सोमवार, 30 नवंबर 2015

बस यूँ ही (आत्म्द्रष्टा)

                बड़ी विचित्र स्थिति है देश में..! देश की सारी बौद्धिक उर्जा मात्र धर्म-निरपेक्षता, सहिष्णुता-असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर ही खर्च हो जा रही है: पता नहीं बाकी चीजों के लिए यह उर्जा बचेगी भी या नहीं? या बाकी चीजें हों ही न और देश की सारी समस्या की जड़ इसी में हो? क्या किया जा सकता है जब कुछ लोगों के लिए इस चर्चा में ही लाभ दिखाई दे रहा हो। 

              खैर नेताओं की छोड़िए उनकी तो रोजी-रोटी ही ऐसी चर्चाओं पर निर्भर करती है, चिन्ता तो तब होती है जब अपने-अपने कौम के तथाकथित बुद्धिजीवी ठेकेदार हर समय इन्हीं चर्चाओं में मशगूल दिखाई देते हैं और सभी अपने को ही सही ठहराने की कोशिश में लगे रहते हैं, जैसे उन्हें अपनी कौम की अन्य चिन्ताओं पर सोचने की फुर्सत ही नहीं..! 

               क्या इन बातों से समाज में जहर नहीं फैलता..? वास्तव में हम स्वयं असहिष्णु हैं। तभी तो आजादी के बाद हम घूम फिर के वहीं आ जाते हैं जहाँ से चले थे।

             इससे तो अच्छा है सुबह-सुबह टहलने निकल जाइए और उगते सूरज को भी निहार लीजिए..दिमाग फ्रेश हो जाएगा और कम से कम कुछ ही देर के लिए ही सही इस खुराफाती बुद्धि से मुक्ति मिल जाएगी। 

            एक बात और बता दें ज्यादा किताबें पढ़ने से  बुद्धि के भ्रमित हो जाने की भी सम्भावना रहती है क्योंकि तब इस बुद्धि पर अपना कन्ट्रोल नहीं रह जाता और आप जानते ही हैं कि बिना हैंडिल-ब्रेक के गाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो जाती है या फिर यह गाड़ी किसी निर्दोष पर चढ़ जाती है। मतलब यही कि किताबें पढ़कर हम ग्यान तो झाड़ लेंगे लेकिन शायद ही आत्मद्रष्टा बन पाएँ..?

               दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि इसका मतलब यह नहीं कि मैं पुस्तक विरोधी हूँ..और न ही किसी प्रकाशक लेखक के पेट पर लात मारने का इरादा है, बस कुल जमा यह कहना चाहते हैं कि तनिक अपने ओर भी निहार लिया करें.. 

              हाँ...भगवान् बुद्ध ने भी कोई किताब पढ़कर आत्मदीपो भव का उपदेश नहीं दिया था.. आत्मचिंतन और ध्यान से ही यह सब उन्होंने पाया था..!

           तो भाई लोग हम सब थोड़ा सा ही सही आत्म-चिंन्तन किया करें तब निश्चित रूप से आप भी मुस्कराएंगे और दूसरे तो खैर आपको देखकर ही मुस्कुरा लेंगे।

मेरी वह अदृश्य धार्मिकता..?

बस यूँ ही 

           आज टहलते समय सुबह-सुबह कानों में आवाज पड़ी "अल्ला-हो-अकबर" इस ध्वनि को सुनकर मेरे मन में भी कुछ-कुछ भक्ति भावना सी जाग उठी!  लेकिन टहलने का क्रम जारी रहा..

     हाँ टहलने स्टेडियम तक जाता हूँ, मेरे आवास से यह स्टेडियम बारह सौ कदमों की दूरी पर है, और उस स्टेडियम का एक चक्कर आठ सौ पच्चीस कदम का होता है। अगर सबेरे पाँच बजे के आसपास उठ जाते हैं तो इस स्टेडियम का तीन चक्कर लगाते हैं नहीं तो दो चक्कर लगाकर वापस आ जाते हैं, वैसे कुल पाँच हजार कदमों के चलने का लक्ष्य लेकर चलते हैं..! हाँ कभी-कभी आलस के कारण टहलने नहीं भी जाते हैं क्योंकि मन किसी बन्धन में बँधने का नहीं भी होता और इस रूप में अपने आलस को जस्टीफाई भी कर लेते हैं.. 

         पहले इस तरह टहलने बाहर नहीं निकलते थे,  वहीं अपने लान में ही कुएं के मेढक की तरह चक्कर लगा लेते थे क्योंकि किसी का सामना न हो जाए यही सोचकर बाहर टहलने नही निकलता था। लेकिन वह तो श्रीमती जी की प्रेरणा से बाहर टहलने निकलने लगा..खैर.. 

         आज टहल कर जब अपने आवास पर आए तो "अल्ला-हो-अकबर" के सुनने से उपजी भक्ति-भावना अभी भी दिल पर तारी थी..अब मेरा भी मन कुछ-कुछ धार्मिक सा हो चला था...सोचने लगा अभी-अभी यह मन जो धार्मिक हुआ है क्या इसके पहले ऐसा नहीं था...? या फिर मन में उपजी यह धार्मिक भावना केवल कुछ क्षणों के लिए ही है..? तो क्या इस भावना के शान्त होते ही मन अधार्मिक हो जाएगा..?

          वैसे जब मन धार्मिक होता है तो कुछ करने का मन होता है, जैसे लगा कि भजन ही सुनने लगूँ..या फिर भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाऊँ..! और बस इसके बाद मेरी धार्मिकता संन्तुष्ट हो चुकी होगी...

         वैसे धर्म तो बहुत ही अदृश्य सी चीज होती है... दिखाई नहीं देती.. जब भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाऊंगा तो यह दिखाई देने लगेगी...ऐसे ही सबेरे टहलते समय कानों में पड़ी "आल्ला-हो-अकबर" की ध्वनि भी प्रगट रूप से किसी की धार्मिकता की अभिव्यक्ति थी जिसने मेरी धार्मिकता को जगाया था..! 

         फिर वह अदृश्य धार्मिकता क्या होती है..?  अरे भाई..!  वही कि चोरी न करो.. झूठ न बोलो..किसी को सताओ न (वैसे बेचारे कमजोर कहाँ किसी को सताते हैं ) हिंसा न करो वगैरह-वगैरह जैसे विचार..!  हाँ ये तो सभी धर्मों के अंग हैं..जो दैनंदिन व्यवहार के ही अंग होते हैं.. 

