सोमवार, 18 जनवरी 2016

हम हैं कि गिनती करने में ही व्यस्त हैं!

         यदि सोशल मीडिया पर हम अपने फॉलोअर और अपनी अभिव्यक्तियों पर दूसरों के लाइक, कमेन्ट गिनेंगे तो निश्चित रूप से हमारी अभिव्यक्तियाँ पूर्वाग्रही होंगी।
        लेकिन हम सोशल मीडिया पर होते हुए अपने को किसी निश्चित विचारधारा, समुदाय या वर्ग का मानते हैं ; फिर तो यह प्रवृत्ति चल जाएगी क्योंकि तब हम किसी समुदाय या वर्ग या फिर किसी खास उद्देश्यों को लेकर काम कर रहे होते हैं, ऐसे में गिनना स्वाभाविक है और कम से कम गिनकर समझ लेंगे कि हमसे कितने लोग इत्तफाक रखते हैं तथा प्रसन्न हो लेंगे फिर दूसरों पर गिनती की अपनी धाक भी जमेगी।
         अब यदि हम अपने को समाज का निष्पक्ष आलोचक मानते हैं तो सोशल मीडिया पर अपने लिए ऐसी गिनती करना समाज के लिए खतरनाक हो सकती है, क्योंकि तब हमारी अभिव्यक्तियाँ इसी गिनती से प्रभावित होती है। सोशल मीडिया पर कुछ खास विचारों या विश्लेषण पर किए गए लाइक, कमेंट की संख्या देखकर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इस संख्या में हमें स्पष्ट रूप से वर्ग भेद या ध्रुवीकरण जैसी स्थिति दिखाई देने लगती है जो सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करती। भारत जैसे बहुभाषी, बहुधार्मिक देश के लिए यह प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है। यहाँ गिनती के प्रति नहीं बल्कि समान दृष्टि और निष्पक्ष विचारों के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए, अन्यथा हम गिनती करने वाले लोग किसी मुद्दे पर क्षणिक राजनीतिक उठापटक मचाकर चर्चित होने का तमगा तो हाँसिल कर लेंगे लेकिन राष्ट्र को स्थाई दिशा देने में असफल ही रहेंगे।
        हमें कबीर वाली दृष्टि चाहिए; जो कबीर के इतने वर्षों बाद आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन हम हैं कि गिनती करने में ही व्यस्त हैं!

यह आबोहवा..!

           मेरे गन्तव्य का एक तिहाई दूरी तय कर चुकने के बाद बस अपने उस अड्डे से चलने ही वाली थी कि अचानक एक सत्ताईस-अट्ठाईस साल के नौजवान ने मुझे नमस्कार किया। मैं उसे पहचान नहीं पाया। फिर उसने अपना परिचय दिया -

         "सर आप ने पहचाना नहीं? चुनाव के दौरान आपने मेरी पत्नी की ड्यूटी काटी थी.. "

        मैं उसका मुँह देखने लगा था। उसने फिर कहा-

        "मेरी पत्नी टीचर है उस दिन उसे चुनाव ड्यूटी पर जाना था लेकिन उसे मधुमक्खी ने काट लिया था.. मैंने आपसे उसकी ड्यूटी काटने के लिए अनुरोध किया था और आप ने उसकी ड्यूटी काट दी थी.."

        हालाँकि, उस दौरान मैंने कुछ लोगों की समस्याग्रस्त परिस्थितियों के दृष्टिगत उन्हें चुनाव कार्य से विरत किया था लेकिन मधुमक्खी काटने के कारण किसी को इस ड्यूटी से मुक्त किया किया हो यह बात मुझे पूरी तरह से याद नहीं थी, फिर भी उस युवक का मान रखने के लिए मेरे मुँह से निकला-

       "हाँ..हाँ... याद आया...मैंने ड्यूटी काटी थी..!"

         इसके बाद वह युवक आकर मेरे बगल की खाली सीट पर बैठ गया। शायद उसे मेरी सहजता प्रभावित कर रही थी। बस इस छोटे से शहर के टूटे-फूटे सड़क पर हमें हिचकोले खिलाते हुए चल चुकी थी। हम दोनों के बीच कुछ क्षणों के मौन को तोड़ते हुए युवक ने हमसे कहा -

         "सर, आपसे एक सलाह लेना चाहता हूँ..यदि आप..?"

