गुरुवार, 21 मई 2015

इस 'मीडियापे' में 'मूंदहु आँख' लुभाता है...

       ‘मुदाहूँ आँख कतऊँ कछु नाहीं’ हाँ यही तो लग रहा है अब, क्योंकि इधर कई दिनों से टी.वी. देखना जो बंद हो गया है...! नहीं तो टी.वी. पर रात-दिन चलते वही न्यूज-चैनल देख-देख, ऐसा लगता जैसे देश में समस्याओं-घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है, उथल-पुथल मचा हुआ है..! और तो और इन समाचार चैनलों पर चलते बहस-मुबाहिसों को देख-सुनकर ऐसा प्रतीत होता जैसे देश का अब बंटाधार हुआ या तब, या फिर हमारा यह देश अब फिर से सोने की चिड़िया बन बस फुर्र से उड़ने ही वाला है तथा लोग इसकी टांग खिचाई इसलिए कर रहे हैं कि उड़ने से इस चिड़िया के हाथ से निकल जाने का भय है..! अब इस टांग खिचाई और ऐसे ही अन्य समाचारों को देख-सुन इसके सही गलत में उलझा यह मन दुःख का कारण बन जाता है, लेकिन इन दिनों टी.वी. न्यूज़-चैनलों से दूर रहने के कारण बहुत शान्ति की अनुभूति हो रहीं है, जैसे किसी बोधिसत्व प्राप्ति की दिशा में कदम बढ़ा दिया हो..मतलब समाचार-जनित तमाम दुखों-उलझनों से मुक्ति की ओर..!
           कुछ भाई लोग कहेंगे..आँख बंद कर लेने से, समस्याओं का अंत थोड़ी न होता है,यह तो निरा पलायनवाद है...! लेकिन मेरे भाई यहाँ समझने की बात है, घटनाओं समस्याओं और हमारे लिए दुख का कारण बनने वाले इन समाचारों का न्यूज़-चैनलों द्वारा प्रस्तुतिकरण इन दुखों को बढ़ाता हुआ ही प्रतीत होता है, विज्ञापन और समाचार में विभेद करना मुश्किल हो जाता है..समाचार, समाचार के लिए नहीं होता और हर समाचार के प्रसारण के पीछे जैसे कोई निहितार्थ छिपा होता है...समाचार चैनलों पर दुखद घटनाएं भी विज्ञापन जैसी प्रतीत होती हैं...एकदम उत्तेजनात्मक..!! ऐसे में इनसे बचना भी जरुरी हो जाता है क्योंकि व्यर्थ की उत्तेजना परिणाममूलक नहीं होती बल्कि पागलपन की ही निशानी होती है...

           मन में एक छोटा सा उदाहरण गूँजने लगा है...कोई बालीवुड का एक्टर धमाके के साथ टी.वी. स्क्रीन पर उभरता है उसकी गाथा, उसके हीरोगीरी को इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जैसे वह वास्तव में समाज का नायक हो..! अब लो..अगर आपने उसे नायक बना दिया है तो, यदि उसे सजा होती है तो किसी को अच्छा लगेगा...? उसका नायकत्व उत्तेजना तो पैदा करेगा ही, पागलपन की हद से गुजरकर हम उसे चाहते हैं, इसका लाभ उसे मिलना ही चाहिए...! हमारा नायक खतरे में..! फिर तो सभी प्रभावित होंगे, आम जनता से लेकर फ़िल्मी दुनिया, न्यायिक प्रक्रिया आदि सभी, आखिर इतने बड़े नायक का जो प्रश्न है..! फिर कानून की नजर में सब एक सामान कैसे...? मेरे विचार से कानून भी यह नहीं चाहेगा..! आखिर जब सबने मिलकर किसी को नायक बना दिया है तो कानून भी उसका सम्मान तो करेगा ही...! तब आप क्यों न्यायिक प्रक्रिया पर व्यंग्य करते हो..आखिर किसी चीज को विज्ञापित करने से लेकर उत्तेजना बढ़ाने तक सब कुछ किया धरा तो आपका ही है..!!