        तो जिस क्षण मन धार्मिक हुआ था तो क्या यह अदृश्य धार्मिकता भी मन पर तारी हुई थी..? हाँ..यही तो नहीं कह सकते..! बस जब धार्मिक मन होता है तो नहाने तक सब्र करते हैं, जैसे ही नहाते हैं झटपट दो अगरबत्ती अपने भगवान् के फोटू के सामने जला देते हैं और लोटकी में भरे ताजे पानी से आचमन भी कर लेते हैं...फिर भगवान् वाले फोटू को दो रामदाना दिखा जैसे अपने भगवान् को ललचाकर इसे अपने ही मुँह में डाल लेते हैं..! मतलब भगवान् का भी भोग लगा देते हैं..और मेरी धार्मिकता सम्पन्न हो चुकी होती है..!  वैसे यह नितांत निजी मामला है आपको नहीं बताना चाहिए था..लेकिन आजकल आर.टी.आई. का जमाना है.. तो कोई बात अब निजी नही रह पाएगी.. 

       आप कहेंगे मैं अपनी भक्ति या धार्मिक भावना का मजाक उड़ा रहा हूँ..! लेकिन भाई ऐसा नहीं है, मैं कभी-कभी अपने भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़कर भी खड़ा हो जाता हूँ...! तब वो क्या कहते हैं..? वही ईसाइयों में..! हाँ याद आ गया.. हाथ जोड़े हुए मैं कन्फेशन करता हूँ उस अदृश्य धार्मिकता को न निभा पाने के कारण..!! ऐसा करते-करते कभी आँखों में आँसू भी आ जाते हैं..! फिर विनती भी कर लेते हैं कि अगले दिन सामने खड़े होकर हाथ जोड़ने की औकात दे देना प्रभू..!

         वास्तव में ये सारे दिखाई पड़ने वाले धर्माडंम्बर हैं न..! वह उसी अदृश्य धार्मिकता के लिए ही हैं ; हम अपने-अपने तरीके से कन्फेशन करते हैं और जो ऐसा नहीं करते वही मेरा-तेरा धर्म कहते हुए विवाद करते हैं..

         मेरे इस कमरे में श्रीमती जी ने ही इस भगवान् के फोटू को..प्रसाद के लिए रामदाना की डिब्बी को..ताँबे की लोटकी को..और अगरबत्ती के पैकेट को..हाँ इन सब को उन्होंने ही रखा था...और मैंने उनकी ही धार्मिक आस्था को सम्मान देने के लिए इसे अपनी दिनचर्या में भी शामिल कर लिया है.. देखिये यह सब कब तक चलता है.. 

              "बस यूँ ही" जरा थोड़ा लम्बा हो गया..

बुधवार, 18 नवंबर 2015

भोथरे नोक वाले कलमों की पीड़ा

       एक बात है किसी बुराई के विरूद्ध खड़े आवाज के विरोध में कोई भी तर्क खड़ा नहीं किया जा सकता। इस तथ्य का लाभ किसी बुराई के विरुद्ध आवाज उठाने वाले व्यक्ति की आलोचना करने वाले आलोचक के लिए सुरक्षा-कवच के रूप में मिल सकता है। साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त लेखकों की पुरस्कार वापसी के कारण हो रही उनकी आलोचना में यही तथ्य काम कर रहा है और इस क्रम में साहित्यकारों की हो रही आलोचना निष्प्रभावी है।

        लेकिन साहित्यकारों द्वारा उठाया गया यह एक बहुत बड़ा कदम है। प्रथम तो यही कि क्या देश के ऐसे हालात हो गए हैं कि इस तरह के कदम उठाए जाएं? वास्तव में हालात कुछ भी हों फिर भी साहित्यकारों को ऐसे कदम उठाने के पहले एक बार अवश्य सोचना चाहिए। पुरस्कार लौटाकर ये साहित्यकार एक महत्वपूर्ण लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। जिस बढ़ती साम्प्रदायिकता के विरुद्ध आवाज उठाई गई है उस लड़ाई के भविष्य में कमजोर पड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। क्योंकि एक स्वांग से बेहतर होता है समाज के गहरे में उतर कर इन बुराईयों के विरुद्ध ठोस वैचारिक धरातल बनाना और इस रूप में एक वास्तविक लड़ाई लड़ना जो समाज को प्रभावित कर सके। इन साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के कदम ने उन्हें किसी विचारधारा के विरोध में न दिखाते हुए मात्र एक संवैधानिक सरकार के विरोध में दिखा दिया है।


         भारतीय समाज एक जटिल ताने-बाने से निर्मित समाज है यहाँ सरकारें भी सामाजिक सोच से बनती बिगड़ती हैं। स्वयं लेखकों की प्रतिबद्धताएं भी विभाजित रही हैं। यदि ऐसा न होता तो दलितों की पीड़ा के लिए दलित साहित्य का जुमला न चला होता। इसका अर्थ स्पष्ट है कि ये लेखक अपने सामाजिक अनुभव और उससे उपजे सरोकार को सीमाओं में बाँधते हैं। लेखकों की इस विभाजित प्रतिबद्धताओं का इस्तेमाल उनके पुरस्कार वापसी के ब्रह्मास्त्र के विरूद्ध किया जा सकता है। भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में इस कार्य में लेखकों की अपेक्षा नेतृत्व वर्ग ही सफलता अर्जित करेगा। स्वयं लेखकों के इस कदम ने एक अलग तरीके के सम्प्रदायवाद की राजनीति करने का श्रीगणेश कर दिया है। और एक तथ्य यह भी है कि एक वैचारिक ध्रुवीकरण एक दूसरे तरह के वैचारिक ध्रुवीकरण को जन्म दे दिया करता है चाहे यह साहित्यिक या लेखकीय ही क्यों न हो, और मुख्य मुद्दा नेपथ्य में जा सकता है। एक तरह की राजनीतिक लड़ाई को पुरस्कार वापसी वाले इन साहित्यकारों ने हथियाने की चेष्टा की है और इस रूप में ये राजनीतिक मोहरे बनते जा रहे हैं।यहाँ इनके कलमों के नोक अब भोथरे दिखाई देने लगे हैं। इस कृत्य को कलम की लड़ाई मानना भी भूल होगा क्योंकि कलम की स्याही ही स्थाई और असरकारी होती है। अन्त में इन पुरस्कृत साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के कृत्य में एक दोष दिखाई देता है वह यह कि ये लोग किसी पीड़ा का सामान्यीकरण करते नहीं दिखाई दे रहे बल्कि कुछ घटनाओं का ही सामान्यीकरण करते दिखाई देते हैं।     

