शनिवार, 31 जनवरी 2015

पत्रकार का धर्म, प्रचारक का नहीं होता...

       मेरे एक मित्र हैं कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं....मैं उन्हें कभी-कभी पत्रकार मानने की भूल भी कर बैठता हूँ, आज मिलने पर मुझे उनके मुखमंडल पर कुछ-कुछ प्रसन्नता जैसी तिरती हुई महसूस हुई...जो उन्हें शायद स्वयं की लेखनी के प्रति था, मैंने जब इसका कारण पूँछा तो उनका उत्तर इस प्रकार था,
        “देखो यार तुम तो जानते ही हो मैं अन्दर से तथाकथित दक्षिणपंथी राजनीति का समर्थक हूँ और वह भी अपनी कुछ निजी मान्यताओं के कारण...! लेकिन मेरे लिखे को पढ़कर लोग मुझे वामपंथी विचारधारा से मिलते-जुलते विचारों को मानने वाला घोषित किए दे रहे हैं, लेकिन मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि लोगों के ऐसा कहने पर यह तो सिद्ध हो ही रहा है कि चीजों के विश्लेषण के क्रम में मैं अपने निजी विचारों को परे रखकर निष्पक्ष रहा हूँ..!” फिर उन्होंने यह कहते ही तत्काल आगे और जोड़ा, “और मेरी तरह बेचारे अन्य भी होंगे जो हो सकता है वामपंथी हो, लेकिन लोग उन्हें दक्षिणपंथी मान रहे हों..हाँ नाहक ही हम गाली भी खाते होंगे...लेकिन...फिर भी मजा आता है..!”

       मित्र का यह लम्बा उद्बोधन सुन मेरे मुँह से अचानक निकला, “तो...तुम असली पत्रकार हो..! और...अपने विचारों के प्रचारक नहीं हो...सच भी है यार...! पत्रकार का धर्म प्रचारक का नहीं होता। "

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

खोए गणतन्त्र का गौरव गान....

