शुक्रवार, 13 जून 2014

अरे इन दोऊ राह न पाई

            आज मन कुछ उदास था..अन्यमनस्कता में मन काम के प्रति एकाग्र नहीं हो पा रहा था..मन को कुरेदा..आखिर ऐसा क्यों? तो पता चला इधर कई दिन हो गए थे स्वजनों से मिले हुए..! मुझे अपनी मन:स्थिति का कारण समझ में आ गया...अकसर जीवन में एकरसता, वैचारिक उलझाव और इन सबसे बढ़कर अपनों से कटाव मन को उद्विग्न बनाकर उदासी की ओर ढकेल देता है, जो धीरे-धीरे अवसाद का भी कारण बन जाता हैं...खैर, ऐसी मनःस्थिति में मित्र महोदय से मिलना जरूरी था...क्योंकि...हम दोनों एक दूसरे के अकेलेपन के साथी भी हैं और इस अकेलेपन में आपसी कुरेदबाजी से हम अपनी समस्याओं का हल खोजकर मन को भी समझा लेते हैं..

           कुछ देर बाद मैं मित्र के घर के सामने था...घर के खुले दरवाजे के सामने मैं ठिठक पड़ा, उसी समय उनकी आवाज सुनायी पड़ी, “अन्दर आ जाओ भाई...!” मैं सीधे उनके कमरे में प्रवेश कर गया..देखा, वे अभी भी अपने बिस्तर पर आराम की मुद्रा में लेटे हुए हैं....थोड़ा एक ओर खिसकते हुए उन्होंने मुुझे भी उसी बिस्तर पर बैठने का संकेत किया...खैर मैं बैठा...कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद उनके गंभीर मुखमुद्रा पर निगाह जमाते हुए मैं पूँछ बैठा, “क्या बात है..किसी चिंतन में लीन हैंं क्या..? या फिर यह अकेलेपन की समस्या है..?” मेरे इस प्रश्न पर बिस्तर पर थोड़ा उठते हुए पीठ को सिरहाने टिकाकर आराम की मुद्रा में बोले, “अरे यार..अभी तो मैं कल ही घर से आया हूँ...अकेला-फकेलापन वगैरह कुछ नहीं है...मुझे अकेलापन कभी नहीं सालता..! क्योंकि मेरा अकेेलापन मुझे स्वयं को सहेेजने के काम आता है.."  "फिर तो ऐसी मुखमुद्रा में आपको नहीं  होना चाहिए...?” मैंने विनोद भाव मेंं कहा। इसपर मेरी ओर ध्यान से देखा और बोल पड़े-

           “बस यार..आजकल अजीब सी असहमतियों का दौर चल निकला है..न जाने क्यों अब असहमतियाँ पीड़ादायी बनती जा रही हैं..असहमतियों के बीच में बातें बड़ी आसानी से गुम हो जाती हैं...चलो अच्छा संयोग है तुम आ गए..!"

            “अरे भाई अगर असहमतियाँ नहींं होंगी तो फिर बातें ही क्योंकर होगी..! लेकिन पीड़ादायी..! यह मैं समझा नहीं.." मुझे मित्र की बात में रुचि हो आई और कुछ देर के लिए ही सही मुझे उनकी बातों से अपनी अन्यमनस्क मनःस्थिति से निकल आने का मार्ग दिखाई दे गया..!

            “देखो यार तुम तो जानते ही हो, आज-कल मैं भी गाहे-बगाहे कुछ लिखने की कोशिश करता रहता हूँ...इस बार अभी जब मैं घर गया था..एक ऐसा ही अपना लिखा श्रीमती जी को सुनाने का प्रयास किया था...” कहते हुए मित्र ने मेरी ओर देखा..

           मैं तपाक से पूँछ बैठा, “तो क्या उनने सुनने से मना कर दिया...!”

           “नहीं यार..! जैसे उनकी सुनना मेरी मजबूरी, वैसे ही मेरी भी सुनना तो उनकी मजबूरी है..! और तुम तो जानते ही हो, पत्नी से बढ़िया श्रोता कम से कम कोई दूसरा नहीं हो सकता...बस उनकी इसी मजबूरी का फायदा मैंने उठाया और उनसे अपनी लेखकीय क्षमता की डींग मारना चाहा..क्योंकि उनकी नज़रों में मैं बेवकूफ ही हूँ...!”

           मेरी प्रतिक्रिया की परवाह न करते हुए मित्र महोदय ने आगे फिर जैसे अपनी व्यथा-कथा कहने के अंदाज में बोलते गए..

           “मैंने अपनी लिखी एक कहानी उन्हें सुनाई...जानते हो... जैसा एक लेखक करता है..एक थोड़े से यथार्थ में अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग मैंने उस कहानी में किया था..कहानी सुनाने के बाद जब गर्वित भाव से मैंने श्रीमती जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही...तो..!”

           “तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी...?” मैंने उनकी व्यथा टटोलने के प्रयास में पूँछा।

           “तो..उन्होंने उस कहानी की सच्चाई के बारे में पूँछा..मैंने उन्हें कहानी के यथार्थ पक्ष के बारे में बताया..जो मन को झकझोरने वाली एक घटना थी..फिर आत्मश्लाघा में मैं उन्हें समझाने भी लगा कि कैसे अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग करते हुए मैंने इस कहानी को लिखा है..इस पर जानते हो उन्होंने क्या बोला...?” कहते हुए मित्र महोदय ने मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा..! और मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मेरी जिज्ञासा शान्त करते हुए फिर बोले..

