रविवार, 29 मार्च 2015

दिमाग का स्क्रू ढीला होना कोई बुरी बात नहीं है....!!

            उस दिन श्रीमती जी से मैं अपने परिवार से पाए संस्कारों का डींग हाँके जा रहा था.. “देखो न मेरे दादा जी.., माता-पिता ने मुझे कितने अच्छे संस्कार दिए हैं कि जीवन के तमाम झंझावातों से टकराते-टकराते और अपने विचारों से कोई विशेष समझौता किए बिना आगे बढ़ा जा रहा हूँ..!” श्रीमती जी ने उस समय एक स्थिर और गहरी दृष्टि मुझ पर डाली और बोली, “एक बात कहूँ...?” तत्क्षण मैंने अपने डिग्रियों के लगभग गर्वोन्मत्त भाव से कहा, “हाँ..हाँ..कहो..कहो..क्या कहना चाहती हो...” श्रीमती जी ने लगभग धीमें एवं शान्त स्वर में मुझसे बोली, “तुम्हारा दिमाग नट-बोल्ट से बहुत ज्यादा कस दिया गया है..!” श्रीमती जी ने अपने इस कथन को मेरे लिए बहुत ही नकारात्मकता के अंदाज में कहा था...मैं सोचने लगा अगर उनके लिए ऐसी ही बात है तो उन्हें कहना चाहिए था कि ‘तुम्हारे दिमाग के स्क्रू बहुत ढीले हैं..” क्योंकि नासमझी की परिभाषा अभी तक तो मैं यही सुनते आया हूँ...अब दिमाग का नट-बोल्ट से कसे होने की नई परिभाषा कहाँ से आ गयी...!

       श्रीमती जी द्वारा दिमाग की दी गयी इस नई परिभाषा को समझने के उधेड़बुन में मैं फंस गया..! समझ में न आने पर मैंने श्रीमती जी से ही अपने दिमाग की इस कमजोरी को छिपाने की कोशिश करते हुए पूँछा, “आखिर तुम्हारे कहने का मतलब क्या है..?”
       अब श्रीमती जी ने मेरी ओर मुस्कुराते हुए देखा, और बोली, “देखो तुम समझने की कोशिश करोगे तभी समझ पाओगे..!” मैं भी पति होने के अंदाज में आ गया और कहा, “पहेली मत बुझाओ मुझसे साफ़-साफ़ बात करो..” यह सुन श्रीमती जी थोड़ा गंभीर सी हो गयी और मुझसे बोली,
       “जब हम छोटे थे न तब भईया..चाचा..आदि जैसे परिवार के बड़े लोग हम बहनों को घर आए किसी नए मेहमान के सामने नहीं निकलने देते थे यहाँ तक कि गाँव में भी किसी के यहाँ कोई बारात आदि जैसे अवसरों पर भी हम लोगों का वहाँ जाना पसंद नहीं करते थे..और तो और जब मैं चौदह-पंद्रह साल की रही होउंगी तभी माँ ने हमें साड़ी पहनाना शुरू कर दिया था तथा कहीं निकलने पर माँ कहती ‘सर पर पल्लू रख लो..’ जरा सोचो...!! अगर हम वही सब पकड़ कर आज तक चल रही होती तो तुम जैसे व्यक्ति के साथ इतने बड़े शहर में बच्चों को लिए अकेले न रह पाते क्योंकि तुम अपने तरीके से अपनी नौकरी में ही व्यस्त रहते हो...!” मुझे यह सुनाते हुए श्रीमती जी मौन हो गयीं...और इधर मेरे लिए भी अब समझने के लिए कुछ बाकी नहीं रह गया था..
       ....मैं चुपचाप सोफे पर पसर टी.वी. देखने लगा था... ‘आप’ में चल रहे जबर्दस्त अंतर्कलह का सजीव प्रसारण चल रहा था...मुझे श्रीमती जी की कही बात याद हो आई...ये बेचारे प्रशांत भूषण...योगेन्द्र यादव...आनंद कुमार जैसे लोग अपने दिमाग को नट-बोल्ट से ज्यादा कस लिए हैं...जबकि देखो न केजरीवाल भी तो उन्हीं के रास्ते के खिलाड़ी थे...! लेकिन उनने अपने दिमाग के पेंच ढीले कर लिए हैं...मतलब साफ़ है..दिमाग का स्क्रू ढीला होना कोई बुरी बात नहीं है....!! 
          अंत में....जीवन में हमें एक विवेकपूर्ण स्पेस लेकर चलना चाहिए...