शनिवार, 25 जुलाई 2015

मूँछों के नीचे मुस्कुराने का खेल…!

             यहाँ भ्रष्टाचार वहाँ भ्रष्टाचार.!  सर्वत्र भ्रष्टाचार…!! हाँ..इसे हम जानते हैं क्योंकि जैसा कि इसकी चर्चाएं भी आम हैं.…जैसे फलाना का फलाना बंद…फलाना बार-बार बाधित हुई.…फलाने का चिट्ठी बम…फर्जी फलाने चीज के जांच की माँग…फलाने में  हेराफेरी…फलाने का डेरा बना है फलाना कार्यालय…फलानी चीज के वितरण में धांधली…फलाने निर्माण में फलानों की लूट…गाँव-गाँव में फलाना मिटाओ आंदोलन…अब सोचिए जरा…! फलानी चीज इतनी आम है.…फिर भी यह रूक नहीं रही…!! जबकि सारे लोग इसे रोकने के लिए लगे है.…मैं तो बस इतना कहना चाहता हूँ यह सर्वव्यापी है..... ईश्वर प्रदत्त गुण है अब आप कहते रहिए इसे दुर्गुण…!

              अब आप जरा सोचिए....! सारे लोग इसके पीछे लगे हैं… यही नहीं....सभी यह भी जानते हैं कि यह कहाँ छुपा बैठा है…क्योंकि यह सर्वव्यापी होते हुए भी दृश्यमान है…लेकिन है यह पारदर्शी…! और हर दो के बीच यह पारदर्शी दीवार बनकर खड़ा हो जाता है…! फिर भी इसकी खोजाई-ढूढ़ाई का नाटक चालू है.... इसके चक्कर में जैसे देश का सारा काम ठप्प पड़ा है…यहाँ तक की संसद भी ठप्प है…!

             यह विचारणीय है कि इतना पारदर्शी और सर्वव्यापी होने के बाद भी इसे खोजने का नाटक चल रहा है...? शायद इसका कारण यही है कि इस पारदर्शी दीवार के आर-पार दोनों की नजरें इनायत होती हैं और फिर चलने लगता है मूँछों के नीचे मुस्कुराने का खेल....!! यह खेल होता है बड़ा रोचक…और हाँ…यह लुका-छिपी जैसा खेल भी नहीं है.…यह तो इस पारदर्शी दीवार के आर-पार एक दूसरे को देख मूँछों के नीचे मुस्कुराने का खेल है.....! और यह मूँछों के नीचे मुस्कुराने की प्रतियोगिता भी है जो एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर होती है.…!! अब आप ही बताइए… इस देश का चाहे जो ठप्प कर दीजिए इस प्रतियोगिता के चक्कर में भला कोई इसे खोज पाएगा…? एक बात और है…! और वह यह कि हम्माम की बात अब पुरानी हो गई है वहाँ कोई एक दूसरे को देखकर कम से कम मुस्कुराता तो नहीं था…! लेकिन यहाँ तो एक दूसरे को देख सब जबदस्त तरीके से मुस्कुराए जा रहे हैं… वह भी ताव देने वाली मूँछों के नीचे....!!                

शनिवार, 18 जुलाई 2015

एक अदद 'न्यूज़' की तलाश में यह 'शो-मंडी'

      दिल्ली में मीनाक्षी की चाकुओं से गोदकर की गयी हत्या पर टी.वी. चैनलों पर बहस चल रही है|
       बहस के विषय शायद ये हैं..
१.      दिल्ली में कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहद ख़राब खासकर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर|
२.      दिल्ली में नागरिकों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व किसका है केंद्र या राज्य..?
३.      हमारी पुलिसिंग प्रणाली कैसी है..?
४.      ऐसी आपराधिक घटनाओं को आँखों के सामने होते देखते हुए भी नागरिकों का मुंह मोड़ अनदेखी करना और पीड़ित व्यक्ति की सहायता के लिए आगे न आना|
    
