शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

हम भारतीय अपने धुन के पक्के लोग नहीं होते

            "अति सर्वत्र वर्जयते" कभी-कभी जब यह वाक्य सामने आता है तो दिग्भ्रमित हो जाता हूँ, इस वाक्य से मेरी सोच, मेरी क्रियात्मकता जैसे पंगु बनने लगती है...हाँ यह एक नीति वाक्य है..शायद हमारे मनीषियों ने अपने अनुभव के बल पर इस नीति-वाक्य की स्थापना किए हों..लेकिन मस्तिष्क में बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि आखिर उन मनीषियों ने किस तरह के "अतियों" का सामना कर इस नीति-वाक्य का खोज किए होंगे...? सच में! यहीं पर हम दिग्भ्रमित हो जाते हैं...और उन "अतियों" की पहचान करने में जुट जाते हैं, जहाँ हम भी इस नीति-वाक्य का अनुसरण करना शुरू कर दें...
           मुझे लगता है हमारे देश की संस्कृति "अतियों" से बचने की रही है..अकसर हम मध्यम-मार्ग की खोज करते हुए दिखाई देते हैं..विद्वानों ने भी तमाम धार्मिक ग्रंथों में निहित उपदेशों को मध्यम-मार्ग बताया है...खैर मैं, धार्मिक व्याख्या पर नहीं जा रहा...लेकिन...! ऐसे नीति-वाक्यों से कभी-कभी किसी पथ पर चलते-चलते कदम ठिठकते दिखाई पड़ते हैं...कदम तो आगे पड़ना चाहता है लेकिन इस नीति-वाक्य की शिक्षा के वशीभूत यह कदम जहाँ का तहाँ रुक जाता है और इस नीति-वाक्य से निकलती "वर्जना" मन पर प्रभावी होने लगती है...
           मैंने अकसर देखा है..और देखता रहा हूँ....जीवन के कुछ पथ अतियों की माँग करते हैं, अन्यथा वलिदान की अवधारणा न मिली होती...बहुत सारे पथ अतियों से चलकर ही अपने लक्ष्य की ओर ले जाते हैं...लेकिन यदि ऐसे पथिक के समक्ष "अति सर्वत्र वर्जयते" आ जाए तो फिर उस पथ और पथिक का क्या होगा..? 
             मुझे एक घटना याद आती है..कई वर्ष हो चुके हैं इस बात के..! एक बार एक बेहद सफल माफिया टाइप के व्यक्ति से हमारी बात हो रही थी..उसने बड़े गर्व से हम लोगों से बताया था कि TOI का एक पत्रकार रह-रहकर उसके विरुद्ध खबरें छाप रहा था...उस माफिया ने उस पत्रकार को इसके लिए चेतावनी भी दी थी कि ऐसी खबरें वह न छापे...लेकिन पत्रकार माना नहीं... अचानक उस पत्रकार का स्कूटर से जाते हुए एक्सीडेंट हो गया और टाँग में फ्रैक्चर लेकर हास्पिटल में भर्ती होना पड़ा था...आगे उस माफिया टाइप के व्यक्ति ने बताया था कि, वह उस घायल पत्रकार से मिलने हास्पिटल गया और उसे गुलदस्ता भेंट करते हुए कहा था.."शुक्र मनाइए टाँग ही टूटी वरना जान भी जा सकती थी.." 
          वाकई! उस माफिया द्वारा पत्रकार को दी गई यह धमकी थी..लेकिन शायद वह पत्रकार भी अपने धुन का पक्का था...! तभी उस माफिया के विरोध में खबरें देने से बाज नहीं आया था। ऐसे ही अपने धुन के पक्के लोगों की घटनाएँ हम अकसर सुनते रहते हैं..उनके साथ क्या होता है, ऐसे धुन के पक्के लोग इस बात की परवाह नहीं करते.. वे हर उस "अति" से गुजर जाना चाहते हैं...जहाँ उनकी धुन उन्हें ले जाना चाहती है..ऐसे लोगों के लिए "अति सर्वत्र वर्जयेत" बेमानी कथन है...
          लेकिन सामान्यतः .हम भारतीय अपने धुन के पक्के नहीं होते...हमें "अति सर्वत्र वर्जयते" सिखाया जाता है। हमारे लिए हमारी कोई अपनी "धुन" नहीं होती। सामाजिक, आर्थिक और नैतिकता जैसे पहलुओं पर अतियों से बचने की सलाह देकर हमने किसी तरह निकल लेने का मार्ग बना लिया हैं, और यही नहीं, अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलने के लिए हम ऐसे ही कथनों को नैतिक ढाल बना लेते हैं...
             भारतीय जन जीवन में व्याप्त तमाम सामाजिक-आर्थिक  विसंगतियों के पीछे हमारी यही मध्यममार्गी सोच रही है..अकसर किसी बडे़ परिवर्तन के लिए उठाए गए कदम को "अति सर्वत्र वर्जयते" कह कर डरा दिया जाता है..! परिणाम हमारे देश मेंं जातीय भेदभाव के साथ आर्थिक विषमता आज भी कलंक-कथा बनी हुई है। किसी अच्छी सोच के प्रति हमारी दृढ़ता, इस एक वाक्य से डर जाती है। इस डर के कारण किसी बदलाव के मुखापेक्षी बने हम जहाँ के तहाँ खड़े रह जाते हैं...
         सच तो यह है...इस एक वाक्य से हमें, अपने कामों के परिणामों से डराया जाता है। गीताकार को शायद इसी बात का इल्म रहा होगा कि हम परिणामों से डरने वाले लोग हैं तभी तो "कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:" कह परिणामों की चिन्ता न करने की बात कही थी..लेकिन इसी कर्म को ज्ञान और भक्ति से संतुलित करने की सीख दे गीताकार ने एक तरह से हमें मध्यममार्गी भी बना दिया। फिर तो हमने इससे "अति सर्वत्र वर्जयते" निकाल कर व्यावहारिक जीवन को एक फलसफा भी दे दिया। इस फलसफे ने देश को बहुत क्षति पहुँचाई है..!
         लेकिन बदलाव! अपने धुन के पक्के लोग ही ले आते हैं, जिन्हें परिणामों की चिन्ता नहीं होती..भारतीयों में इसी "धुन" की कमी है..! हम जीना तो चाहते हैं..लेकिन बिना किसी "धुन" के बस जिए चले जाते हैं...एक गुणात्मक-हीन जीवन..! शायद इसी को हम जीना कहते हैं...!! लेकिन यह भी कोई जीना है लल्लू....!!!
                - Vinay

रविवार, 20 नवंबर 2016

अपने-अपने अर्धसत्य

           (चलो हम मान लेते हैं, भैंचो..चाहे आम हिन्दू हो या आम मुसलमान दोनों साम्प्रदायिक ही होते हैं। लेकिन इनके बीच ये बंटवारे का बीज कौन बोता है..? भैंचो..चलो यह भी मान लेते हैं कि...नेता ही इनके बीच बंटवारे का बीज बोते हैं..
      ... लेकिन भैंचो..ये बुद्धिजीवी किस खेत का मूली हैं कि बंटवारे को नहीं रोक पाते? ..और दिनोंदिन बंटवारे की खाई चौड़ी होती जाती है.... 
         फिर यह बुद्धिजीवी भैंचो...क्या घास छीलता है..या केवल वकीली के रूप में ही बुद्धि का प्रयोग करता है...जैसे वकील अपने-अपने पक्ष को जिताने में सारी बुद्धि खरचते रहते हैं, वैसे ही हार या जीत का बीज बोते हुए ये बुद्धिजीवी भैंचो..भी अपनी-अपनी घांई के पक्ष में ही बात कर-कर विग्रह का बीज बोते रहते हैं...)

        माफ करिएगा, कोष्ठक की पंक्तियाँ ज्ञान चतुर्वेदी के "हम न मरब" उपन्यास की उद्धृत निम्न पंक्तियों से प्रभावित है.....
        "वकील लोग भैंचो कभी कुछ करते भी हैं? ये लोग बंटवारा करवाने के सिवाय और कर भी क्या सकते हैं?  इनका बस चले तो ये घर बंटवा दें, देश बांट दें। जिनने कभी हिंदुस्तान को बंटवाया था उनमें भी तो वकील-ही-वकील भरे पड़े थे, भैंचो।.."    
          मेरा अपना मानना है, यह वकील और कोई नहीं, यही ये तथाकथित पत्रकार, बुद्धिजीवी जैसे लोग ही हैं..जो केवल अपने-अपने अर्धसत्य को ही सत्य समझ कर समाज के लिए अपने इन अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं...लेकिन यह आम जन चाहे जितना साम्प्रदायिक हो..अपने सत्य की सीमा को जानता है अन्यथा ये तथाकथित अपने-अपने अर्धसत्यों के पैरोकार इस आमजन को कब का अपना मुरीद बना लिए होते..लेकिन आज भी ये तथाकथित बुद्धिजीवी अप्रभावी ही हैं...अगर प्रभावी होते तो इनसे कहीं आगे नेता इन आमजन पर प्रभावी होते दिखाई न दे रहे होते...
          सच तो यह है अपने-अपने अर्धसत्य लिए हुए वकीलनुमा इन बुद्धिजीवियों के कारण ही ये नेता बंटवारे का बीज बोने में सफल हो पा रहे हैं... कारण?
        कारण यही...ये नेता, बुद्धिजीवियों के अर्धसत्य के बाद के बचे सत्य को आईने के रूप में उसी आमजन को दिखाते हैं और उन पर प्रभावी हो जाते हैं...क्यों? क्योंकि जनाब, नेता का यह अर्धसत्य उस आमजन को अपना सत्य प्रतीत होता है और फिर नेता इस सत्य को दिखा दिखा उनका रहनुमा बनता है.. यही बंटवारे की फिलासफी है...इसी अर्धसत्य में अन्याय छिपा होता है... अर्धसत्य की वकालत ही वकील का पेशा होता है, वह इसकी फीस वसूलता है... आज का यह बुद्धिजीवी यही काम कर रहा है.. पत्रकारों का भी सरोकार इसी अर्धसत्य से है....
        एक बात और..समाचार चैनलों का चिल्ल-पों या किसी पत्रकार की "महानता" का इस आम जनता पर कोई प्रभाव वैसा नहीं पड़ता जैसा ये सोचते हैं.. चाहे कोई स्क्रीन काली करे या सफेद... यह भी टीवी शो का फैशन जैसा ही माना जाने लगा है... हो सकता है इस फैशनबाजी के चक्कर में कोई बुद्धिजीवी या पत्रकार महापुरुष जैसा बनता दिखाई दे।
        यहाँ ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने उपन्यास "हम न मरब" में की यह पंक्ति उल्लेखनीय है- 
        