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

ये धार्मिक संगठन

                 वैसे कोई भी संगठन या संघ हो इनके उद्देश्यों को लेकर मन में हमेशा ही संदेह रहा है...खासकर भारतीय संविधान के अंगीकरण के पश्चात ! वैसे ऐसे किसी यूनियन या संगठन की आवश्यकता तभी हो सकती है जब किसी व्यक्ति या संस्था के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा संवैधानिक संस्थाओं द्वारा न हो पा रही हो | लेकिन गैर संवैधानिक संगठन अपने असंवैधानिक अधिकारों के लिए ही अधिक प्रयत्नशील दिखाई देते हैं| यह प्रवृत्ति विशेषकर धार्मिक संगठनों में ही अधिक दिखाई देती है| ये धार्मिक संगठन अपने संगठन को और अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए तथा अपने लिए अधिक जनसमर्थन जुटाने के लिए अपने धार्मिक समुदायों में तमाम तरह के धार्मिक भावनाओं को उभारने की कोशिश भी करते रहते हैं| भारत जैसे बहुधार्मिक वाले राष्ट्र के लिए यह प्रवृत्ति खतरनाक है क्योंकि ऐसे संगठन एक दूसरे धार्मिक समुदाय की प्रतिक्रिया में ही खड़े दिखाई देते हैं और इस रूप में यह असंवैधानिक है, ऐसे किसी भी धार्मिक संगठन को यदि ये संगठन अपने समुदाय में अन्तर्निहित दुष्प्रवृत्तियों को नहीं पहचानते और इसके लिए सुधारात्मक उपाय नहीं करते तो ये संगठन देशद्रोही संगठन की श्रेणी में माने जाने चाहिए| वैसे हमारी संस्थाओं का भी एक प्रमुख दायित्व यह देखना भी है कि ऐसे धार्मिक संगठनों का उदय आखिर किन परिस्थितियों में होता है? 
         
                विश्व हिन्दू परिषद् भी एक धार्मिक संगठन है और निश्चित रूप से तमाम धार्मिक संगठनों वाली बुराइयाँ इस संगठन में भी हैं, मैं एक हिन्दू हूँ और इसमें किसी धार्मिक संगठन का कोई योगदान नहीं है, हाँ भारतीय नागरिक हूँ इसमें भारतीय संविधान का योगदान अवश्य है| राम मंदिर आन्दोलन को  छोड़कर जिसके कारण भारतीय नागरिकों के बीच अविश्वास की खाई ही चौड़ी हुई है इसे छोड़ इस संगठन का कोई योगदान दिखाई नहीं देता और इस योगदान को भी देश भक्ति की श्रेणी में नहीं माना जा सकता| अब ऐसे संगठनों के नेताओं को आप किस श्रेणी में मानते हैं इसका सर्वाधिकार आप में निहित है|

पंचायतीराज..

         गजब का झुनझुना है यह.! अरे वही पंचायतीराज का..! आते-जाते दो दिनों से ब्लाक कार्यालय को देख रहा हूँ.. पंचायतीराज के भावी उम्मीदवारों से अटा पड़ा है इस कार्यालय का परिसर में तिल रखने की जगह नहीं...जैसे, किसी नौकरी के खाली पद की वैकेंसी के लिए मारामारी मची हो...!

          फिलहाल पंचायतों के प्रतिनिधियों के लिए कोई वेतन-सेतन की व्यवस्था तो है नहीं...महीने पर इनको थोड़ा-बहुत मिलने वाला मानदेय भी सरकारी अमले के स्वागत-सत्कार में ही खर्च हो जाता होगा..! लेकिन फिर भी इन पदों के लिए इतनी मारामारी...!!
  
          हो सकता है लोगों में जबरदस्त जनसेवा का भाव छिपा हो....और अवसर देख यह भावना प्रकट होने के लिए बेताब हो रही हों..? तब तो एक बात है हमारे देश के निवासियों में जनसेवा की बड़ी प्रबल भावना छिपी हुई है...! अन्दर ही अन्दर यह भावना लोगों के हृदयों में कुनमुनाती रहती है...बस उचित अवसर मिला नहीं कि यह बाहर निकल हिलोरें मारने लगती है...चुनाव भी तो आखिर जनसेवा के लिए ही होते है...हाथ जोड़े भावी प्रतिनिधियों की मंशा तो यही कहती है...इसके अलावा तो मुझे कोई और भावना नहीं दिखाई देती..इसके पीछे अन्य बात सोचना...फिर तो जनप्रतिनिधि का अपमान होगा....या फिर...
       
       "जिसके दरवाजे पर सुबह-सुबह ही चार-छह-दस लोग इकट्ठे न हो जाएँ तो फिर वह कौन सा आदमी..? फिर तो उसके लिए चुल्लू भर पानी में डूबने के समान है...हाँ साहब जी, गाँव में रहना है तो बिना इसके गाँव में रहना बेकार है...! बहुत दिन से परधानी रही है..अबकी साहब..! देखो कौन सीट होती है..? चुनाव न लड़ पाए तो लड़ावेंगे जरूर...मुला साहब इन नए लड़िकन क कौन कहे..ये ससुरे..कहु के घरे में मुँह-अँधेरे कूदो जैइहें लेकिन नेता जी थाने से इन्हें छुड़ाये दैहें...फिर ये ससुरे दिन उजाले गाँव भर में नेता बने फिरे...और गाँव वाले इनसे डरे ऊपर से...! हाँ थोड़ा-बहुत खतरा इन्हैं से है...लेकिन साहब, मने भी कम नहीं खेले...मेरे सामने किसी की न चली..बस बड़कौने नेतवौ को थोड़ा साधे के पड़े.."


             हाँ...कुछ यही बातें कही थी गाँव के उस पंचायत प्रतिनिधि ने...मुझे गाँव में मिनरल वाटर पिलाते हुए..! हो सकता है गाँव-गाँव से ब्लाक कार्यालय पर पंचायत चुनाव नामांकन के लिए आई इस भीड़ का एक कारण यह भी हो...खैर..

            कुछ भी हो गजब का है यह पंचायतीराज..! ये बड़कौने पंचायत वाले छोटकउने पंचन को कठपुतली बना लेते हैं..। ये कहते हैं -


                "भाई उलझे रहो अपनी पंचायत में..तुम भी सजा लो अपना दरबार...हमें क्या फर्क पड़ता है..! सदियों से सब लोग दरबार ही तो सजाते आए हैं यहाँ..!  लेकिन यदि हमारी ओर जरा भी देखने की कोशिश किये तो तुम्हारा भी पिटारा खोलते हमें देर नहीं लगेगी..! बड़े आए विकास कराने वाले..! बड़ी जतन से पास कराकर यह पंचायतीराज वाला झुनझुना तुमको दिए हैं....बजाते रहो इसे..!!"
                        ----------------विनय

सोमवार, 16 नवंबर 2015

हुँवाबाजी से लड़ता संस्था का पदाधिकारी....