             एक के बाद एक कतार में..., साहब..! हमार नाली नाहीं बनइ देत हैं..., हमार पेड़ कट लिए..., हम गरीब हैं हमका राशनकार्ड नाहीं मिला..., हमार राशन-कार्ड काट दिहेन..., हमें मनरेगा में काम नहीं मिला..., हमरे जमीन पर कब्जा कर लिए है..., हमका आवास चाहे..., साहब हमका मरा देखाई दिहेन..., जमीन हड़प लिए..., हमका मारेन हैं..., साहब समस्यई-समस्या है..., हाँ...यही सब तो सुनने को मिलता है...राज्य-दिवसों में..!
        और साहबों की समस्या क्या है..? वह यह कि लोगों की इन समस्याओं का निदान होना चाहिए...लेकिन जैसा कि एक साहब के शब्दों में.. “समस्याओं का हल होना तो जरुरी है लेकिन हमारे अस्तित्व के लिए कुछ न कुछ समस्याओं का बना रहना भी जरुरी है...” सही बात है...समस्याओं के इस खेल में रोजी-रोटी भी छिपी हुई है...नहीं तो...बिन समस्याओं के हम भूंखे रह जायेंगे...बेरोजगार हो जाएंगे...! और यह राज्य-व्यवस्था...! हाँ...यह भी तो इस समस्या के खेल की ही उपज है...न हम समस्या उत्पन्न करते..न इसके नियमन की और न राज्य की...जरुरत पड़ती...फिर सबका खेल ठप होता...
        अंग्रेजों से लड़ाई...स्वाधीनता....और फिर....हमारा यह गणतन्त्र...! मतलब हमारी समस्या से दूसरे क्यों खेलें...? फिर तो इसे खेलने के लिए हम ही पर्याप्त हैं...समस्याओं की छीना-झपटी...चलो हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन हमें समस्याओं के साम्राज्यवाद से समस्याओं के राज्य-वाद पर आकर टिका दिया...एक साम्राज्यवादी तत्व से छीन कर हम अपनी समस्याएं निकाल लाए...और...अब समस्याएं केवल हमारी थी...लेकिन फिर भी ये बनी रहीं..! अब आया गणतंत्र का राज्य-वाद...! क्या इस अवधारणा को बनाए रखना होगा...और...यह गणतंत्र हमारा...क्या समस्याओं के नियमन की व्यवस्था भर है...?
       तो...क्या व्यक्ति व्यपहरित है...? किसके द्वारा...? क्या साम्राज्यवादियों द्वारा...? क्योंकि समस्याओं की कतार बनी हुई है...समस्याओं से रोजी रोटी है...समस्याओं का महत्त्व है...इसका अंत नहीं होना है...फिर तो...इन समस्याओं ने ही व्यक्ति को व्यपहरित कर लिया है...मतलब राज्य ने व्यक्ति को व्यपहरित किया है...क्योंकि समस्याओं से राज्य..! नहीं...नहीं...व्यक्ति से उसका राज्य चूस लिया गया है...अब तुम व्यक्ति भी नहीं रह गए हो...बस मात्र समस्या भर हो...क्या यही राज्य-व्यपहरण का सिद्धांत है...? या हम मान लें अब हम साम्राज्यवादी होते जा रहे हैं..,व्यक्ति से उसका राज्य छीनते जा रहे है...और...साम्राज्यवादियों से हर तरफ से अतिक्रमित यह व्यक्ति समस्या भर है...साहब भी साम्राज्यवादी और उनसे भी बड़े तमाम तरह के साम्राज्यवादी...! फिर गणतंत्र काहे का....किस राज्य के लिए...! 