        "चेलों तथा अनुयायियों की भीड़ ही, अंततः हर महापुरुष को खा जाती है।" 
            खैर, मैं यहाँ मानता हूँ कि अगर कोई पत्रकार महापुरुष बनने की राह पर है, तो मान लीजिए उसके चेले और अनुयायी उसे नेता बना रहे हैं, जो आमजनता के किसी अर्धसत्य को उस जनता का सम्पूर्ण सत्य बताते हुए बरगला रहा होगा...हाँ, सत्य को समग्रता के साथ जानने और कहने की कोशिश करने वाला कभी लोकप्रिय नहीं हो सकता है, नेता बनना तो दूर की बात। 
             कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि, किसी भी बात या व्यक्ति को बहुत सिर चढ़ाने की जरूरत नहीं है..चीजें चलती रही हैं चलती रहेंगी..आप केवल वाचर बने रहिए, सबको देखते रहिए, समझते रहिए...अपने अन्दर समझने की "सिर्रीपना" जैसी आदत डालिए...फिर देखेंगे, हर गाँठ सुलझती दिखाई देगी...
नोट - हो सकता है यहाँ उद्धृत विचार मेरा अर्धसत्य हो, इसमें आप अपना सत्य मिलाकर घोल बनाकर इसे समझने का प्रयास करिएगा। 

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

बाजार के हिमायती मत बनिए

(नोटबंदी के पक्ष में)
         अर्थव्यवस्था..! आज इस व्यवस्था से जुड़े बिना हम अपने जीने की कल्पना नहीं कर सकते। और यह व्यवस्था चलती है नोट से..जेब में नोट है तो समझो पूरी व्यवस्था है..नहीं तो चहुँ ओर अव्यवस्था ही अव्यवस्था! लेकिन इन्हीं नोटों का मूल्य यदि कागज के एक टुकड़े भर रह जाए तब क्या होगा? तब तो सारी व्यवस्था अनर्थव्यवस्था सी हो जाएगी। बाजार में सियारिन फेकरेंगी..मतलब सब सून..! हाँ.. 
             रहिमन नोटन राखिए, बिन नोटन सब सून। 
             नोटन गए न ऊबरै, बाजारन के कारकून।। 
           
             हमने तो सरकारों से यही अपेक्षा की थी कि भइया हमें इस अर्थव्यवस्था में बेमतलब का मत घुसेड़ो...क्योंकि अर्थ का ही अनर्थ होता है। हमारी तो, बस हमारे गाँव के आसपास स्कूल चाहिए...एक अदद अस्पताल चाहिए...आने-जाने के लिए एकदम से गड्ढामुक्त बढ़िया पक्की सड़क चाहिए..और..हम अपने खेतों में अपने खाने की जरूरत का अनाज पैदा कर सकें...तथा बाग- बगीचों जैसी हरियाली के बीच कच्चा ही सही एक साफ-सुथरा घर हो..और घरों में टिमटिमाती रोशनी हो..इन सब चीजों के लिए किसी शहर के मोहताज न रहें..यही अपेक्षा थी। लेकिन हमारी अपेक्षाओं पर ध्यान न देकर हमें केवल अर्थव्यवस्था पकड़ाया गया। पता नहीं कितने नोट छपे और कहाँ चले गए? मगर हम अपनी अपेक्षाओं का बोझ लिए झुनझुना बजाते शहर दर शहर खाक छानते रहे...
             लेकिन सरकार आप..! आप तो आजादी के बाद से ही अर्थव्यवस्था बनाने में लग गए...बाजार बनाने में लग गए! आपने साहब! एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाई कि आपने बाजार के बाजार खड़े कर दिए..इस बाजार ने हमारी हमारे ही ऊपर की निर्भरता हमसे छीन लिया। हमारी स्वनिर्भरता को बाजार में सौंप दिया गया। अर्थ का अनर्थ होता गया और हम, बाजार के गिरवी होते गए, शहर दर शहर बाजार की चकाचौंध में डूबते चले गए..गाँव के गाँव उजड़ते चले गए..गाँवों की चौपालों में सन्नाटा पसर गया। हम कर भी क्या सकते थे क्योंकि हम शहर और बाजार के मोहताज हो गए..! और आप, आप तो सरकार दर सरकार अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होने के गर्व से भर चुके थे.. हमारा ख्याल ही कहाँ था आपको..! आप की अर्थव्यवस्थाजनित चक्रव्यूह में घिरे हुए हम भी लालची दर लालची बनते रहे...हमारी नियति भी लालची बनने की हो गई...इसमें हमारा दोष नहीं..हम तो आपके बनाए बाजार की कठपुतली बन चुके थे...नए-नए करारे नोट दे-देकर और नोट उगलने की मशीन बनाकर बीच बाजार में ढकेल हमें आपने अकेला छोड़ दिया..अब हमारी नियति बाजार के हाथ में थी।
        हाँ, गलती हमारी ही थी.. जेब के नोट को खुदा समझ हम भी बाजारू बन स्वयं को सर्वशक्तिमान मान गर्वोन्मत्त हो चुके थे...जैसे बाजार पर विजय प्राप्त कर लिए हों...लेकिन यह बाजार..! यह बाजार तो बड़ा छलिया निकला...बहुत मायावी निकला..! हमने नोट को खुदा माना तो शायद बाजार अपमानित हुआ फिर इस बाजार ने ही अर्थव्यवस्था से सांठ-गांठ कर हमारे जेब के नोट को काले रंग से रंग दिया..! जेब में धरे-धरे इनकी पहचान खतम हो गई..अब इनके बिना हमें अपनी लाचारी समझ आ रही है..
              काश! हम बाजार और अर्थव्यवस्था के गुलाम न बने होते तो हमारी यह दुर्दशा न हुई होती...हमें सरे बाजार नंगा कर दिया गया है..चोर घोषित कर दिया गया है..यह तो सरासर बाजार की ही नंगई है..और सरकार! यह आप की भी सरासर बदतमीजी है हमारे साथ। हम तो भोलेभाले थे..आपने हमें बाजार के भरोसे क्यों छोड़ा? जनाब अब यह नहीं चलेगा..अब बिना अपने खुदा के हम नहीं जी पाएंगे...आप हमारी हत्या करने पर उतारू हो आए हो...आप हमारे आक्सीजन हमसे छीन रहे हो..अब ऐसा नहीं हो सकता..अगर यही करना था तो बाजार न बनाते..हमें ललचाते न..हम तो सदियों से अपने में जीते रहने वाले लोग रहे हैं..हमें तो आपकी ऐसी अर्थव्यवस्था-फर्थव्यवस्था से कोई सरोकार नहीं था..शादी विवाह भी हम लाई गुड़-चना और शर्बत खा-पीकर निपटा लेते थे.. वह भी अटूट बंधन वाली! इसमें हमें किसी टेंटहाऊस-फाऊस की भी जरूरत नहीं होती थी, गेस्टहाउस-फाउस की तो कल्पना ही नहीं थी..लेकिन आज खाट मिलना तो दूर अब तो खाट भी लूट ली जाती है..आपने लूटना ही लूटना सिखाया...सरकार यह लूटना और लुटना सिखाना सब आप का ही दिया है।
        सदियों पहले हमने पुल बनाना सीखा था क्योंकि समुद्र को लांघना हमने अनुचित माना था तब बाजार बनाने वाले हम लोग जो नहीं थे..! हम आत्मनिर्भर अपने में जीने वाले लोग थे..। लेकिन हमारी आदतें बदल डाली गई..हमें बाजार दिया गया..नोट दिया गया और..इधर अब आप हमसे नोट छीने ले रहे हैं...यह कैसे चलेगा..जो बाजार आपने फैला रखा है उसका क्या होगा? गवाह, अपराधी, जज सभी आप ही बनोगे? यह नहीं हो सकता। आप भी सजा के हकदार हैं। आप भी अपने लिए सजा तय करें..आजादी के बाद आखिर आपने क्या किया..?
           आखिर सरकार दर सरकार सब सरकारों ने मिलकर हमें क्या दिया? इनने जो चमचमाती सड़कें बनाई वह भी केवल बाजार जाने के लिए; एक भी सड़क हमारे गाँव की ओर जाती नहीं दिखाई देती। शायद, गाँव की ओर जानेवाली सड़कों को बाजार बनाने वालों ने ही मिलकर लूट लिया है...अगर कोई सड़क हमारे गाँव की ओर जाती हुई हमें मिलती तो शायद हम आपकी दी हुई अर्थव्यवस्था और इसके दिए बाजारूपने की लालच से हमारे जेब में पड़े काले रंग में रंगे नोट न गिन रहे होते..और आज अपने नोट के मालिक हम स्वयं होते..हम ही तय करते कि इन नोटों के साथ क्या सलूक किया जाए। लेकिन आपकी अर्थव्यवस्था और बाजार में फँसे हुए हम लोग अब कर ही क्या सकते हैं? 
          आज अगर कोई बाजार और इससे उपजे लालच को तोड़ने का काम करता है तो हमें भी अच्छा ही लगता है, लेकिन यह ऐसे नहीं होगा, हमें आत्मनिर्भर भी बनाइए। किसी बाजार और उसके चक्रव्यूह में मत ढकेलिए! अगर बाजार बनाएँगे तो यही होगा..! कृपया बाजार के हिमायती मत बनिए...

बुधवार, 9 नवंबर 2016

इस देश में सुधारों के लिए इमरजेंसी जैसे हालात की जरूरत है..