         मैंने बिना उसकी ओर देखे बोला-

        "पूँछो..पूँछो..! कोई बात नहीं.." बाहर बस की खिड़की से झाँकते हुए ही मैंने कहा।

         "सर, बात यह है कि मेरी पत्नी का आयकर विभाग में स्टेनोग्राफर के पद पर भी चयन हुआ था और आजकल वह वहीं काम भी कर रही है लेकिन इधर प्रशिक्षु शिक्षक की अवधि पूरी होने के बाद शिक्षक पद पर भी नियुक्ति होनी है.. उसे दोनों में से किस नौकरी में जाना चाहिए?" 

        युवक की इस बात से उसकी द्वन्द्वात्मक परिस्थिति का आभास कर मैंने उस बेचारे को सलाह देने के लिए उत्साहित हो उसकी ओर देखा। मुझे उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थी। फिर उसे चिन्तामुक्त करने की गरज से मैंने सलाह देने के अन्दाज में कहा- 

       "देखो, प्राइमरी टीचर की नौकरी उस स्टेनोग्राफर की नौकरी से बेहतर तो है ही; एक तो टीचर में वेतन भी अधिक होगा और दूसरे छुट्टियाँ भी मिलती रहेंगी, महिलाओं के लिए टीचर की नौकरी ही सबसे बढ़िया होती है।"

        "यही तो मैं भी कह रहा था सर! इसमें वेतन तो अधिक है ही परिवार और आगे बच्चों के देखभाल के लिए भी समय मिल जाएगा।" युवक ने मेरी ओर देखते हुए कहा।

         युवक के अनुसार उसकी पत्नी स्टेनोग्राफर की ही नौकरी करना चाहती है, बहुत समझाने पर शिक्षिका की नौकरी के लिए मन बना रही है। लेकिन उसके पिता अपनी बहू अर्थात उसकी पत्नी को आयकर विभाग में ही स्टेनोग्राफर की नौकरी कराने पर तुले हुए हैं। वह पत्नी की सहमति से अपने पिता को बताए बिना उसके टीचर पद पर नियुक्ति हेतु काउंसिलिंग के प्रमाण-पत्र जमा करने आया था जिससे किसी विद्यालय में उसके पत्नी की नियुक्ति हो सके। उस युवक की बातों से मुझे लगा कि उसकी पत्नी ने भविष्य में स्वयं के आयकर अधिकारी बन जाने की बात घरवालों को समझा रखा है। जब मैंने बताया कि स्टेनोग्राफर का प्रमोशन अधिकारी में नहीं हो सकता तो फिर उसने विभागीय परीक्षाओं का हवाला दिया। अब मैं समझ गया था कि स्वयं उसकी पत्नी प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका नहीं बनना चाहती है।

          इसके बाद मैंने पूँछा, "क्या तुम्हारी पत्नी किसी बड़े शहर मैं नौकरी कर रही है?" युवक ने हामी भरी। और आगे उसने बताया कि स्टेनोग्राफर की इस नौकरी में उसे सुबह निकलना होता है और कभी-कभी तो लौटने में देर शाम भी हो जाती है। 

         मैंने कुछ सोचते हुए उससे पूँछा, "इसका मतलब तुम्हारी पत्नी शहर में रहना चाहती है, टीचर वाली यह नौकरी तो गाँवों के लिए है!"

         "जी सर, आपने सही कहा, वह शहर में ही रहना चाहती है, लेकिन सर! यह बताइए स्टेनोग्राफर को तो साहबों के साथ कभी-कभी दूसरे शहरों में भी दौरा करना पड़ सकता है तथा अपने साथ वे देर तक काम करने के लिए भी रोक सकते हैं?"

         जब मैंने यह कहा "हाँ यह भी हो सकता है" तो थोड़ा चिन्तित होते हुए वह बोला, "ऐसे में हमारे और पत्नी के बीच टकराव हो सकता है..रिश्तों में खटास..!"

       मैं समझ गया कि यह मुद्दा उसके लिए बहुत संवेदनशील है इसे कुरेदना उचित नहीं है। फिर मैं उससे बोला-
      
      "हो सकता है तुम्हारी पत्नी स्कूल के छोटे बच्चों का नाक न पोंछना चाहती हो लेकिन तुम अपनी पत्नी को यह समझाओ कि स्टेनोग्राफर की नौकरी में सदैव शहर में ही रहना पड़ेगा और घर के लिए छुट्टियाँ भी टीचर की अपेक्षा कम ही मिल पाएगी तथा शहरों के प्रदूषण से आदमी बीमार भी हो जाता है.. जबकि टीचर की नौकरी गाँव में ही करनी है जहाँ शुद्ध आबोहवा भी मिलेगी, और अगर छोटे-छोटे बच्चों को मन से पढ़ाएगी तो बच्चों का भविष्य तो सुधरेगा ही इसी बहाने थोड़ी समाज सेवा भी हो जाएगी!"
       
