सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

अब तो मैं भी देशद्रोही हूँ..

अब इतना भी देशभक्ति-देशभक्ति की बात न करें नहीं तो इसका अर्थ ‘आजादी पर प्रतिबन्ध’ मान लिया जाएगा! और फिर क्या होगा..? तब इस आजादी को अनिर्बन्ध करने के लिए मैं तो यही चाहता हूँ..वास्तव में किसी भी तरह की सीमाओं से परे होना ही आजादी है और आप हैं कि देशभक्ति की बात कर सब कुछ सीमाओं में बाँध देना चाहते हैं! नाहक ही किसी को सैनिक बनाकर उसकी जान का सौदा देशभक्ति की धार पर करते हैं ! इतना तो तय है देशभक्त बनने के लिए पहले आप देश बनाते हैं फिर देशभक्ति की बात करते है।अतः स्पष्ट है इस देशभक्ति की जड़ देश नामक तोते में ही है। तो आइए इस आजादी को पाने के लिए पहले इस तोते की गर्दन मरोड़ दें क्योंकि न रहेगा बांस और न बजेगी बाँसुरी! वैसे भी आप देश कब थे ही..?
अच्छा..!! इस पर और ध्यान चला जा रहा है..देश होने से संविधान होता है और संविधान के अपमान से भी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न खड़ा होता है तथा इस बेचारे से देश का कोई इसका झंडा भी होता है।फिर तो इसके मान-अपमान के जड़ में यही कलमुहें होते हैं! और देशभक्ति पर चोट पहुँचना स्वाभाविक हो जाता है। इस चोट से उबरने के लिए देशद्रोह की बात भी उभर आती है, फिर यहीं से शुरू हो जाती है आजादी पर खतरे की बात !! हाँ आजादी ही सबसे बड़ी प्यारी चीज है और एक आप हैं कि देश बनाकर इसकी सीमाओं पर सैनिक भेज इस पवित्र और हम लोगों की परमप्रिय आजादी को खतरे में डाल रहे हैं? आखिर क्या..इस आजादी को खतरे में डालने के लिए ही हमने इसे अंग्रेजों से छीना था..? तो आइये! इस कल्मुहें देश और इसके संविधान दोनों को ख़तम करें तभी हमारी आजादी सुरक्षित होगी। इसके बाद कोई किसी को देशद्रोही भी सिद्ध नहीं कर पाएगा।
वैसे भी हम देश कब थे ही? देश का मतलब हम अभी तक जान ही नहीं पाए हैं। देश हमारे लिए मात्र ‘डेस्टिनेशन’ था है और रहेगा। मैं तो कहता हूँ इंशाल्लाह इसके सौ नहीं कम से कम हजार से कम टुकड़े से नहीं होने चाहिए। और देख लेना इस देश के न रहने पर हमारा अपना-अपना ‘डेस्टिनेशन’ तब भी आबाद रहेगा जैसे आज है। आप समझे नहीं, अरे भाई! बभनान, तिवरान, पड़ान, शुक्लान, मिश्रान, ठाकुरान, अहिरान, कैथौली, कुर्मियान, चमरौटी, पसियान, गडेरान, हिन्दुआन, मुसलमनान ये बस्तियाँ हैं कि नहीं..? और यही आप का अपना-अपना ‘डेस्टिनेशन’ भी है। मैं दावे के साथ कहता हूँ आपने देश बना लिए और संविधान बना लिए लेकिन फिर भी ऐसे "डेस्टिनेशन" पर कोई खतरा नहीं मंडराया और लोग अपने-अपने डेस्टिनेशन में ही स्वयं को सुरक्षित भी महसूस करते आ रहे हैं। फिर देश और संविधान की कोई आवश्यकता ही नहीं थी जब हमें अपने डेस्टिनेशन में ही रहना था? अगर मेरी बात आपको गलत लगे तो चले जाइए दूसरे के 'डेस्टिनेशन' में! आप दूसरों के लिए बेगाने होकर ‘ब्लाक’ जैसे हो जायेंगे। मैंने देखा है प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने डेस्टिनेशन में ही अपनी आजादी का अनिर्वचनीय आनंद उठाता है।तो आइए इस देश को समाप्त कर अपने-अपने 'डेस्टिनेशन' में अपनी-अपनी आजादी का भरपूर लुत्फ़ उठाएँ!
हाँ जब देश ख़तम होगा और आप अपने-अपने ‘डेस्टिनेशन’ में होंगे तब आपको इसके लिए कोई संविधान बनाने की आवश्यकता भी नहीं होगी क्योंकि वहाँ आपको यह पहले से ही बना बनाया मिलेगा। जैसे हम हिन्दू हैं तो मनुस्मृति या वेद हैं, नहीं तो हमारा ब्रामणवाद तो पहले से ही है! यदि इससे कोई संतुष्ट नहीं है तो अपने-अपने जातिस्थान जैसे ‘डेस्टिनेशन’ में हम दूसरों के जुल्मों-सितम से बचे रहेंगे। इसी तरह से मुसलमान भाइयों के लिए इस्लाम के क़ानून तो पहले से ही बने बनाए हैं, बात समझ गए न!! आप भी ख़ुशी से अपने शरिया क़ानून लागू करिए। मतलब अब आपका डेस्टिनेशन और आपका कानून! किसी और से इसके लिए हुज्जत करने की कोई जरुरत नहीं!! और फिर इन संघ वालों की भी दुकानदारी बंद..!!!
लेकिन इन सबके बीच देश ख़तम हो जाने से मुझे बुद्धिवादियों की सबसे अधिक चिंता सताने लगी है क्योंकि तब इनका ‘डेस्टिनेशन’ कहाँ होगा..? हो सकता है कुछ बौद्धिक अपने-अपने ‘खून-ए-जिगर’ के साथ हों ले और वहाँ अपना ज्ञान बघारें। लेकिन यहाँ थोड़ी चिंता हो रही है क्योंकि कहीं तब भी उनकी जान खतरे में न पड़ जाए? अरे आप ने देखा नहीं है, भाइयों-भाइयों में ही तो असल झगड़े की जड़ छिपी होती हैं अगर ऐसा न होता तो आपस में मारकाट मचाते इतने देश न होते ! फिर तो यह ‘डेस्टिनेशन’ भी उन बुद्धिजीवियों पर भारी पड़ सकता है। लेकिन हमसे क्या मतलब मुझे भी तो अपने ही ‘डेस्टिनेशन’ में रहना है...! लेकिन अब मजे की बात यह कि ऐसी स्थिति में ‘कामरेड’ या जे. एन. यू. टाइप के बुद्धिजीवियों के लिए ‘डेस्टिनेशन’ तलाशने में है..!! ये बेचारे कहाँ रहेंगे..? अब सोबियत संघ तो बचा नहीं, ले दे कर चीन ही इनका माई बाप हो सकता है। लेकिन ये वहाँ भी रहने से रहे, क्योंकि चीन की हालत तो हम सब समझते है। वहाँ इन बेचारों की आजादी वाली आकांक्षा कहीं थ्येन-आन-मन चौक की तरह टैंकों के तले न कुचल दी जाए..? अब हांगकांग भी तो ब्रिटेन का नहीं है और हो भी तो जब देश नहीं रहेगा तो भी वहाँ बैठकर किसके विरुद्ध राग अलापेंगे..? और यहाँ ये जे.एन.यू. भी तब कहाँ रहेगा कि कोई वी. सी. इन्हें सरक्षण देगा, तब तो उस वी.सी. की भी नौकरी नहीं रहेगी क्योकि देश नहीं तो इनको कोई सब्सिडी देनेवाला नहीं। हाँ, फिर तो भाई लोगों की सारी ‘कामरेडी’ धरी रह जायेगी!
एक बात और है जैसे आज ‘देशभक्तों’ की हालत है वैसे ही इन ‘कामरेडों’ की भी..। ये सिद्धांत तो देते हैं लेकिन चले जाएँ किसी दूर दराज के माफियाओं के इलाके में..!! इनका सारा समाजवाद और मार्क्सवाद हवा हो जाएगा! वहाँ से कामरेडी झाड़कर सही सलामत लौट आयें तो बहुत बड़ी बात है। ये बस केवल कामरेडी ही झाड़ना जानते हैं कुछ कर पाना इनके बस में नहीं है। यदि ये कुछ करना जानते होते तो जे.एन.यू. से निकल कहीं मौज न मना रहे होते। ये बस गरीब आदिवासियों के कन्धों पर ही बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं और चलाना भी नहीं उन्हें उकसा कर मरने के लिए अकेले ही छोड़ देते हैं। हाँ, उसी तरह से जैसे ये देशभक्त हैं जो सैनिकों को देश की सीमा पर भेज इन गुंडों, माफियोओं, नौकरशाहों, दलालों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हैं!! इन सब की नीयत ठीक नहीं है...!
अंत में मैं यह चाहता हूँ इन सब जाहिलों, काहिलों के लिए किसी देश की जरुरत नहीं है, देश किसी के लिए मौज मनाने की जगह नहीं होता! वैसे भी इन सबके अपने-अपने ‘डेस्टिनेशन’ तो हैं ही!! तो इन्हें वहीँ पर अपनी आजादी के साथ जश्न मनाने के लिए छोड़ देना चाहिए...! अब मुझे भी कोई देशद्रोही समझे तो समझे...मैं अपने 'डेस्टिनेशन' में हूँ..हाँ मैं भी देशद्रोही हूँ..!!!!