भ्रष्टाचार में योगदान देने वाली किसी प्रचलित व्यवस्था को बढ़ावा देने वाले जैसे तत्वों पर प्रहार करना बहुत आसान नहीं होता। इस व्यवस्था से सीधी लड़ाई, लड़ाई से बाहर होने का खतरा उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह कि लड़ाई लड़ने वाला लड़ने की योग्यता खो देता है। भ्रष्टतत्व उसे व्यवस्था से ही बाहर कर देते हैं, विशेषतया सरकारी व्यवस्थाएँ ऐसे ही काम करती हैं। यहाँ तमाम ईमानदार अधिकारी इन्हीं कारणों से महत्वहीन पदों पर तैनात कर दिए जाते हैं और सिस्टम उनके अच्छे योगदान से वंचित रहता है। 
     
           महाभारत का वह दृश्य बार-बार याद आता है जब युधिष्ठिर ने "अश्वत्थामा मरो" बोलते हुए "नरो वा कुंजरो" को धीमे स्वर में कहा था। और फिर निशस्त्र हुए द्रोणाचार्य को पांडवों ने मार डाला था। कहने के लिए एक अर्धसत्य यदि किसी अन्याय पर विजय दिला सकती है तो उसे नैतिक रूप से अनुचित नहीं माना जा सकता है। तमाम ईश्वरवादी दार्शनिक अवधारणाओं में यह मान्यता निहित मानी जाती है कि ईश्वर सब कुछ अच्छा चाहता है लेकिन सृष्टि के संचालन में बुराईयों की भी अनुमति देता है। इन बातों को कहने का आशय यही है कि किसी भी व्यवस्था को सुधार लाने के लिए हमें उस व्यवस्था का अंग बनना पड़ेगा और इस व्यवस्था में बने रहने के लिए इसकी कुछ गलत बातों को भी स्वीकार करके चलना पड़ेगा अन्यथा यह व्यवस्था सुधारक को अस्वीकार कर सकती है। यहाँ, यह भी कह सकते हैं कि हम चाहकर भी अच्छाई की फुलप्रूफ व्यवस्था नहीं दे सकते। 
           हमारे देश की तमाम जनोपयोगी संस्थाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी हैं, परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में कालेधन की जबर्दस्त समस्या उठ खड़ी हुई है। भ्रष्टाचार से कई तरह की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विषमताओं की बाढ़ आ गई है। ये विषमताएं भारत नामक देश को अन्दर ही अन्दर खोखला करती जा रही है। इन समस्याओं से लड़ना बहुत आसान भी नहीं है क्योंकि सुधार के किसी भी प्रयास की जबर्दस्त आलोचना प्रारंभ हो जाती है। 
              अब हजार और पाँच सौ के नोटों पर सरकार के निर्णय की आलोचना शुरू हो गई है। कुछ लोग, इन नोटों के कारण खड़े हुए काले साम्राज्य की अनदेखी करते हुए सरकार के इस सुधार की आलोचना कर रहे हैं जैसे, सरकार ने आम आदमी का ध्यान रखे बगैर ही अचानक इस योजना को लागू कर दिया या कुछ लोग इसे ध्यान भटकाने की साजिश भी करार दे रहे हैं। हालाँकि स्वयं आलोचकों के पास इस समस्या के समाधान के लिए दृष्टिकोण का आभाव है। यहाँ यह देखा जा सकता है सरकार की कोई भी योजना हो वह शतप्रतिशत सफल नहीं हो पाती। लेकिन इस वजह से योजना बंद नहीं की जाती बल्कि योजना में सुधार या बदलाव एक सतत प्रक्रिया की तरह स्वीकार की जाती है। ठीक उसी तरह भ्रष्टाचार और कालेधन पर प्रहार करती हुई हजार या पाँच सौ के नोटों को वापस लेने की योजना है, जो इस मायने में अन्य बातों से अलग है कि इसकी एक छोटी सी सफलता भी इसे शतप्रतिशत सफलता की श्रेणी में खड़ा करेगी। कारण, इससे भ्रष्टाचार और कालेधन के विरुद्ध एक जबर्दस्त संन्देश गया है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में एक तरह के संस्कार बनने का आगाज हुआ है। एक यथास्थितिवाद की मानसिकता में जीते रहने वाले देश के लिए यह मामूली बात नहीं है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में इसे एक ठोस कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन राजनीतिक कारणोंवश हम ऐसा नहीं कर पाते और जनता को ऐसे सुधारों के विरुद्ध तथाकथित राजनीतिक लाभ के लिए बरगलाते रहते हैं। 
                 हम किसी भी व्यक्ति से शतप्रतिशत की आशा क्यों करते हैं? न तो कोई योजना अपने में सम्पूर्ण हो सकती है और न ही व्यक्ति। इसी तरह नोट वापस लेने की योजना में भी हो सकता है। इस निर्णय में कुछ कमियाँ रहीं हो या इससे बेहतर प्लानिंग भी हो सकती हो, लेकिन फिलहाल इससे बेहतर प्रयास और कुछ हो भी नहीं सकता था।

            इस भ्रष्ट सिस्टम का बहुत बड़ा काकस है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, परिवारवाद, धर्मोन्माद, आतंकवाद, माफियावाद आदि इस काकस के बेहतरीन हथियार हैं, तथा इस सब के पीछे यही कालाधन और भ्रष्टाचार है। इनसे पार पाना आसान नहीं। यही नहीं किसी भी व्यक्ति या समूह में इस काकस और इनके इस हथियार से लड़ने की हिम्मत नहीं है। तमाम तरह की बुद्धिविलास में उलझे रहने वाले लोग प्रकारांतर से इस काकस की मदद करते हुए ही दिखाई देते हैं और अगर ये बोलते भी हैं तो बस कायरों जैसी व्यंग्यभाषा में ही जो किसी काम की नहीं होती। सरकार की यह वित्तीय नीति, आलोचकों की नजर में, हो सकता है एक छोटा कदम ही हो, लेकिन यह कदम किसी क्रान्ति के बीज के सूत्रपात का कारण भी बन सकती है। देश का आम आदमी इस बात से परेशान नहीं है। वास्तव में परेशानी की बात करने वाले भगोड़े और सुविधाभोगी टाइप के लोग हैं जो केवल बुद्धिविलास में ही उलझे रहते हैं। वाकई, इस देश में किसी बड़े सुधार के लिए इमरजेंसी जैसे हालात ही लाने होंगे। जय हिंद।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

राजनीति में "अहिंसा"

             मैंने दो वर्ष पूर्व के अपने तीन अक्टूबर के एक पोस्ट को आप सब से आज शेयर किया है। उक्त पोस्ट में, बचपन में "अहिंसा परमोधर्मः" और "कांटा बोने वालों के लिए फूल बोने" जैसी देखी-सुनी बातों से बाल-मन में बनते संस्कारों की संक्षिप्त सी चर्चा थी। वास्तव में जब इस पोस्ट को लिखा था, तब भारत-पाक के बीच आज के जैसा युद्ध का वातावरण नहीं था। 
           लेकिन, आज इस "अहिंसावादी" पोस्ट की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है, और रणभेरी की आवाज सुनने-सुनाने वालों के बीच यह आवाज, मेमने की आवाज मानी जाएगी। तो क्या अहिंसा की आवाज को हम मेमने की आवाज कह देंगे? इसे समझना होगा। 
               अहिंसा, क्रोध और भय पर विजय प्राप्त कर लेने की अवस्था है और एक संतुलित दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त करती है। वास्तव में अहिंसा से विवेक, बुद्धि और संवेदना जैसे गुणों का विकास होता है, जिससे श्रेष्ठ जीवनमूल्य निर्मित होते हैं। अहिंसक होना पागलपन न होने की गारंटी है। यही अहिंसक वृत्ति किसी युद्ध में विजय का कारण बनती है। एक अहिंसक कभी नहीं कहता, "मैं हिंसक नहीं हूँ।" 
                 भाई लोग!  सच में, हमारा देश अब अहिंसक नहीं रह गया है, क्योंकि हमारे श्रेष्ठ गुण धीरे-धीरे लुप्त होते गए हैं, श्रेष्ठ गुणों के इस क्षरण के कारण हमारे आत्मविश्वास को बहुत क्षति पहुँची है। अगर कोई अहिंसा की बात करता है तो, इसका मतलब कायर होने की बात नहीं करता, वह व्यक्तित्व में गरिमा और दृढ़ता की बात करता है। हम परसाई जी के शब्दों में हम कह सकते हैं -
        
"राष्ट्रीय नेतृत्व में व्यक्तित्व की गरिमा और दृढ़ता बहुत अर्थ रखती है।" 
            हाँ, यह गुण केवल अहिंसा से ही उपजती है। युद्ध तो केवल एक तात्कालिक उपाय भर होता है,  दीर्घकालिक उपायों पर हमें काम करना चाहिए, जिसमें हमारे श्रेष्ठ संस्कार ही काम आते हैं। सही मायने में अमेरिका एक अहिंसक देश है, और वह अहिंसक देश इसलिए है कि उसे अपने नागरिकों की बेहद चिन्ता रहती है। इस चिन्ता से पार पाने में, उस देश के तमाम सांस्थानिक उपाय और नागरिकों के स्वयं के कर्तव्य निर्वहन का ही योगदान है। उस देश में बेमतलब का उन्माद नहीं फैलता, वहाँ काम होता है। 
              और यहाँ हम, साल भर बेकाम बैठे रहते हैं, लेकिन कभी-कभार किसी उन्माद के साथ कूद-फाँद कर अपने देश-सेवा जैसे कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। आखिर, हमें अपने नागरिकों की कितनी चिन्ता है?  चीजों को हमें संभालना आना चाहिए चाहे वह युद्ध हो या कुछ और..! सैनिकों की विधवाओं का रुदन हृदय-विदारक होता है। वैसे, गीता पढ़ने वाले जानते हैं कि, युद्ध अवश्यंभावी हो जाने पर टलता भी नहीं। लेकिन व्यर्थ की दुदूंभि या कहें, गाल बजाने से बचना भी चाहिए। सैनिक किसी टीवी के सामने नहीं, युद्ध के मैदान में होते हैं।
             हाँ, अगर ये बड़े-बड़े माफिया, उद्दंड नेता, जनता-गरीबों की योजनाओं के पैसों पर गुलछर्रे उडा़ने वाले लोग और अपने अधिकारों के ठसक भरे ऐंठन में जीने वाले जैसे लोग युद्ध लड़ने मैदान में जा रहे हों तो, अभी इसी वक्त भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध लड़ लेना चाहिए। 

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

सर्जिकल स्ट्राइक

             हम लोग बाजारवादी दुनियाँ में रहते हैं, बाजार बनाना जानते हैं, बाजार में माँग के हिसाब से माल बिकवाना भी, इसके लिए चालाकी के साथ मांग जनरेट कर देते हैं। हाँ, अगर माँग इस बात की हो और बेंचना उस बात को चाहोगे तो, फिर दूसरे माल के बिक्री की संभावना समाप्त हो जाती है। इस बाजारवाद में अपना यह दिल-दिमाग भी पूरे तरीके से बाजार के हिसाब से ही चलने लगता है, मतलब कुछ दूसरी चीज खरीदने- सोचने का मन ही नहीं करता। दूसरी बात सबसे महत्वपूर्ण यह होती है कि, ऐसी स्थिति में चीजों का न तो मोल-तोल कर पाते हैं और न ही उन्हें उलट-पुलट कर देख सकते हैं , ऐसा करना  बाजार से भगा दिए जाने का कारण बनता है, माँग और आपूर्ति का यही सिद्धांत भी है।
              लेकिन यहाँ बाजार में, आपूर्ति भरपूर है, निर्वाध है, बाजार पर कब्जा है, तो माल छाया हुआ है और किसी माल के बाजार पर छाने में उसके पसंदगी-नापसंदगी का बहुत बड़ा हाथ होता है, यही इसे खूब बिकवाता भी है .! हाँ, इस बहुत बिक रहे माल को उसके बहुत बिकने की बात पर दोष नहीं दे सकते। इसके पीछे, कुछ अन्य विक्रेताओं की बदमाशी भी होती है, वे किसी बाजार में नापसंदगी वाले माल को उतारने की गलती करते हैं, प्रतिक्रिया में दूसरा दुकानदार बाजार में पसंदगी वाला माल उतारबदेता है, अब इस दूसरे माल को बाजार में चल पड़ने का ऐसा शै लग जाता है कि, वह हाथों-हाथ लिया जाने लगता है.!! फिर तो बाजार में नापसंदगी वाले माल की चर्चा करना भर बाजार से खदेड़ दिए जाने का कारण बनता है ! हाँ, इस बाजार का तमाशा देखना चाहते हैं तो, बस खरीदने-बेचने के पचड़े से बचे रहिए, और तो यहीं पर खड़े होकर बाजार में घूमने का मजा लूटिए..बस, अपने को बाजार की भीड़ की धक्कामुक्की से बचाए रखिए। इसी में गनीमत है।
      
