रविवार, 20 मार्च 2016

एक आश्वस्तिकर दिवस

          उस दिन पोषण मिशन कार्यक्रमों के एक निरीक्षण में मैं एक आँगनवाड़ी केंद्र पर गया था।  उस केंद्र पर गाँव के तीन अन्य केन्द्रों के बच्चे और उन बच्चों के कुपोषण से सम्बन्धित रिपोर्ट के बारे में मैंने बारी-बारी से आँगनवाड़ी सहायिकाओं से जानकारी लेने लगा था। 
            
        एक आँगनवाड़ी केंद्र की रिपोर्ट में तीन कुपोषित बच्चे मिले, जिसमें दो लड़कियाँ और एक लड़का था। इसी प्रकार दूसरे केंद्र से एक कुपोषित बच्ची की रिपोर्ट थी। फिर मेरा यह सोचकर माथा ठनका कि लड़कियों के कुपोषण का कारण उनके माता-पिता का इन बच्चियों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया होगा। मैंने अपनी इस धारणा से वहाँ उपस्थित आँगनवाड़ी सहायिकाओं को अवगत कराया। उन आँगनवाड़ी सहायिकाओं ने मेरी इस बात का प्रतिवाद करते हुए मुझे पूरी रिपोर्ट देखने के लिए कहा। फिर मुझे अन्य दो केन्द्रों के कुपोषण सम्बन्धी रिपोर्ट में लड़कों की संख्या अधिक मिली और कुपोषित बच्चों में लड़के और लड़कियों का लैंगिक अनुपात बराबर हो गया।
       
        अन्त में, आँगनवाड़ी सहायिकाओं ने मुझे यह भी अवगत कराया कि जो बच्चियां कुपोषित हैं उनमें दो बच्ची पैदाइशी कुपोषित थी तथा गाँव के लोग अब लड़के लड़कियों में भेद नहीं करते। वहाँ लोगों ने हमें यह भी बताया कि इस गाँव के प्राथमिक विद्यालय में सबसे ज्यादा लड़कियाँ ही पढ़ती हैं। 
  
         हमारे बीच अभी यही बातें हो रही थी कि उसी समय एक मोटरसाइकिल से दो लोग एक बच्ची को लेकर आए! उस बच्ची को दिखाते हुए आँगनवाड़ी सहायिका ने बताया कि "सर! यह बच्ची बहुत कुपोषित थी, इसकी माँ इसे लेकर जिला अस्पताल में चौदह दिन तक भर्ती रही अब इस बच्ची में काफी सुधार हो चुका है।"

      अब मेरा दृढ़ विश्वास हो चला था कि महोबा जैसे जनपद के एक पिछड़े गाँव में कम से कम बच्चियों के लालन-पालन में उनके माता-पिता कोई भेदभाव नहीं करते। यही नहीं प्राथमिक विद्यालयों के भ्रमण में भी मैंने इस बात का नोटिस लिया है कि गाँव के इन विद्यालयों में छात्राओं की संख्या छात्रों के अपेक्षाकृत अधिक है, जो गरीब और पिछड़े वर्ग से ही आते हैं। आज महिला दिवस पर यह मुझे आश्वस्तिकर प्रतीत होता है।

शनिवार, 19 मार्च 2016

बस यूँ ही !