        क्या हमने गणतंत्र को इसीलिए हासिल किया था की साम्राज्यवादी-समस्या से छुटकारा पा जाएँ...और...राज्यवादी-समस्या बना उसका नियमन अपने हाथ में कर ले बस..!! और यह कतार अब भी हमारे लिए यूँ ही बनी रहे..? फिर वह आजादी...और...लालकिले का गणतंत्र...! ये सब इन्हीं समस्याओं में साम्राज्यवादियों के चंगुल में खो से गए है...!
        वास्तव में....व्यक्ति..! तुम अपने राज्य के नियम-विधायक सदस्य नहीं हो..., मान लो..! तुम व्यपहरित हो समस्याओं से.., किसी रोजी-रोटी वाले साम्राज्यवाद से...!! क्योंकि उनके जाने के बाद इस राज्य ने अपने साम्राज्यवादी पैदा कर लिए हैं...! तुम्हें तो स्वयं राज्य होना था...जिसके तुम स्वयं ही नियम विधायक सदस्य बनते...तुम खुद अपना गणतंत्र होते...!! लेकिन हुआ क्या तुम्हारा स्वराज तो दूसरे के साम्राज्य में खो गया...और...खोने का यह खेल बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि अब साम्राज्यवादी पैदा हो रहे है...कतार दर कतार...साम्राज्यवादी..! चलो किसी दिन यह कह कर हम चैन की बंसी बजा लेंगे देखो...हमारे यहाँ साम्राज्यवादियों की संख्या बढ़ गयी है हमारा उद्देश्य पूरा हुआ..हम प्रगति किए...गणतंत्र तो इस प्रगति में बाधक होता...!
         लेकिन हमारी तो रोजी-रोटी चलती रहेगी हमारे अपने साम्राज्य में.., और तुम.., तुम्हारा तो राज्य ही खो गया है तुम्हारी इन समस्याओं की कतार में.., जाओं अपना राज्य और अपना गणतन्त्र खोजो...छब्बीस जनवरी के दिन शायद झंडा फहराना हो..., लेकिन वह झंडा भी तुम नहीं फहरा पाओगे..वह गर्वाधिकार हमारे पास सुरक्षित है...क्योंकि तुम राज्य विहीन हो...!
         हाँ तुम्हारे हिस्से तुम्हारा वह कागज का टुकड़ा, जिसे तुम समस्याओं की कतार में से निकल कर हमें पकड़ा रहे थे...और मैं गर्वित अपने साम्राज्य के ऊंचे पायदान से तुम्हें फटेहाल अर्धविक्षिप्त समझ.., तुमसे उस कागज के टुकड़े को थाम लिया था..., उत्सुकतावश उस मुड़े-तुड़े कागज को जब खोला तो यह लिखा मिला जो शायद तुम्हारे द्वारा ही लिखा गया होगा...पढ़ा....
         “सामने से जो चिड़िया गुजरती है
         भारत माता की जय,जय वह भी कहती है
         समाज देश में
         देश संसार में
         और ऐ देशवासियों
         कोशिश करो
         राष्ट्रहित से भिन्न
         कोई काम न हो
राष्ट्रकवि - ********” (इन स्वघोषित राष्ट्रकवि का नाम न दे पाने के लिए क्षमाप्रार्थी क्योंकि मैंने उन्हें फटेहाल अर्ध-विक्षिप्त कहा है, अवमानना का दोषी बन सकता हूँ)   

