शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

भारत माता की जय...

             कस्बे में आयोजित प्राथमिक विद्यालयों में ड्रेस वितरण कार्यशाला और बच्चों के भव्य सम्मान समारोह (पता नहीं हो सकता है आतिथ्य के रूप में अधिकारियों के लिए ही सम्मान समारोह का आयोजन रहा हो..) में दीप प्रज्ज्वलित करने-कराने के बाद एक गाँव में भ्रमण के दौरान मुसहरों की बस्ती में स्थित प्राथमिक विद्यालय में संयोगवश पहुँचा...वहाँ किसी स्वयं सेवी संगठन की एक महिला सदस्या बच्चों को स्कूल आने के लिए प्रेरित करती हुई दिखी... बेहद गरीब मुसहरों के बच्चे उससे तादात्म्य स्थापित किये हुए थे..उस महिला ने बताया कि यहाँ एक ही शिक्षामित्र है..एक योग्य शिक्षक की और आवश्यकता है....
             मैंने नोटिस किया कि मेरे वहाँ पहुंचते ही उस महिला ने सारे बच्चों से "भारत माता की जय" का नारा लगवाना आरम्भ कर दिया...बच्चों को चुप कराते हुए मैंने उनसे बात किया..किसी तरह एक बच्चे से मैंने गिनती सुनी...आखिर में जब मैं लौटने लगा तो बच्चे फिर से समवेत स्वर में "भारत माता की जय" का नारा लगाने लगे थे...मैं आकास्मत बच्चों को लगभग डाटने के अंदाज में चुप करा दिया और उन बच्चों की ओर देखते हुए मेरे मुँह से निकला... "भारत माता की जय कहने से भारत माता का जय नहीं होगा...तुम लोग पढोगे तभी भारत माता की जय होगा.." पता नहीं ये बच्चे इसका अर्थ भी जानते होंगे या नहीं...हाँ मैं "भारत माता की जय सुनकर असहज हो जाता हूँ...इस नारे को मैं इस तरह पसंद नहीं करता...शायद यही कारण है कि बचपन से ही मैं इस आदत का शिकार हो गया हूँ कि इस नारे के समय मैं मौन हो जाता हूँ......

कम से कम अच्छे संस्कारों को निर्मित होने दें...

          आज दशहरा है...! और कल दो अक्टूबर था...! एक तरह से स्वच्छ भारत अभियान का श्रीगणेश....! और...ये दोनों दिन प्रत्येक वर्ष आते हैं…आते रहेंगे...! लेकिन...क्या फर्क पड़ता है...कुछ तो लोग कहेंगे..उनका काम है कहना...पुनः लेकिन..! फिर भी प्रतीकात्मक ही सही इन दोनों दिवसों का अपना महत्व तो है ही....
           
       "अहिंसा परमो धर्मः"
       
        एक कार्ड-बोर्ड पर करीने से उकेरा गया यह वाक्य गाँव के कच्चे घर की कोठरी के दीवालों पर टंगा होता था..! निहायत छोटा था...! सुबह-सुबह सूर्य की पड़ती किरणों में मैं रोज ही उसे देखा करता...! कई वर्षों तक मैं अबोध..! उसका अर्थ ही नहीं समझ पाया था..! फिर..एक दिन मैंने माँ से इसका अर्थ पूँछा था..मेरी माँ ने बताया था.. "बेटा..! इसका मतलब होता है किसी भी जीव-जंतु को मत मारो और किसी आदमी को कष्ट मत दो..और हाँ झूठ भी मत बोलो..." फिर कुछ-कुछ उसका अर्थ समझ में आने लगा था..उसके बाद भी कई वर्षो तक एक बालक के रूप में मैं देखता रहा था...

           संयोग से मेरी माँ शिक्षिका भी थी..शायद तब मैं पाचवीं या छठी कक्षा में रहा होऊँगा माँ के संदूक से एक किताब निकल कर मैंने बड़े चाव से उसी समय पढ़ी थी..किताब थी.. "महात्मा गांधी की जीवनी" अब "अहिंसा परमो धर्मः" का मतलब मेरे लिए एक-दम साफ हो चुका था..!
   
     फिर मेरे दादा जी...! बचपन से ही मैं उनसे यह सुनते आया था....
   
                   जो तोको काँटा बोवै, ताहि बोव तू फूल
                   तोको फूल को फूल है वाको है तिरशूल
हाँ..दादा जी से इसका अर्थ भी जान गया था..।
   
         फिर...दादा जी गाँव से कुछ दूर पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले दशहरे के मेले में मुझे ले जाया करते थे ..! शाम के धुंधलके..में जलते रावण को उनकी उँगली पकड़ कर मैं कौतूहल से देखा करता..! दादा जी समझाते.."रावण जल रहा है क्योंकि वह बुरा था..!" बाद में धीरे-धीरे बात समझ में आने लगी थी...!
     
          इन घटनाओं से मैं कितना सीखा..यह बताना पाखंड हो सकता है...लेकिन इतना मैं स्वयं समझ सकता हूँ...एक संस्कार निर्मित तो हुआ ही..! मैं मानता हूँ कि हर चीज का अपना महत्त्व है...हम बड़े उम्र के लोगों लिए हो सकता है ये सब दिखावे या फोटो-बाजी की चीजे हों लेकिन...उन अबोध बालकों के लिए जो इन चीजों को देख रहे हैं इन सबसे उनमें अच्छे संस्कारों का श्रीगणेश भी हो सकता है...!
          और..! चलते-चलते..एक बात बता दें मृत्युशैया पर पड़े रावण से भी सीख या कहे उपदेश प्राप्त करने के लिए लक्ष्मण को श्री राम ने उसके पास भेजा था...!
          आइए...! किसी भी बौद्धिक-पूर्वाग्रह से मुक्त होकर हर अच्छी चीजों को आज की जटिल होती दिनचर्या में स्वीकार करे....