शनिवार, 25 जनवरी 2014

केजरीवाल अब "अराजक" नहीं "राजक" उन्हें 'काफी-मशीन' की तरह काम करना चाहिए..

            स्वतंत्रता आन्दोलन की समाप्ति के बाद महात्मा गांधी ने कहा था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। उनके इस कथन के पीछे जो भी कारण रहा हो लेकिन एक बात तो निश्चित है कि उन्हें इस बात का आभास रहा होगा कि आजादी की लड़ाई के लिए जिन आदर्शों को ग्रहण कर इस दल का गठन किया गया था वह भूमिका अब पूरी हो चुकी थी तथा आजादी के बाद एक राजनीतिक दल के रूप में इसकी भूमिका बदल जायेगी और एक नए मानक को अपनाना होगा। एक राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में केजरीवाल की बदली हुई भूमिकाओं की तुलना भी हम इस सन्दर्भ में कर सकते हैं। किसी भी राजनीतिक दल के लिए कुछ प्रतिबद्धताएं और उनका एक पक्ष होता है इसी प्रकार सिविल सोसायिटी के एक सदस्य के रूप में केजरीवाल की जो भूमिका थी वह एक राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में बदल गयी है। उन्हें अपने ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ को उसी अंदाज में एक सत्ताधारी राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में प्रयोग करने पर उसके किस तरह के परिणाम होंगे इस पर भी विचार करना होगा। 
        एक मुख्यमन्त्री के रूप में अपनी कुछ मांगों को लेकर धरने पर बैठने की काफी आलोचनाएँ हो रही है तथा इसके औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जा रहा है, कुछ लोग तो इसे संविधान का उल्लंघन भी बता रहे हैं। यहाँ हमें दो प्रश्नों पर विचार करना होगा प्रथम उनका धरना किस बात को लेकर और किसके विरुद्ध था और दूसरा ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ का ऐसा प्रयोग उचित था या नहीं। हम पहले प्रश्न पर आते हैं; यहाँ दिल्ली सरकार का मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार की एक व्यवस्था के विरूद्ध धरना दे रहा था और अपनी सीमा को समझाने का प्रयास कर रहा था। अपनी इस भूमिका में  केजरीवाल एक मुख्यमंत्री के रूप में नहीं बल्कि अपने से सशक्त एक व्यवस्था के विरूद्ध आम आदमी की भूमिका में थे। उनके इस रूप को हम पूरी तरह अनुचित तथा औचित्यहीन नहीं मान सकते। यहाँ इस बात पर ध्यान देंगे कि अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हम अपने स्वतंत्रता आंदोलन को अराजकता की श्रेणी में नहीं रखते भले ही वह अंग्रेजों के लिए अराजक रहा हो। इसी तरह स्वतंत्रता के पश्चात तमाम मुद्दों पर सिविल सोसायिटी के आन्दोलनों को भी अराजकता की श्रेणी में नहीं रखा जाता। इसलिए केजरीवाल के धरने पर बैठने की भूमिका को भी हम अराजकता की श्रेणी में नहीं रख सकते। इस संबंध में महत्वपूर्ण यह है कि जिस तंत्र के विरुद्ध हम आंदोलनरत होते हैं उस तंत्र के लिए हम अराजक होते हैं; शायद इसीलिए केजरीवाल ने धरने की भूमिका में अपने को ‘अराजक’ कहा। 

       अब हम दूसरे प्रश्न विचार करते हैं कि केजरीवाल द्वारा ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ का प्रयोग एक मुख्यमंत्री के रूप में किया जाना क्या उसके औचित्य को सही ठहराता है; यहाँ पर केजरीवाल को यह समझना होगा कि अब वह ‘अराजक’ नहीं बल्कि ‘राजक’ हैं और एक व्यवस्था के अंग बन चुके हैं। अतः वह अपने ‘आन्दोलनकारिता के तत्व’ का प्रयोग उसी जाने पहचाने अंदाज में नहीं कर सकते क्योंकि प्रकारान्तर से इसमें ‘स्वयं का विरोध स्वयं के द्वारा’ नामक भाव छिपा है जो स्वयं के व्यक्तित्व को खंडित करती हैं और उन्हें इस व्यवस्थाजनित प्राप्त एक बड़ी भूमिका को छोटी भूमिका में बदल देती है, जिससे उनका उद्देश्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। ‘आप’ के इस नेता को अपने उसी पुराने ‘मानसिक तत्व’ को बरकरार रखते हुए अब एक ‘काफी मशीन’ की तरह काम करना पड़ेगा अर्थात जिस तरह बिना सीधी लौ के केवल भाप की ऊष्मा से काफी गर्म हो जाती है उसी तरह अपने “आन्दोलनकारिता के तत्व” के लौ का सीधे तौर पर प्रयोग न कर इससे भाप जैसी ऊष्मा का निर्माण करना होगा जो ठंडेपन की व्यवस्था को बदल सके। इस संबंध में “आप” को कांग्रेस के गठन के इतिहास से भी सबक लेना होगा जब अंग्रजों ने बड़ी चालाकी से विदेशी शासन के प्रति भारतीयों के गुस्से को एक सेफ्टी वाल्व के माध्यम से निकल जाने के लिए कांग्रेस का गठन कराया था लेकिन उसी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की आजादी में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। निश्चित रूप से यदि “आप” अपने “मानसिक तत्व” को बनाए रखने के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने का प्रयास करती रहेगी तो पैंसठ सालों से प्रतीक्षित एक नयी गणतांत्रिक आजादी अवश्य आएगी। 
                              ---- गणतंत्र की शुभकामनाओं के साथ