मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

भाई मेरे मैं किसी 'इज्म' को लेकर नहीं चलता...

भाई आप चाहे जिस विचारधारा के माननेवाले हों आप से मित्रता में मुझे कोई हिचक नहीं होगी..लेकिन किसी कोरे 'इज्म' से मित्रता स्वीकार करने में मुझे बेशक हिचक होती है...अकसर मैंने देखा है; कोई भी विचारधारा जब 'वाद' का स्वरूप ग्रहण करती है तो सबसे पहले उस विचारधारा को ही महती क्षति पहुंचती है, जिसका 'वाद' बनता है..! इतिहास भी इस बात का गवाह है...
 वैसे तो मैंने देखा है 'मनुस्मृति' एक राज्यविहीन सामाजिक जीवन को आत्मनियंत्रित करनेवाला दस्तावेज है..लेकिन 'मनुवाद' ने अपने सामाजिकों को एक कमरे में बंदकर बाहर से सांकल चढ़ा दिया..और अन्दर ही अन्दर जातिवाद की ऐसी दीवार खड़ी हुई कि इस दीवार को गिराना आधुनिक राज्य व्यवस्था के भी वश के बाहर की बात हो गई है...हाँ इसमें किसी 'स्मृति' का दोष नहीं, दोष तो इसमें निहित विचार के 'वाद' बन जाने का है..और जब कोई विचार 'वाद' बन जाता है तो उसके सारे तर्क इस 'वाद' को स्थापित करने के लिए ही होते है...ऐसे में शायद ही किसी 'वाद' से समाज को कोई दिशा मिल पाए..?
एक बात है और है...किसी 'विचार' से तो लड़ा जा सकता है लेकिन 'वाद' से लड़ना असंभव सा होता है..क्योंकि 'विचार' के परिमार्जित होते जाने की संभावना भी इस 'विचार' में ही निहित होती है जबकि 'वाद' में 'आक्रामकता' का भाव होता है जिसकी प्रवृत्ति 'संहारक' की होती है अर्थात स्वयं को ही स्थापित करने की होती है...
अभी पिछले दिनों किसी विद्वान् मित्र की फेसबुक की एक पोस्ट में ही पढ़ा था कि यह हमारा 'हिन्दुइज्म' न जाने कैसा है किसी एक पर तो टिकता ही नहीं...हम किसे अपना 'धर्म' कहें..? वैसे इस सम्बन्ध में मेरा मानना है कि आज के 'मजहबों के आपसी टंटे' में 'पार्टीबंदी' जैसा मनोभाव बनने लगता है कि हम भी अपनी पार्टी के साथ खड़ा होने का सुख लूटें लेकिन अफसोस कि इस 'हिन्दुइज्म' में 'इज्म' को नाहक ही जोड़ दिया गया जबकि हम किसी एक पर तो टिक ही नहीं सकते..हमारे ऐसे संस्कार ही नहीं हैं..हम तो सभी संस्कारों, विचारों को सम्मान देते हुए अपने भी विचार रखते आए हैं...हाँ हम 'विचारों' के व्यापारी भी नहीं रहे हैं; हम अपनी मानते हैं और आप अपनी मानते रहो..मुझे कोई समस्या नहीं..कम से कम इस 'भूमि' से इतने संस्कार तो हमें मिले ही है..यही मेरा 'धर्म' है, और मैं किसी भी 'इज्म' या 'मजहब' को नहीं मानता.. ऐसे में हम किसी 'वाद' को अपना मित्र नहीं बना सकते....

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

एक ‘बागड़बिल्ले’ की ‘बागड़पन' जैसी बातें

       उस दिन मैंने एक ‘बागड़बिल्ले’ से बस ऐसे ही पूँछ लिया था, “क्या सम्राट अशोक या अकबर महान थे..?
     
       ‘बागड़बिल्ले’ ने कुछ क्षण सोचा और मुझे जवाब दिया, “नहीं ये लोग तिकड़मी थे..!”
       
