे अपनी व्यथा-कथा कहने के अंदाज में बोलते गए..

           “मैंने अपनी लिखी एक कहानी उन्हें सुनाई...जानते हो... जैसा एक लेखक करता है..एक थोड़े से यथार्थ में अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग मैंने उस कहानी में किया था..कहानी सुनाने के बाद जब गर्वित भाव से मैंने श्रीमती जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही...तो..!”

           “तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी...?” मैंने उनकी व्यथा टटोलने के प्रयास में पूँछा।

           “तो..उन्होंने उस कहानी की सच्चाई के बारे में पूँछा..मैंने उन्हें कहानी के यथार्थ पक्ष के बारे में बताया..जो मन को झकझोरने वाली एक घटना थी..फिर आत्मश्लाघा में मैं उन्हें समझाने भी लगा कि कैसे अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग करते हुए मैंने इस कहानी को लिखा है..इस पर जानते हो उन्होंने क्या बोला...?” कहते हुए मित्र महोदय ने मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा..! और मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मेरी जिज्ञासा शान्त करते हुए फिर बोले..

          “कहानी के यथार्थ पक्ष और उसके कलात्मक पक्ष को सुनने के बाद श्रीमती जी कुछ देर तक तो मुझे मौन घूरती रहीं और फिर बोली कि हूँ....तो तुम इस कहानी के माध्यम से समाज को सन्देश देना चाहते हो...है न..? इसपर मैं भी कह बैठा...हाँ..हाँ तुमने सही पकड़ा...जानते हो इस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया रही..?”

          खैर, मित्र महोदय बोलते रहे-

          ‘पत्नी बोली...अच्छा..!! इतनी सीधी बात को इस तरह घुमा फिरा कर कहने की क्या जरुरत है..हाँ उनका इशारा मेरी कहानी की ओर था..उन्होंने कहा...अपनी बात सीधी तरह से भी तो कह सकते हो...लोगों पर इसका सीधा असर होता...! एक सीधी और सच्ची बात जब कहानी के रूप में कही जाएगी तो उसका यथार्थ गौण हो जाएगा...उसके कला-पक्ष की ही चर्चा अधिक होगी...जैसे शिल्प ऐसा है वैसा है आदि-आदि...समाज पर इस कहानी का क्या प्रभाव होगा सिवाय तुम्हारे थोड़ा चर्चित हो जाने के..! और फिर जानते हो उन्होंने क्या कहा...?”

             अपने इस लम्बे कथन के साथ मित्र ने मेरी ओर कातर भाव से देखा..लेकिन मैंने उनकी इस कातरता को नजरअंदाज करते हुए निष्ठुर-भाव से पूँछा, क्योंकि मुझे उनकी बातों में मजा आ रहा था-

             “आपकी पत्नी जी ने क्या कहा..?”

             “अरे यार उनको कहना क्या था जो उन्हें कहना था उसे उन्होंने कह ही दिया था लेकिन ऊपर से यह भी कह दिया कि कम से कम इसे कहीं छपने के लिए भेज दो ताकि कुछ पैसा मिले तो घर का खर्च भी चल जाए..!”

          मित्र की इस बात पर मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “भाभी जी ने मजाक किया होगा...छोड़ो इस बात को...हाँ, बात को सीधे ढंग से कहने की उनकी बात मुझे जम रही है...”

            “यही तो मेरी पीड़ा है तुम भी उन्हीं जैसी बात कर रहे हो...! ये बताओ, क्या यह कबीर का जमाना है...कि कोई अपनी बात सीधे और सपाट ढंग से कह दे..? वह पांच-छः सौ साल पुरानी बात है कि लोग सीधी और सपाट बातें सुन लेते थे..! आज कह कर देखो....! चौराहे पर खून बह जाएगा..! वह कबीर ही थे कि मुल्ला और पंडित दोनों की खिल्ली उड़ाई...आज किसी में है यह दम कहने और सुनने की..! और..कहते हो कि अपनी बात सीधे सपाट ढंग से कह दो..!” कहते हुए मित्र महोदय उत्तेजित हो चुके थे..!

            उनकी बात से मैंं थोड़ा शांत और चिंतन की मुद्रा में आ गया..लेकिन अगले ही पल मैं बोला, “यार बात तो ठीक ही कहते हो...हम कभी समझदार नहीं रहे..तभी तो कबीरदास जी ने कहा था...अरे इन दोऊ राह न पाई...अगर ऐसा होता तो छोटी-छोटी बातों मेंं किसी निर्दोष का खून न बहता..या फिर मात्र अपने विचारों के लिए
हम आपस में न लड़ रहे होते..!