       "सर समझाया तो हूँ लेकिन मेरे पिताजी तो उससे स्टेनोग्राफर की ही नौकरी कराना चाहते हैं। मैं तो परेशान हूँ..." युवक की इस बात पर मैं कुछ नहीं बोला। फिर उसने मुझसे कहा-

"सर, आप कहीं मेरी नौकरी लगवा देते तो..पहले मैं कम्प्यूटर का काम करता था इन दिनों उसे छोड़ दिया हूँ क्योंकि आर्थिक परेशानियों के साथ अपने शहर से दूर रहना होता था.. कहीं संविदा पर ही हो सके तो मुझे कोई काम दिला दीजिए.."

        इसके साथ ही वह अपने नौकरी के लिए मुझसे काफी अनुनय-विनय करने लगा था। 

        अन्त में मैंने उससे कहा, "तुम नौकरी के लिए इतना परेशान क्यों होते हो? तुम्हारी पत्नी को तो नौकरी मिल ही गई है, तुम कम से कम अपने घर व बच्चों को सँभालोगे तो तुम्हारी पत्नी अच्छे से नौकरी कर लेगी।"

        मेरी इस बात को सुनकर वह बस की दूसरी खाली पड़ी सीट पर जाकर बैठ गया। इधर मैं सोच रहा था कि शायद यह इसलिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना चाहता हो जिससे अपने परिवार में होने वाले निर्णय-प्रकृया का हिस्सा बन सके या हो सकता है पत्नी को लेकर उसका अहं भी जाग रहा हो...खैर उसके पारिवारिक भविष्य के प्रति मुझे कुछ चिन्ता सी हुई क्योंकि युवक मुझे भोला-भाला सा लगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

ये आदतें !


                उस दिन बस से ही मैं कहीं जा रहा था। सुबह-सुबह का ही समय था। मतलब उठें या न उठें या थोड़ी देर और सो लें जैसी जद्दोजहद में फँसे रहने वाला वही सुबह का समय था! बस में, ठीक ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर ही मैं बैठा था। बस चली जा रही थी। अचानक मुझे सिगरेट या बीड़ी सुलगाए जाने की गंध मिलने लगी थी। मैं पीछे उझक कर देखने का प्रयास किया कि यह गंध कहाँ से आ रही है? लेकिन इसके लिए उत्तरदायी कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया था। बस के अन्दर लाईट जल रही थी और बस के बाहर अभी तक अँधेरा ही था। इस अँधेरे को बस की हेडलाईट चीरती जा रही थी। इधर साथ ही किसी के द्वारा किए जा रहे धूम्रपान के इस धुएँ का मैं अहसास भी करता जा रहा था। बस में कौन अपने इस लत को पूरा कर रहा था इसे जानने का प्रयास मैंने छोड़ दिया क्योंकि ऐसे ही एक बार किसी को मैंने जब टोंका था तो पहले वह माना नहीं और बाद में खिल्ली उड़ाने के अन्दाज में पी चुकने के बाद ही सिगरेट फेंका था। मैं करता क्या झगड़ा तो कर नहीं सकता था केवल चुप लगा कर रह गया था।

            इसी समय मैंने बस के कंडक्टर को ठंडी हवाओं के बस के अन्दर आने के कारण बस की खिड़की को बन्द कर लेने के लिए कहते हुए एक यात्री से बहस करते देखा। फिर उस यात्री ने ड्राइवर की ओर इशारा करते हुए खिड़की के शीशे को खींच दिया था। मैंने ध्यान दिया यह बस ड्राइवर ही बीड़ी पर बीड़ी सुलगाए जा रहा था। 

             मैं मन ही मन सोचने लगा कि बस चलाते हुए इतनी सुबह ही इसे बीड़ी पीने की कौन सी आफत आ पड़ी थी। फिर सोचा, नशे की ये आदतें ऐसी ही होती हैं, आदमी बेचारा अपनी इन आदतों के सामने विवश हो जाता है। उसे भी टोकने का मेरे मन में खयाल आया लेकिन सोचा ड्राइवर को बीड़ी पीने से टोकने पर एक तो उसे बुरा लगेगा दूसरे वह तर्क देगा कि तरोताजा होने और चैतन्य होने के लिए मुझे तो यह करना ही है। यह छूट नहीं सकती। इसके बिना मैं बेचैन हो जाऊँगा। 