       बात मेरे समझ में नहीं आई..मैं उत्सुकता से ‘बागड़बिल्ले’ की ओर देखने लगा था और बागड़बिल्ला मेरी उत्सुकता भाँपते हुए बोला, “देखिए महानता जैसी कोई चीज नहीं होती..और अगर होती भी है तो यह तिकड़म से ही अर्जित की जाती होगी..मतलब ‘महानता’ एक प्रकार की ‘कूटनीति’ ही है...”
      
       बागड़बिल्ले की ‘महानता’ पर इस नए ‘दर्शन’ से मैं थोड़ा अचंभित सा हुआ और साथ में ‘बतरस’ की अनुभूति भी हुई..! सो मैंने वार्ता को आगे बढाते हुए पूँछा, “तो...अशोक...और अकबर..” हाँ अभी मैं अपने इस वाक्य के आगे बस यही जोड़ने वाला था कि “महान नहीं थे?” उसके पहले ही ‘बागड़बिल्ला’ बोल उठा, “हाँ..हाँ..अकबर और अशोक महान नहीं थे..!! केवल कूटनीतिक थे..राज करने के लिए तिकड़म भिड़ाए थे..!”
      
       बागड़बिल्ले की इस बात को मैं कहाँ मानने वाला था....सोचा.. “कल का यह लौंडा हमें महानता का दर्शन सिखा रहा है..?” और मैं कह उठा, “क्यों नहीं महान थे..? इतिहास तुमने पढ़ा भी है या बस ऐसे ही बके जा रहे हो..?”
     
       ‘बागड़बिल्ला’ ने मुझे देखा और हँस पड़ा..हाँ, उसकी हँसी मुझे बहुत नागवार गुजरी..जैसे उसने मुझे अल्पज्ञानी समझते हुए कहा हो, “ऐसा है..अशोक ने लाखों लोगों को युद्ध में मार दिया था..उस समय का जनमानस उससे बेहद नाराज था..लोग उसे सत्ता से बेदखल कर देना चाहते थे..लेकिन उसे शासन करना था..लोगों का आक्रोश शांत करने के लिए ही उसने ‘बौद्ध धर्म’ अंगीकार किया था...और अकबर..! उसे भी भारत पर पर राज करना था, ऐसे में ‘महानता’ की कूटनीति के बिना यह संभव न होता..”
       
       “फिर तो महात्मा गांधी के बारे में भी तुम्हारा कुछ ऐसा ही ख़याल होगा..? बागड़बिल्ला से महात्मा गांधी की ‘महात्मापने’ को खतरे में डाल कर जैसे मैंने पूँछा हो|
       
        बागड़बिल्ला मुस्कुराया “देखिए, मान लीजिये एक साधारण इंसान गांधी जैसा ही काम करता है, तो क्या लोग उसे महात्मा कहेंगे...? नहीं न, ‘महात्मा’ बनने के लिए आपको ‘कूटनीतिक’ भी बनना पड़ेगा..! हाँ, ‘महात्मा-वहात्मा’ जैसी कोई चीज होती भी नही...और अगर होती भी हो तो सिवा ‘तिकड़मगीरी’ के यह कुछ नहीं है...यह ‘महानता’ तिकड़म से ही अर्जित होती है..! और किसी ‘तिकड़म’ को आप महानता मानोगे..?”

       
        मैं अब एकदम चुप था, सोचा, “चलो मान लेते हैं कि ‘महानता’ ‘तिकड़मगीरी’ ही है..लेकिन ‘बागड़बिल्ला’ की बात से इतना तो सिद्ध होता ही है कि ये ‘तिकड़मबाज महान लोग’ अपने समकालीन व्यक्तियों से आगे की सोच रहे होंगे” और ‘बागड़बिल्ले’ की ‘बागड़पन-बात’ सुन मन ही मन मुस्कुरा उठा.... 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