            अब मैं समझ गया था तुम्हारे इस फटेहालपने का कारण..., पता नहीं तुम किस मन के अधिनायक हो...! जाओ समस्या के राज्य-वाद के विधाता बन लुटे-पिटे अपने भाग्य पर इतराओ..., यह झंडा तो हम साहबों के हाथ से ही फहरेगा...और तुम राष्ट्रकवि बन...झंडे को सलामी दे अपने खोए गणतन्त्र का यह गौरव-गान गुनगुनाओ...तुम्हारा राष्ट्रहित इसी में..., बेशक...! यही तुम्हारे हिल्ले...भारत माता की जय....       

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

क्या भारतीय ज्ञान पद्धति गँवई है...?

            “हमारा पंचांग विज्ञान से कम नहीं”- गृहमंत्री भारत सरकार। लेकिन कुछ लोगों ने गृहमंत्री के इस बयान की खिल्ली उड़ाई तथा एक प्रकार से उनके इस कथन को पोंगापंथी के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। 
           मेरे दादा पञ्चांग रखते थे...और वह पञ्चांग हिंदी माह के प्रारम्भ होने के पहले ही खरीद लिया करते थे...हालांकि वह पञ्चांग पंडिताई करने या ज्योतिष शाश्त्र में विश्वास रखने के कारण नहीं खरीदते थे, और न ही इन पर विश्वास करते हुए मैंने उन्हें देखा था...हाँ गाहे-बगाहे परिवार के सदस्य उनसे किसी ब्रत की तिथि, सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण या फिर आवश्यकता पड़ने पर कभी-कभी सूर्योदय या सूर्यास्त का समय तथा चन्द्र-दर्शन की अवधि या फिर किसी शुभ मुहूर्त आदि के बारे जानकारी प्राप्त करते रहते थे या फिर वे स्वयं इस पञ्चांग से अपने एकादशी ब्रत की जानकारी कर लिया करते थे..। एक बार मैंने उनसे पूँछा था कि समय की इतनी सटीक गणना इसमें कैसे की गई है तो उन्होंने बताया था कि पंडितजन (विद्वत्जन) नक्षत्रों की चाल को भांप कर समय की गणना कर लेते हैं..। वास्तव में पञ्चांग की काल गणनाएं एकदम सही होती। हाँ इस पञ्चांग में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति या राशिफल के आधार पर की गयी भाग्यफल जैसी भविष्यवाणियों पर मैंने कभी विश्वास नहीं किया। यदि इन भविष्यवाणियों के अनुरूप कुछ घटनाएं घटित भी हुई तो मैंने उन घटनाओं को उन्हें उनके घटने की संभाव्यता के आधार पर ही माना।             
         निश्चित रूप से पञ्चांग भारतीय पद्धति में काल-गणना है, इसमें भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल-गणना होती है, जिसमें दिन, तिथिवार समय की गणना होती है जिसके आधार पर कुछ खगोलीय घटनाओं की भविष्यवाणी भी की गयी होती है जो एकदम सटीक होती है। मैं उस समय आश्चर्य में पड़ जाता था कि बिना किसी आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों के हमारे पंडित जनों के लिए यह गणना कैसे संभव होता है तथा यह काल-गणना आधुनिक विज्ञान की भविष्यवाणियों से भी मेल खाती है। कुछ प्रबुद्धजनों द्वारा इस भारतीय ज्ञान पद्धति की खिल्ली उड़ाना समझ के परे है। यह खिल्ली एक अमेरिकी अखबार में छपे उस कार्टून के सामान ही है जिसमें मंगल-यान की सफलता पर विश्व के तीन देशों के ग्रुप में शामिल होने की घटना को पगड़ी और धोती पहने तथा बैल का पगहा पकड़े हमारे प्रधानमन्त्री को इस एलीट ग्रुप के दरवाजे पर दस्तक देते हुए दिखाया गया था। 
           वास्तव में आज देखा जाए तो विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्माण्ड की जो अवधारणा है वह एक तरह से रूपकों में हमारे पुराणों में बहुत पहले से ही व्यक्त है। बचपन में ही पुराणों में तीन सर्वोपरि देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ महाविष्णु की भी कल्पना की गयी है, जो पुराणों में ईश्वर के विराट स्वरुप का वर्णन करती है। मैंने बचपन में पुराणों में यह भी पढ़ा था कि महा-विष्णु स्वयं अपने आदि-अंत के बारे में भी नहीं जानते और ये विश्व-रूप हैं। हालांकि बचपन में पढ़ी विष्णु और महाविष्णु की इस अवधारणा से मैं कन्फ्यूज सा हो जाता तो दादा जी से पूंछता, फिर वे बताते कि विष्णु ही स्वयं में महाविष्णु हैं...हाँ यह भगवान का विराट रूप है, इसमें यह पूरा विश्व या ब्रहमांड समाया हुआ है बल्कि यह उसके भी पार तक जाता है, इसीलिए भगवान् भी अपनी सीमा को नहीं जान पाते...। मैं सुनकर बड़े पशोपेश में पड़ जाता, लेकिन चीजें धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगी..!
            वास्तव में पुराणों में रूपक के माध्यम से ब्रह्माण्ड के बारे में दिया गया यह ज्ञान ही तो है जिसे आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है, फिर भारतीय ज्ञान-पद्धति की इस तरह से खिल्ली उड़ाना समझ में नहीं आता...। हाँ हमें किसी अतिरंजना से बचना चाहिए लेकिन चीजों को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। क्या कोई पश्चिमी देश हमारे इस ज्ञान के महत्त्व को रेखांकित करे तभी हम इसे स्वीकार करे..? 
          वास्तव में सड़क पर पड़ा हुआ पैरों के तले रौंदा जा रहा कागज़ का वह टुकड़ा भी जिसमें कुछ लिखा हो ज्ञानार्जन के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है...! 