         हाँ तो, आज कहीं टहलने नहीं गया था.. असल में कल शाम पाँच बजे से रात नौ बजे तक और इसके पहले वाली शाम को भी ऐसे ही चार घंटे तक सर्जिकल स्ट्राइक हेतु मैराथन बैठक में व्यस्त रहे थे। अब दायित्व में सर्जिकल स्ट्राइक तो रहता ही है, बस जगह और समय हम अपने हिसाब से तय करते हैं। सो समय तय कर ही इसमें जुटे थे..। अब शाम को देर तक सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारी में व्यस्त रहेंगे तो सबेरे जल्दी कैसे उठेंगे..!  असल में लगातार इस तरह सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारियों में व्यस्त रहने का मुख्य कारण यही था कि जब "इंन्फिल्ट्रेटर" अपने काम में व्यस्त थे तब हम निश्चिंत से सो रहे थे । परिणामतः ये इंन्फिल्ट्रेटर अपना काम करते रहे और नागरिक चोट पर चोट खाते रहे। बेचारे नागरिक की हालत मरता क्या न करता जैसी हो चुकी थी, वह करे भी तो क्या और कैसे करे? हम इस स्ट्राइक का समय चुनने और जागने में ही इतनी देर कर चुके थे कि तब तक नागरिक अपने अधिकार क्षेत्र में इंन्फिल्ट्रेशन चुपचाप सहते रहे थे। लेकिन, कभी-कभी आँख खुल भी जाती है, हम भी अपने अभियान पर इंन्फिल्ट्रेटरों की खबर लेने में सन्नद्ध हो गए। खैर..यह कर्तव्य-पारायणता की बात गाहे-बगाहे घोषित करनी होती है, इसके लिए सर्जिकल स्ट्राइक करनी ही होती है ! इंन्फिल्ट्रेटर इससे भयभीत होते ही हैं और हमारे हाथ भी कुछ न कुछ तो लगता है तथा कुछ कर देने का भी प्रमाण मिलता है। इस तरह किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक पर दोतरफा लाभ होता है। 
             
           हाँ, तो आज की #दिनचर्या में एक बात यह भी शामिल रही कि हम एक गाँव में निकल गए थे..निकल क्या गए थे। गाँव में, गरीब महिलाओं को प्रशिक्षित सा करना था, जिससे वे भी अपनी गरीबी से सर्जिकल स्ट्राइक कर सकें। खैर, वो तो, उनको प्रशिक्षित किया ही लेकिन, उनके दिमाग पर, हम जो सर्जिकल टाइप की थियरी अपना रहे थे, उस सर्जिकल थियरी का उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था...उनके चेहरों पर कोई चमक नहीं आई। मतलब, सारा प्रशिक्षण बेकार साबित हो रहा था। मैंने महसूस किया कि आज तक हुए किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में इन तमाम ग्रामीण गरीब महिलाओं को न तो कोई जानकारी है और न ही इसका कोई प्रभाव है। सारे के सारे सर्जिकल स्ट्राइक व्यर्थ और दिशाहीन प्रतीत हुए..!  जैसे, आजादी के बाद कभी कोई सर्जिकल स्ट्राइक की ही न गई हो, और की भी गई हो तो सब व्यर्थ की कवायद भर रहे होंगे, अन्यथा इनके चेहरों पर भी चमक होती। 
                 इनमें से कई गरीब ग्रामीण महिलाएँ केवल एक घंटे की, गरीबी को दूर करने वाली सर्जिकल ट्रेनिंग प्राप्त करने के लिए, पैदल आने-जाने में लगने वाले छह घंटे समय की दूरी को, पैदल ही नाप कर आई थी। क्योंकि, किराए के पैसे खर्च करने हेतु इनमें किसी प्रकार के क्षमता-संवर्धन का विकास हम आज तक नहीं कर पाए हैं। यही नहीं, हम आज भी इनके दो बीघे खेत तक पानी नहीं पहुँचा पाए हैं, पता नहीं कौन सा सर्जिकल स्ट्राइक आजादी के बाद हमने किया है। 
    आज, हमारे सर्जिकल स्ट्राइक की पोल खोलते हुए एक महिला ने बताया भी कि, ऊँचे लोग ही इस सब का फायदा उठा ले जाते हैं, मैंने सोचा, शायद इसीलिए किसी सर्जिकल स्ट्राइक का प्रभाव इन तक न पहुँचा हो। फिर, इन गरीब महिलाओं को जल्दी वापस लौटने की चिन्ता भी थी, क्योंकि, देर होने पर लौटने में अँधेरा हो जाता, हम भी गरीबी दूर करने की अपनी सर्जिकल थियरी यहीं समाप्त कर वापस लौट चले थे। 
           बात यह नहीं कि हममें देशभक्ति नहीं है, या हम सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध करते हैं, हम भी आप जैसे ही देशभक्त हैं, बस बाजार में एक ही तरह के माल को खपाने के लिए बिना उस माल के गुण-दोष का परख किए उसे ही श्रेष्ठ माल नहीं बताना चाहते। हाँ, हम भी किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बेतरह हिमायती हैं और सर्जिकल स्ट्राइक को पागलों की तरह प्यार करना चाहते हैं, बस इसका प्रभाव इन ग्रामीण गरीब महिलाओं के चेहरों पर भी दिखना चाहिए। अन्यथा ऊपर-ऊपर ही भाई लोग, सर्जिकल स्ट्राइक का भी फायदा ले उड़ेंगे और बोलने भी नहीं देंगे। अपने माल का ऐसा बाजार तैयार कर देंगे कि कोई दूसरा अपने माल के बारे में या दूसरे माल की चर्चा करने, कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। 
              भाई लोग, किसी को ब्लाक-वलाक करने की जरूरत मैं नहीं समझता। अन्यथा, बाजार में माल परखने की क्षमता प्रभावित हो जाएगी। वैसे अगर बिना परखे कहीं किसी का खराब माल ले लिया तो यह बेचारी देशभक्ति जेब में ही धरी रह जाएगी.. देशभक्ति तो देशवासियों के बीच बाँटने की चीज होती है, केवल अपने लिए या सीने में ही छिपाए रखने के लिए नहीं होती...नहीं तो, वो बेचारे महात्मा जी! अरे वही, जिनका कल यानी दो अक्टूबर को जन्मदिन पड़ता है..हाँ, वही गाँधी जी, ग्राम- स्वराज की कल्पना न करते। खैर..
             #चलते_चलते
             बहुत अधिक बुद्धिवादी-विमर्श या बौद्धिकता भी उन्मादकारी हो सकती है, इससे भी बचें। घटनाएँ तो घटती रहती हैं उन्हें घट जाने दीजिए..या..घटते रहने दीजिए...बस, ऐसी बातों को लेकर बैठें न रहें, बाजार न बनाएँ। सबकी सुनें, ब्लाक-वलाक तो दूर की बात है। 
                                         --Vinay 
                                         #दिनचर्या 20/29.9.16

रविवार, 25 सितंबर 2016

प्रकृति की आवाजें

            आज पाँच बजकर तैंतीस मिनट पर नींद खुली..वैसे एक बार रात ढाई बजे नींद खुली थी लेकिन फिर जो सोए तो घोड़ा बेंच कर ही सोए..एलारम-फेलारम की आवाज भी नहीं सुनी...हाँ, जब उठे तो सोचा देर हो गई है...का टहलने जाएँ..और थोड़ा फिर अलसियाने से लगे थे..लेकिन यह सोचते हुए कि अगर कभी ऐसे ही देर में उठे तो देर का बहाना बनाकर यह मन, आसानी से सबेरे-सबेरे के टहलने से वंचित करा देगा..फिर तो यह रोज का काम है...और मैं मन को परे झटकते हुए, फटाफट स्टेडियम की ओर निकल लिए..
              रास्ते में देखा, एक गाय महोदया अपनी नुकीली सींगों का निशाना मेरी ओर लिए सामने से चली आ रही थी...नुकीली सींगों को देख एकबार तो थोड़ा सहमा, फिर अगले ही पल कुछ सोचते हुए ठीक गऊ माता के बगल से विचारते निकल गए कि सड़क पर रहने वाली यह गाय झौंकारेगी नहीं.. इसका भी तो रोज यहीं सड़क पर घूमने का कार्यक्रम रहता है...शायद इसीलिए, ठीक बगल से निकलते समय उसने मेरी ओर निहारा तक नहीं। अब आगे बढ़े तो, एक कुत्ते महाशय पूँछ बरेरे बीच सड़क पर, मेरी ओर ही देखते खड़े दिखाई दिए, सूरत-शकल उनकी ठीक दिख रही थी..झपट्टेमार जैसे नहीं थे...जब उनके पास पहुँचा तो ये कुत्ते महाशय भी एक सज्जन व्यक्ति की तरह मुझे रास्ता देकर वहीं बगल में फिर से खड़े हो गए थे...उनकी इस "मनईगीरी" पर मैं मुस्कुरा उठा। 
            स्टेडियम में, ग्रुप वालों से आज भेंट हो गई, उनकी संख्या में एक की कमी थी..वे अापस में बतियाते हुए अपना टहल-कार्यक्रम पूरा कर रहे थे। उनमें से किसी एक को, कहते हुए मैंने सुना, "मुम्बई से उनके कलाकारों को निकल जाने के लिए कह रहे हैं..आखिर अपने देश के आतंक का वे विरोध भी तो नहीं करते..तो, फिर यही होगा" मने पाकिस्तानी कलाकारों को निकालना उचित है। मैंने इसे सुना भर, इस पर अपनी राय के बारे में सोचा भी नहीं। खैर... 
             लौटकर आवास पर आया, तो, बस यूँ ही कुछ देर तक शान्त बैठा रहा...कानों में तरह-तरह की आवाजें गूँज रही थी..कभी किसी मोटर की आवाज, तो कभी मनई की आवाज, कभी पंखे की आवाज तो कभी चिड़ियों की आवाज...मतलब, नानाप्रकार की आवाजें! इन आवाजों में, मैं प्रकृति की आवाज पहचानने की कोशिश करने लगा था.. वैसे, मनई की आवाज भी प्रकृति की आवाज के ही श्रेणी में आएगी, लेकिन न जाने क्यों, यह आवाज मुझे बनावटी लगती है। इस आवाज को परे झटक, फिर से, चिड़ियों और हवा की सरसराहट जैसी ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करने लगा था...इन आवाजों की गहराई में जाने पर कुछ बहुत बारीक सी मंद-मंद चीं-चीं जैसी ध्वनि सुनाई दी। इसपर ध्यान दिया तो, यह आवाज हमारे बाथरूम से आती हुई प्रतीत हुई। असल में, बाथरूम के गीजर के नीचे उलझे तारों के बीच गौरयों ने एक स्थाई सा घोंसला बना रखा है..एक बार, ऐसे ही तिनकों के भार से यह घोंसला एक ओर झुक गया था और गौरैया के अंडे से निकला एक नवजात बच्चा वहीं नीचे फर्श पर गिर पड़ा था। संयोगवश, मेरी निगाह उस पर पड़ गई थी, तब उस नवजात जीवित बच्चे को मैंने पुनः उस घोंसले में रख दिया और घोंसले के नीचे एक डंडी रख घोंसले को सीधा कर दिया था, जिससे गौरयों के अंडे या बच्चे इससे सरककर नीचे न गिरें। गौरैया का वह बच्चा बड़ा होकर उड़ गया था। बाद में, गौरयों ने मिलकर उस घोंसले को अपने बैठने लायक और बढ़िया बना लिया। 
      