हिन्दुस्तानियों का अहम् मसला

           सामाजिक जीवन में जिस व्यक्ति से हम ईर्ष्या, द्वेष या प्रतिद्वंद्विता का भाव रखते हैं जब वह व्यक्ति किसी समस्या या परेशानी में पड़ता है तो हम खूब चटखारे के साथ मजे ले-लेकर उसकी चर्चा करते है..आज केंद्र सरकार के आलोचक विभिन्न विवादित मुद्दों पर यही कर रहे हैं| खैर..
            अभी-अभी ताजा-ताजा मामला कश्मीर में NIT का है| यहाँ तिरंगा फहराने से लेकर ‘भारत माता की जय’ बोलने तक की तुलना शेष भारत की ऐसी ही घटनाओं से नहीं किया जा सकता| किसी देश में युद्धकाल में जो नीतियाँ उसके नागरिकों के लिए जायज है वही शांतिकाल में नाजायज मानी जा सकती है अर्थात शांतिकाल में अनायास तोप और गोले लेकर चलना या चलाना नाजायज है तो यही युद्धकाल में जायज हो जाता है...कश्मीर में तिरंगा फहरे या भारत माता की जय बोला जाए इस पर बखेड़ा नहीं होना चाहिए...सभी हिन्दुस्तानियों के लिए यह एक अहम् और जायज मसला है|
             किसी देश के इतिहास में कुछ वर्षों का कोई मोल नहीं होता कि इसके आधार पर हम उस देश की दशा और दिशा तय करने लगें, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि यहाँ के बुद्धिवादी या सेक्युलरवादी कुछ बातों-घटनाओं का विश्लेषण इसे देश का नियति-निर्धारक मानकर करते हैं...
           हाँ एक बात और है, कश्मीर में किसी चुनी हुई सरकार का काम न करना भारत नामक राष्ट्र की एकता के लिए उचित नहीं माना जाएगा और अगर ऐसा होता है तो ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ भारत का यह दावा भी कमजोर माना जा सकता है तथा इससे अलगाववादियों का ही मन्तव्य पूरा होता| इसलिए कश्मीर में सरकार का गठन एक व्यापक परिपेक्ष्य में राष्ट्रीय हित के महत्त्व का विषय है, और NIT जैसी घटनाओं का आधार लेकर इसकी आलोचना नहीं हो सकती|

वैसे मित्रों, किस मुँह से हम भारत माता की जय बोलें...?

वैसे मित्रों लिखना तो नहीं चाहता था क्योंकि इस पर चर्चा करने से उन्हीं का उल्लू सीधा होगा और हम नाहक ही उनके ही प्लान का हिस्सा बन जाएंगे| खैर होने दीजिए उनकी रणनीति का हिस्सा, पर हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और हम ‘भारत माता की जय’ पर थोड़ा बहुत तो लिखेंगे ही, आखिर मन जो नहीं मान रहा है...

इसी के साथ हम अपनी एक बात बता रहे हैं; जब कोई स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या ऐसे ही किसी राष्ट्रीय महत्त्व के अवसर पर ‘भारत माता की जय’ का नारा लगवाता है तो मैं थोड़ा असहज हो उठता हूँ..क्यों..? यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन इतना जरूर होता है कि मैं ‘भारत माता की जय’ बोलना तो दूर इस नारे को बुदबुदाता भी नहीं..! कहीं बहुत गहराई से मेरे लिए यह नारा बहुत बनावटी और कृत्रिमता लिए होता है, जैसे मैं यह बोलकर अपनी माँ को धोखा दे रहा होऊं..! या यह नारा लगाने वाले लोग मुझसे अपने हिस्से की आजादी की छिनैती करना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे यही नारा लगा लगा कर आजादी के दीवानों ने अंग्रेजों से आजादी छीन ली थी...इसीलिए तब मैं चुपकर रह जाता हूँ...हो सकता है मैं देशद्रोही होऊं!! हाँ मैंने वास्तव में माँ को धोखा दिया है..| आजादी का सारा सुख तो हम जैसे लोगों ने ही लूट लिया हैं..और उनके हिस्से में 'भारत माता की जय' दे दिया है...फिर किस मुँह से हम भारत माता की जय' बोल पायेंगे ? खैर..
आप तो जानते ही होंगे एक बार गांधी जी ने कहा था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहिए..अब ऐसा उन्होंने क्यों कहा होगा इस पर आप चिंतन करिए, मैं तो इसी फार्मूले पर मानता हूँ कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘वन्दे मातरम्’, ‘भारत माता की जय’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसे नारों का अब कोई औचित्य नहीं..! इन नारों को हमें भूल जाना चाहिए| क्यों..?

