मंगलवार, 23 जून 2015

"एसो ही हतो चन्द्रावल..!"

         एक थी चन्द्रावल...! हाँ महोबा में चन्द्रावल नाम की कोई एक सुन्दर राजकुमारी हुआ करती थी...कहते हैं आल्हा-ऊदल और पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं के बीच उसे लेकर युद्ध हुआ था...बताते हैं कि पृथ्वीराज चौहान चंद्रावल को हासिल करना चाहता था..आल्हा-ऊदल चन्द्रावल की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ते हुए पराजित हुए और यहाँ के लोगों के लिए आल्हा-ऊदल आज भी अमर होकर जीवित हैं, हाँ चंद्रावल पृथ्वीराज के हाथ नहीं आई थी...! दो पहाड़ों के बीच स्थित उस मैदान को दिखाते हुए बताया मुझे गया कि इसी स्थान पर वह युद्ध हुआ था...! इस जनश्रुति के अनुसार चन्द्रावल तो पृथ्वीराज को नहीं मिली थी लेकिन उसी स्थान से निकली एक नदी के रूप में चन्द्रावल आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है...जो एक वास्तविकता है....चन्द्रावल नदी...!!
          
       इस जनश्रुति को सुन बचपन में सुनी गयी एक कहानी याद आई...इस कहानी में भी एक राजकुमारी अपना अस्तित्व बचाने के लिए भागती जाती है...और...भागते-भागते नदी बनते हुए गायब होती जाती है तथा अंत में लोगों के बीच कल-कल सी प्रवाहित होने वाली नदी बन गई..! अपनी इस बचपन की सुनी कहानी को जब मैंने साथ चलते लोगों को सुनाई...तो मुझे सुनाई पड़ा, “हाँ साब...एसो ही हतो चन्द्रावल..” खैर....

              कभी की खेलती खिलखिलाती चन्द्रावल आज नदी के रूप में भी अपने अस्तित्व की लड़ाई में बेवश है...चन्द्रावल के खिलखिलाने का कारण उसके आस-पास का परिवेश रहा होगा...उसके अक्षत यौवन की रक्षा स्वाभाविक रूप से स्वतः उसी परिवेश के कारण होता रहा होगा...लेकिन आज हमने उस परिवेश को भी अपनी उद्दाम लालसाओं के कारण नष्ट-भ्रष्ट कर डाला है...सच में परिवेश या पर्यावरण ही किसी के अस्तित्व को बचाए रख सकता है, यह परिवेश भी कृतिम न होकर स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होता रहता है..! हमने इसी परिवेश को छिन्न-भिन्न कर दिया है...इसकी स्वाभाविकता को मार दिया है...इसे तार-तार कर दिया है..! फिर कैसे यहाँ चन्द्रावल सुरक्षित रहेगी...? हाँ इस परिवेश या पर्यावरण की स्वाभाविकता को बनाए बिना चंद्रावल की रक्षा नहीं की जा सकती अन्यथा सारे प्रयास व्यर्थ के ढोंग सिद्ध होंगे...
       
         बताते हैं यह चंद्रावल नदी कभी सदानीरा थी...लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी उसी अनुपात में लोगों की लालसाएँ भी बढ़ती गयी...प्रकृति के बनाए गए गड्ढों को पाटकर तथा पेड़ों को काटकर खेत बनाए गए...हमारी खेती प्रभावित न हो इसलिए स्वाभाविक रूप से संचित वर्षाजल को हमने नाले खोदकर उसमें बहा दिए...नाले भी बनाए तो मात्र जल निकासी के दृष्टिकोण से ही...! पंद्रह दिन भी नहीं बीतता कि बारिश से जलमग्न हुआ क्षेत्र जलविहीन दिखाई देने लगता है, कृतिम तालाबों को भी हम स्वाभाविक आकार नहीं दे पा रहे हैं मात्र खुदी मिटटी का मापांकन ही जैसे हमारा उद्देश्य हो...हमारी लालसा इन तालाबों पर भी भारी पड़ रही है...आखिर जल एकत्रीकरण कहाँ हो...? बाँध भी बनाया तो उसी नदी के जल को रोककर..उस नदी में जल कहाँ से आये जैसे हम इस उद्देश्य को ही भूल से गए...! फिर कैसे होगी चन्द्रावल सदानीरा...?
        