           फिर मेरा ध्यान अपने ऊपर गया। इसी तरह फेसबुक पर और आनलाइन रहने का भी अपना एक नशा होता है। एक बार जब मैंने तय किया कि आज दिन भर मुझे फेसबुक या किसी भी तरह के आनलाइन क्रियाकलापों से दूर रहना है तो दिन में कई बार मुझे जबरन इसका प्रयास करना पड़ा और शाम को तो जैसे हलका सा सिरदर्द ही होने लगा था, शायद यह दर्द भी एक तरह के लत से दूर रहने की जद्दोजहद से ही उपजा हो।

          वास्तव में नशा या लत किसी पदार्थ के जैविक प्रभाव से उत्पन्न नहीं होता, मतलब हमें नशे में डालने के लिए कोई वाह्य कारक भी उत्तरदायी नहीं है। बल्कि किसी चीज के प्रति हमारी आदतें ही नशा या लत होती हैं। कभी-कभी एक विशेष अनुभव से गुजरने की आदत ही नशा बन जाती है और बुरी आदतों का नशा ही हानिकारक होता है। कोई भी आदत धीरे-धीरे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में बदल शरीर को जैविक तरीके से भी प्रभावित करने लगता है और इन आदतों से प्रभावित हमारा शरीर इसके लाभ या हानि से भी प्रभावित हो जाता है। बुरी आदतों से हमारा स्वास्थ्य तथा व्यवहार दोनों खराब हो जाता है। नशे के मामले में भी यही होता है। 

           आदतों से छुटकारा पाना स्वयं को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से मुक्त करना होता है, जो बेहद कठिन होता है। यहाँ बहुत सजगता की आवश्यकता होती है। खासकर नशे जैसी किसी आदत नामक चीज से मुक्ति पाने के लिए कभी-कभी प्रारम्भिक चरण में तमाम तरह के शारीरिक दुष्प्रभावों का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन यह केवल मानसिक अवस्था को प्रभावित करने वाला लक्षण मात्र ही है जो धीरे-धीरे नशे जैसी आदतों में सुधार होने के साथ ही गायब हो जाता है। 

     इतनी लम्बी बात बस ड्राइवर को हम उस समय नहीं समझा सकते थे। सोचा कहीं मेरे इस नशा-मुक्ति उपदेश पर यह ड्राइवर खिसिया गया तो चलती यह बस डिसबैलेंस हो जाएगी और सब धरा का धरा रह जाएगा। फिर मैंने भी अनचाहे धूम्रपान के इस धुएँ से मुक्ति पाने के लिए बस की खिड़की के शीशे को थोड़ा खिसका दिया और सीधे नाक पर बाहर की शुद्ध हवा लेने लगा था।

        कुछ ही क्षणों बाद मैंने अनुभव किया कि हाई-वे पर दौड़ी जा रही यह बस अप्रत्याशित रूप से अपने दाहिने अधिक कट रही थी। ध्यान दिया तो मैंने पाया कि बस ड्राइवर अपने जेब से गुटखा जैसे पाउच को निकाल उसे मुँह में डालने का प्रयास कर रहा था। इसी दौरान शायद उसके हाथों का नियन्त्रण बस के स्टेयरिंग पर न होकर गुटखे के पाउच पर हो गया था। ठीक उसी समय पीछे से किसी ट्रक ने हार्न बजाया और बस ड्राइवर बस के स्टेयरिंग पर पुनः नियन्त्रण स्थापित करते हुए बस को बाएं लाते हुए ट्रक को आगे जाने का रास्ता दिया था। मुझे लगा कभी-कभी ऐसी ही लापरवाहियों का खामियाजा यात्रियों को भुगतना पड़ जाता है। 

      एक बात है, आदतों का भी गजब का मनोविज्ञान होता है। आदतें अच्छी या बुरी ही नहीं बल्कि हानि या लाभ देने वाली भी होती हैं। मतलब अपनी अच्छी आदतों के बलबूते लोग आसमान चूम लेते हैं तो बुरी आदतें लोगों को पतन के गर्त में ढकेल देती हैं। आशय यही कि आदतों का नशा हमारे लिए कई तरह के परिणाम लाते हैं। 