          वह एक बेहद संवेदनशील आम आदमी के सरोकारों से संबंधित कार्यों वाले संस्था का पदाधिकारी था। वह अपने कामों को मनोयोग पूर्वक और आम आदमी के हितों को दृष्टि में रख करता जा रहा था। उस व्यक्ति की ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा पाता था।और वह व्यक्ति हमेशा अपने धारित पद से न्याय की कोशिश में लगा रहता।

       एक बार ऐसे ही वह अपने पद पर कार्य करता जा रहा था। उस संस्था से अनुचित तरीके से अपना स्वार्थसिद्ध करने वाले कुछ लोग हुआ करते थे जिनके अनुचित स्वार्थसिद्धि वाले हित संस्था के उस पदाधिकारी के कारण बाधित हो गए थे। संस्था के ये अनुचित लाभार्थी अपने व्यक्तिगत प्रयास करते हुए उसे उसके उद्देश्यों से कई बार डिगाने के भी प्रयास किए लेकिन वह पदाधिकारी अपने लक्ष्य से टस से मस नहीं होता तथा किसी भी दुरभिसंधि में अपने को सम्मिलित भी नहीं होने देता। हालांकि आम व्यक्ति उसके कार्यों से बेहद प्रसन्न रहते थे।

          अब संस्था से अनुचित लाभ पाने वाले स्वार्थी तत्व उसके कामों में मीन-मेख निकालने लगते। कुछ लोग तो यह भी दुष्प्रचारित करते कि वह लोगों का काम नहीं करता। हालांकि उसकी कर्तव्यनिष्ठा पर कोई प्रश्नचिह्न खड़ा न कर पाता लेकिन उसे हतोत्साहित करने का पूरा प्रयास किया जाता।

            इस पूरी परिस्थिति में आम आदमी वास्तविक तथ्यों से अनजान इन्हीं स्वार्थी तत्वों के प्रभाव में होता इसलिए वे भी उस व्यक्ति के पक्ष में खड़े नहीं होते थे। कभी-कभी संस्था से जुड़े ये स्वार्थी तत्व अाम आदमी को भी बरगलाकर संस्था के उस पदाधिकारी के विरुद्ध खड़ा कर देते। इन सब स्थितियों के बाद भी वह व्यक्ति संस्था के उद्देश्यों के लिए काम करता रहता और आम आदमी के हितों के लिए स्वार्थी तत्वों से टकराता रहता। इस टकराहट में कभी-कभी वह व्यक्ति अपने को अकेला पाता और लोगों की खिल्ली का भी शिकार बनता।

            एक दिन संस्था के निहित स्वार्थी तत्वों के प्रभाव में एक ऊँची संस्था उस पर आरोप तय कर देती है और उस व्यक्ति को संस्था के उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया जाता है तथा अखबारों में विज्ञापित होता है कि एक संस्था के पदाधिकारी पर कार्यवाही और दूर का आम आदमी इन अन्दरूनी तथ्यों से अनजान खेल को समझ ही नहीं पाता। जबकि आम आदमी के बारे में सोचने वाला कोई व्यक्ति अब उस संस्था में नहीं था।

          इस समय देश में व्यर्थ के विवादों को बेहद तूल दिया जा रहा है इसपर बोलने और लिखने वाले भी जैसे अपने-अपने खेमे तय कर के बोल या लिख रहे हों। और इस खेमेबाजी में एक और तथ्य की झलक मिल रही है, जैसे यदि एक सियार हुँवां बोला तो इलाके के सारे सियार हुँवां-हुँवां बोलने लगते हैं। बस भय यही है कि इस हुँवांबाजी में अपने दायित्वों के प्रति सजग संस्था के किसी पदाधिकारी पर अनजाने कोई कार्यवाही न हो जाए।

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शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

..क्योंकि हमें साथ ही रहना है

घने जंगल के बीच से गुजरते हुए उस हाईवे के किनारे के पहाड़ के एक बड़े से पत्थर पर लिखे वाक्य "जय जीसस" पर निगाह क्षण मात्र के लिए ठहर सी गई। एक क्षण के लिए लगा इस घने जंगल के बीच इस वाक्य का क्या काम...फिर सोचा यह किसी धर्म प्रचार का हिस्सा तो नहीं? दूर दराज के ऐसे जंगली हिस्सों में गरीब या आदिवासी समाज के लोग ही रहते हैं और यह उन्हीं के लिए या उनके द्वारा ही लिखा गया हो?

          खैर, क्षण-मात्र के लिए इस "धर्म प्रचार" जैसे तरीके पर मन उलझा अवश्य! लेकिन यही मन यह देखकर संयत हो गया कि चलो लिखा है तो हिन्दी भाषा में ही, फिर इस वाक्य से मैंने भी अपनापन जोड़ लिया और फिर मुझे यह किसी धर्म प्रचार का हिस्सा नहीं लगा। आप लिखे हुए उस शब्द के प्रति इसे मेरी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया समझ सकते हैं।

           चूँकि अपनी इस मानसिक प्रतिक्रिया को मैंने मनोवैज्ञानिक माना अतः कोई कारण नहीं कि इसे एक सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया न माना जाए। कहने का आशय यहाँ मात्र इतना ही है कि विरूद्ध सी प्रतीत होने वाली बात में भी यदि कुछ अपनापन सा झलक जाता है तो मन उसके प्रति सहज हो जाता है और यह मन उसके साथ एक तरह से सह-अस्तित्व की धारणा बना लेता है। शिलापट्ट पर वह वाक्य हिन्दी में ही लिखा था। यदि यही वाक्य अंग्रेजी में लिखा होता तो मन उसे एक विरोधी विचारधारा मान उसके प्रति असहज हो जाता। अतः सहिष्णुता भी दो समुदायों की अन्तर्क्रिया से निर्मित होती है।

          उस क्षण दो विपरीत विचारों को जोड़ने का काम भाषा ने किया। वास्तव में किसी भी भाषा को किसी धर्म विशेष के लिए आरक्षित नहीं किया जा सकता। कोई भी भाषा जिस क्षेत्र में बोली,पढ़ी और समझी जाती है वह वहाँ के लोगों के लिए उनके आपस के विभिन्न मत-मतान्तरों के बावजूद भी उन्हें आपस में जोड़ने के लिए सेतु का कार्य करती है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में इस्लाम धर्म को मानने वाले भाषा के भी धर्म से जोड़ते हैं परिणामस्वरुप उनके धर्म की बातें सामान्य जनों के लिए बेगानी सी प्रतीत होती रहती हैं।

           हिन्दी क्षेत्र में लिखना पढ़ना सुनना सब हिन्दी में ही होता है चाहे वह इस क्षेत्र के हिन्दू मुस्लिम या किसी भी धर्म के माननेवाले हों। लेकिन मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं अन्य शैक्षिक संस्थानों के नामों समेत इस्लाम से सम्बंधित धार्मिक विचार सम्बन्धित सूचना बोर्ड हिन्दी में लिखे हुए दिखाई नहीं देते। धार्मिक विचारों के लिए समुदायों के बीच भाषा सम्बन्धी सेतु के अभाव में धर्म को लेकर समुदायों के बीच एक दूरी पनपती रहती है जो साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों के लिए आग में घी का काम करती है।

          इस्लाम के मतावलंबियों ने भारत जैसे देश में उर्दू भाषा और इसकी लिपि को इस्लाम धर्म से जोड़कर इसे धर्म समुदाय विशेष की भाषा घोषित कर दिए हैं। इसका परिणाम यह है कि एक ही भाषा क्षेत्र के निवासी होने के बाद धार्मिक भाषा को लेकर दो समुदायों के बीच कृत्रिम दूरी दिखाने का प्रयास किया जाता है जो सामाजिक अन्तर्क्रिया को बाधित करता है।

