सोमवार, 31 मार्च 2014

झंडाबरदार..

                उस दिन मित्र से मेरी नेतृत्व कैसा हों चाहिए इस विषय पर बहस हो रही थी कि अचानक उनके मुँह से निकला,
            "किसी चीज का झंडाबरदार नहीं होना चाहिए। ऐसी स्थिति में हम कुछ नही कर पाते क्योंकि तब हम नारेबाजी के शिकार हो उठते है।"
           आगे उन्होंने फिर जोड़ा,
           "और आज यह इतना अधिक हो रहा है कि लोग व्यंगात्मक हंसी के साथ धीरे-धीरे महत्वहीन करार कर देते हैं।" 
             अब मैं मित्र महोदय से पूँछ बैठा,
             "लेकिन हमें किसी चीज का झंडाबरदार क्यों नहीं होना चाहिए ? आखिर किसी न किसी को तो आगे
आना ही होगा।"
              उन्होंने उत्तर दिया,
              "हाँ यह सत्य है.… किसी न किसी को तो आगे आना ही होगा…, लेकिन झंडाबरदार व्यक्ति के साथ अकसर एक समस्या हो जाया करती है....  क्योंकि अंत में उस व्यक्ति के हाथ में मात्र डंडा ही बचता है और झंडा गायब हो जाता है.... ऐसी स्थिति में व्यक्ति का ध्यान धीरे-धीरे डंडे पर ही अटक जाता है..... और झंडे के गायब होने से वह पथ से भटक जाता है, क्योंकि शक्ति का अकसर दुरूपयोग ही होते देखा गया है।  अतः गंतव्य को ही मंतव्य मानते हुए अत्यंत सावधानी पूर्वक पथ पर अग्रसर होना चाहिए तभी किसी आन्दोलन कि सार्थकता हो सकती है।"
             इतना कह मित्र महोदय आचानक उठ खड़े हुए जैसे उन्हें किसी चीज की याद आ गयी हो और पुनः आने का वादा कर चले गए। मैं भी मन मसोसकर रह गया कि आगे मित्र महोदय से डिटेल में इसपर बात करूंगा।