             “अरे दोऊ नहीं भाई ! हम तो कहेंगे...कोऊ न राह पाई.. यार..! सब मरगिल्ले पागलों की भांति एक-दूसरे को मिटाने पर तुले हैं...तिस पर कोढ़ में खाज यह राजनीति...!!”

           इसी के साथ मित्र महोदय जैसे अपनी सारी व्यथा-कथा बयाँ कर चुके थे...मैंने उनके हलके होते मूड को भाँप लिया और कह बैठा,

            “यार आप की पत्नी जी समझती नहीं..आज के जमाने में कथन सीधे सपाट नहीं कलात्मक लहजे में ही होना चाहिए..आखिर..कहने वाले की सुरक्षा का भी तो प्रश्न है..!! लेकिन छपवाने की बात उन्होंने सही कही..क्योंकि घर चलाने के लिए पैसे भी तो चाहिए..कला बिकती है तो इसे बेंचने में क्या हर्ज...!! और समाज-वमाज भी अब व्यापारिक हो चला है, इसे व्यापारिक बातों से ही सुधरना है...सीधी सपाट बोली से नहीं..!!”

            यह सब बोल चुकने के बाद मैंने कहा, "यार, मुझे कुछ काम है अपनी वह अदरक वाली चाय पिलाओ तो चलें..." आजकल मित्र महोदय चाय बढ़िया बनाते हैं... चाय पीते हुए हम सब कुछ भूल चुके थे...

सोमवार, 31 मार्च 2014

झंडाबरदार..

                उस दिन मित्र से मेरी नेतृत्व कैसा हों चाहिए इस विषय पर बहस हो रही थी कि अचानक उनके मुँह से निकला,
            "किसी चीज का झंडाबरदार नहीं होना चाहिए। ऐसी स्थिति में हम कुछ नही कर पाते क्योंकि तब हम नारेबाजी के शिकार हो उठते है।"
           आगे उन्होंने फिर जोड़ा,
           "और आज यह इतना अधिक हो रहा है कि लोग व्यंगात्मक हंसी के साथ धीरे-धीरे महत्वहीन करार कर देते हैं।" 
             अब मैं मित्र महोदय से पूँछ बैठा,
             "लेकिन हमें किसी चीज का झंडाबरदार क्यों नहीं होना चाहिए ? आखिर किसी न किसी को तो आगे
आना ही होगा।"
              उन्होंने उत्तर दिया,
              "हाँ यह सत्य है.… किसी न किसी को तो आगे आना ही होगा…, लेकिन झंडाबरदार व्यक्ति के साथ अकसर एक समस्या हो जाया करती है....  क्योंकि अंत में उस व्यक्ति के हाथ में मात्र डंडा ही बचता है और झंडा गायब हो जाता है.... ऐसी स्थिति में व्यक्ति का ध्यान धीरे-धीरे डंडे पर ही अटक जाता है..... और झंडे के गायब होने से वह पथ से भटक जाता है, क्योंकि शक्ति का अकसर दुरूपयोग ही होते देखा गया है।  अतः गंतव्य को ही मंतव्य मानते हुए अत्यंत सावधानी पूर्वक पथ पर अग्रसर होना चाहिए तभी किसी आन्दोलन कि सार्थकता हो सकती है।"
             इतना कह मित्र महोदय आचानक उठ खड़े हुए जैसे उन्हें किसी चीज की याद आ गयी हो और पुनः आने का वादा कर चले गए। मैं भी मन मसोसकर रह गया कि आगे मित्र महोदय से डिटेल में इसपर बात करूंगा।   
 

शनिवार, 25 जनवरी 2014

केजरीवाल अब "अराजक" नहीं "राजक" उन्हें 'काफी-मशीन' की तरह काम करना चाहिए..

