शनिवार, 23 जुलाई 2016

एकदम अच्छी बात करने का मन कर रहा है

             एकदम अच्छी बात करने का मन कर रहा है, मतलब नो आलोचना... नो कमेंट..और नो राजनीतिक बातें...
          हाँ तो पहला यह कि, हमारे देश की जनसंख्या सवा अरब से ऊपर हो रही है, विविध मत-मतान्तरों के लोग यहाँ निवास करते हैं, फिर भी विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश में आनुपातिक रूप से बेहद कम अपराध या फसाद होते हैं, और होने वाले ऐसे किसी आपराधिक घटना या फसाद की हम खूब लानत-मलानत भी करते हैं। विशेष बात यह भी कि इस देश के सभी निवासियों में एक अजीब सा भाईचारा देखने को मिलता है, जैसे सब एक-दूसरे से किसी न किसी रिश्ते से बँधे हुए हों तथा हम अपनी सामाजिक समस्याओं और विवादों को भी शनैः शनैः हल कर लेते हैं। अभी भी हमारे अन्दर इतनी नैतिक चेतना बची है कि समाज या कानून द्वारा घोषित अपराधों को खुलेआम कारित करने बचते हैं, और हम भ्रष्टाचार के भी खुलेआम हिमायती नहीं बन पाए हैं।
           हाँ, दूसरी बात हमारे देश की सबसे बड़ी यह कि घीसू-माधव, होरी-धनिया के साथ ही टाटा-बिड़ला-अम्बानी-अडाणी साथ-साथ फलते-फूलते हैं, एक दूसरे के प्रति कहीं कोई चू-चपड़ नहीं और महलों को देखकर भी हम अपनी झोपड़ी में ही मगन रह लेते हैं। और तो और मँहगाई-सस्ताई से भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, हमारे लिए नून-रोटी ही काफी है। हम इतने संतोषी हैं कि अपना सब छोड़कर मात्र सूई की नोक के बराबर भूमि से भी संतोष कर सकते हैं। हाँ, हमारे हिस्से के सौ में से कोई हमें दस ही दे दे तो भी हम इसके लिए सहर्ष तैयार रहते हैं, इसे जस्टीफाई करने के लिए हमने भागते भूत की लँगोटी ही सही जैसा मुहावरा भी ईजाद किया हुआ है।
            तीसरा यह कि, इस देश में राजनीति भी खूब होती है जिसके लिए तमाम राजनेता भी होते हैं, इनमें आपस में ही खूब आरोप-प्रत्यारोप चलता है फिर भी इनकी सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और सभी आपस में मिले हुए भी दिखाई देते रहते हैं। ये राजनेता बेचारे देश के ऐसे कर्णधार हैं कि अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलापते हुए भी देश को उन्नति के शिखर पर ले जाने की जद्दोजहद में रात-दिन कटिबद्ध दिखाई देते हैं।
            अन्त में कुल मिलाकर हमारा देश सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि में एक बहुत ही प्यारा देश है, यहाँ सब अच्छा ही अच्छा है। हाँ कुछ टुटपुँजिए गाहे-बगाहे इसकी छवि खराब करने की कोशिश करते अवश्य दिखाई दे जाते हैं, असल में उनसे कोई काम तो होता नहीं और नाहक ही हुँवा-हुँवा कर देते हैं मैं तो सोचता हूँ, इन टुटपुँजियों को हिंया-हिंया भी करना चाहिए।