            इस घटना के कई माह हो चुके हैं। तब से कई बार गौरयों के जोड़े यहाँ आकर अंडे दिए और अपने बच्चों को उड़ने लायक बनाए। इधर, मैंने ध्यान दिया...अभी एक माह भी नहीं हुआ होगा जब इस घोंसले से गौरया के बच्चों के चीं-चीं की आवाजों से जी हलकान हुए और उन गौरयों के बच्चों को उड़े हुए...लेकिन फिर से, गौरयों के एक दूसरे जोड़े के बच्चों की चीं-चीं की आवाजें सुनाई पड़ने लगी है। 
            हाँ, आज इन विभिन्न आवाजों के बीच मद्धिम-मद्धिम सी बेहद पतली सी यह आवाज उसी दूसरे गौरयों के जोड़े के बच्चों की है। वाकई!  इस एक घोंसले को लेकर गौरयों के जोड़ों के बीच की आपसी समझ से मैं आश्चर्य चकित सा था..आश्चर्यजनक रूप से जैसे ही एक जोड़ा अपने अंडों को से कर यहाँ से बच्चों को उड़ा इस घोसले को खाली करता है तो, दूसरा जोड़ा आकर इसी घोंसले में अपने अंडे देकर उन्हें सेने लगता है। सच में, मेरे लिए यह एक अद्भुत अनुभव! मैं इन चीं-चीं की आवाजों से अभिभूत था। खैर.. 
             मेरे एक मित्र हैं, एक दिन वो मुझसे इसलिए नाराज हो उठे कि मैं उनसे, उनके बन रहे घर के हालचाल नहीं पूँछे थे कि, अब तक उनका घर कितना, और कैसा बन चुका है। उनकी इस नाराजगी पर मैंने सोचा, वाकई! मैंने गलती की है, किसी की खुशियों के बारे में भी हमें जिज्ञासा होनी चाहिए। क्योंकि, कभी-कभी एक प्रसन्न व्यक्ति अपनी प्रसन्नता को दूसरों को सुनाने के लिए बेचैन हो उठता है। वैसे, घर एक ही होता है, जो एक बार ही बनता है, फिर तो इसके बाद सम्पत्ति खड़ी करना माना जा सकता है, और किसी की सम्पत्तियों के बारे मे ज्यादा पूँछ-ताछ करना मैं उचित नहीं मानता। आज बहुत सारे लोग मकान दर मकान खड़े करते जा रहे हैं, लेकिन शायद ही कोई घर बनाता हो! आज ज्यादातर मकान, जमीन, पानी, हवा को कब्जियाए सांय-सांय करते सूने से, केवल किसी की सम्पत्ति के रूप खड़े दिखाई देते हैं, जो किसी काम के नहीं। घर शानो-शौकत नहीं, सम्पत्ति नहीं, बल्कि घर वह जहाँ बच्चों को पाला-पोषा जाता हो। घर एक घोंसला ही होता है। हाँ.. घोंसलों पर ध्यान देना चाहिए, घोंसलों के हालचाल लेते रहना चाहिए, इसकी चिन्ता भी करनी चाहिए, इसे सँवारा जाना चाहिए। खैर...फिर अखबार पढ़ा था..
       
              "जागरण" में एक अन्दर की छोटी सी हेडिंग पर ध्यान अटका, "सांस्कृतिक मुद्दों व भगवाकरण ने रोकी बड़े सुधारों की राह" में "भारत को खुली और अनाश्रित समाज बनने की जरूरत है जिसका ध्यान मूलरूप से आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित हो।" जैसी बात से प्रभावित हुआ। सच में! हमारा समाज अनाश्रित तभी होगा जब चीजों का केंन्द्रीकरण नहीं होगा और उपभोग की लालसा कम होगी। जैसे, उन गौरयों के तमाम जोड़ों को मैंने एक ही घोंसले से काम चलाते देखा। 
           यही #दिनचर्या थी कल की। 
          चलते-चलते, 
          ध्यान और कुछ नहीं, बस प्रकृति की आवाजों को सुनना ही ध्यान है, ये आवाजें आपको भटकाएँगी नहीं... 
        --Vinay 
          #दिनचर्या 18/24.9.16

"विधा" और "बात"

           मित्रों! आज तो मैं स्टेडियम गया ही नहीं...अलसियाये से रहे, बस यहीं आवासीय कैम्पस में ही टहलने का कोटा पूरा किया। चाय पिया और मोबाइल चलाकर फेसबुक पर कुछ लाईक-फाईक सा करने लगा था। वैसे मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस "लाईक" करने या न करने के पीछे एक तरह का मनोविज्ञान काम करता है जैसे, किसी बात के कहने के पीछे। खैर, "फाईक" का आप गलत मतलब मत निकालें कि जिसे लाईक नहीं किया वह फाईक हो गया हो। मित्रों! यहाँ बातों को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।

             मान लीजिए कोई आप से कहे कि फला विधा में आप बहुत अच्छा लिख लेते हैं, तो इसका क्या मतलब है? समझिए! मेरे हिसाब से इस कहने का आशय मैंने यही लिया कि यह "विधा" ही आपके लिखे को साहित्यिक या असाहित्यिक का दर्जा दिलाएगी, लिखने के पीछे की "बात" नहीं। अब प्रश्न है कि हम लिखने की "विधा" या लिखने के पीछे की "बात" इनमें से किसी एक को महत्वपूर्ण मानें या फिर दोनों को? वैसे तो साहित्य में "कलागत विशेषताओं" की ही खूब चर्चा की जाती है और कभी-कभी "बात" पीछे छूट जाती है। अब यह उसी तरह से है जैसे वह चिरकुट कल्लनवा भी तो बात-बात में कहता है, "चोरी न करो" "झूठ मत बोलो" लेकिन क्या कोई उसकी बातों पर कान धरता है? लेकिन, जब यही बातें "आशाराम" माला पहने हुए किसी भव्य सिंहासन पर बैठकर कहेंगे तो लाखों उनके भगत बन उन्हें भगवान मान उन्हें मालामाल भी कर देंगे। हमको लगता है "विधा" और "बात" में भी यही सम्बन्ध है। मतलब बात महत्वपूर्ण नहीं विधा ही महत्वपूर्ण होती है। तभी बात भी सुनी जाती है। अब फिर प्रश्न है! किसी को विधा जेल में पहुँचाती है कि बात? यह बेहद गूढ़ प्रश्न है! मैं मानता हूँ, वह कल्लनवा बेचारा जेल नहीं जाएगा क्योंकि वह "विधा" के चक्कर को नहीं जानता! लेकिन जब कोई "बात" "विधा" की गुलामी करने लगती है तो फिर "आशाराम" को जेल जाना ही पड़ता है। यहाँ "बात" स्वतंत्र होती है लेकिन "विधा" नहीं। विधा सिंहासन होती है जो बात का अन्दाज बदल देती है, परतंत्र हो जाती है। मेरा निष्कर्ष है कि जब कोई कहे कि आप फला "विधा" में माहिर हैं तो आपकी "बात" कैदखाने की ओर पांँव बढ़ा रही है। सावधान हो जाइए! किसी विधा में बैठकर अपनी बात मत कहिए...बस! कहते जाइए...इसी में बात कहने की स्वतंत्रता है। 
              आज "हिन्दुस्तान" का सम्पादकीय पृष्ठ मेरे लिए काफी रुचिकर रहा। "अपने समय का सूर्य हूं मैं" आलेख "राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मतिथि पर उनकी काव्य चेतना का जायजा" ले रहा था। "दिनकर इस बात से खिन्न दिखते थे कि मार्क्सवादियों को लेखन की स्वतंत्रता नहीं थी, उन्हें पार्टी लाइन पर ही लिखना पड़ता था" और "दिनकर का मानना है कि अकसर राष्ट्रीयता का जन्म घृणा से होता है।" जैसी लेख की बातें प्रभावित करती हुई दिखी। इसीप्रकार "ये मेरा नया वाला मुगालता" वाकई, तरह-तरह के मुगालते पालने के लिए प्रेरित करता दिखाई दिया। "डर की मौत" जैसा आलेख "डर डरने से होता है" की याद दिला रहा था, और "युद्धोन्माद के खिलाफ" हम भी हैं।
           मित्रों, आज की ये बातें मेरी दिमागी #दिनचर्या के अंग रहे। हाँ..जो मैंने कहा है उसके आधे हिस्से को मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैंने आखिर, कहा क्या है! 
          चलते-चलते -
         निर्द्वन्द्व रहिए, निर्द्वन्द्व सोचिए..निर्द्वन्द्वता से कहिए....
         --Vinay 
         #दिनचर्या 17/23.9.16

चक्र

          बड़ी विचित्र स्थिति है मेरी #दिनचर्या को लेकर!  यह भी अजब का झमेला पाल लिए हैं..लिखने में आलस लगता है और न लिखें तो मन कचोटने लगता है..हाँ, यह मेरे लिए झमेलई तो है..! लेकिन फुराखरि में, इस दिनचर्या को लेकर मेरे लिए एक बात तो है, वह यह कि इसी बहाने मैं आप से बात भी कर लेता हूँ..एकतरफा ही सही..!

          आज स्टेडियम जाने में थोड़ी देर हो गई..स्टेडियम जाते समय ऐसा लगा जैसे, आज टहलने वालों में उतना उत्साह नहीं है.. रास्ते में ज्यादा लोग भी नहीं दिखे..बड़ी समस्या है! भीड़ होने पर भी परेशानी और न होने पर भी परेशानी..हाँ, ग्रुप वालों से भेंट नहीं हुई.. वे लोग मेरे काफी आगे थे और मेरी चाल भी कम थी...आज एक चक्कर मैं, कम टहला भी...उनसे भेंट होती तो एकाध जुमला सुनने को मिल ही जाता, क्योंकि टहलते हुए उनकी बतकही निर्वाध रूप से जारी रहती है!