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

राष्ट्रीय न्यायिक आयोग अधिनियम

         एक अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर मैंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम २०१४  के सम्बन्ध में पढ़ा जो संविधान संशोधन १२१ के माध्यम से पारित किया गया। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 में संशोधन किए गए। उक्त संविधान संशोधनों के द्वारा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के नियुक्ति के प्रावधान हैं। इस आयोग में छह सदस्य होंगे- भारत के प्रधान न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ जज, केन्द्रीय विधि व न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति। इनका चयन प्रधान न्यायाधीश, प्रधान मंत्री एवं लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता की एक समिति करेगी। सुधांशु रंजन के लेख में उपरोक्त जानकारी देते हुए अदालत में इस अधिनियम के विरोध में दायर याचिका, जिनमें कहा गया है कि इससे न्याय पालिका की स्वायत्तता पर आघात पहुँचेगा, की चर्चा करते हुए कुछ प्रश्न भी उठाये हैं। लेख के अंत में लेखक ने अपने विचार दिए है कि सरकार को आयोग में दो विशिष्ट व्यक्तियों में कम से कम एक सिविल सोसायटी से लेना चाहिए। लेकिन निम्नलिखित प्रश्न लेखक ने नहीं उठाए। 
       प्रश्न यह नहीं है कि यह आयोग कैसे काम करेगा या इससे न्यायपालिका की स्वायत्तता  पर आघात पंहुचेगा या नहीं। मेरे लिए प्रश्न यही है कि इस अधिनियम में आयोग के लिए दो प्रतिष्ठित सदस्यों के चयन की जो व्यवस्था है कहीं वह संविधान के मूल ढाचे के विरुद्ध तो नहीं है, जिसके कारण न्यायपालिका की स्वायत्तता पर चोट पहुँच सकती है, क्योंकि संविधान के अनुसार संवैधानिक संस्थाओं में पदाभिहित व्यक्ति ही अपने पद की सीमाओं में विशेषाधिकार संपन्न या विशिष्ट व्यक्ति माने जाते हैं तथा भारत के शेष अन्य सामान्य नागरिक उन्हें संविधान प्रदत्त समानता संबंधी संवैधानिक मूलाधिकार प्राप्त है। तो फिर प्रश्न यही है कि क्या संविधानेतर किसी भी व्यक्ति को विशिष्ट या प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जा सकता है? यदि हम ऐसा मानते हैं तो क्या यह संविधान प्रदत्त नागरिकों के समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं है? और यदि ऐसा है तो स्वयं में यह आयोग ही संविधान की मूलभावना के विरुद्ध है तथा न्यायपालिका की स्वायत्तता का भी अतिक्रमण करेगा। 
           चलिए हम यदि यह भी मान लें कि सिविल सोसायटी से विशिष्ट व्यक्तियों का चयन कर लें तो फिर वही प्रश्न उठता है कि आखिर क्या सिविल सोसायटी कोई संवैधानिक संस्था है? अन्ना का आंदोलन भी तो सिविल सोसायटी का आंदोलन माना गया था, लेकिन एक एक कर उसके सदस्य राजनीतिक दलों के सदस्य बनते गए। यदि ऐसे लोग विशिष्ट माने जाएँ तो भी इनकी निष्पक्षता की क्या गारंटी होगी? मानते हैं कि संविधान में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तियों को राज्य सभा में सदस्य नामित किये जाने का प्रावधान है लेकिन वह दूसरे अर्थों में है। उसकी तुलना हम इस आयोग के सदस्यों से नहीं कर सकते। इन सब बातों पर ध्यान देने की जरुरत है।     


              

बुधवार, 14 जनवरी 2015

गोडसे तो हत्यारा था.....