अपनी बातों का गुमान न पालें

            वैसे हम सब के आसपास की दुनियाँ खूबसूरत है, हो सकता है इस दुनियाँ में रोजमर्रा की समस्याएं हो या फिर एक आम-इंसान की जिन्दगी में होनेवाली जद्दोजहद भी हो, लेकिन इससे जिन्दगी बदसूरत नहीं हो जाती।
           फिर समस्या कहाँ है कि इतना हो-हल्ला मचा हुआ है? मीडिया में घुसते ही ये चीजें दिखाई देने लगती हैं ; दुनियाँ जैसे रहने लायक ही नहीं दिखती। कश्मीर, फ्रांस, टर्की, कंदील बलोच, आई एस आई और ऐसे ही न जाने क्या-क्या अगवा-भगवा घटता हुआ दिखाई देता है.. उस साधारण संवेदनशील बेचारे इंसान के मन-मस्तिष्क पर क्या गुजरती होगी जो इसी मीडिया में ही खोया रहता होगा? वह तो इसी में उलझ जाता होगा, या फिर उसे यह दुनियाँ दोजख नजर आएगी या वह भी इधर या उधर हो रहा होगा।
           न दुनियाँ के दोजख नजर आने से समस्याएँ हल होंगी और न ही इधर-उधर होने से। हाँ इस वेगवती मीडिया की धारा की लहरों को देखने से इतना तो निश्चित ही हो जाता है कि इतनी सब समस्याओं के बाद भी यह दुनियाँ लोगों की नजरों में अभी दोजख नहीं बनी है। हाँ इधर-उधर हो जाने का ट्रेंड जरूर दिखता है। कोई एक समस्या या बात दिखी नहीं कि इसे लोकने के लिए लोग तैयार बैठे दिखाई देते हैं। अब इस लोका-लोकी के खेल में हम-आप दोनों ओर की संख्या गिन सकते हैं, लेकिन फिर भी कोई समस्या आउट होते हुए नहीं दिखाई देती। आखिर ऐसा क्यों है?
          यह तो तय है संख्या किसी समस्या को हल नहीं करती नहीं तो अरबों की संख्या वाली इस दुनियाँ में ये समस्याएँ भी न होती बल्कि संख्या समस्याओं को और बढ़ा देती है या संख्याओं से आप गुमराह होते रहते हैं। अब यह कैसे? वह ऐसे कि भाई किसी बात के पक्ष में आपके पास हजार तर्क हैं तो आपके सामने वाला इसके विरोध में दस हजार तर्क लिए बैठा है, फिर तो, कर लीजिए समस्या का हल! मतलब अब बातें केवल पार्टीबन्दी का खेल बन चुकी हैं।
           हाँ, इस सब के बावजूद एक बात जरूर हुआ वह भी इस सोशल मीडिया के आने के बाद कि अब आप कोई बात कह के निकल नहीं सकते, गलत या सही, आप धर लिए जाएंगे और कोई आपको छोड़ने वाला नहीं है, लोग आप की ताक में बैठे हैं! तो भाई, भलाई इसी में है कि अपनी बातों का गुमान न पालें, मतलब कोई बात चबा-चबा कर न कहें नहीं तो इससे लोग और बिगड़ जाते हैं! फिर होता यह है कि चले थे आप दुनियाँ बनाने लेकिन बनाने के चक्कर में दुनियाँ को खराब करने लगते हैं।
          लेकिन अच्छा हो रहा है या नहीं हम क्या जाने ? हाँ, हो सकता है दुनियाँ में जो कुछ खराब हो रहा है उसे हम-आप चुपचाप जानते हों, और इसी से यह दुनियाँ दोजख बनने से भी बची रहती है! इसके लिए किसी मीडिया, किताब, पत्र जैसी चीज की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि यह प्यारी सी दुनियाँ इसके पहले भी थी, बल्कि पहले थी ही नहीं आज से ज्यादा प्राकृतिक और खूबसूरत थी। नहीं तो हम आज सभ्यता का दंभ भरने के लिए न होते!

आखिर विवाद की जड़ कहाँ है?