           एक बात और है कोई भी भाषा किसी धर्म विशेष की भाषा नहीं हो सकती। यदि ऐसा होता तो दक्षिण भारत में भी हिंदी भाषा ही बोली जा रही होती। यह भी दृष्टव्य है कि संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा होने के बाद भी जब देवभाषा बनी तो यह आमजन की भाषा नहीं रह गई थी और आमजनों के लिए पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश से होते हुए इसे हिन्दी बनना पड़ा।

        अन्त में बात बस बात यही है कि हमारा सह-अस्तित्व है। हमें एक दूसरे की बातों, विचारों और भावनाओं को साझा करना पड़ेगा इसके लिए भाषा ही एक महत्वपूर्ण सेतु है। बेशक हम एक ही भाषा बोलते हैं लेकिन दिवारों पर जय जीसस, वाहे गुरु , अल्ला हो अकबर, जय श्रीराम स्थानीय भाषा में लिखा दिखाई दे जाए तो इन सभी से बड़ा अपनापन झलकेगा।

       चूँकि भारतीय चाहे किसी भी धर्म के हों बहुत भावुक भी होते हैं, इन बातों को ऊपर से नहीं थोपा जा सकता इस प्रवृत्ति को हमें स्वतः विकसित करना होगा। हो सकता है बौद्धिक सेक्यूलर तर्कवादियों के सहअस्तित्व सम्बन्धी तर्क यहाँ दूसरे हों लेकिन आमजन तर्कवादी नहीं होता वह भावनाओं से परिचालित होता है और तमाम जद्दोजहद में अपनापन तलाश करता रहता है। ऐसे लोगों को बहुत आसानी से बरगलाया भी जा सकता है।

             इन सब पर भी हमें सोचना होगा...क्योंकि हमें एक ही साथ रहना है।

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ये बच्चे भी स्कूल जाने के लिए रोते हैं...

         कल दीया जला रहे थे...और यह दीया अँधेरा रहने तक जलता रहे..कुछ यही सोचते हुए दियालियों में मैं भर भर तेल उड़ेले दे रहा था...! दिया जलाने के लिए तेल की आवश्यकता तो होती ही है...हाँ इसी चक्कर में तेल की बोतल लगभग खाली हो गयी थी...और इस खाली बोतल को देखकर दिमाग में आया कि दिया जलाने से बेहतर है कि चलो रोशनी की ही सब को शुभकामनाएँ दे डालें...नाहक इसके लिए तेल का बोतल खर्च किए दे रहे हैं..!! सुबह तो उजाला हो ही जाएगा...!! खैर..  
          सुबह के लगभग पाँच बज रहे होंगे..लेकिन अभी भी अँधेरा ही था...श्रीमती जी मुझे जगा रही थी...मोर्निग वाक के लिए..! इधर सबेरे-सबेरे जब-तब वो मुझे अपने साथ चार-पाँच किलोमीटर टहला आती हैं...हालाँकि मैं एक दिन टहलता हूँ तो दो दिन आराम भी करता हूँ...आज टहले कई दिन हो गए थे..एक बार तो सोचा...चलो टहल आयें....साथ ही अपने जलाये दीयों को देख भी लें कि वे अभी भी जल रहे हैं या नहीं...क्योंकि अभी तक तो अँधेरा ही है...! पता भी चल जाएगा कि रात भर के लिए इन दियों में तेल डाला था या नहीं..लेकिन न जाने क्यों नींद की खुमारी अभी भी छायी हुई थी...फिर जलाए वे दिये तो कब के बुझ चुके होंगे क्योंकि इतना तेल उन दीयों में नहीं डाल पाए थे...हाँ यही सोचते हुए मैंने श्रीमती जी से कहा, “यार अभी सोने का मन है..” और चद्दर तानकर फिर सो गए..हाँ वे अकेले ही टहलने निकल गयीं थी...
       
         इधर सुबह हुई, मैं सो ही रहा था...श्रीमती जी टहलने-टुहलने से लौट आई और चाय बनाने के बाद मुझे पुकारा..”अरे सोते भी रहोगे कि चाय-वाय भी पियोगे..?” मेरी आँख खुली देखा तो धूप किचन के रोशनदान से आ लाबी के फर्श पर बिखरी थी..जैसे जैसे मुझसे ही कह रही हो, “जागो मैं तुम्हें जगाने आई हूँ..जागो..! जागोगे तभी इस उजाले को और मेरा अहसास कर पाओगे...” ठीक इसी समय वह पुरानी बात भी याद हो आई...तब पढ़ते थे...तो ऐसे ही जब कभी सबेरे सोकर उठने में मैं देर करता तो माँ की यह आवाज मेरे कानों में गूँज रही होती... “जो सोवत हैं सो खोवत हैं, जो जागत हैं सो पावत हैं” और मैं जान जाता यह मुझे ही सुनाते हुए बोला जा रहा है...   
         
        खैर, पत्नी की “चाय-वाय भी पियोगे?” की आवाज सुन तथा फर्श पर बिखरी धूप को देख सोचा ओह..! इतनी धूप निकल आई और मैं सोता रहा..! हो सकता हैं रात भर मेरे जलाए ये दिये भी बेमतलब से ही जलें हों.? सोते हुए लोग इसकी रोशनी और लौ को कहाँ देख पाए होंगे..? और मैं भी तो इन्हें जलाकर ही सो गया था..! फिर विचार आया...चलो जब जागो तभी सबेरा..और..झटपट हाथ मुँह धोकर मैं श्रीमती जी के साथ चाय पीने बैठ गया...
        
         चाय पी लेने के बाद घर से बाहर निकला तो देखा धूप रुई के फाये जैसा एहसास दे रही थी...बस..मन बाहर निकलने का हो गया...एक तरह से सुबह का टहलना मेरा अब जाकर शुरू हुआ...
        
        पैदल चालन के लगभग दस मिनट हो चुके थे...किसी भीड़-भाड़ से बचने के लिए मैं एक नए विकसित हो रहे कालोनी के रास्ते पर हो लिया...एक छोटी सी झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्ती दिखाई पड़ी..सड़क पर उसी बस्ती के कुछ बच्चे आपस में बातें करते हुए खेल रहे थे...मैंने इनकी बातें सुनने का प्रयास किया...हाँ भाषा तो समझ में नहीं आई...लेकिन बच्चों के खेल की भाषा देखकर..मैं समझ गया कि दुनियाँ के सारे बच्चों की भाषा एक जैसी ही होती है, वही उनके अन्दर की भाषा है...!! इस भाषा पर इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि ये बच्चे झुग्गी-झोपड़ी वालों के हैं या बँगलों के..! हाँ मैं भी तो ऐसे ही कभी खेला करता था...इन बच्चो की भाषा बिलकुल हमारे बचपन की भाषा से मिलती-जुलती थी...जिसे मैं समझ गया...
        