           भाई हमारा यह मीडियापा जो जैसा है उसको वैसा ही नहीं रहने देता और न वैसा दिखाता है! एक भ्रमजाल खड़ा कर देता है..आप इसमें भटको तो अपनी बला से..! जिसको इस भ्रमजाल से फायदा उठाना है वह उठा लेगा..! टापते रहो आप घुरहू..कतवारू जी...!! अगर तुममे भ्रम-जाल बुनने की क्षमता हो तो तुम भी आगे बढ़ो....हाँ, आपके कान में धीरे से बताना चाहुँगा अब ये घुरहू..कतवारू भी भ्रमजाल बुनने लगे हैं!! लेकिन यह भी सब के बस की बात नहीं...और यदि कोई इसमें सफल भी हुआ तो इनके बनाए नायकत्व के गुमान में भी मत रहिए क्योंकि फिर से इसी मीडियापे द्वारा घुरहू-कतवारू बना देने की बात तक तो गनीमत है लेकिन सिर पर ये ऐसा सींग जमा देंगे कि सभी लोग लट्ठ ले के पीछे ही पड़ जाएंगे क्योंकि इनके निहितार्थ को समझना बहुत ही कठिन है...इसीलिए टी.वी. समाचारों से ‘मूंदहु आँख’ लुभानेवाला जैसा अनुभव दे रहा है...!

           लेकिन यह मानव-मन चैन से बैठता ही कहाँ है, नहीं कुछ तो फेसबुक के आभासी मित्रों के बीच ही इधर घूमने लगा है...हाँ फेसबुक पर दो मित्रों द्वारा पोस्ट किए गए उनके कंटेंट से मुझमें ईर्ष्या का भाव जाग गया...एक ने ब्लड डोनेट करते हुए अपनी तस्वीर पोस्ट की थी तो दूसरे ने अपने पति-पत्नी प्रोफ़ेसर मित्र की कहानी पोस्ट की थी जिसमें इन्होने अपने वेतन से दो लाख की सहायता राशि का दान बुन्देलखण्ड के किसानों के लिए दिया और इन पति-पत्नी द्वय ने अपने फेसबुकीय साथियों को इतना प्रेरित किया कि इन लोगों ने तैंतीस लाख रुपये की सहायता राशि बिना किसी सरकारी सहायता के इकट्ठी कर ली...और तैंतीस बेहद पीड़ित किसानों को एक-एक लाख रुपये की एफ.डी. कराकर दे दी और एक मैं..तमाम अपीलों-दलीलों के बाद भी एक रूपया तक नहीं दिया है, आगे इसकी सम्भावना भी नहीं है| अब आप ही बताइये ईर्ष्या होगी की नहीं..! हम केवल मीडियापेमें ही खोए रह गए और ये लोग कुछ कर गुजर गए..! सबसे बड़ी कोफ़्त मुझे यह सोचकर हुई कि एक बार मुझे भी ब्लड-डोनेट करने का अवसर मिला था...अगर-मगर..के चक्कर में मैं उससे भी बच निकला था...

            खैर, इस ईर्ष्याभाव से मुक्ति पाने के लिए अखबार की कतरनों पर नजर डाली...तो.. ‘नदी में उतराते दो महिलाओं के क्षत-विक्षत शव मिले’.... ‘दो बहुओं को बांधकर कोड़े बरसाए गए’ ‘एक और निर्भयाकांड’ इसके अलावा तमाम आत्महत्या की खबरों पर निगाह डाली तो महिलाएं ही आत्महत्या करती हुई मिली...पता नहीं क्यों मन संदेहों से भर गया...मुझे लगा टी.वी. समाचार जिस माल को एक बार बेंच लेते हैं, दुबारा उस पर हाथ नहीं डालते तथा सब कुछ सुचारू रूप से उसी तरह चलने लगता है बल्कि ऐसी घटनाओं की बाढ़ सी भी आ जाती है, एक बार दो लडकियों का पेड़ पर फांसी पर लटकना या लटकाए जाने की घटना का प्रस्तुतीकरण इन चैनलों द्वारा इस तरह से किया गया कि दुनियाँ हिल उठी..लगा जैसे अब यह अंतिम घटना ही होगी....लेकिन हुआ क्या...! पेड़ पर लटकने या लटकाने जैसी घटनाएं लगातार दुहराई जाने लगी...मतलब...यह हो-हल्ला बेमतलब का साबित होता है... मैं नहीं समझ पाता कि जब सुचारू रूप से वही सब चलना है जो चलता आ रहा है तो फिर समाचार जानने की जिज्ञासा क्यों...! फिर अखबारों की इन कतरनों से भी मन उचट गया..
        