           गोडसे और गाँधी दोनों की कोई तुलना नहीं है, लेकिन बचपन से ही यह सुनता आ रहा हूँ, “अरे.…ऊ गोडसवा बेचारा देश-भक्त रहा..इही बदे गांधी के मारे रहा...ऊ गंधिया न..पाकिस्तान क रुपिया देवावई के चक्कर में पड़ा रहा..” हाँ..अकसर यह चर्चा जाड़े में कौड़ा(अलाव) के चारों और आग ताप रहे होते परिवार के बड़े लोगों के मुख से सुना करता था। संयोग से उन्हीं दिनों माँ के बक्से से निकाल कर गांधी जी की जीवनी भी पढ़ लिया था। लेकिन उन लोगों के सामने इतना छोटा था कि इस चर्चा में भाग लेने लायक नहीं समझा जाता। हाँ....गांधी जी की उस जीवनी का यह प्रभाव ही था कि उस वार्ता का मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 
           आज सोचता हूँ...मैंने तो गांधी जी की जीवनी पढ़ ली थी और उस वार्ता का प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ा।  लेकिन यह निश्चित है कि कौड़े के चारों ओर आग तापते परिवार के वे बड़े सदस्य भी गोडसे की देशभक्ति सिद्ध करने वाला कोई आलेख नहीं पढ़े रहे होंगे फिर भी कहीं से उनके दिमाग में यह बैठाया गया होगा कि गोडसे इस कारण देशभक्त था और किसी न किसी प्रचार के वह शिकार बने थे...! एक बात है हमारे समाज में कई बातों का इस प्रकार प्रचार किया जाता है कि साधारण जन उन बातों को ही सत्य मानकर अपने विचार बनाने लगते हैं। 
         गोडसे ने गांधी जी को जिस भी कारण से मारा हो लेकिन एक बात तय है कि वह हत्यारा था। गांधी...! वह स्वतंत्रता आन्दोलन की शांतिप्रिय राजनीतिक धारा के खेवनहार होने के साथ ही मानवता के संवाहक भी थे..! पाकिस्तान के सन्दर्भ में उनका जो भी निर्णय रहा हो वह इसी कारण रहा होगा...और....वह इसीलिए गांधी भी थे। 
       गोडसे...! जब उसे कुछ करने की आजादी मिली तो उसने अपने एक संकीर्ण सोच के कारण गांधी जी की हत्या कर डाली। उसका यह अपराध भविष्य के भारत और उसके संविधान के प्रति भी था जिसमें उसकी जैसी सोच का...किसी तरह का कोई...अंगीकरण नहीं था। इस कारण वह विशुद्ध देशद्रोही और अपराधी भी सिद्ध होता है...! यदि उसे आतंकवादी भी माने तो किसके लिए...? एक आतंकवादी समझने पर इस भाव में दबे पैर आने वाले उसके महिमामंडन के भाव को भी समझना आवश्यक है क्योंकि आज ‘आतंकवादी’ शब्द किसी के ऐसे कृत्य को किसी के द्वारा महिमामंडन का अवसर प्रदान करता है..! यह महिमामंडन भी किसके लिए...? गोडसे तो हत्यारा है..विशुद्ध देशद्रोही हत्यारा...! एक क्षण के लिए माने तो आतंकवादी हत्यारा नहीं भी हो सकता है लेकिन सभी हत्यारे अपने में क्रूर आतंकवादी होते हैं क्योंकि वे अपनी किसी धारणा के कारण ही हत्या जैसे जघन्य कृत्य के लिए प्रेरित होते हैं, गोडसे हत्यारा है।   
        यदि हम गोडसे को महिमामंडित करते हैं तो फ़्रांस की पत्रिका शार्ली हेब्दो के अपराधियों को भी महिमामंडित करने की अनुमति देना होगा। फिर तो एक श्रृंखला चल पड़ेगी...! आज समस्या यही है कि ऐसे प्रचार प्रभावी क्यों होते जा रहे हैं? क्या हम सांस्कारिक कमजोरी की ओर बढ़ रहे है...? फिर तो ऐसे और इस जैसे ही अन्य प्रचार से भी सावधान रहना होगा जहाँ गोडसे और ऐसे लोग महिमामंडित हो रहे हों...! देशभक्त बने लेकिन इसके प्रचारक नहीं...अन्यथा धीरे-धीरे हम संविधान विरोधी होते जाएंगे। संविधान के रखवालों को भी इस पर सजग रहना होगा...!        

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

ये तर्क-विहीन बेशर्म वितंडावादी..!

          तथाकथित नया वर्ष २०१५ का आज पहला दिन है, आज किसी तरह की बौद्धिक चर्चा रुचिकर नहीं हो सकती और खासकर धर्म जैसे विषय को लेकर| इसे पोस्ट करते हुए मुझे दुःख भी है | लेकिन एक मासूम सा प्रश्न सामने उसी मासूमियत से आया, “क्या वाकई देश किसी एक मज़हब (हिन्दू) वालों का हो जाएगा..? आखिर हम भी तो भारतीय हैं, तो फिर यह घर वापसी जैसी बात क्यों हो रही है...या लव जिहाद का डंका पीटकर गाली क्यों दी जा रही है...आखिर हम भी तो देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार हैं...फिर यह अपमान क्यों..?” बताने की आवश्यकता नहीं ये वाक्य हमारे ही देशवासी या एक भारतीय मुसलमान की थी और ऐसे ही प्रश्न अन्य सीधे-साधे भारतीय मुसलामानों के भी हो सकते है| यह प्रश्न मन को हिलानेवाला था और फिल्म पी.के. का गुंडों के माध्यम से किया जा रहा विरोध भी मन को गुस्से से भर दिया इसीलिए इस पोस्ट को लिखने से अपने को रोक नहीं पाया|
          मैं हिन्दू हूँ..इसकी परिभाषा मैं आज तक नहीं जान पाया कि मैं हिन्दू क्यों हूँ..? हिन्दू किसे कहते हैं..? इस प्रश्न के चिंतन से निम्न उत्तर मुझे प्राप्त हुए हैं..