क्योंकि ये आजादी की लड़ाई के हथियार थे..जब लड़ाई ख़तम तो फिर हथियारों का क्या काम..? आखिर ऐसे नारों को अब किसके विरुद्ध बोला जाए...? अंग्रेज तो चले गए! अच्छा चालिए मान लेते हैं आपके अंतस में देशभक्ति की भावना हिलोरे ले रही है..और बिन इन नारों के बोले आप अपनी इस भावना को अभिव्यक्त नहीं कर पायेंगे, तो यह भी मान लीजिए कम से कम आप ऐसे नारे लगाने का हक खो चुकें हैं..आखिर क्यों खोया है आपने अपना यह हक़..?
भाई मेरे इसलिए खोया है कि आप बहुत ऊँचे पायदान पर पहुँच चुके हैं..हाँ अपने देशवासियों को भूलकर..!! क्योंकि आपने उन्हें वहीँ छोड़ रखा है जहाँ से सभी ने साथ-साथ शुरुआत की थी..लेकिन आपने उनके हिस्से की आजादी को डकार लिया है, और आजादी के बाद आप सरपट दौड़े लेकिन देश नहीं दौड़ा..वे बेचारे आप के साथी नहीं दौड़े..!! यदि सब एक साथ दौड़े होते तो मेरे एक मित्र Rakesh Kr Pandey ji ऐसा न लिखते..

महँगाई व्यभिचार बढ़ा हैं, भौतिक भ्रष्टाचार बढ़ा हैं-
दीन-दुखी कु-विचार बढ़ा हैं, केवल अत्याचार बढ़ा है-
संविधान अधिकार बढ़ा हैं, उल्लंधन आचार बढ़ा हैं-
कथनी-करनी भेद बढ़ा हैं, अवसर वादी न्याय बढ़ा हैं-
सामन्ती अब भेष बदलकर, सत्ता अब भी पाये हैं-
नित्य नया नव-वाद खड़ा कर, जनता को भरमाये हैं-
अजगर जैसे भरकर कुण्डली, कुर्सी को हथियाये हैं-
कभी किसान वणिक व्यापारी, हितकर दलित कहाये हैं-
सत्ता पाते भूल सभी को, निज सामन्ती रूप दिखाये हैं-
बाँट-बाँट कर जन मानस को,हित साधक बनते आये हैं-
पर दुख हैं हम भारत वासी, अब भी समझ न पाये हैं-
कुटिल चाल-चारे में इनके, मछली से फँसते आये हैं-
सुनों सपूतो भारत माँ के, अदभुत भारत देश हमारा-
शस्त्र-शास्त्र विज्ञान विशद हैं, पुरा काल से न्यारा-
ऋषियों मुनियों सब विद्वत जन को, यहीं मिली हैं धारा-
अखिल लोक ब्रहमाण्ड देव को, भारत में मिला सहारा-......क्रमशः...
राकेश कुमार पाण्डेय

इसीलिए आप द्वारा निगली हुई आजादी को उगलवाने के लिए ‘भारत माता की जय’ तो उन बेचारों को ही बोलना था..लेकिन बोल आप रहे हैं..आप गजब के चालाक व्यक्ति हैं..कर दिया न ‘भारत माता की जय’ के दो फाड़...!! हो सकता था पुनः इन नारों के बल पर वे एकजुट होकर अंग्रेजों के बाद आप द्वारा हथिया ली गई उस आजादी को आप से मुक्त करा लेते...लेकिन....अब इन बेचारों के हिस्से की निगली हुई आजादी को कौन उगलवा पाएगा? आखिर यह ‘भारत माता’ जो बंट गई, फूट डाल दिया गया..!