          “कहानी के यथार्थ पक्ष और उसके कलात्मक पक्ष को सुनने के बाद श्रीमती जी कुछ देर तक तो मुझे मौन घूरती रहीं और फिर बोली कि हूँ....तो तुम इस कहानी के माध्यम से समाज को सन्देश देना चाहते हो...है न..? इसपर मैं भी कह बैठा...हाँ..हाँ तुमने सही पकड़ा...जानते हो इस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया रही..?”

          खैर, मित्र महोदय बोलते रहे-

          ‘पत्नी बोली...अच्छा..!! इतनी सीधी बात को इस तरह घुमा फिरा कर कहने की क्या जरुरत है..हाँ उनका इशारा मेरी कहानी की ओर था..उन्होंने कहा...अपनी बात सीधी तरह से भी तो कह सकते हो...लोगों पर इसका सीधा असर होता...! एक सीधी और सच्ची बात जब कहानी के रूप में कही जाएगी तो उसका यथार्थ गौण हो जाएगा...उसके कला-पक्ष की ही चर्चा अधिक होगी...जैसे शिल्प ऐसा है वैसा है आदि-आदि...समाज पर इस कहानी का क्या प्रभाव होगा सिवाय तुम्हारे थोड़ा चर्चित हो जाने के..! और फिर जानते हो उन्होंने क्या कहा...?”

             अपने इस लम्बे कथन के साथ मित्र ने मेरी ओर कातर भाव से देखा..लेकिन मैंने उनकी इस कातरता को नजरअंदाज करते हुए निष्ठुर-भाव से पूँछा, क्योंकि मुझे उनकी बातों में मजा आ रहा था-

             “आपकी पत्नी जी ने क्या कहा..?”

             “अरे यार उनको कहना क्या था जो उन्हें कहना था उसे उन्होंने कह ही दिया था लेकिन ऊपर से यह भी कह दिया कि कम से कम इसे कहीं छपने के लिए भेज दो ताकि कुछ पैसा मिले तो घर का खर्च भी चल जाए..!”

          मित्र की इस बात पर मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “भाभी जी ने मजाक किया होगा...छोड़ो इस बात को...हाँ, बात को सीधे ढंग से कहने की उनकी बात मुझे जम रही है...”

            “यही तो मेरी पीड़ा है तुम भी उन्हीं जैसी बात कर रहे हो...! ये बताओ, क्या यह कबीर का जमाना है...कि कोई अपनी बात सीधे और सपाट ढंग से कह दे..? वह पांच-छः सौ साल पुरानी बात है कि लोग सीधी और सपाट बातें सुन लेते थे..! आज कह कर देखो....! चौराहे पर खून बह जाएगा..! वह कबीर ही थे कि मुल्ला और पंडित दोनों की खिल्ली उड़ाई...आज किसी में है यह दम कहने और सुनने की..! और..कहते हो कि अपनी बात सीधे सपाट ढंग से कह दो..!” कहते हुए मित्र महोदय उत्तेजित हो चुके थे..!

            उनकी बात से मैंं थोड़ा शांत और चिंतन की मुद्रा में आ गया..लेकिन अगले ही पल मैं बोला, “यार बात तो ठीक ही कहते हो...हम कभी समझदार नहीं रहे..तभी तो कबीरदास जी ने कहा था...अरे इन दोऊ राह न पाई...अगर ऐसा होता तो छोटी-छोटी बातों मेंं किसी निर्दोष का खून न बहता..या फिर मात्र अपने विचारों के लिए
हम आपस में न लड़ रहे होते..!

             “अरे दोऊ नहीं भाई ! हम तो कहेंगे...कोऊ न राह पाई.. यार..! सब मरगिल्ले पागलों की भांति एक-दूसरे को मिटाने पर तुले हैं...तिस पर कोढ़ में खाज यह राजनीति...!!”

           इसी के साथ मित्र महोदय जैसे अपनी सारी व्यथा-कथा बयाँ कर चुके थे...मैंने उनके हलके होते मूड को भाँप लिया और कह बैठा,

            “यार आप की पत्नी जी समझती नहीं..आज के जमाने में कथन सीधे सपाट नहीं कलात्मक लहजे में ही होना चाहिए..आखिर..कहने वाले की सुरक्षा का भी तो प्रश्न है..!! लेकिन छपवाने की बात उन्होंने सही कही..क्योंकि घर चलाने के लिए पैसे भी तो चाहिए..कला बिकती है तो इसे बेंचने में क्या हर्ज...!! और समाज-वमाज भी अब व्यापारिक हो चला है, इसे व्यापारिक बातों से ही सुधरना है...सीधी सपाट बोली से नहीं..!!”

            यह सब बोल चुकने के बाद मैंने कहा, "यार, मुझे कुछ काम है अपनी वह अदरक वाली चाय पिलाओ तो चलें..." आजकल मित्र महोदय चाय बढ़िया बनाते हैं... चाय पीते हुए हम सब कुछ भूल चुके थे...