         यहाँ लिखने का उद्देश्य उपरोक्त बिन्दुओं पर बहस करना नहीं है और न ही इसपर अपनी कोई राय रखना है|
         वैसे मैंने टी.वी. पर चल रही इन बहसों को पूरा नहीं देखा और देखने की इच्छा भी नहीं हुई| मीनाक्षी की सरेआम हत्या और इस पर अब चल रही बहस मात्र एक ‘न्यूज़’ बन रही थी अर्थात मीनाक्षी की हत्या की खबर के साथ ही इन बहसों में भी एक ‘न्यूज़’ की तलाश प्रतीत हो रही थी| ये बहस उद्वेलित करते हुए प्रतीत नहीं हो रहे थे बल्कि किसी बात या घटना पर एक राजनीतिक वाक्य ‘रोटी सेंकना’ जैसे ही प्रतीत हुए| शायद यही कारण है कि निर्भया काण्ड से लेकर आज तक हो रही इन तमाम घटनाओं पर इन ‘बहसों’ और ‘न्यूजों’ का कोई प्रभाव नहीं पड़ा चीजें वैसी ही अपनी भयावहता में चल रही हैं|

        हमारी मीडिया अपने को बहुत ‘बाँक-बहादुर’ मानती है और चीजों को ‘न्यूज़’ बनाकर उसी अंदाज में प्रस्तुत भी करती है| यह मीडिया वहीँ दिखाई देती है जहाँ उसे ‘किसी’ ‘न्यूज़’ का आभास होता है| यहाँ यह मीडिया कह सकती है भाई हम तो ‘न्यूज़’ तलाशने के लिए ही बने हैं वही तो कर रहे हैं| लेकिन मेरे भाई, फिर तो मेरा कहना है आप ‘चौथा खम्भा’ बनने का दंभ छोड़ दीजिये| दो साल पहले उस लड़की की माँ की ओर से पुलिस स्टेशन पर गुंडों की शिकायत की गयी थी लेकिन इस घटना में तब मीडिया को कोई ‘न्यूज़’ नजर नहीं आया होगा या मीडिया वहाँ तक पहुँची ही नहीं होगी| इसका कारण हो सकता है उसके अपने डर या पूर्वाग्रह हों और शायद इसी कारण पहले वह चीजों को होने देता है जब तक कि इसमें से कोई ‘न्यूज़’ निकलकर न आये और जब ‘न्यूज़’ निकल आता है तब सब “निर्भया” के स्तर पर पहुँच जाते हैं|  

       अगर आप मीडिया पर निगाह डालेंगे तो 90% से अधिक ‘न्यूज़’ केवल ‘राजनीतिक’ खबर भर होती है| यहाँ मार्मिक और दर्दनाक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण भी ‘राजनीतिक’ हो जाता है| इस मीडिया की दृष्टि में इसका सामाजिक सरोकार जैसे इसके ‘राजनीतिक सरोकार’ से ही होकर गुजरता है|

       एक बात और है इस मीडिया ने दृश्य-मीडिया को एक “शो-मंडी” में तब्दील कर दिया है| यहाँ हर कोई ‘न्यूज़’ बन कर इस ‘शो-मंडी’ में आना चाह रहा है| इस ‘शो-मंडी’ का क्रेज पिछले दिनों एक टी.वी. शो देखकर मुझे पता चला| इस शो में दिखाया गया कि एक व्यक्ति खरीददारी कर अपने सामान के थैलों के साथ जैसे ही मॉल से बाहर आता है उसी समय एक अन्य व्यक्ति उसके सामानों से भरे थैलों को छीनकर वहीँ अपने पैरों से रौंद देता है, पहले तो व्यक्ति की प्रतिक्रिया गुस्सेवाली होती है लेकिन जब उसे बताया जाता है कि वह टी.वी. पर है तो वह बेहद खुश होकर रौंदने वाले के गले लग जाता है, इसी प्रकार अपनी गाड़ी के शीशों को तुड़वाकर भी व्यक्ति खुश हो जाता है| बात यहाँ मानसिकता की है; हम धीरे-धीरे ऐसा परिवेश बनाते जा रहे हैं जहाँ घटनाओं में ‘नैतिक मूल्य’ नदारत हैं| ऐसे में यह पुलिस चाहे जिसके नियंत्रण में रहे या इसकी चाहे जो प्रणाली हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और भीड़ भी तो केवल ‘शो’ ही तलाशती है|

          बातें तो बहुत हैं लेकिन शो चालू आहे!      

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

हमारा ‘इज्म’ हमें बहकाकर हमारा ही शिकार करता है...