          लौटते समय रास्ते पर, मेरे आगे तीन-चार लोग चले जा रहे थे आचानक उन सभी की चाल धीमी हुई उनमें से एक वहीं खाली पड़ी जमीन की ओर इशारा करते हुए कुछ दिखा सा रहा था..उनके बगल से आगे बढ़ते हुए उनकी बातें मैंने सुनी, "अभी यहाँ कबाड़ वाले अपनी पन्नी रख दें तो उन्हें कोई नहीं हटाएगा..लेकिन हम रख दें तो तुरन्त फेंक दिया जाएगा..।" दूसरा बोला, "कोई पट्टा-वट्टा हो सकता है, हुआ हो.." कुल मिलाकर खाली पड़ी सरकारी जमीन पर कब्जे के लिए इनका लार टपकता हुआ सा प्रतीत हुआ। मैं उनसे आगे निकल गया था। 

         आज सबेरे चाय पीने का मन नहीं हो रहा था...लेकिन यह सोचकर कि चलो चाय पी ही लिया जाए फिर चाय बनाई, अखबार आ चुका था, पढ़ने बैठ गए। 

 

          पहले पृष्ठ पर जबर्दस्त विज्ञापन से भेंट हुआ बाल लहराते हुए माडल किसी कम्पनी की स्कूटी पर बैठ अपने सपने सच कर रही थी। दूसरे पेंज पर किसी शुगर टेबलेट का पूरे पेंज पर प्रचार था। मतलब प्रचार में दो पेंज चले गए थे...ऐसा लगा जैसे अखबार के पैसे देकर हम प्रचार खरीदते हैं। बाकी पेंजों में भी आधे-तीहे प्रचार ही थे। यह प्रचार तंत्र का अपना अर्थशास्त्र है और हम इस तंत्र में चाभी भरनेवाले लोग।

           एक स्थानीय समाचार की छोटी सी हेडिंग "हिंदू युवा वाहिनी ने जलाया पाकिस्तान का झंडा" को देखा। जैसे, देशभक्ति का ठेका यह लोग ले रखे हैं, यह हेडिंग देशभक्ति का साम्प्रदायीकरण करती प्रतीत हुई, इस देश की यही समस्या है। पत्रकारिता, जैसे इन बातों को समझती ही नहीं। नकारात्मकता का दंश लिए हुए बेमतलब की महत्वहीन बातों को हेडिंग बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। 

             फिर सरकारी काम निपटाने में लग गए...एक गाँव चले गए थे... गाँवों में लोगों की हालत यह है कि गरीबी का रोना रोकर लोग सरकारी योजनाओं को झटकने के फिराक में पड़े रहते हैं और दिनभर में पच्चीस रूपए का गुटखा खा जाते हैं। किसी भी गाँव में यह किसी एक व्यक्ति की बात नहीं, गाँव में हर तथाकथित गरीब मजदूर की यही कहानी है और पूँछने पर कहते हैं, "इसलिए खाते हैं कि इससे समय बीत जाता है"। गजब! समय काटने का भी यह भी एक तरीका है! हमें तो पहली बार पता चला कि यह भी समय बिताने का एक तरीका होता है। अब समझ में आया कि  यह देश तमाम विडम्बनाओं से भरा देश है। 

        बस इतना ही। 

        चलते-चलते -  कभी बहुत पहले लिखा था -

          चारों ओर पसरा विज्ञान है 

           विज्ञान से 

            टीवी है 

             टीवी में नेता है

              नेता का भाषण है 

               भाषण का प्रभाव है 

अखबार है 

अखबार में शब्द है 

शब्द में विज्ञापन है 

विज्ञापन में प्रचार है 

प्रचार में छिपा बैठा 

लोकतंत्र है 

रूपया है 

रूपया से 

टीवी है 

अखबार है 

विज्ञापन है 

प्रचार है 

लोकतंत्र है 

सबका चुनाव है 

चुनाव का चक्र है 

चक्र में चाभी देता 

लंगोटिया यार है। 

           हाँ, आज की #दिनचर्या खतम।

 

              --Vinay 

               #दिनचर्या 16/22.9.16

सुपरस्टारी का चक्कर

           चीजें सब वैसी ही हैं जैसे कल थी। सुबह टहलते हुए ग्रुप से वही कल वाली बात फिर सुनी "कार्यवाही का अधिकार सेना को दे दिया गया है"। आज अन्तर यह था कि ग्रुप द्वारा इस कथन को सबसे बढ़िया बात बताया जा रहा था। हाँ.. ग्रुप से नमस्कारी-नमस्कारा हुआ और मैं आगे बढ़ गया था। सबेरे अखबार तो पढ़ी लेकिन अन्यमनस्क ही रहा, कोई उल्लेखनीय बात मैं, समझ नहीं पाया। 

            

              अखबार पढ़ने के बाद फैन चालू किया और टी वी भी चला दिया.. सोचा अब तक हो सकता है युद्ध शुरू हो जाने की कोई फड़कती हुई खबर मिल जाए! क्योंकि, इधर देख रहा हूँ, क्या बुद्धिजीवी...क्या भगत..सभी युद्धोन्माद में दिखाई दे रहे हैं। हाँ.. यह युद्धोन्माद उनमें अलग-अलग टाइप का है! भगत बेचारे युद्धवत्सल तो हो ही रहे हैं, बुद्धिजीवी भी अपने तरीके की वत्सलता निभा रहे हैं,। वैसे भगत तो, बुद्धिजीवी होते ही नहीं, कारण यही कि बुद्धिजीवी उन्हें अपनी जमात में शमिलई नहीं होने देते! इनमें उन्माद का स्तर ऐसा कि ये दोनों "न भूतो न भविष्यति" के अन्दाज में ही दिखाई दे रहे हैं..हाँ, आज नहीं तो फिर कभी नहीं..जैसा! मतलब युद्ध तो हो ही जाए के अन्दाज में, पता नहीं फिर अवसर मिलेगा भी या नहीं।

           इस उन्माद में बुद्धिजीवी वर्ग नए तरीके से शामिल हैं, जैसे इस समय उनके दोनों हाथों में किसी ने लड्डू धर दिया हो..उनके द्वारा तड़ातड़ भक्तों की खिल्ली उड़ाई जा रही है..कि...देखो! तुम्हारे ओ, कितने झूठे निकले..अभी तक युद्ध नहीं शुरू हुआ..हम कहते थे न.." मतलब यदि युद्ध होता है तो भी इन बुद्धिजीवियों के मजे और न हो तो भी। युद्ध छिड़ जाने की दशा में इनके मजे होने या न होने का अनुपात फिफ्टी-फिफ्टी होगा..! आप कहेंगे कैसे..? सो ऐसे कि, यदि देश जीतता है तो इनके बुद्धि के किसी कोने में बैठी इनकी भी देशभक्ति-भावना हिलोरें ले लेंगी..हो सकता है ये भी खुश हो जाएँ! लेकिन हाँ, इससे फिफ्टी परसेंट का इन्हें नुकसान यह होगा कि तब भक्तों की बल्ले-बल्ले हो जाएगी, जो इनपर नागवार गुजरेगा। ऐसे में, ये बौद्धिक सम्प्रदाय यही चाहेंगे कि युद्ध का परिणाम बेनतीजा ही रहे...वह भी इसलिए कि भगतई की औकात बताई जा सके। 

         हाँ.., अब अगर युद्ध शुरू नहीं होता है तब तो, इन बुद्धिजीवियों के मजे ही मजे हैं..एकदम हंड्रेड परसेंट! मतलब तब ये चहकते हुए कह रहे होंगे, "देखा! हम न कहते थे..!" ऐसी दशा में, भगत बेचारों को बिल में मुँह छुपाना पडे़गा। मतलब, भगत बेचारों की दुर्गति ही दुर्गति है...एक तो अभी तक युद्ध नहीं शुरू हुआ, दूसरे यदि शुरू भी होता है तो पता नहीं परिणाम, क्या होगा! और इधर बुद्धिवादी मजे पर मजे लिए जा रहे हैं और मजे ले रहे होंगे...। मैं तो कहता हूँ, इन भगत बेचारों से कि, पाकिस्तान से भले ही पंगा ले लो मगर इन बुद्धिमानों से पंगा मत लेना, नहीं तो, ये कहीं फँसा ही देंगे..।

         निष्कर्षतः हम तो भाई मान लिए हैं कि, कुल मिलाकर यह युद्ध तो छिड़ ही चुका है ; भगत वर्सेज अदर में!  और अपने-अपने तरीके से! इनके बीच में यह युद्ध ही "बोन आफ कंन्टेंशन" बन चुका है, अब पाकिस्तान गया तेल लेने..!

 

          हाँ तो, मैंने फैन तो चला ही दिया था, इसकी ठंडी-ठंडी हवाओं में ऐसे ही "बोन आफ कंन्टेंशन" का तलाश भी करता जा रहा था...तब तक टी वी की एक समाचार पट्टी पर निगाह पड़ी जिसमें कोई सुपरस्टार "अपने फैन से नाराज हुए" धीरे-धीरे सरक रहा था! दिखा। 

         इसे पढ़ते ही मैंने अपने सिर के ऊपर चल रहे फैन को देखा, बेचारे अपने गति में चले जा रहे थे और मेरे ऊपर ठंडी-ठंडी हवाएँ फेंकते जा रहे थे...सिर के ऊपर की इनकी चाल से मेरे शरीर की गर्मी नियंत्रित हो रही थी..और ठंडी हवाओं के प्रभाव में सोचा, "अब भला मैं अपने इस फैन पर क्यों नाराज होऊँ...!!  लेकिन, ये सुपरस्टार महोदय अपने फैन से न जाने क्यों नाराज हुए! हो सकता है, हो सकता है...फैन लोगों ने सुपरस्टार से धक्कामुक्की कर दिया हो...लेकिन भाई, फैन तो फैन ठहरे, आखिर आपको सुपरस्टार बनाया है, धक्कामुक्की करने का इतना हक् तो उनका बनता ही है..! और फिर, फैन सिर पर ही तो चढ़कर बोलते हैं.." हाँ, मैंने ध्यान दिया मेरा भी फैन हाई और लो वोल्टेज के चक्कर में सिर के ऊपर ही रह-रहकर घर्र-घर्र कर जाता था...बस अन्तर इतना ही है कि हम अपने-अपने फैन से अपने-अपने तरीके से आनंद उठाते हैं ; जैसे मेरा अपना फैन मुझे ठंडई का अहसास करा रहा था जबकि उनके फैन उन्हें गरम कर रहे होंगे, और वो इस गर्मी के चक्कर में अपने फैन से अपने सुपरस्टारी का आनंद उठाते-उठाते कुछ ज्यादा ही गरम हो गए होंगे, तो नाराज हो बैठे होंगे। मतलब यह भी कि सुपरस्टारों के फैन गरमी देते हैं। खैर, हम जैसे लोग, फैन के ठंडी हवाओं भर से संतोष कर लेते हैं, वो गरमी देते भी नहीं। 

    

              बेचारे, इन सुपरस्टारों की बड़ी शामत है! इनके फैन हैं कि अपने फैनई से बाज नहीं आते, गरमी ही देते जाते हैं, और खामियाजा बेचारे सुपरस्टार को भुगतना पड़ता है! चलो हो सकता है, वह समाचार वाला सुपरस्टार, फैन की धक्कामुक्की से परेशान होकर नाराज हुआ हो। लेकिन, यदि कोई सुपरस्टार, बोन आफ कंटेन्शन के चक्कर मे पड़ जाय तो फिर पूँछो मत...कभी-कभी तो उसे मैदान भी छोड़ना पड़ जाता है। बात यह होती है कि जब सुपरस्टार अपने फैनों के फैनई से गरम हो जाते हैं तो फैलने लगते हैं, फिर यहीं से वे स्वयं, बोन आफ कंन्टेंशन बन जाते हैं। 

            मैं तो कहुँगा...कि...सुपरस्टारों को कभी भी अपने लाईकर्स-ग्रुप के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए नहीं तो "बोन आफ कंन्टेंशन" के चक्कर में फँसकर किसी व्यंग्यकार की भाषा में कहें तो इनकी "मरन" है..!! पाकिस्तान की तो बाद में जो होगा सो होगा ही...