           खैर, इस जिज्ञासा का क्या करें..यह तो हमारे मस्तिष्क की तन्त्रिका-तंत्र का हिस्सा है..इसके बिना हम जी भी तो नहीं सकते...सो पुनः अपने सोशल-मीडियापे फेसबुक-वाल को यह सोचकर खंगालने लगा कि मित्रों की पोस्ट और तमाम विषयों पर की गयी टिप्पड़ियों से महत्वपूर्ण घटनाओं तथा उसपर लोगों के दृष्टिकोणों से अवगत हो जाऊँगा| तभी ध्यान आया कि एक फेसबुकिया मित्र की तमाम विषयों पर बुद्धिमत्तापूर्ण टिप्पड़ियाँ इधर तीन-चार दिनों से पढ़ने के लिए नहीं मिल रही हैं, आखिर बात क्या है? सो अपने वाल पर उनकी इस अनुपस्थिति का कारण जानने के लिए फ्रेंडलिस्ट देखनी शुरू की..वो मेरे फ्रेंडलिस्ट से नदारत थे...फिर उन्हें उनके नाम से सर्च किया तो पता चला वे फेसबुक पर अपने को अपडेट तो बराबर कर रहे थे लेकिन ‘अनफ्रेंड’ हो जाने के कारण हमारी वाल से गायब थे...हाँ मैंने उन्हें अनफ्रेंड नहीं किया था...क्योंकि उनके लिखे को पसंद करूँ या न करूँ लेकिन उन्हें पढ़ने की तलब जरुर रहती थी...खैर यदि उन्होंने मुझे ‘अनफ्रेंड’ किया है तो वे अपने एक पाठक से वंचित हो चुके हैं...और यदि गलती से मुझसे ही ‘अनफ्रेंड’ हो गए हैं तो मैं किसी को पढने से वंचित हुआ हूँ...
       
          हाँ..मन में विचार उठा कि उन्हें फिर से फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेज दूँ लेकिन ऐसा नहीं कर सका, सोचा..हो सकता है मैं उनके बौद्धिक सम्प्रदाय के सदस्यों से मेल न खा रहा होऊँ...! मैंने इनकी पोस्टों को पढ़कर इस बात का अनुभव किया था कि वे अपने विरोधी ‘मीडियापे’ को पसंद नहीं करते हों और जो धृष्टता करता उनके द्वारा अनफ्रेंड की गति को प्राप्त होता...ये फेसबुक के वे ‘सेलिब्रिटी टाइप’ के लोग हैं जो अपनी पोस्टों पर ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ की संख्या गिनकर स्वयंभू इस स्तर की प्राप्ति स्वीकार करते हैं...

         मेरे समझ से इस ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ पर संजीदा होने की आवश्यकता नहीं है...अभी कुछ दिनों पहले मैंने देखा मेरे सुपुत्र महोदय अपने वाल पर मित्रों के पोस्ट किये गए कंटेंट को धडा-धड़ लाइक किये जा रहे थे...और किसी मित्र को अबे-तबे कर रहे थे...मैंने पूँछा, ‘बिना पढ़ें ऐसा क्यों कर रहे हो..और यह क्या..?’ तो बोले, ‘इस लाइक-वाइक को लेकर इतना संजीदा मत बनिए...यह ऐसे ही होता है..इतना सोचने की जरुरत नहीं...’ मतलब ये भी भ्रम पैदा करते हैं...कभी-कभी हम बिना पढ़े ही ‘लाइक’ हो जाते हैं कुछ तो हमारा मन रखने के लिए ठक से हमारे पोस्ट पर ‘लाइक’ ठोंक देते होंगे...हाँ एक बात और है अब यह उस तरह से भी होता जा रहा है जैसे आप पड़ोसी के यहाँ जायेंगे तभी वह भी आप के यहाँ आएगा...मतलब यह ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ आभासी सामाजिक-व्यवहार बन चुका है, जो ऐसा नहीं करते होंगे वे ‘समाज-बहिष्कृत’ का दंश भी झेल सकते है...