           यह भी देखने में आता है कि जिन व्यक्तियों में अच्छी या बुरी जैसी किसी भी आदत को गढ़ लेने की क्षमता नहीं होती वे विश्रृंखलित व्यक्तित्व के ही मालिक होते हैं, मतलब उनमें विखराव ही अधिक होता है और वे किसी भी लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और फिर जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। वैसे अच्छी आदतों वाले बिना किसी विशेष प्रतिभा के भी शिखर पर पहुँच जाते हैं। 
      
       बिडम्बना यह भी है कि इन आदतों को क्या कहा जाए जिसका साइड इफेक्ट उन दूसरों पर पड़ता रहता है जो ऐसी किसी भी आदत से दूर रहते हैं। लेकिन उन बेचारों को दूसरों की आदतों को ढोना भर होता है! वैसे ही जैसे एक कार्यालय के साहब रजनीगंधा और राजश्री के तलबगार थे और जब वे तलब मिटा रहे होते थे तो उनका अटेंडेंट बेचारा अपने हाथों में पीकदान लिए उनके पीछे-पीछे चलता था। मुँह में पीक भरने पर जब साहब जी "हूँ " की ध्वनि निकालते हुए उसकी ओर देखते तो वह अटेंडेंट बेचारा तुरन्त समझ जाता था और झट से पीकदान साहब के मुँह के आगे कर देता और साहब का पिच्च पीकदान में! यह उस अटेंडेंट की मजबूरी बन और उसकी आदत में शुमार हो गया था। आम आदमी तो इन साहबों के कार्यालयों के कोनों को ही पीकदान के रूप में प्रयोग कर लेता है। इसी तरह बस में बैठे-बैठे हम भी तो ड्राइवर की आदत को कुछ क्षणों के लिए ढोने लगे थे। हालाँकि ठीक उसके सिर के ऊपर ही लिखा था "धूम्रपान निषेध" लेकिन लिखा रहे इसका क्या यह तो लिखा ही रहता है। मैंने भी इस लिखे का अर्थ निषेध के प्रतिषेध के रूप में ही ग्रहण किया। अब कानून की किताबों में भी तो सब कुछ लिखा है लेकिन क्या कोई कानून टूटने से रह जाता है? 

       उस चलती बस में मेरी बातचीत एक परिचित से होने लगी थी। उन्होंने मुझे बताया कि एक लड़के वाले ने दो लाख के चक्कर में उनकी बेटी की शादी नहीं मानी। लड़के वाले बीस लाख माँग रहे थे और वे किसी तरह से फंड पेंशन से अट्ठारह लाख इकट्ठा कर देने के लिए तैयार थे। अब पता नहीं लड़के वाले किस आदत के शिकार थे यह भी एक शोध का विषय बन सकता है। 

         बातों-बातों में एक अन्य व्यक्ति की भी चर्चा हुई थी जिसकी पत्नी का देहांत तब हो गया था जब उसके दो बच्चे पांच-छह साल के रहे होंगे। उस समय उस व्यक्ति की पुनः विवाह के लिए लोगों ने काफी प्रयास किया था लेकिन अपने बच्चों के खातिर विवाह करने से मना कर दिया। आज उनकी बेटी कुछ बड़ी हो गई है वह अपने छोटे भाई को तैयार कर स्कूल भेजती है तथा पिता के लिए भी टिफिन तैयार कर फिर स्वयं स्कूल जाती है। 

         कहने का आशय यही है इन सारी बातों के पीछे हमारी कोई न कोई आदत ही होती है जो हमारी ऐसी सोच बनाती है या फिर हमारी कोई सोच ही होती है जो हमारी आदत बन जाती है। यहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि सोच से ही आदतें बनती हैं। लेकिन सोच बहुत अच्छी होने पर भी हम कभी न कभी कुछ न कुछ बुरा कर बैठते है। इसका उदाहरण समाज में मिलता रहता है। आखिर ऐसा क्यों? 

           क्योंकि बातें बस यही है कि सोचते तो हम बहुत अच्छा हैं लेकिन इस सोच के ही अनुरूप हमारी आदतें नहीं होती इसीलिए हमसे गलतियाँ भी हो जाती हैं। हमारी अच्छी आदतें ही हमें गलतियों से बचाती हैं। 

         नशा तो अच्छी आदतों का ही होना चाहिए न कि किसी नशे की आदत!