            वैसे इस लिखने को आज की #मनचर्या मान सकते हैं, किस दिन मन कैसा सोचा, इसे भी तो #दिनचर्या का ही हिस्सा माना जा सकता है। आज बस इतना ही..अब खाना खाकर सोएंगे...कल की कल देखी जाएगी। 

       चलते-चलते...

       

         अपने-अपने फैन से बच कर रहो, नहीं तो ये,..बोन आफ कंन्टेंशन..आप ही को बना देंगे...

                           --Vinay 

                          #दिनचर्या 15/21.9.16

हड़बड़ाहट

             इस बीच जैसे सब गड़बड़ा गया हो..हाँ, वही अपनी #दिनचर्या..!  अभी बीती रात के पहले वाली रात में निशाचर था। असल में रात आठ बजे घर छोड़ नौकरी पर निकल लिए थे, घर वाले जेन नहीं  ले जाने दिए, नहीं तो अगले दिन सबेरे ही निकलते। घर वालों का तर्क था बहुत ट्रैफिक होता है, बस से जाइए, सो रात में ही निकलना पड़ा। अगर सबेरे बस से निकलते हैं तो नौकरी पर पहुँचने में दिन के बारह बज जाते हैं, और जब तक नहीं पहुँच जाते दिल ऊग-बीग करता रहता है...देर से आफिस पहुँचने पर..! और लोगों की नजरों से बचना भी पड़ता है। खैर... 
             अकसर हड़बड़ी में चीजों को भूल जाता हूँ; जैसे कि उस दिन मोड़ पर सामने से आती बस देख उसे पकड़ने की हड़बड़ी में कार से कूद कर भागा...और बस रोकने के लिए हाथ से इशारा किया ही था कि ध्यान आ गया, "अरे! मोबाईल तो कार ही में छूट गया है..." हाथ तुरन्त नीचे किया, फिर उल्टे पाँव कार की ओर भागा..! सुपुत्र जी वापस जाने के लिए कार मोड़ ही रहे थे, साथ में उनकी माता जी भी थी, इस तरह मुझे हड़बड़ी में देख वे कुछ समझती, कि इसके पहले ही मैंने कार का दरवाजा खोल सीट पर छूटी मोबाइल हाथ में लेते हुए उन्हें दिखाया और उतनी ही तेजी के साथ मुख्य सड़क की ओर पुनः भागा..लेकिन वह बस दूर जाती हुई दिखी, सोचा, "बस का ड्राइवर सोच रहा होगा कि कितना बेवकूफ आदमी है.. हाथ देकर भाग खड़ा हुआ...!" भाग्य अच्छा था (हम छोटी-छोटी बातों में भी भाग्य को कष्ट देने से नहीं चूकते), कुछ ही क्षणों बाद दूसरी बस आ गई थी।
           बस में सवार हो गया। कंडक्टर मेरे पास आया..फुटकर नहीं था..पाँच सौ का नोट दिया...बहुत सलीके से उसने मेरा टिकट बनाया..और किराए से बचे पैसे टिकट के पीछे न लिख, उसी समय वापस भी कर दिया। कई बार भीड़ न होने पर भी कंडक्टर, तुरन्त पैसा वापस करने की बजाय टिकट के पीछे लिख देते हैं और गंतव्य आने पर ही वापस करते हैं.. ऐसे में हड़बड़ी में भूलवश बिना पैसा वापस लिए हुए ही बस से उतर गए हैं..एकाध बार तो टिकट खो जाने पर संकोचवश कंडक्टर से पैसा वापस लिया ही नहीं क्योंकि प्रमाण के लिए टिकट के पीछे लिखे बाकी के पैसे दिखाना होता है, और वह दिखा नहीं पाया था। लेकिन, आज का यह बस कंडक्टर मुझे सभ्य लगा था।
              बस में बैठे-बैठे मेरा दिमाग उरी हमले पर चला गया...शहीद सैनिकों को लेकर मन कुछ भावुक भी हो चला था.. पाकिस्तान पर इतना गुस्सा आया कि लगा, भारत को तुरंत पाकिस्तान पर बमबारी शुरू कर देनी चाहिए लेकिन देश की राजनीतिक उठापटक पर भी ध्यान चला गया, लगा यह समस्या आज की ही नहीं है। ऐसी समस्याओं के पीछे "मन" होता है, और किसी देश का मन जब गड़बड़ा जाता है तो, या तो वह दूसरों के लिए समस्या पैदा करता है या, समस्या का शिकार होता है..हम एक तरह की समस्या के शिकार हैं!  कल सबेरे मैंने जो कविता पोस्ट की थी भावुकता में इसी बस के सफर के दौरान लिखी थी..फिर कब कानपुर आ गया था, मुझे पता ही नहीं चला..!
        जैसे ही बस से उतरा, महोबा वाली बस तुरन्त मिल गई..वाकई..! देखिए न, ये भी बेचारे बसवाले दिन-रात की परवाह किए बिना अपनी ड्यूटी बजाते रहते हैं..! जब इन बसों को कहीं किसी आन्दोलन के दौरान जला दिया जाता है तो, हमें बड़ा कष्ट होता है...जैसे अभी, कावेरी विवाद में बैंगलुरू में चालीस बसों को जला दिया गया था! वास्तव में, ऐसे अपराधियों को खोजकर इन पर हत्या का अभियोग चलाया जाना चाहिए और कम से कम आजीवन कारावास से कम की सजा नहीं मिलनी चाहिए। हमारा चरित्र ऐसा!! और चलें हैं पाकिस्तान को सबक सिखाने..! सरकार कुछ नहीं कर रही..सरकार मौन है.. सरकार के चरित्र को देखने के पहले भाई लोग हम लोगों ने अपने चरित्र को देखा है..? आजादी के इतने दिनों बाद भी एक नागरिक बनने का सऊर तो आ नहीं पाया, पाकिस्तान को सबक सिखाएंगे? पहले अपने को इस लायक तो बनाओ कि आप पर हमला करने के पहले कोई लाख बार सोचे। 
             मन दुखी था..मौन था..बस होठों को चबाए जा रहा था... युद्ध लड़ने की इच्छा मन से निकल चुकी थी..कविता को अगले दिन सबेरे पोस्ट किया। 
           आज सबेरे पाँच बजकर पाँच मिनट हुए थे जब स्टेडियम की ओर टहलने निकला था। रास्ते में स्टेडियम की ओर काफी लोग जाते हुए दिखाई दिए..अब सबेरे-सबेरे टहलने वालों की संख्या में काफी इजाफा हो चुका है! दस दिन बाद मैं स्टेडियम की ओर गया था। कुछ देर बाद स्टेडियम में कार वाला ग्रुप भी आ गया था, तेजी से चलते हुए उन लोगों की यह बात सुनी "कार्यवाही का अधिकार सेना को दे दिया गया है..अब सेना भी नहीं कह सकती कि हाथ बँधे हुए हैं" इतनी ही बात मैं सुन पाया था और उनसे आगे निकल गया। 
स्टेडियम का तीन चक्कर पूरा करने के बाद वापस चलने को हुआ तो बिना घड़ी देखे ही, निकलने वाले समय से हिसाब जोड़कर मन ही मन  अनुमान लगाया कि पाँच बजकर सैंतालिस मिनट पर आवास के दरवाजे पर पहुँच जाएँगे। आवास के दरवाजे पर पहुँचते ही समय देखा, अनुमान एकदम सही था। मतलब कभी-कभी गुणा-गणित से सटीक निष्कर्ष निकल आते हैं, तो भाई! किसी जवाब में हड़बड़ी की जरूरत नहीं, गुणा-गणित कीजिए और करने दीजिए..हड़बड़ी में चीजें मिस हो जाती हैं। 
          आज जल्दी चाय बना लिया था..चाय पीने के बाद ही अखबार आया..जागरण में पहली हेडिंग "पाक पर प्रहार को तैयार" पढ़ने के बाद "मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल सरासर गलत" पढ़ते हुए मन में विचार उठा, "काश! हमारे देश के लिए भी कोई पर्सनल लॉ होता...ले देकर जो संविधान है, वह तो, सब को पर्सनल पर्सनल सा किए दे रहा है..!"  खैर, आगे "इतना आसान भी नहीं है युद्ध का फैसला" में बताया गया था कि "भारत पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की दशा में दोनों ओर से एक करोड़ बीस लाख लोगों की मृत्यु हो जाएगी, पाकिस्तान तो नेस्तनाबूद तो हो ही जाएगा।" यह भी एक गुणा-गणित है। लेकिन युद्ध से शान्ति शायद मरघट वाली ही शान्ति होती है। "युद्ध से शान्ति" इसे मैं आदिम विचार भी मानता हूँ..तब शायद, शान्ति स्थापना के लिए एकमात्र विकल्प युद्ध ही रहा होगा। आज बहुत सारे विकल्प हैं। 
           बाद में घर से फोन भी फोन आया.. बोलीं, "इस बार इंडिया टूडे में महोबा के पहाड़ों के खनन पर रिपोर्ट आई है..." मैंने मन ही मन पूर्व में फेसबुक पर इस सम्बन्ध में किए गए अपने कुछ पोस्टों के बारे में सोचा... "वाकई! बात निकलती है तो दूर तलक जाती है..! चाहे कोई पढ़े या न पढ़े, सुने या न सुने। हाँ, बातों ही बातों में उन्होंने एक बात और कही, " सेना में भी बड़ा भ्रष्टाचार है...शहीद होने वाले सैनिक बेहद गरीब घर के ही होते हैं " इस बात पर कुछ सैनिक अधिकारियों के परिवारों के बी एम डब्ल्यू से चलने की बात याद आई। खैर, हम भारतीय हृदय से अपने सैनिकों का सम्मान करते हैं। 
          हाँ, यही आज की दिनचर्या थी..पता नहीं यह #बतकचरा तो नहीं है...!
        चलते-चलते -
       