         
          अभी पिछले दिनों एक समाचार पर बरबस ध्यान चला गया था; वह यह कि मध्यप्रदेश में एक पति-पत्नी ने शर्म-वश आत्महत्या कर लिया क्योंकि स्वयं उनके निजी पलों का वीडियो जो स्वयं उन्हीं के द्वारा बनाया गया था उन्हीं की गलतियों के कारण वायरल हो गया था| इस समाचर ने मन को उद्वेलित करने के साथ दुःख और विक्षोभ से भी भर दिया| निश्चित रूप से पति-पत्नी द्वारा इस आत्महत्या का कारण उनके अपने निजी पलों के विडियो का वायरल होना नहीं रहा होगा अपितु इसके पीछे उस सामाजिक अवधारणा का दुष्प्रेरण रहा होगा जिसके कारण वे ऐसी स्थितियों का सामना नहीं कर पाए होंगे| यहाँ इस बात को समझना होगा कि चीजों के प्रति हम कैसी अवधारणाएँ बनाते हैं? जो हमें कुंद मनःस्थिति में धकेल सामाजिक या व्यक्तिगत विद्रूपताओं की एक अंधी सी गली में छोड़ देती हैं, जहाँ से निकल पाना बहुत ही दुष्कर होता है| यहाँ हम भूलते हैं कि जीवन का आनंद उसकी समग्रता में है; ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, युद्ध, प्रेम, शान्ति जैसे भाविक तत्व जीवन की समग्रता के हिस्से हैं और जीवन इन सब में संतुलन का नाम है| हम जीवन को समस्याग्रस्त वहीँ बनाते हैं जब इस समग्रता के किसी एक तत्व पर ही ध्यान केन्द्रित कर देते हैं और यह ध्यानाकर्षण व्यक्ति तथा समाज दोनों स्तरों पर होता है|

         ‘खजुराहो’ जैसे शब्द को सुन मन में कैसी अवधारणाएँ बनती हैं? निश्चित रूप से इसे अश्लीलता का पर्यायवाची मान लिया गया है; यहाँ तक कि हम अपने बड़ों के सामने इस शब्द के उच्चारण से भी बचना चाहते हैं| शायद निजी पलों के वायरल होने पर उस दंपति की आत्महत्या के पीछे कुछ ऐसी ही सामाजिक अवधारणा का दुष्प्रभाव पड़ा होगा|

         हजारों वर्ष पूर्व के भारतीयों का जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोंण रखने वाली उस मानसिकता का क्षरण इस स्तर पर पहुँच गया है कि खजुराहो जैसे भारतीय स्थापत्य-कला के इस बेजोड़ नमूने से स्वयं हम भारतीय आज भी अपरिचित से हैं| आश्चर्य है; जहाँ की कला के अवलोकन हेतु विदेशियों के लिए हवाई-सेवा से उस स्थल को हम जोड़ते हैं वहीँ अपने लिए इसकी चर्चा बस थोड़े से सामान्य ज्ञान की सीमा तक करते हुए मौन हो जाते हैं| शायद इस स्थापत्य-कला के कई पक्षों में से एक पक्ष इसकी मिथुन-मूर्तियों से, हमने अपनी नैतिकता को इस तरह से समन्वित कर लिया है कि इस सम्बन्ध में हमारा विमर्श नैतिकता और बौद्धिकता की अंधी गलियों में खो जाता है| जीवन में जब हम किसी एक ही भाव पर केन्द्रित होते हैं तो फिर इसका कोई न कोई पक्ष कमजोर होने लगता है; यहाँ तक कि चीजों के प्रति ‘नैतिक’ और ‘अनैतिक’ जैसा हमारा दृष्टिकोंण भी अपने ‘अति’ में स्वयं उन्हीं चीजों को नैतिक और अनैतिक नहीं रहने देता; यह तब होता है जब हमारी दृष्टि से ‘समग्रता का भाव’ ओझल हो जाता है|