            स्वतंत्रता आन्दोलन की समाप्ति के बाद महात्मा गांधी ने कहा था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। उनके इस कथन के पीछे जो भी कारण रहा हो लेकिन एक बात तो निश्चित है कि उन्हें इस बात का आभास रहा होगा कि आजादी की लड़ाई के लिए जिन आदर्शों को ग्रहण कर इस दल का गठन किया गया था वह भूमिका अब पूरी हो चुकी थी तथा आजादी के बाद एक राजनीतिक दल के रूप में इसकी भूमिका बदल जायेगी और एक नए मानक को अपनाना होगा। एक राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में केजरीवाल की बदली हुई भूमिकाओं की तुलना भी हम इस सन्दर्भ में कर सकते हैं। किसी भी राजनीतिक दल के लिए कुछ प्रतिबद्धताएं और उनका एक पक्ष होता है इसी प्रकार सिविल सोसायिटी के एक सदस्य के रूप में केजरीवाल की जो भूमिका थी वह एक राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में बदल गयी है। उन्हें अपने ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ को उसी अंदाज में एक सत्ताधारी राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में प्रयोग करने पर उसके किस तरह के परिणाम होंगे इस पर भी विचार करना होगा। 
        एक मुख्यमन्त्री के रूप में अपनी कुछ मांगों को लेकर धरने पर बैठने की काफी आलोचनाएँ हो रही है तथा इसके औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जा रहा है, कुछ लोग तो इसे संविधान का उल्लंघन भी बता रहे हैं। यहाँ हमें दो प्रश्नों पर विचार करना होगा प्रथम उनका धरना किस बात को लेकर और किसके विरुद्ध था और दूसरा ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ का ऐसा प्रयोग उचित था या नहीं। हम पहले प्रश्न पर आते हैं; यहाँ दिल्ली सरकार का मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार की एक व्यवस्था के विरूद्ध धरना दे रहा था और अपनी सीमा को समझाने का प्रयास कर रहा था। अपनी इस भूमिका में  केजरीवाल एक मुख्यमंत्री के रूप में नहीं बल्कि अपने से सशक्त एक व्यवस्था के विरूद्ध आम आदमी की भूमिका में थे। उनके इस रूप को हम पूरी तरह अनुचित तथा औचित्यहीन नहीं मान सकते। यहाँ इस बात पर ध्यान देंगे कि अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हम अपने स्वतंत्रता आंदोलन को अराजकता की श्रेणी में नहीं रखते भले ही वह अंग्रेजों के लिए अराजक रहा हो। इसी तरह स्वतंत्रता के पश्चात तमाम मुद्दों पर सिविल सोसायिटी के आन्दोलनों को भी अराजकता की श्रेणी में नहीं रखा जाता। इसलिए केजरीवाल के धरने पर बैठने की भूमिका को भी हम अराजकता की श्रेणी में नहीं रख सकते। इस संबंध में महत्वपूर्ण यह है कि जिस तंत्र के विरुद्ध हम आंदोलनरत होते हैं उस तंत्र के लिए हम अराजक होते हैं; शायद इसीलिए केजरीवाल ने धरने की भूमिका में अपने को ‘अराजक’ कहा। 

       अब हम दूसरे प्रश्न विचार करते हैं कि केजरीवाल द्वारा ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ का प्रयोग एक मुख्यमंत्री के रूप में किया जाना क्या उसके औचित्य को सही ठहराता है; यहाँ पर केजरीवाल को यह समझना होगा कि अब वह ‘अराजक’ नहीं बल्कि ‘राजक’ हैं और एक व्यवस्था के अंग बन चुके हैं। अतः वह अपने ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ का प्रयोग उसी जाने पहचाने अंदाज में नहीं कर सकते क्योंकि प्रकारान्तर से इसमें ‘स्वयं का विरोध स्वयं के द्वारा’ नामक भाव छिपा है जो स्वयं के व्यक्तित्व को खंडित करती हैं और उन्हें इस व्यवस्थाजनित प्राप्त एक बड़ी भूमिका को छोटी भूमिका में बदल देती है, जिससे उनका उद्देश्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। ‘आप’ के इस नेता को अपने उसी पुराने ‘मानसिक तत्व’ को बरकरार रखते हुए अब एक ‘काफी मशीन’ की तरह काम करना पड़ेगा अर्थात जिस तरह बिना सीधी लौ के केवल भाप की ऊष्मा से काफी गर्म हो जाती है उसी तरह अपने “आन्दोलनकारिता के तत्व” के लौ का सीधे तौर पर प्रयोग न कर इससे भाप जैसी ऊष्मा का निर्माण करना होगा जो ठंडेपन की व्यवस्था को बदल सके। इस संबंध में “आप” को कांग्रेस के गठन के इतिहास से भी सबक लेना होगा जब अंग्रजों ने बड़ी चालाकी से विदेशी शासन के प्रति भारतीयों के गुस्से को एक सेफ्टी वाल्व के माध्यम से निकल जाने के लिए कांग्रेस का गठन कराया था लेकिन उसी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की आजादी में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। निश्चित रूप से यदि “आप” अपने “मानसिक तत्व” को बनाए रखने के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने का प्रयास करती रहेगी तो पैंसठ सालों से प्रतीक्षित एक नयी गणतांत्रिक आजादी अवश्य आएगी। 
                              ---- गणतंत्र की शुभकामनाओं के साथ