         कोई भी निर्णय, हड़बड़ाहट में, पूर्वाग्रह में, क्रोध में, भावना में और बिना गुणा-गणित के नहीं लेनी चाहिए। 
                     --Vinay 
                     #दिनचर्या 14/20.9.16
        

शनिवार, 17 सितंबर 2016

कवि सम्मेलन और हिन्दी

              मेरा भी कवि सम्मेलन का ऐज ए श्रोता होने का अपना अनुभव है - 
   
          कवि सम्मेलन की शुरुआत पूरी तरह औपचारिकताओं के साथ हुई, श्रोता बेहद उत्साह में थे। गीत, वीररस, हास्य-प्रधान कविताओं का रसास्वादन लेते रहे। इस काव्य-मंच की अध्यक्षता एक नामी कवि महोदय द्वारा सम्पन्न हो रहा था। कवि-गण अपनी कविता पाठ के पहले इस कवि सम्मेलन के मंचाध्यक्ष का चरण-वंदन करना नहीं भूलते थे। कुछ कवि अध्यक्ष महोदय की प्रशंसा में उन्हें फॉरेन रिटर्न भी बता रहे थे, गोया जैसे हमारी हिन्दी भी कभी-कभार यूएनओ घूम आती है। 

        एक बात है, कवि लोग चुहलबाजी पर चुहलबाजी करते जा रहे थे, कवि सम्मेलन में पढ़ी जा रही कविताएँ हमें "सधुक्कड़ी-कविता" लग रही थी। भाषा के रूप में नहीं, भाव और शैली के रूप में मेरे भी एकदम समझ में आ रही थी ये सधुक्कड़ी-कविताएँ। 
          
         हाँ...सधुक्कड़ी पर मुझे याद आया....उन दिनों मैं हिन्दी में नया-नया था..! मतलब बोलने में नहीं, लिखने में..! मैं ठहरा ग्रामीण स्कूल में पढ़ने वाला...तब शहर में पढ़ने वाले एक शहरी लड़के के अनुरोध पर उसके लिए दहेज पर निबंध लिखा, जिसे उसे अपने स्कूल में दिखाना था। दूसरे दिन स्कूल से लौट कर आने पर मैंने निबंध के बारे में पूँछा, तो उसने बताया कि उस निबंध को मास्टर जी ने "सधुक्कड़ी भाषा" में बताते हुए रिजेक्ट कर दिया है। उस निबंध में दहेज लोभी को गाय-भैंस की संज्ञा दे दी थी।
          हालाँकि, तब मैं सधुक्कड़ी भाषा का बहुत मतलब नहीं समझता था। बड़ी कक्षाओं में जाने पर जब मतलब समझा तो एक दम संस्कृतनिष्ठ पर उतर आया था। एक बार संस्कृतनिष्ठ के चक्कर में मेरे परीक्षा में अंक ही कम आ गए थे। 
          ऐसे ही श्रोता-गण कविता सुनने में मस्त थे कि काव्य-मंच के अध्यक्ष महोदय के काव्यपाठ की भी बारी आ गई। अध्यक्षता कर रहे कवि महोदय, जैसे कि कवि सम्मेलनों की रवायत होगी कि मंच के अध्यक्ष सबसे अन्त में कविता पाठ करते होंगे, सबसे अंत में कविता -पाठ करने को उठे। अपनी गरू-गम्भीर वाणी में उन्होंने काव्यपाठ आरम्भ किया। मैं देखता रहा, इसी के साथ पांडाल में रह-रहकर हलचल सी हो जाती। मुड़कर देखता तो कोई न कोई उठ कर जा रहा होता। उनका काव्य-पाठ समाप्त होते-होते पांडाल लगभग खाली हो गया था।
            मैं भी उठ खड़ा हुआ। चलते-चलते कहीं से आवाज आई इन कवि महोदय ने तो एकदम बोर ही कर दिया...मैंने कहा, "नहीं भाई, इनकी कविताओं में गहरे अर्थ छिपे हुए हैं, इनकी कविता को समझने के लिए दिमाग की जरूरत होगी।" इस पर अगला बोला, "अब इतना दिमाग भी खाली नहीं है कि बैठकर इनकी कविता समझी जाए।" 
         हाँ..हम अपनी हिन्दी को ऐसी न बनाएं कि लोग हमारे हिन्दी के पांडाल को छोड़-छोड़ कर जाने लगें क्योंकि आज के जमाने में अब लोगों में इतना धैर्य और समय नहीं है कि आपकी भाषा के शब्दों का मतलब खोजते फिरें। हाँ, भाषा भाखा होती है, सधुक्कड़ी-वधुक्कड़ी कहना भाखा का अपमान है, और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी भाखा नहीं होती। उसपर भी नम्बर कम आएँगे। ज्यादा शास्त्रीयता के चक्कर में पांडाल खाली हो जाएगा। 
           -  विनय

समाज की परवाह

               कल, मन कुछ भारी था, बस यूँ ही महोबा में स्थित रहेलिया के सूर्यमंदिर की ओर निकल गए थे। मंदिर के भग्नावशेष कभी के इसकी भव्यता की कहानी बयाँ कर रहे थे। वहाँ नियुक्त कर्मचारी ने बताया कि इसकी पुरानी भव्यता को पुनः वापस लाने के लिए बजट आवंटित किया गया था, लेकिन बजट व्यय हो जाने के बाद काम रुक गया है...अब फिर से बजट आने पर काम होगा। देखा, थोड़ा काम हुआ भी था। काम यही था कि मंदिर के बिखरे पड़े पत्थरों को पुनः अपने पुराने स्थान पर रखते हुए मंदिर को पुराना स्वरूप दे देना! लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि मंदिर का स्ट्रक्चर समझने में परेशानी हो रही है। लेकिन आज ऐसी बात कहना समझ की बात नहीं मानी जाएगी। हाँ.. यदि मंदिर फिर से अपने पुराने स्वरूप को ग्रहण कर लेता है तो पर्यटन की दृष्टि से अच्छा होगा। मेरे देखते-देखते दो-तीन और कार सवार यहाँ आ गए थे। 
             
              इस वर्ष अच्छी बारिश होने से मंदिर के सामने का बड़ा सा तालाब भी भर गया है। अभी हम यहाँ के चौकीदार से यही सब बातें कर रहे थे कि पास के गाँव का एक साठ-पैंसठ की उम्र का व्यक्ति जानवर चराते-चराते आ गया था। हमारे साथ श्रीमती जी भी थी। अचानक उन्होंने हमसे पूँछ लिया कि यह मंदिर कब बना होगा तो मैंने उन्हें बताते हुए कहा कि खजुराहो के मंदिर जब बने होंगे उसी के आसपास या उससे थोड़ा पहले बने होंगे। असल में यह मंदिर आठवी-नौंवी सदी में बना था। अभी हम यह बातें कर ही रहे थे कि वह चरवाहा बोल उठा, "अरे! खजुराहो तो हम पहले गये हते..देखै लायक नहीं.." फिर इस व्यक्ति ने खजुराहो के मंदिरों को बनाने वालों को तमाम गालियों से नवाजने लगा था, हाँ..गालियाँ भी ऐसी कि खजुराहो की मूर्तियां ही शर्मा जाएं! उसकी गालियों को सुनते हुए मैंने सोचा, "हम आम भारतीयों का चरित्र ऐसा ही होता है...खजुराहो की मूर्तियों से शर्म तो आती है लेकिन, ऐसी गालियाँ बकने में कोई शर्म नहीं...!" खैर.. मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। 
               
               हाँ..फिर इस व्यक्ति ने ओरछा का जिक्र करते हुए बताया कि वहाँ बहुत अच्छा स्थान है, वहाँ का मंदिर देखने लायक है। हरदौल के मंदिर के बारे में बताते हुए उसने हरदौल की कहानी सुना...असल में जुझार सिंह और हरदौल दो भाई थे। जुझार सिंह बड़ा था। हरदौल जब पैदा हुआ तभी इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उस समय जुझार सिंह की पत्नी यानी हरदौल की भाभी ने हरदौल को अपना दूध पिलाते हुए पाला-पोसा। बाद में, युवा होता हरदौल ताकतवर और सुन्दर था। जुझार सिंह के कुछ खास मंत्री उसके बढ़ते प्रभाव से चिन्तित से हो गए थे। तब इन लोगों ने जुझार सिंह के कान भरने शुरू कर दिए कि हरदौल का अपनी भाभी यानी जुझार की पत्नी के साथ अवैध रिश्ता है..और जुझार सिंह ने अपनी पत्नी के हाथों हरदौल को जहर खिलवा दिया..। मतलब हरदौल अपनी भाभी के हाथों जहर खा लिया। हाँ... चरवाहे ने आगे यही बताते हुए कहा....
       
           "मंत्री-अन्त्री रहईं ओनके...उनने चुगली कर देई...कहई, मैंने अपनी आँखों से देखा है..और फिर भी...जुझार सिंह न मानो!  तब भी चुगली करत-करत उनने कर दिया...और हरदौल ने कहा..मैं जिन्दा न पूरा करता रहा तो, मरने पर इनका क्यों पूरा करता रह ना?" (शायद हरदौल का आशय यही था जो बात जिंदा रहते सच नहीं थी तो मरने पर कैसे सच हो जाएगी..!) 
               
                इसके बाद चौकीदार ने आगे इसी में जैसे जोड़ते हुए हमें समझाने के अंदाज में कहा, "जब खा नहीं रहा था जहर तो उसमें यो हो जाता कि ये बात सच्च है.. इससे उनके मन में कि मैं जहर खाऊँ...मर गये..." मेरे फिर पूँछने पर कि जहर किसने दिया तो उसने कहा, "भाभी से दिलवाया"!
         
                आगे उस ग्रामीण ने फिर बताया, "मरते-मरते बारह-तेरह को मार गये और कहा...मेरे मरने के बाद मेरे वंश परिवार में कोई नहीं रह जाएगा और ये संन्त्री के भी कोई इनके न रह जाएगा।"
               
                   मैंने कहानी सुनी...सोचता रहा...
                 कल की #दिनचर्या बस यूँ ही बीत गई थी। 
और चलते-चलते -
              समाज में कोई क्या कह रहा है, हमें इन बातों की परवाह नहीं करनी चाहिए...कहने वालों के अपने-अपने स्वार्थ होते हैं। 
                               --Vinay 
                               #दिनचर्या 13/13.9.16