         यहीं पर एक कहानी याद आती है; राजा नृग को एक मृग के बच्चे से बहुत प्रेम हो गया था वह रात-दिन उसी की सेवा-सुश्रुषा में खोए रहते थे, उस मृग के बच्चे के प्रति उन्हें इतना लगाव हो गया था कि अपने परिवेश के प्रति वह अनजान से हो गए| इसी एक भाव से लिपटे रहने के कारण एक बार घर आये कुछ ऋषियों की वे उपेक्षा कर बैठे, उन ऋषियों ने राजा को शाप दिया कि ‘जिस मृग के कारण वे उनकी उपेक्षा करने के लिए विवश हुए उसी मृग के रूप को प्राप्त होंगे” अंत में राजा नृग मृत्यु के बाद मृग-योनि में जन्म लिए| यहाँ हम देख सकते हैं कि मृग के बच्चे से राजा का प्रेम अनैतिक नहीं था बल्कि राजा का यह एक नैतिक कृत्य ही था लेकिन फिर भी एकांगी ही था, इसीलिए राजा को शापित होना पड़ा|    

         पिछले दिनों के खजुराहो भ्रमण में जीवन के इसी ‘समग्रता सम्बन्धी भाविक-तत्व’ से परिचित हुए; सच में यह जीवन बड़े ही सहज ढंग से प्रकृति के अवदानों से ही ‘भौतिक’ और ‘भाविक तत्वों’ को ग्रहण कर आत्मनियंत्रित होता रहता है| खजुराहो के मंदिरों का स्थापत्य और इन मंदिरों की दीवालों के पत्थरों पर तराशी गयी मूर्तियाँ भारतीय स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने तो हैं ही, लेकिन इनका दर्शन एक अलग दर्शनानुभूति कराता है| खजुराहो का यह स्थापत्य भारतीय जीवन-दर्शन के चारों प्रमुख स्तंभों अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का श्रेष्ठतम कलात्मक अभिव्यक्ति होने के साथ ही एक संतुलित जीवन-दर्शन की अर्थवत्ता ग्रहण किए हुए है| खजुराहो के मंदिरों की इस कलात्मक अभिव्यक्ति का अवलोकन करते समय जब मेरे सहकर्मी ने मुझसे सकुचाते हुए कहा, “सर, इन्हें केवल कला की दृष्टि से ही देखना चाहिए...” तो इस पर मैंने ध्यान नहीं दिया क्योंकि तब तक इसे मैं भारतीय जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति मान चुका था| मेरे एक सहकर्मी का इस तरह सकुचाते हुए सलाह देना खजुराहो की प्रचारित ‘अश्लीलता’ को लेकर था| लेकिन मैंने इन्हें देखते हुए अनुभव किया कि जब एक पूर्ण दृष्टि खजुराहो के स्थापत्य पर पड़ती है तो अश्लीलता का लेश-मात्र भी दर्शन नहीं होता बल्कि अपनी सम्पूर्णता में यहाँ का स्थापत्य जीवंतता की अनुभूति कराता है| इसे देखते हुए मेरे मन में यही कौंधा कि जीवन एक समन्वित दृष्टि का ही नाम है; और इस समन्वय में ही आनंदानुभूति है|
    
          खजुराहो के मन्दिरों को निहारते हुए मैंने देखा कि यहाँ की लगभग सभी मूर्तियाँ को खण्डित करने का प्रयास किया गया था| इन खंडित मूर्तियों के सम्बन्ध में एक स्थानीय व्यक्ति जो मेरे ही साथ चल रहा था उसने बताया, “औरंगजेब ने अपने सैनिकों को इन मंदिरों को पूर्णतया नष्ट करने का आदेश दिया था, सैनिकों ने उसके आदेश का पालन करना शुरू किया तो उन्हें आभास हुआ कि यहाँ की कलाकृतियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं और दुबारा ऐसी कलाकृतियों को निर्मित किया जाना संभव नहीं होगा तब सैनिकों ने यहाँ के मंदिरों को पूर्ण रूप से नष्ट करने से इनकार कर दिया| इसके बाद औरंगजेब ने मूर्तियों को खंडित करने का आदेश दिया और इस प्रकार ये मंदिर पूर्णरूप से नष्ट होने से बच गए तथा केवल मूर्तियों को ही आंशिक रूप से क्षति पहुँचाई गयी|” खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों को औरंगजेब या उसके पहले के किसी अन्य आक्रांता ने क्षति पहुँचाई हो लेकिन मुझे यह एक प्रकार की हिंसा ही प्रतीत हुई क्योंकि ऐसा करके जीवन्तता को क्षति पहुँचाई गयी थी जिसकी भरपायी होना असंभव था| वास्तव में जो समाज जीवन की सर्वांगीर्णता को समझता है वह हिंसक नहीं होता, समाज या व्यक्ति के स्तर पर हिंसा जैसी वृत्ति की उत्पत्ति का कारण एक समग्र-दृष्टि का खंडित होना ही होता है|
        