       मैंने एक बच्चे को अपने पास बुलाया..एक-एक कर सारे बच्चे मेरे पास आ गए...मैंने उस बच्चे से पूँछा, “बेटा स्कूल जाते हो...?” उसने कहा, “हाँ” और किसी अंग्रेजी स्कूल का नाम भी बताया! मेरे यह पूंछने पर आप में से कौन-कौन बच्चा स्कूल जाता है...? तो उन बच्चो में एक थोड़ी सयानी बच्ची बारी-बारी उन बच्चों के कन्धों पर हाथ रख बताने लगी, “ये जाते हैं...ये जाते हैं...ये जाते हैं...ये नहीं जाते...ये नहीं जाते..ये जाते हैं...”  एक छोटा बच्चा जो स्कूल नहीं जाता था मैंने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, “ये तो अभी छोटा है इसलिए स्कूल नहीं जाता होगा..क्यों?” बच्ची ने झट से अपना सिर हिलाया और कहा, “हाँ इसीलिए..” लेकिन उस बच्ची की एक बात पर चौंक उठा..जब उसने अपनी झुग्गी बस्ती की ओर इशारा करते हुए कहा, “वहाँ कुछ और बच्चे हैं जो स्कूल जाने के लिए रोते है...!!”
      
        उस बच्ची की बात सुन मैंने सोचा “इस झुग्गीवाली बस्ती के बच्चे स्कूल जाने के लिए रोते हैं..!!” मैं चौंक उठा...मुझे एक रोशनी सी दिखाई पड़ी...फिर मैंने बच्चों से पूँछा, “तुम्हारे मम्मी-पापा क्या करते हैं...मजदूरी या कूड़ा बीनते होंगे...?” उसी बच्ची ने हिचकते हुए बताया, “हाँ..कूड़ा बीनते हैं..” हालाँकि मैं पहले से जानता था कि शहरों की ऐसी बस्तियों के लोग अकसर कूड़ा ही बीनते हैं या फिर लोगों के घरों से कूड़ा उठाते हैं...मुझे बात करते-करते एक-दो साइकिल ठेले कूड़े से लादे आते-जाते दिखाई भी पड़े...
      
        क्षण भर के लिए मैंने सोचा, रात के फूटते पटाखों और जलाए दीयों के साथ प्रकाश-पर्व की शुभकामनाएँ हमने खूब बाँटा...! और जब सही में अँधेरे में रोशनी करने की सोची थी तो तेल से खाली हुई बोतल आँखों के सामने नाच गई...बिना तेल के तो कोई रौशनी की ही नहीं जा सकती...बाकी मेरे सुपुत्रों ने मुझे दीवाली के ही दिन मेरे फेसबुक स्टेट्स को पढ़ मेरी खिल्ली उड़ाने के अंदाज में “बड़ी-बड़ी बाते करने वाला” घोषित कर दिया था...इसी समय बम्बई में बचपन की सुनी वह बात जैसे याद हो आई हो.. “क्या खाली-पीली बोम मारता है..?” सो, शेष सब बातें ही होती हैं..अपनी बातों की निरर्थकता मैं जानता हूँ...
       
         सोचा दीवाली की रात के बाद सूर्य के उजाले में ही सही इन बच्चों को रौशनी की शुभकामनाएँ ही दे दे..लेकिन मैं यह भी जानता था शुभकामनाएँ लेना देना तो बड़ों का ही खेल है..इनके लिए तो नहीं...! शुभकामनाओं से इन बच्चों पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं...लेकिन..मैं अकस्मात् बच्चों से कहने लगा...
         
          “बेटा तुम लोग खूब पढ़ा करो...स्कूल जरुर जाया करो..”
         
         ठीक इसी समय ऊपर से गड़गड़ाहट के साथ एक हवाईजहाज गुजरने लगा था..बच्चों की उत्सुकता भरी आँखों के साथ मेरी भी आँखे ऊपर आसमान की ओर उठ गई...मुझे इनकी आँखों में ऊँची उड़ान की ललक दिखाई पड़ी...
         
        ....इस ललक के साथ ही इन बच्चों के चेहरों के पीछे छिपी हुई रोशनी भी मुझे दिखाई देने लगी थी...मुझे अपनी माँ की वह आवाज याद आ गई... “जो सोवत हैं सो खोवत हैं, जो जागत हैं सो पावत है..” मतलब इनकी बस्तियों में यदि केवल ऐसी ही आवाजें सुनाई देने लगे तो इन बच्चों से इनके अन्दर की छिपी हुई रौशनी स्वतः फूट पड़े...क्योंकि ये बच्चे स्कूल जाने के लिए भी रोते हैं...
          
        घर लौट कर जब श्रीमती जी से इन बातों को बताया तो उन्होंने मुझसे कहा, “हाँ ये सब असाम से आये लोग हैं...सबेरे उठते टहलते समय हम इन बच्चों को रेल लाइन पर गुजरती मालगाड़ी के ड्राइवर से भी टाटा-बाय-बाय के अंदाज में उत्सुकता से हाथ हिलाते हुए अकसर देखा करते है...”
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ध्यान दीजिए और अपना अपराधबोध पहचानिए...

      उस दिन श्रीमती जी ने खाने के लिए दाल-रोटी दिया था। बस, कुछ ही क्षणों में यह भोजन सफाचट कर हाथ मुँह धो मैं उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। श्रीमती जी ने मुझे घूरते हुए पूँछा "खा लिए?" मैंने कहा "हाँ"। उनका अगला प्रश्न था "इतनी जल्दी खा लिए " इसके उत्तर में मेरे फिर "हाँ" कहने पर एक मधुर गुस्से में उन्होंने कहा "वही बचपन की आदतें अभी तक नहीं गई! अरे चबा-चबा कर खाया करो और खाते समय खाने पर ही ध्यान दिया करो..पता नहीं खाते समय क्या सोचते रहते हो? यदि ऐसा ही करोगे तो दाँत कमजोर होंगे ही स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा!" बाप रे!

          आप विश्वास नहीं करेंगे दूसरे दिन जब इसी दाल-रोटी को मैंने खूब चबा-चबा कर और खाते समय केवल अपने इस भोजन के स्वाद आदि पर ही ध्यान देते हुए खाया तो हमें एक नए तरीके की अनंदानुभूति हुई। और खाने के बाद मुझे एक प्रकार के सामाजिक अन्याय का भी अहसास होने लगा। लोग सोचेंगे बेटा..! तुम्हारे पास तो दाल-रोटी है, इसे खूब ध्यान लगा कर खाओ और खाने की आनंदानुभूति ले लो..। लेकिन जिसके पास यह दाल-रोटी मुअस्सर नहीं वह क्या करे..? यह बड़ा अजीब बेढब सा प्रश्न मेरे सामने आकर खड़ा हो गया...! इस प्रश्न की मुस्कुराहटों को देख मैं चौंक गया! दिल के किसी कोने में नैतिकता की अलंम्बरदारी (हाँ..केवल साहित्य की रचना के लिए) का ठेका लिए होने के कारण यह प्रश्न मेरे सामने आकर उछल-कूद मचाते हुए मेरा मुँह चिढ़ाने लगा। इस प्रश्न की उछल-कूद से मैं बौखला गया और फिर पत्नी के ऊपर यह सोचकर मन ही मन झल्ला उठा कि नाहक ही इनके चक्कर में यह बवाल मोल ले लिया..!