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

एक अभिशप्त देश!

कुछ लोग कहते हैं कि अमेरिका और यूरोप के संस्थानों में ऐसे बौद्धिक क्रियाकलाप होते रहते हैं जो वहाँ की लोकतांत्रिक परिपक्वता को प्रदर्शित करते हैं। भाई मेरे, ऐसा कह शायद आप भी ऐसी ही अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं।

तब तो आपको इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि अति बौद्धिक बनकर आप तो पूर्ण स्थिति-प्रग्यता को प्राप्त कर चुके हैं ; जहाँ आप अपनी बर्बादी से भी अप्रभावित रहते हैं। लेकिन आजादी के पैंसठ सालों के बाद भी आम नागरिकों को आपने इस योग्य बनाया ही नहीं कि इनका भी आप जैसा ही बौद्धिक स्तर होता! और ये भी आपके विमर्श को समझते।

लेकिन, वे बेचारे तो आपके बहकाव में मात्र वोट-बैंक बन कर ही रह जाते हैं और आपके किसी विमर्श का हिस्सा तो वे बन ही नहीं पाते! ऐसे में राजनीतिक रोटी की छीना-झपटी तथा कोई देशद्रोही तो कोई देशभक्त सिद्ध होता ही रहेगा। और! आप इस या उस ओर के बौद्धिक जमात के लोग! खिसियानी बिल्ली जैसा खम्भा ही नोचते रहेंगे।

यह देश बेचारा! अपने शेष अबौद्धिक जमात के साथ आपके ऐसे ही पापों को ढोने के लिए अभिशप्त तो है ही।