और अब मेरा डर भी निकल गया है..कम से कम ‘भारत माता की जय’ बोलकर मुझे कोई शर्मशार तो नहीं करेगा और ऐसे समय की असहजता से भी मुझे मुक्ति मिली! हाँ, तमाम लोगों की छीनी हुई आजादी से लकदक करता मैं ऊँचे पायदान पर निडर खड़ा हुआ मन ही मन अपनी कुटिल चालाकी पर मुस्कुराए जा रहा हूँ... ‘भारत माता की जय’..!

हमारी "बदहवास आक्रामक मनोवृत्ति"

             उस दिन बस की एक सीट पर बैठे तीन लोगों में से दो लोग जिनकी उम्र में भी कम से कम पन्द्रह वर्षों का अन्तर रहा होगा बिना एक दूसरे का लिहाज किए आपस में झगड़ रहे थे। उनकी तेज आवाजें सुन कुछ लोग उन्हें शान्त भी कराने लगे थे। हालाँकि वे दोनों एक दूसरे को देख लेने के साथ हाथापाई जैसी मुद्रा में भी आ गए थे। वे दोनों किसी तरह शान्त हुए। उनकी सीट के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठे हुए मैंने कारण पूँछा तो एक ने बताया कि एक दूसरे से शरीर छू जाने से यह सारा विवाद हुआ था। 
             मुझे ध्यान आया कि बस में यात्रा करते समय जब कभी बगल में बैठा व्यक्ति जाने-अनजाने अपने नींद के झोंके में मेरे कंधे से टकराता है तो बुरा लगते हुए भी उसकी नींद में खलल न पड़े मेरा हिलना भी मुश्किल हो जाता है। खैर..
            इतनी सी बात पर आपस में इन्हें ऐसे झगड़ते देख मुझे किंचित आश्चर्य भी हुआ। आखिर हम "बदहवास आक्रामक मनोवृत्ति" के शिकार क्यों होते जा रहे हैं? हमारे आसपास घट रही ऐसी ही घटनाएँ हमारी मनोवृत्तियों के क्रूर होते जाने की व्याख्या करती प्रतीत होती हैं। यह अखलाक या डाक्टर नारंग या फिर चलती ट्रेन की खिड़की से लटकाकर पीटने जैसी घटनाओं के साथ दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है।
           वास्तव में आज का विकासक्रम हमारी "संहारक मनोवृत्तियों" का ही परिणाम है, यह एक तरह का "व्यक्तिश: साम्राज्यवादी मनोवृत्ति" है, जहाँ एक-दूसरे का सम्मान उनके आपसी हितपोषक होने की सीमा तक ही सुरक्षित माना जा सकता है। ऐसे में एक-दूसरे से शरीर छू जाना या बिना पूँछे किसी की बोतल का पानी पी जाना या हमारी इच्छाओं का सम्मान न करने वाला जैसे सभी कृत्य हमें हमारे "व्यक्तिश: साम्राज्य" को संकुचित करते प्रतीत होते हैं और फिर तो हमें आक्रामक होना ही होता है। और हमारा यह साम्राज्यवाद बिना क्रूरता के फल-फूल भी नहीं सकता।
          हमारा आज का बौद्धिक समाज ऐसी घटनाओं का विश्लेषण भी बहुत ही सतही तरीके से करता है। और यह व्याख्या असरकारी भी नहीं है क्योंकि ये व्याख्याकार भी एक अजीब सी जुगलबंदी करते दिखाई देते हैं। हाँ इन व्याख्याकारों को भी तो अपने साम्राज्य की चिन्ता होती है।
            पत्नी ने पूँछा क्या लिख रहे हो? जब मैंने बताया तो उन्होंने कहा, "हाँ, आप लोगों का भी काम बस यहीं तक सीमित हो चुका है लिख दिए! और किसने बढ़िया लिखा?" खैर....
           आज टहलने नहीं गया था और इसे लिखने बैठ गया। बाहर चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ रही है। सोच रहा हूँ इन चहचहाहटों में साम्राज्यवाद नहीं है आइए! इसी को ध्यान से सुनें...