         खैर, यह जो मन है न, वह होता बड़ा अजीब है..! हर अपराधबोध से बचने के लिए कोई न कोई तर्क खोज ही लेता है। जैसे बिहार में हुई हार के लिए ये पार्टी वाले लोग खोज लेंगे..! मैं दाल-रोटी खाते समय इस खाने से उपजे आनंद से आनंदित हो ‘सामाजिक-अन्याय’ कर देने के पीछे के अपने "ध्यान" को ही इस अपराधबोध से बचने के लिए हथियार बनाया...मतलब जो ध्यान देगा वह तो खाएगा ही...आखिर ध्यान से ही तो योग्यता अर्जित हो सकती है...इस ‘ध्यान’ नामक तत्व के सहारे से ही तो गौतम जी बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे...! इसमें किसका निहोरा..? क्या बुद्धत्व प्राप्त कर उन्होंने सामाजिक अन्याय कर दिया था..?
         
         मैंने भी तो जब पढ़ने-लिखने पर थोड़े समय के लिए ही सही ध्यान दिया तो नौकरी मिल गई! और फिर आज की यह दाल-रोटी मुअस्सर हुई। मतलब ध्यान से बुद्ध बन सकते हैं तो अपने काम पर ध्यान देने से दाल-रोटी भी मिल सकती है! फिर मैंने ही ध्यान देकर कौन सा गुनाह कर दिया..? हाँ, जिसने ध्यान नहीं दिया वह रोए अपनी असहायता का रोना और फँसे दुःख के दुश्चक्र में..! अब अपने इस तर्क से मैं बेतरह खुश हो गया और जैसे मेरा अपराध-बोध रफूचक्कर हो चुका था...आखिर मैं अपने ध्यान की रोटी जो तोड़ रहा था..! इसमें किसी का अहसान कैसा..?

          मैं अपने इस ध्यान सम्बन्धी तर्क पर अभी खुश हो ही रहा था कि जैसे मुझे कोई आवाज सुनाई दी हो "बेटा! तुम चोर हो...बुद्ध ने तो अपना ध्यान सबमें बाँट दिया था….सबको बुद्धत्व सिखा गए..! लेकिन तुमने क्या किया..? इस ध्यान से केवल अपने लिए ही दाल-रोटी जुटाया...तुम्हारा ध्यान तो केवल तुम्हारे ही काम आया..! इसे बाँटा भी नहीं..!!”

         "मैं चोर? मैंने ध्यान नहीं बाँटा..?"  बात मेरी समझ में नहीं आई...भला ध्यान भी कोई बाँटने की चीज होती है..? जबकि ध्यान बंटा तो गए काम से..तब तो ध्यानभंग..! तभी मुझे लगा जैसे कोई सामाजिक न्याय का पुरोधा कह रहा हो "हाँ तुमने चोरी की है वह भी ध्यान की चोरी..सारा ध्यान तुमने अपने लिए ही बटोर लिया..! जब वे बेचारे अपने पेट के लिए तुम्हारे खेतों में तुम्हारे लिए रोटी बो रहे थे तब तुम उनके हिस्से वाले ध्यान की भी चोरी कर रहे थे..! इसीलिए आज रोटी-दाल खाने की आनंदानुभूति ले रहे हो..अरे, उनके हिस्से वाला वह ध्यान उन्हें लौटाने की कौन कहे उल्टा तुमने उन्हें ही मजदूर, कमजोर, बेबस बनाकर उन्हें नीचा भी बता दिया तथा स्वयं ऊँची कुर्सी पर बैठ अपनी इसी चोरी पर इतराने भी लगे..! इस चोरी पर ज्यादा मत इतराओ..समझे..?

        अब काटो तो मुझे खून नहीं, जैसे किसी चुनाव में मेरा अपराध-बोध जीत गया हो और मैं हार गया होऊँ...और..जैसे मेरे ध्यान की गठरी खुल गई हो, सारा भेद खुल गया और मेरी चोरी पकड़ी गई हो...सब मुझे चोर समझ जैसे दौड़ाए ले रहे हों..! हाँ, चुनाव की बात पर ध्यान आ गया...अभी-अभी कोई चुनाव परिणाम आया है..लोग इसे सामाजिक-न्याय की आवाज भी कह रहे है।
         मैं चौंक उठा..! नए-नए आए इस सामाजिक-न्याय पर ध्यान चला गया। अब यह ध्यान दाल-रोटी वाली आनंदानुभूति देने वाला ध्यान नहीं बल्कि अपराध-बोध से उपजा हुआ ध्यान था किसी दुश्चक्र से मुक्ति देने वाले टाइप का ध्यान..! इस ध्यान से ध्यान देने पर मैंने पाया -

          ..वही मजदूर, कमजोर लोग, अरे, अब तो कहने में कोई संकोच नहीं...वही नीची जाति वाले..जिन्हें हमने नीचा समझ लिया था और जिनके हिस्सों का ध्यान चोरी करते-करते हम ऊँची जाति वाले बन गए थे...जब हम उनके हिस्से का ध्यान खुशी-खुशी स्वतः ही नहीं लौटाए तो वे ही अब अपने उसी चोरी हुए ध्यान को हमसे छीने ले रहे हैं!! बुद्ध ने तो अपना ध्यान इन्हीं लोगों में बाँट दिया था...हमने तो इस ध्यान को अपने लिए दाल-रोटी में बदल लिया और इसे अब तक केवल अपने ही कोठारों में छिपाते रहे...वे बेचारे अब तक सोते रहे तथा हम ध्यान दर ध्यान अर्जित करते रहे..! लेकिन उनका जागना हमें खल गया क्या..? फिर इसमें रोना-चिल्लाना क्यों..?  ये बेचारे किसी दूसरे का हक् तो छीने नहीं केवल अपना ही खोया हुआ ध्यान वापस ले रहे हैं...हक् ले लेना बुरी बात नहीं....इसके लिए इन्हें बधाई..! अब ये भी ध्यान लगाने के काबिल बनेंगे..कम से कम ये भी अब अपने लिए दाल-रोटी का आनंद उठाने के लायक तो बन सकेंगे..! हाँ इस पूरी प्रक्रिया में ध्यान नमक जो जीन हमारे अन्दर है..वही जीन इनके अन्दर भी पहुँचेगा..!