               इस छोटे से आर्टिकल में लिखा है "समय और गति के सिद्धांत के अनुसार अगर दो वस्तुएं अलग गति से घूम रहे हैं तो जो धीरे घूम रहा होगा उसके लिए समय ज्यादा तेजी से गुजरेगा" इसे पढ़ते ही मुझे मेरा अपना वह अनुभव या एहसास याद हो आया-
              ...कई बार तेज गति से चलते हुए मुझे घड़ी की सूईयाँ स्थिर सी लगती हैं, यानी जैसे समय ठहरा हुआ दिखाई देने लगता है! हो सकता है यह केवल मनोवैज्ञानिक अनुभव हो, लेकिन इसका कोई अर्थ तो है ही।
           वास्तव में मैं भी मानता हूँ कि समय का पैमाना घड़ी की सूईयाँ नहीं होती बल्कि समय और कुछ नहीं केवल गति का ही नाम है। मतलब जब आप स्थिर होते हैं तो आप के आसपास की सारी चीजें गुजर रही होती हैं और तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे समय गुजर रहा है, लेकिन जब आप गतिशील होते हैं तो लगता है आप समय के साथ हैं, तब समय आपके लिए स्थिर हो जाता है।
           इसे आप गतिशील बस के उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं ; आप बस के बाहर खड़े होते हैं तो बस गुजरती हुई दिखाई देती है और जब आप इस बस पर सवार होते हैं तो यही बस आपके लिए स्थिर हो जाती है।
          शायद समय और स्पेस, इस गति में ही उलझे हुए हों और इसी में ब्रह्मांड का रहस्य भी छिपा हुआ हो सकता है.! लेकिन इतना तो निश्चित ही है कि गति ही जीवन है, यही समय भी है। गति में समय स्थिर हो जाता है। यह गुजरता हुआ समय मृत्यु है क्योंकि तब गति नहीं होती केवल समय गुजरता है।
           यहाँ एक रहस्य और है यदि आप समय का एहसास करना चाहते हैं तो स्थिर होना पड़ेगा मृत्यु से गुजरना पड़ेगा जैसे कि यह ब्रहमाण्डीय नियम! हाँ सृष्टि का आभास स्थिरता का ही आभास है। ग्रह, नक्षत्र और ये तारे ब्रहमाण्डीय स्थिरता के परिणाम हैं। वैसे ही जैसे उर्जा संघनित होकर पदार्थ बन जाता है मतलब पदार्थ बन जाना ही स्थिरता है। और समय का अस्तित्व मात्र पदार्थों के लिए ही होता है या समय का अस्तित्व है भी तो इन पदार्थों के रूप में ही। जहाँ पदार्थ नहीं वहाँ समय नहीं।
          यहाँ एक विशेष बात है ब्रहमाण्डीय गति ही चेतना होती है समय पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि सब कुछ इसी में निहित है और इसी में अनन्त संभावनाएं भी छिपी होती है। वैसे यह विषय बहुत जटिल और गूढ़ रहस्य समेटे है इसकी व्याख्या में कभी-कभी ऐसा भी होता है जैसे जहाँ से शुरू किए थे वहीं फिर पहुँच रहे हैं। लेकिन व्याख्या आगे भी जारी रहेगी।
        फिलहाल हमें सदैव गतिशील रहना चाहिए, चेतन रहना चाहिए तभी हमारे अन्दर अनन्त संभावनाएं होंगी और यह गतिशीलता विचार, कर्म जैसे सभी क्षेत्रों में होनी चाहिए। अन्यथा स्थिरता माने पदार्थ बन जाने का क्या का हश्र होता है हम समझ गए होंगे।

देश के लोगों को ऐसे लोगों के "मूड" से आजादी कौन दिलाएगा..?