             वैसे आजकल सारा विवाद धर्म को लेकर नहीं अपितु पूजा-पद्धतियों और कुछ हद तक जीवनशैली को लेकर ही है। धर्म तो निर्विवादित चीज है। बचपन में पढ़ी कहानियों में छिपी नैतिक-शिक्षा और स्कूलों में पढ़ी नैतिक-शिक्षा की बातों को ही अब तक धर्म समझते आया था। जैसे "विद्या ददाति विनयम्" को सभी पूजा-पद्धतियों में ग्राह्य और सबके धर्म के रूप में समझा था भले ही यह संस्कृत श्लोक हो। वास्तव में एेसी ही नैतिक मान्यताओं को धर्म माना था। और इसी आधार पर मैं मानने लगा था कि दुनियाँ वालों का धर्म एक ही है। लेकिन अब हम यदि कोई किताब पढ़ लिए तो चाकू लेकर चलना सीख जाते हैं, पता नहीं आज की ये किताबें कैसी हैं?
            आखिर विवाद की जड़ कहाँ है? तो यह बुलेट ट्रेन में चलने या चलाने की मंशा रखना ही विवाद को न्यौता देने वाला हो गया है, और इसके लिए भाई सरकारें भी दोषी हैं। भाई लोग पैसेंजर ट्रेन में चलने के आदी हैं बुलेट ट्रेन में बैठे या बैठने की चाहत रखने वालों को देख इन्हें ईर्ष्या या कुढ़न तो होगी ही! फिर या तो बुलेट ट्रेन ही जला दी जाएगी या चाकू की नोक पर इस ट्रेन से उतार कर पैसेंजर ट्रेन में बैठने के लिए कहा जाएगा। इन्हें पता है ये बुलेट ट्रेन नहीं बना सकते क्योंकि इसे बनाने के लिए बहुत सारे विवादों से परे जाना होता है। इसे यूरोप वालों ने बहुत पहले समझ लिया था। ईसाइयत को लेकर मध्य-युग में बहुत मार-काट थी लेकिन बाद में इनने इसमें से "प्रेम" को पकड़ लिया फिर तो इनकी बुलेट ट्रेन तो चली ही क्वांटम थियरी पर भी ये सोचने लगे! और आप हम हैं कि अपनी पद्धति का चाकू लेकर अभी भी ट्रैक पर खड़े-खड़े सोच रहें हैं कि कौन सा पैट बदलें! और ज्यादा हुआ तो हम-आप जल्दी से ऊपर पहुँचने या पहुँचाने की पद्धति पर ट्रैक पर खड़े-खड़े विचित्र सी गर्वानुभूति के साथ काम करने लगे।
            यहाँ एक बात और मैं कहना चाहता हूँ, हमारे साथ पढ़े चाहे जिस पूजा-पद्धति के रहे हों आज भी जब उन्हें फेसबुक पर देखता हूँ तो यह सोचकर बहुत तसल्ली होती है कि ये सभी दुनियाँ को सुन्दर बनाने पर ही काम कर रहे हैं। शायद स्कूलों में पढ़ी नैतिक-शिक्षा की मान्यताओं का ही यह असर हो। खैर....
          फिर भी चलिए कोई बात नहीं.. ये अपने जो शिवाय हैं न इनमें भी बहुत सारे गुण-दोष है जैसा कि अजय देवगन ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है - "वह सारे देवताओं में अकेले ऐसे हैं, जिनमें सारी खामियां हैं। वही खामियां आपमें और मुझमें हैं।.... बाकी सारे भगवान परफेक्ट हैं। अकेले शिव जी का आज के इंसान के साथ कनेक्शन है। इंसान में जैसी और जितनी अच्छी या बुरी चीजें हैं, वो भगवान शिव में भी हैं। वे विनाश करते हैं तो करते हैं। फिर आगे-पीछे नहीं देखते। अफसोस करते हैं तो करते हैं। आज हममें यही सारी खूबियां और खामियां हैं। आप उन खूबियों को खामी कैसे बनाते हैं और खामियों को खूबियों में कैसे तब्दील करते हैं। यह हम सभी पर निर्भर करता है।" संयोग से इसे मैंने कल ही पढ़ा और कल ही मध्य-प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित गौरीशंकर का दर्शन प्राप्त करने का अवसर भी मिल गया। अब आप इसे मेरी पूजा-पद्धति से जोड़कर मत देखिएगा क्योंकि मैं एक आम इंसानो के भगवान का दर्शन करने गया था जो दुनियाँ के लिए विष भी पी लेता है और स्वर्ग में धुनी रमाने की बात नहीं करता बल्कि यहीं प्रकृति की गोंद में खेलना चाहता है एक दम आम-इंसान की तरह और सभी को साथ लेकर!