         एक वृहद् जीवन-दृष्टि वाला व्यक्ति ही कलाकार हो सकता है और यह कलाकार हिंसक नहीं होता| अपने इसी विचार के साथ ही चंदेल कालीन उन कलाकारों की मनःस्थितियों को टटोलने का मैंने मन ही मन प्रयास किया जिसकी प्रेरणाओं के कारण खजुराहो के ये बेजोड़ नमूने आकार ग्रहण कर सके| चंदेलकालीन वे शिल्पी अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के साथ छेनी और हथौड़े से जीवन की कलात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान किए| निश्चित रूप से वे शिल्पी जिन्होंने खजुराहो को गढ़ा पाखंडी नहीं रहे होंगे, तभी तो बिना लाग-लपेट के यहाँ का स्थापत्य जीवन के विविध रूपों को अंगीकृत करते हुए एक समन्वित-दृष्टि के साथ उसे उस आध्यात्मिकता की ओर ले जाते हुए दिखाई देता है जो ‘जियो और जीने दो’ का सन्देश देते हुए मानव-जीवन में असीम शान्ति का मार्ग प्रशस्त करता है| शायद यही कारण है कि जिस खजुराहो को हम अश्लीलता का पर्यायवाची मान बैठे हैं वहीँ पर महावीर का जैन मंदिर भी अवस्थित है जो उसी शैली में निर्मित है| वास्तव में जीवन को जब हम समन्वित दृष्टिकोंण के साथ देखते हैं तो न तो इसमें अश्लीलता होती है और न ही हिंसा का स्थान होता है; शायद खजुराहो के मंदिरों के साथ निर्मित जैन मंदिर इसी तथ्य की ओर संकेत करता है|

        यहाँ हम समझ सकते हैं कि पति-पत्नी द्वारा शर्म-वश आत्महत्या करना, कहानी में राजा नृग की मनोदशा, आक्रांताओं द्वारा खजुराहो के स्थापत्य को क्षति पहुँचाना और यहाँ तक कि खजुराहो को अश्लीलता का पर्याय समझ लेना एकांगी दृष्टिकोंण का परिणाम हैं| इसी एकांगी दृष्टिकोंण के कारण समाज या व्यक्ति में एक तरह का ‘इज्म’ विकसित होता चला जाता है|

         अपने-अपने ‘इज्म’ का मुझे ध्यान तब आया जब किसी ने मुझसे कहा कि ‘आज हम ऐसी कलाकृतियाँ नहीं गढ़ सकते..!’ उसी समय मैंने उससे कहा, “नहीं आज तो हम हवाई जहाज से लेकर न जाने क्या-क्या बना रहे हैं ये भी तो आज की ही कलाकृतियाँ है..!” यह कहते ही मेरा ध्यान इस पर गया कि खजुराहो की कलाकृतियाँ तो भारतीयों की ही देन है लेकिन आज का यह सारा वैज्ञानिक प्रगति इसमें भारतीयों की सोच का कितना योगदान है? शायद न के बराबर..! इसका कारण यही है कि शुरुवाती भारतीय सभ्यता किसी ‘इज्म’ का शिकार नहीं थी लेकिन समय बदलने के साथ ही हम अपने-अपने ‘इज्म’ के शिकार होते चले गए और एक कुंद मनःस्थिति में पहुँच गए जिसमें किसी वैज्ञानिक सोच का स्थान नहीं होता और जिसका परिणाम यही हो सकता है कि हम ऐसी महान कलाकृतियाँ नहीं गढ़ सकते|

          वास्तव में कुछ का ‘इज्म’ खजुराहो के मंदिरों में भी किसी न किसी तरह का ‘इज्म’ खोज लेगा लेकिन खजुराहो की स्थापत्य-कला जीवन-सापेक्ष होते हुए स्वयं के जीने और दूसरों को जीने देने की प्रेरणा देती है तथा यहाँ की कला किसी को अपने ‘इज्म’ का शिकार नहीं बनाती जबकि हमारा ‘इज्म’ हमें बहकाता है और हमारा ही शिकार करता है|
                    

                               -----------------------विनय