               पंजाब नेशनल बैंक की एक शाखा से ATM कार्ड निर्गत कराना था। असल में इसी शाखा से पूर्व में जारी ATM कार्ड कहीं खो गया था। कुछ दिनों पहले सम्पर्क करने पर बैंक ने ATM कार्ड की अनुपलब्धता बताई और भविष्य में सम्पर्क करने की बात कहा था।
           उस दिन ATM के लिए बैंक में पुनः जाने पर किसी महिला अधिकारी के अवकाश पर होने की बात कहते हुए दूसरे दिन आने के लिए कहा गया। दूसरे दिन बैंक फिर जाना पड़ा। मैंने ATM फार्म भर इसे एक अधिकारी को देते हुए कार्ड निर्गत करने का अनुरोध किया। उस बैंक अधिकारी ने मुझे यह कहते हुए कि आज भी वह महिला अधिकारी नहीं आई हैं, अगले दिन आने के लिए कहा। फिर मैंने अनुरोध पूर्वक उस बैंक अधिकारी से वार्ता किया -
          "देखिए मैं कल भी आया था। और आज भी वही बात कही जा रही है! मेरे लिए इतनी दूर से आना सम्भव नहीं होता..."
           तब उस बैंक अधिकारी ने मुझे कुछ देर रूकने के लिए कहा। मैं प्रतीक्षा करने लगा था। इस बीच वे महोदय अपना काम निपटाते रहे। करीब बीस-पच्चीस मिनट बाद मुझसे मेरा फार्म लेकर ATM निर्गत करने की कार्यवाही सम्पन्न किए।
ATM का लिफाफा हाथ में आते ही मुझे ध्यान आया कि मेरे मोबाइल पर sms alert नहीं आता। मेरे इस अनुरोध पर उस बैंक अधिकारी ने कहा कि बिना sms alert के ATM activate नहीं होगा साथ ही इसके लिए एक प्रार्थना-पत्र देने के लिए कहा। मेरे प्रार्थना-पत्र देने पर कम्प्यूटर पर कुछ क्षणों तक उलझने के बाद उसने मुझसे निवास और पहचान प्रमाणपत्र देने के लिए कहते हुए मुझे अवगत कराया कि पहले से मेरा पता अंकित नहीं है। हालांकि मैंने उसे इस तथ्य की जानकारी दी कि पूर्व में मेरे द्वारा सारी औपचारिकताएं पूरी की गई थी। फिर भी उसके कथनानुसार मतदाता पहचान-पत्र और पैनकार्ड दिखाने पर उसने इसके फोटोकॉपी देने के लिए कहा। करीब दस मिनट बाद मैं पुनः फोटोकॉपी लेकर उसके पास पहुँचा तब तक वह दूसरे कार्यों में व्यस्त हो चुका था। मैं उसकी व्यस्तता समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा था। इस बीच किसी फोन के आने से वह कुछ परेशान हो उठा था। शायद उसके कम्प्यूटर सिस्टम में कोई खराबी थी जिसे ठीक करने के निर्देश कोई फोन पर दे रहा था। खैर, कुछ मिनटों बाद वह सामान्य होकर पुनः काम निपटाने लगा था। इधर वहाँ बैठे-बैठे मुझे काफी समय हो चुका था। अपने अन्य कार्यों का ध्यान आते ही मैंने उसके "मूड" को सामान्य पाकर sms alert के प्रार्थना-पत्र को उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा-
          "कृपया इसे भी देख लें" उस कागज को लेकर इसे देखते हुए कम्प्यूटर पर मेरा काम करना शुरू किया ही था कि अचानक फिर न जाने उसके मन में क्या आया मेरे आवेदन-पत्र को किनारे रखते हुए मुझसे बोला-
"ऐसा है, इसे मैं बाद में कर दुँगा, अभी अन्य काम निपटा लें।" और यह कहते हुए वह उठ गया लेकिन मैं वहीं बैठा रहा। इस बीच मुझे ध्यान आया कि ऐसे ही एक बार एक अन्य बैंक में "के वाई सीे" की सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद भी मुझे इस सम्बन्ध में उसी प्रपत्र को दुबारा भर कर देने के लिए कहा गया था, क्योंकि पहले भर कर दिया गया प्रपत्र बैंक कर्मियों द्वारा ही कहीं "मिसप्लेस" हो गया था। हालांकि इस सम्बन्ध में मेरे दो दिन बर्बाद हुए थे। आज इस बैंक में भी उसी कहानी को फिर दुहराया जाता देख मैं उस बैंक अफसर के वापस आने का इन्तजार किया और कुछ क्षणों बाद उसके वापस आने पर मैंने उससे पूँछा -
                 "क्या मेरे जाने के बाद भी मेरा काम हो जाएगा?"
            "कह नहीं सकते, हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। और आपको फिर आना पड़ सकता है।" उस बैंक अधिकारी ने उत्तर दिया था।