कम से कम यहाँ बालिकाओं के लिए इन्टरमीडिएट स्कूल ही खुल जाता!



             एक यह तस्वीर महोबा जनपद मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर दूर स्थित एक पिछड़े गाँव सिजरिया के आँगनवाड़ी केंद्र पर मनाए जाते पोषण दिवस का है। पूर्व में इस गाँव में नौ कुपोषित बच्चे चिह्नित किए गए थे लेकिन पता चला कि इनमें से एक बच्चे की मृत्यु हो गई। उस बच्चे को इलाज के लिए जिला चिकित्सालय में भी भर्ती कराया गया था लेकिन बचाया नहीं जा सका था। वर्तमान में आठ कुपोषित बच्चों में से तीन-चार बच्चों की स्थिति थोड़ी गंभीर थी। शेष अन्य बच्चों में सुधार परिलक्षित हो रहा था।
            एक बेहद कुपोषित बच्चे की माँ तो उसके जन्मते ही मर गई थी। उस बच्चे को उसकी चाची लेकर आई थी। आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री के अनुसार इससे पहले उसके तीन बच्चे और हुए थे और सभी मर गए थे। मैंने उस बच्चे को जिला चिकित्सालय में भर्ती कराने के लिए कहा, क्योंकि ऐसे कुपोषित बच्चों को वहाँ चौदह दिन का इलाज और उसकी माँ को निःशुल्क भोजन के साथ चौदह सौ रूपया भी दिया जाता है। लेकिन वे जाने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें रोजी-रोटी भी कमाना था। इसी प्रकार एक बच्चे को उसकी बहन जो स्वयं अभी बच्ची ही थी अपनी गोंदी में लिए हुए खड़ी थी। उसके माता-पिता दोनों मनरेगा में मजदूरी करने गए थे। वे भी उसे जिला चिकित्सालय ले जाने के लिए लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि उन्हें भी जीवनयापन के लिए मजदूरी करना जरूरी था। एेसे ही एक अन्य कुपोषित बच्चा अपनी माँ के पागलपन का शिकार था। वह अपने इस कुपोषित बच्चे का ढंग से देखभाल नहीं कर पाती थी। आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री ने उसके बारे में बताते हुए कहा कि इसका पति इसे उड़ीसा से लेकर आया था और इस बच्चे को वह औरत साथ में ही लाई थी। आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री जैसे मुझसे यह सफाई देना चाह रही थी कि इसके कुपोषित होने में हमारी यहाँ की व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है। खैर, उसकी बात सुनकर मैंने जब यह कहा कि "दिमागी रूप से दिव्यांग यह औरत इस बच्चे की क्या देखभाल कर पाएगी?" तो आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री ने कहा - "अरे नहीं साहब! यह देखने में ही ऐसी है, एक बार इसका पति इससे ऊब कर झाँसी तक छोड़ आया था, लेकिन यह फिर अकेले ही वापस आ गई।" उस औरत से मैंने अपने बच्चे की ढंग से देखभाल करने के लिए कहा तो वह हाँ के अन्दाज में सिर हिलाते हुए बच्चे को लेकर हँसती हुई चली गई। एक अन्य बच्चा तो इसलिए कुपोषित था कि वह सात महीने में ही पैदा हो गया था।
          एक-एक कर आठों कुपोषित बच्चों को देखते हुए और साथ में उन बच्चों को लेकर आए परिवार के सदस्यों से उनकी गरीबी पर भी मैं चर्चा करता गया लेकिन किसी ने भी भोजन की समस्या होने की बात स्वीकार नहीं किया। मजदूरी या खाद्य-सुरक्षा जैसी योजनाओं से उन्हें दो जून की रोटी आसानी से मिल रही थी। फिर भी उनके बच्चे कुपोषित थे?