१. क्योंकि मैं ईश्वर को मानता हूँ।
२. क्योंकि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ।
३. क्योंकि मैं मूर्तिपूजक हूँ।
४. क्योंकि मैं मूर्तिपूजक नहीं हूँ।
५. क्योंकि मैं निराकार ब्रह्म का उपासक हूँ।
६. क्योंकि मैं वैष्णव हूँ।
७. क्योंकि मैं शाक्त हूँ।
८. क्योंकि मेरे भगवान् विष्णु है।
९. क्योंकि मैं तो केवल शंकर भगवन को ही मानता हूँ।
१०. क्योंकि मैं तो देवी का उपासक हूँ।
११. क्योंकि मैं तो केवल अपने वाले ही भगवन को मानता हूँ।
१२. क्योंकि मैं तैतीस करोड़ देवताओं को मानता हूँ।
१३. क्योंकि मैं केवल गृहस्थ आश्रम में ही विश्वास करता हूँ।
१४. क्योंकि मैं सन्यासी हूँ या केवल सन्यास आश्रम में ही विश्वास करता हूँ।
१५. क्योंकि मैं गुरु मानता हूँ।
१६. क्योंकि मैं गुरु नहीं मानता।
१७. क्योंकि मैं इनमें से किसी पर विश्वास नहीं करता केवल चार्वाक वादी हूँ, केवल सुखवादी हूँ।
१८. क्योंकि मैं केवल शाकाहारी हूँ।
१९. क्योंकि मैं मांसाहारी हूँ।
२०. क्योंकि मैं पगड़ी पहनता हूँ।
२१. क्योंकि मैं पगड़ी नहीं पहनता।
२२. क्योंकि हम कुरता-धोती पहनते है।
२३. क्योंकि हम कुरता-धोती नहीं पहनते।
२४. क्योंकि हम पैंट-शर्ट पहनते है।
२५. क्योंकि हम पायजामा पहनते है।
२६. क्योंकि हम पेड़ों को भी पूजते हैं।
२७. क्योंकि पेड़ों को काटते हैं।
२८. क्योंकि हम शव चिता में जलाते हैं।
२९. क्योंकि हम शव को जमीन में भी दफ़न करते है।
३० .क्योंकि हम ऊँची जाति के हैं।
३१. क्योंकि हम नीची जाति के हैं।
३२. क्योंकि हम जाति मानते है, जाति नहीं भी मानते।
३३. क्योंकि मैं इसे भी मान सकता हूँ, इसे नहीं मान सकता, इसे मान सकता हूँ नहीं भी मान सकता..इसे न मान सकता हूँ और न न मान सकता हूँ। 
       
       ऐसे ही अभी अनगिनत उत्तर शेष हैं..! यदि इन उत्तरों में से कोई एक ही हम माने और शेष को न माने या सभी उत्तरों को एक साथ माने तो भी हम हिन्दू है। इन उत्तरों से सिद्ध है कि हमारे तमाम घर हैं, इनमें से किसी एक घर में रहने पर भी हम हिन्दू माने जा सकते हैं, तब आखिर किस घर में वापसी की बात की जा रही है..?
   
         तो फिर..अपने को हिन्दू कहने वाले किसके लिए वितंडावाद खड़ा कर रहे है...घर वापसी की बात भी कर रहे हैं। ये बेशर्म वितंडावादी भारतीयता का विरोध कर रहे हैं और एक सीधे-साधे मुसलमान के सामने इनके कृत्यों से यदि अपनी पहचान को लेकर कोई प्रश्न खड़ा होता है तो ये तर्क-विहीन वितंडावादी देशद्रोही है|