              "हो क्यों नहीं सकता?" उसके दिए उत्तर पर मैंने थोड़ा असहज होते हुए यही पूँछा था। क्योंकि, मैं जानता था कि मेरा यह काम उसके लिए मात्र तीन या चार मिनट का ही था और जिसे एक बार शुरू करके न जाने अपने किस "मूड" के कारण उसने रोक दिया था। मैंने सोचा यदि यह बैंक अधिकारी मेरी उपस्थिति में इस कार्य को सम्पन्न कर लेता तो कम से कम इसके लिए दुबारा नहीं आना पड़ेगा। लेकिन उसने यह कहते हुए "इस क्यों का उत्तर मेरे पास नहीं है..!" मुझे रूखेपन से पुनः जवाब दिया था।
             वास्तव में, उसके इस रूखेपन और गैरजिम्मेदाराना उत्तर से मैं थोड़ा खीझते हुए बोला- "काम करने के लिए ही तो बैठे हो, और थोड़ा ढंग से बात किया करो?" मेरे यह कहने पर उसने मुझसे कहा, "मुझे गोली मार देना।" उसकी इस बात पर मेरे समझ में नहीं आया कि मैं उसे क्या कहूँ। लेकिन फिर भी मैंने उससे कहा, "देखो तुम्हारी व्यर्थ की बातें मुझे नहीं सुनना...यहाँ इतनी ज्यादा पब्लिक डीलिंग भी नहीं कर रहे हो कि छोटी-छोटी बातों पर झल्लाओ, मुझे अपने काम से मतलब है।" मैं उससे और ज्यादा उलझना नहीं चाहता था और वहाँ से उठ कर चल दिया। जाते-जाते कानों में उसकी आवाज सुनाई पड़ी "करने के लिए ही तो इस कागज को रखा हूँ।" मैं बैंक से बाहर आ चुका था।
              बाहर आकर मैं सोचने लगा। इस देश में कुछ होना या करना बहुत कुछ लोगों के "मूड" पर निर्भर करता है। जैसे उस बैंककर्मी का यदि "मूड" हुआ तो आपका काम कर देगा और यदि उसका "मूड" नहीं हुआ तो आप दौड़ते रहिए चाहे आपका समय क्यों न बर्बाद होता रहे। यही स्थिति अन्य स्थानों, कार्यालयों की भी हो सकती है। हाँ, एक बात है आम-आदमी के तरीके से पेश आने के कारण मैं अपना काम कराने के लिए उसका "मूड" नहीं बदल पा रहा था। उसने शायद इसे भाँप भी लिया था। एक तो यही कि उस बैंक के मेरे खातेे में मात्र दो-चार हजार होने से उस बैंक का कौन सा बिजनेस चलता? और दूसरे शायद उसे मुझमें वह क्षमता नहीं दिखाई दी होगी जो उसके "मूड" को बदल देती। यहाँ यह भी विचारणीय है कि ऐसे ही "मूड" वालों से सरकार की "जनधन योजना" कैसे चलती होगी?
             मैंने सुना है कि यही बैंक वाले बड़े-बड़े आसामियों को लाल कालीन विछा कर कर्ज देते हैं चाहे कर्ज लेकर वह फरार ही क्यों न हो जाए! बात केवल विजय माल्या की ही नहीं है, ये बैंकवाले करोड़ों रुपए का कर्ज ऐसे व्यक्तियों को बिना परिसम्पत्ति सृजित हुए दे देते हैं जिसे वसूलने का साहस ही इनमें नहीं होता! पता नहीं वहाँ इनका कौन सा "मूड" काम करता है? हाँ एक बात और है, अपनी उस करोड़ों की राशि को भूल यही बैंकवाले छोटे-छोटे किसानों या छोटे-मोटे काम करने वाले गरीबों को NPA हो जाने का रोना रोते हुए कर्ज देने से मना कर देते हैं।
             हाँ, देश के लोगों के इस "मूड" का क्या कहना! सभी अपने मूड के अनुसार ही तो चल रहे हैं। जिसका जो "मूड" है लिख, बोल और कर रहा है। जैसे, कोई देखने वाला ही नहीं..! देखेगा कौन? देखने वालों को भी ये "मूड वाले" अदना ही मानते हैं। वैसे बैंक से लौटकर जब मैंने अपनी पत्नी से इस घटना का जिक्र किया तो उन्होंने मुझसे कहा-
             "देखिए! ऐसे लोगों को वाकई चार बात सुना देना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर बतकही जैसी लड़ाई से भी संकोच नहीं करना चाहिए, तभी इन्हें एहसास होगा। ये हमारा ही टैक्स खाते हैं और हमारे ही काम पर आनाकानी करते हैं?" खैर... मुझे लगता है हमारा यह अन्यायपूर्ण सिस्टम ही बहुत सारे माफिया और गुंडे पैदा कर देता होगा और जिनको देखकर अच्छे-अच्छों का "मूड" ठीक हो जाता होगा।
                काश! वो JNU वाले देश को इस "मूड" से आजादी दिलाने की लड़ाई लड़ रहे होते..?