        क्या नदी की तलहटी खोद देने से ही यह नदी सदानीरा बन जाएगी...? मतलब हम बचे-खुचे भूजल को भी बहा देना चाहते है...! उस दिन मैं जंगल में पेड़ गिनते-गिनते धसान नदी को देखने की इच्छा ले उसके किनारे पहुँच गया था...नदी के इस तरफ महोबा जनपद और उस तरफ झाँसी जनपद की सीमा मिलती है...वहाँ नदी का किनारा घने हरे-भरे पेड़-पौधों और झुरमुटों से भरा पड़ा था उसी के मध्य हमें कल-कल बहता हुआ एक झरना दिखाया गया...एक-दम निर्मल और बेहद शीतल जल..! यह अदृश्य से भू-श्रोतों से निकल ढलान से होते हुए नदी में जाकर मिल रहा था...हाँ जैसे दो ट्यूबवेलों का एक साथ पानी बह रहा हो...! इसी तरह इस जल-श्रोत से ही कुछ दूरी पर एक और झरना था...हो सकता है ऐसे ही अन्य जल-श्रोत भी नदी में मिल रहे हों...ये झरने धसान नदी को सदानीरा बना रहे थे...इस दृश्य को देख मुझे बचपन में अपनी रिश्तेदारियों में आते-जाते सई नदी में मिलने वाले नाले याद आ गए...कई बार मैंने मई-जून के महीनों में इन नालों की तलहटियों में पानी देखे थे...! हाँ...इन नालों में पतली सी धार भी बहते हुए मैंने देखा था...एक बार मैं इस बहते पानी का श्रोत जानने की जिज्ञासा में इसके पास पहुँचा...वहाँ कोई श्रोत तो नहीं था फिर भी नाले की तलहटी में एक पतली सी धारा प्रवाहित हो रही थी..मैं आश्चर्य में था कि यह जल-धारा कहाँ से आई...! जब ध्यान दिया तो देखा नाले की तलहटी पानी से चुहचुहाये हुए थे...मैंने उसपर अपनी हथेली रखी तो मेरी हथेली भींग गई...जैसे उस भूमि से पानी रिस रहा हो...और ऐसा था भी...! नाले में यह स्थिति गहराई बढ़ने के साथ बढती गयी थी और यही रिसता पानी उस नाले में एक पतली धारा का रूप ले लिया था...शायद ऐसे ही नाले सई को उस समय सदानीरा बनाए हुए थे...
       
                                                      (चित्र में धसान नदी के तट पर मैं )

               लेकिन आज हो क्या रहा है...भू-जल स्तर नदी, नालों की तलहटी से भी निचले स्तर पर पहुँच गया है कोई झरना, कोई झीर इनमें कैसे फूटेगा..? यहाँ धसान तो काफी गहरी थी और वह क्षेत्र भी भूजल के मामले में ठीक ही था..तो वह झरना दिखाई दे गया...लेकिन महोबा जैसे जिले के अन्य भागों में यह स्थित नहीं है...यहाँ का भू-जल इतने नीचे है कि कम से कम चन्द्रावल के उद्गम पर कोई झीर फूटना असंभव सा है...पहले तो हमें यहाँ ऐसे कई तालाबों का उद्धार करना होगा जिसमें वर्षा का जल पर्याप्त रूप से संचित हो सके...एक बात और है आज हम वर्षा-जल संचयन के लिए जितने गड्ढे खोदते हैं उससे कई गुना भूमि समतल भी कर देते हैं मतलब गड्ढा खोदने और समतलीकरण का अनुपात बराबर...! बल्कि आज समतलीकरण ही अधिक हो रहा है, आखिर...इस समतलीकरण से वर्षा-जल कहाँ संचित होगा..! पहले तो प्राकृतिक रूप से बने गड्ढों में भी जल संचयन हो जाता था...लेकिन आज समतलीकरण (शहरीकृत खेतिहर समाज) के इस दौर में जमीन के नीचे का जल स्तर कैसे बढ़ेगा...? और तो और...हमने पेड़ भी काट डाले हैं...जमीन कैसे नम रहेगी...?
       
        इस नदी की गहराई बढ़ाना भी इस समस्या का समाधान नहीं है...मैंने अपने मित्र की एक बात मजाक मान हँसी में उड़ा दी थी.. ‘यार ये बताओं ये तालाब खोदने से भू-जल स्तर कैसे बढेगा...?’ उनके इस प्रश्न पर मैंने उत्तर दिया था, ‘इसमें बरसात का पानी इकठ्ठा होगा जिससे जमीन में पानी का लेवल बढेगा’ लेकिन उनका उत्तर था, ‘नहीं यार अब तो वर्षा भी कम होती है तिस पर हम गड्ढे खोदकर जमीन की नमी को भी उड़ा देंगे...इससे तो भू-जल स्तर और नीचे चला जाएगा...!” इस पर मैं हँस तो पड़ा था लेकिन इस बात में भी एक वास्तविकता थी..मतलब हमें नमी बचाने के लिए इस स्तर तक सोचना होगा....
       
         हाँ..हमे फिर से एक स्वाभाविक परिवेश बनाना होगा जिससे चन्द्रावल का आँचल हरा-भरा हो और इसके हरियाले आँचल के झुरमुटो के बीच कोई झीर फूट पड़े तथा साथ ही चन्द्रावल की सूखी तलहटी पानी से चुहचुहा पड़े...एक धारा बन फिर से यह दौड़ पड़े..!
        
(चित्र में चंद्रावल के उद्गम क्षेत्र में 'जलपुरुष' श्री राजेंद्र सिंह जी..और जनपद महोबा के उच्चाधिकारीगण)

        
         
     
      
      अंत में एक नदी बलिदानों से ही बनती है...हमें अपनी उद्दाम लालसाओं पर काबू पाना होगा तभी चन्द्रावल अठखेलियाँ भारती हुई पुनर्जीवित होगी...!