        खासकर मीडियापा करने वाले लोग के ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ उनके मित्र-सूची की बौद्धिक-सम्प्रदाय के सदस्यों की संख्या पर निर्भर करता होगा...क्योंकि यहाँ हम सेक्युलर होते-होते बौद्धिक कामरेड टाइप सदस्यों का सम्प्रदाय बनाए हुए होते हैं जहाँ अन्य लोग अवांछित माने जा सकते हैं, वास्तव में यह एक ऐसा ‘मीडियापा’ है जहाँ अपने-अपने गढ़ होते है और इन गढ़ों के विस्तार की क़वायद होती है...! सच्चाई बस यही है कि जो लिखा जाता है वह अवश्य पढ़ा जाता है और पढ़ा जाएगा...!! लिखने की स्वतंत्रता है लेकिन विचारों का संप्रदाय निर्मित करते हुए इसे ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ तक सीमित भी न करें...बाकी अन्य भ्रम न पालें...नहीं तो...हमारे-आपके होने के बाद भी सब कुछ वैसे ही ‘निर्भयाकांड’ की तर्ज पर चलता रहेगा...और...यही ‘मीडियापा’ है...!!!              

सोमवार, 18 मई 2015

'मालिकपने' के शिकार....

                   उस दिन श्रीमती जी ने कहा, 'जो वह मजदूरिन है न..! है तो वह गरीब ही..लेकिन उसकी मालकिन ने उससे कोई काम कहा था...शायद उसने नहीं किया था...'
         
                यह सुन मैंने कहा, 'हाँ ये मजदूर ऐसे होते ही हैं...मन में आया काम किया मन में आया तो न किया..'

              श्रीमती जी ने कहा, 'यह बात नहीं..अरे, इनकी मजदूरी बढ़ा दो तो ये क्यों नहीं कहने पर काम करेंगे..?'

                 'लेकिन जानते हो उसकी मालकिन ने क्या कहा..उन्होंने कहा अरे इस मजदूरिन के पास भी पैसा हो गया है...यह तो बी.सी. भी चलाती है..उसी की बचत होगी इसके पास फिर क्यों सुनेगी यह..?'

                 श्रीमती जी की यह बात पूरी नहीं हुई थी कि मैंने कहा, 'अरे नहीं..! बी.सी.-ऊ सी का ये कौन सा बचत कर पाएंगी...लेकिन ये गरीब न अपनी इसी अकड़बाजी के चक्कर में आगे बढ़ नहीं पाते..और सरकार भी इन्हें मुफ्त का भोजन देती है, ये बी.पी.एल.कार्ड और अन्त्योदय कार्ड जो बिना काम के अनाज दे मुफ्तखोरी ही बढ़ा रहे हैं फिर ये काम क्यों करें..!'

                    'नहीं-नहीं...बात यह नहीं है...हमारा 'मालिकपना' इनकी अकड़बाजी बर्दास्त नहीं कर पाता...यदि सरकार की ये योजनाएं न हों तो हम इनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाते हुए इनसे काम लेने लगे....तथा कदम-कदम पर ये शोषित हों, कम से कम सरकार की इन योजनाओं के कारण ये मजदूर अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए अपने लिए इच्छित कार्यों का चयन तो कर सकते हैं, इनकी यह अकड़-बाजी इसी कारण से है...' श्रीमती जी ने हमें जैसे विस्तार से समझाने की कोशिश की...

                  वास्तव में श्रीमती जी ने सही कहा था..कम से कम सरकार के इन सहारों की वजह से ये गरीब धीरे-धीरे कर ही सही आत्मसम्मान को समझने लगे हैं...और हो सकता हैं आगे चलकर ये उन मनोवृत्तियों से टकराएँ जो आज की इनकी स्थिति के लिए जिम्मेदार है...क्योंकि इनकी इस स्थिति का एक कारण यह भी रहा है कि वर्षों से ये हमारे 'मालिकपने' के शिकार बनते आ रहे हैं....