         भाई लोग इसे भी पचाओ...! हम लोगों की तो बड़ी-बड़ी चीजें पचा लेने की आदत रही है! इतना न पचाए होते तो हम इतने सांस्कारिक और पारिवारिक कैसे बने होते..? क्या हम लोगों ने गाँव-गाँव फैले अपने परिवारों पर ध्यान दिया है? जरा ध्यान दीजिए, कैसे गाँव-गाँव पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे सांस्कारिक परिवारवाद के नीचे ये कमजोर और मजदूर हमारे लिए ही पिसते रहे और हम इन सबका ध्यान भी अपने लिए ही सुरक्षित कर अपना ही फैसला पीढ़ी दर पीढ़ी इन पर थोपते रहे? और बिना ध्यान वाले ये लोग जो अब तक हमारे ध्यान के मारे थे..आज इन्होंने थोड़ा सा फैसला क्या सुना दिया कि हम लगे चिल्लाने..? मेरे भाई अब यही फैसला सुनाएंगे और हमें सुनना भी पड़ेगा...
          
          हाँ..अभी इनके परिवारवाद पर अँगुली न उठाइए..! इन बेचारों में तो दो-चार ही परिवारवादी होंगे! ये बेचारे क्या परिवारवादी बनेंगे? हम लोगों ने तो पहले से ही अपने परिवारवाद के लिए इनके हिस्से की जमीनें भी छीन रखी है..इनका भी कोई परिवारवाद हो इस पर तो हमने न तो इन्हें मौका दिया और न ही इस बात पर कभी हमने ध्यान दिया...क्योंकि तब हमारे परिवारवाद को खतरा होता..!! आखिर मजदूरों कमजोरों दलितों का कौन सा परिवारवाद हो सकता है..? वे बेचारे तो हमारे ही परिवारवाद को बढाने के काम आते हैं...हाँ दो चार परिवारवादियों की भी जो बात आप कर रहे हो न, वे भी इन कमजोरों मजदूरों के सपने हैं, उन्हीं में ये बेचारे ध्यान के मारे अपना अक्स ढूंढते हैं..! हाँ, जब दोनों ओर परिवारवाद बराबरी पर आ जाए तब इस पर अंगुली उठाइए..!! समझे?

         अन्त में एक बात और हम अपने उसी अपराधबोध वाले ध्यान के माध्यम से उन भक्तों से कहना चाहते हैं जो ध्यान का ठेका लिए फिरते हैं..! वह यही कि भाई जी आप बड़े संघ लिए फिरते हो, क्या आपने कभी किसी बात पर किसी से ध्यान देने की बात किया..? किसी को किसी बात पर ध्यान देना सिखाया..? आपने तो ध्यान में डूब जाने की बात की लेकिन ध्यान देना नहीं सिखाया..! हाँ आप इन्हें फिर से ध्यान में डुबो देना चाहते थे..! आप यह भूल गए कि "ध्यान देना" और "ध्यान में डूबना" दोनों एकदम से अलग-अलग बातें होती हैं..! एक यदि होशोहवाश की बात है तो दूसरा नशे का इंजेक्शन देना है मतलब बेहोशी की स्थिति में पहुँचाना..! आप अपना संघ लेकर इन बेचारों को जगाना छोड़ इन्हें फिर से नशे में डुबोना चाह रहे थे..? जबकि सबसे अधिक इन्हीं पर ध्यान देना था...और इन्हें ही ध्यान देना सिखाना भी था...!! लेकिन आप ने ऐसा नहीं किया..आप ने ध्यान के बँटवारे में भी रूचि नहीं लिया...अलबत्ता आप ध्यान का इंजेक्शन ही लगाते रहे...!

          शायद मेरी बातें अब भी समझ में न आई हों तो थोड़ा शार्टकट में समझाते हैं--

          उस दिन मेरे जल्दी-जल्दी खाना खा लेने के कारण पत्नी ने इसे मेरा बचपना कहा और इससे स्वास्थ्य खराब होने की चेतावनी देते हुए मुझे टोका था, तब मुझे अहसास हुआ कि खाना खाते समय कहीं किसी और ध्यान में मैं डूबा हुआ था। खाना खाते समय मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि क्या खा रहा हूँ..? कैसे खा रहा हूँ..? खाने में स्वाद है या नहीं..? किस कौर को निगलना चाहिए..? किसे चबाना चाहिए..? आदि-आदि..! हाँ, इसका आशय यही है कि कोई काम करते समय हम उस काम पर ध्यान दिए बिना करते जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारी कार्यकुशलता प्रभावित होती है और उस कार्य के परिणाम भी प्रभावित होते हैं। कोई काम करते समय उस काम पर ध्यान न देने की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब हम किसी अन्य विचार या धारणा से प्रभावित या उसमें डूबे हुए होते हैं| यह एक रोगी की ही स्थिति होती है, इस स्थिति में हमारी मनःस्थिति जैसे परतन्त्रता की शिकार बन जाती है| अब तो स्पष्ट हो गया होगा कि किसी ध्यान में डूब जाना कितना हानिकारक होता है, बहकना होता है।
        तो ये भाई लोग संघी को अपने साथ लेकर लोगों को रोगी बनाने चले थे...हाँ, तभी पहचान लिए गए...! गजब हो गया...भेद खुल गया..लोग फिर नशे से बिमार होने से बच गए...!! जैसे लोगों ने ध्यान दे दिया हो..!
        ...और ध्यान देना यह है - जो काम कर रहे हैं उस पर ध्यान देना उस काम के प्रति सचेत होना होता है और तब काम करने वाले को कोई नहीं बहका सकता। जबकि नशेड़ी तो बहक जाता है..सम्मोहित हो जाता है...परतंत्रता का शिकार हो जाता है...इनका दुरूपयोग कर इन्हें बिमारी का शिकार बना दिया जाता है...। हमारे देश में सदियों से लोगों के साथ यही होता रहा है...लोग बीमार बनते रहे हैं...।
           भाई लोगों ने इन्हें अब तक ध्यान में ही डुबो सम्मोहित करके रखा था और ये बेचारे कभी अपने काम पर ध्यान ही नहीं दे पाए..और तो और...हम भाई लोगों ने इनके हिस्से का ध्यान भी चुरा लिया...! इस चोरी के ध्यान-धन से ऊँचा बन बैठे..!!

           इतने दिनों तक ध्यान देने की क्षमता से वंचित इन बेचारों का स्वास्थ्य खराब बना रहा..! हम इनसे मनमाना कराते रहे क्योकि तब ये हमारे दिए गए ध्यान के नशे में डूबे कमजोर जो थे...!! अब ये भी जागना सीख रहे हैं..इन्हें सीखने दीजिए...इन्हें ध्यान में डुबोना नहीं इन्हें ध्यान देना सिखाइए...!! अन्यथा ये चोरी हुआ अपना ध्यान आपसे छीन लेंगे...क्योंकि अब इन्हें चोर और चोरी हुए माल का पता लग गया है..!! अपना अपराधबोध पहचानिए...!!! बिहार में लोगों ने ध्यान ही दिया है।
         ध्यान दीजिए आपका भी स्वास्थ्य अच्छा हो और आप सब के घरों में रोशनी का दिया टिमटिमाए इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएँ!

                  ------------------------(११-११-१५)