            बच्चों के कुपोषित होने के कई कारण मेरे समझ में आए। जैसे गर्भवती माताओं का स्वास्थ्य के प्रति जागरूक न होना, जीवन के प्रति उनका बेहद लापरवाही भरा नजरिया होना, अस्वास्थ्यकर परिवेश में निवास करना आदि-आदि।
           एक गर्भवती महिला तो दोनों पैरों से दिव्यांग थी! आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री के उसे दिखाते हुए यह कहने पर कि यह स्वयं उठ नहीं पाती और इसका पति भी इसी तरह विकलांग है, यह लड़के की चाह में सातवीं बार गर्भवती है, तो -
          "पता नहीं इसे अपनी कौन सी सल्तनत चलानी है कि यह भी अपना वारिस खोज रही है? इसका बच्चा या तो कुपोषित ही होगा या यह स्वयं अबकी बार खुदा को प्यारी हो जाएगी!" हाँ, दोनों पैरों से विकलांग सातवीं बार गर्भवती उस औरत को देखकर मैंने यही सोचा था।
          अन्त में कुपोषित बच्चों को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन बच्चों के कुपोषित होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण इनके माता-पिता और परिवारों का अनपढ़ तथा अशिक्षित होना ही है तथा शेष अन्य कारण बाद के हैं।
            इसके बाद आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री ने अवगत कराया कि इस गाँव में नब्बे किशोरियाँ है जिनके स्वास्थ्य का भी परीक्षण किया गया है। वहाँ खड़ी कुछ किशोरियों से मैंने जब उनसे उनकी पढ़ाई के बारे में पूँछा तो लगभग सभी ने पढ़ाई न करने की बात कही। मैंने थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूँछा - "क्या तुम लोग पाँच तक भी नहीं पढ़ी हो?" तो सब ने कक्षा आठ के बाद पढ़ाई छोड़ देने की बात कही। इसके बाद वहीं बैठे उस गाँव के प्रधान ने मुझे बताया कि "यहाँ उच्च प्राथमिक विद्यालय तक का ही स्कूल है और हाईस्कूल या इन्टर की शिक्षा के लिए इन्हें इग्यारह किलोमीटर दूर जाना पड़ेगा! घर वाले बच्चों की सुरक्षा की चिन्ता के कारण इन्हें इतनी दूर नहीं जाने देते....सर! इस गाँव में एक इन्टर कालेज खुल जाता तो इन बच्चों की आगे की पढ़ाई हो पाती।"
            इधर उस इग्यारह किलोमीटर की दूरी पर ध्यान चला गया जिस रास्ते से होते हुए मैं इस गाँव पहुँचा था। एकदम सूनसान रास्ता! इस ग्यारह किमी के रास्ते में एक छोटा सा ही गाँव मिलाथा।
            असल में महोबा जैसे जनपद में एक गाँव से दूसरे गाँव के बीच की दूरी पाँच से दस किमी से कम नहीं होती और इन्हें जोड़ने वाला रास्ता भी पहाड़ों और ऊँची-नीची जमीनों के बीच से गुजरता है। इन गाँवों में भी दबंग किस्म के लोगों की तूती बोलती होगी। ऐसे में बच्चियों की सुरक्षा की चिन्ता मुझे स्वाभाविक जान पड़ी। क्योंकि प्रधान ने भी स्वीकार किया था कि दो राज्यों की सीमा होने के कारण यहाँ इस ग्रामीण क्षेत्र में संवेदनशीलता कुछ ज्यादा ही है। जूनियर प्राथमिक विद्यालय के परिसर में स्थित इस आँगनवाड़ी केंद्र पर पहुँचते ही मेरी निगाह वहीं पास में बैठे दो पुलिस वालों पर भी पड़ी थी।
            अब मैं सोच रहा था, काश! यहाँ बालिकाओं के लिए कोई इन्टरमीडिएट स्तर का स्कूल खुल जाता तो प्रधान के कथनानुसार कम से कम चार-पाँच गाँव के बच्चे लाभान्वित होते!! खैर....