कुछ इधर की भी

           कभी-कभी मैं व्यंग्य के बारे में सोचने लगता हूँ कि आखिर एक सीधा-सादा और अच्छा-भला लेखक व्यंग्य कैसे लिख मारता हैं ? मुझे लगता है जब साहित्य की अन्य विधाएँ प्रभावहीन (अ-असरकारी) होने लगती है तो साहित्यकार या कहिए लिखने वाले का टोन बदल जाता है। अब वह थोड़े टेढ़े ढंग से अपनी बात कहने लगता है तथा तटस्थ भी नहीं रह पाता और व्यंग्य में चीजों के प्रति प्रतिक्रियावादी भी हो जाता है। जबकि साहित्य की अन्य विधाओं में तटस्थता की माँग रहती है लेकिन व्यंग्य की विधा में ऐसा नहीं हो पाता।
          अब प्रश्न उठता है कि आखिर एक लेखक का लिखते-लिखते टोन कब और क्यों बदल जाता है कि उसकी बातें व्यंग्य में बदल जाती है? अरे भाई! साहित्यकार या लेखक आखिर रोज-रोज की चिक-चिक को ही तो लिखता है और इसी चक्कर में जब वह भावुक होता है तो कविता लिख देता है, जब शान्त-चित्त के साथ तटस्थ-भाव में होता है तो कहानी, नाटक, उपन्यास और आदि-आदि लिख मारता है, और इतना सब करने या सोचने के बाद भी जब यह सारी चिक-चिक जारी रहती है तो वह थोड़ा गुस्से में आ जाता है, हाँ लेखक नामक जीव जी इतने सभ्य होते हैं कि इस रोज-रोज की चिक-चिक से उपजे गुस्से को सीधे नहीं व्यक्त कर सकते जैसा कि कुछ फेसबुकिए मन की न होने पर गुस्से में सीधे गाली-गलौज पर उतर आते हैं, लेकिन ये लेखक बेचारे बेहद सभ्य जीव होते हैं तो अपने गुस्से को टेढ़े ढंग से व्यक्त करना आरंभ कर देते हैं और बदले में हम पाठकों को व्यंग्य पढ़ने को मिल जाता है। हाँ एक बात है, अब लेखक व्यंग्य लिखते हुए इतने गुस्से में होता है कि वह तटस्थ रह ही नहीं सकता! खैर.. उसके गुस्से को पढ़ते हुए हमें तो मजा ही आता है।
          इस पर हम अलग से विचार कर सकते हैं कि व्यंग्य एक क्षोभजनित-कारूणिक गुस्सा भर होता है, मतलब व्यंग्य में प्रकारांतर से करुण-रस की ही प्रधानता होती है, लेकिन जगत के लिए इस कल्याणकारी-रस से बेचारा व्यंग्य-लेखक अनजान ही रहता है और वह नहीं जानता कि वह रो रहा है! हाँ पाठक के साथ ही व्यंग्य सुननेवाला भी अब तिलमिलाता नहीं बल्कि इसी बात का मजा लेता रहता है। खैर... व्यंग्यकार की एक मान्यता यह भी रहती है कि बेटा तुम नहीं तो ऊपरवाला एक न एक दिन सुनेगा ही और शायद यह चिक-चिक खतम हो जाए।

न्याय की लड़ाई

             उस दिन श्रीमती जी ने मुझे बताया कि एक महिला स्वयंसेवी संस्था ने एक बलात्कार पीड़िता को सम्मानित करने के लिए उस पीड़िता को मुहल्ले में बुलाया था और उन्हें भी इसमें सम्मिलित होने का अवसर मिला। उस पीड़िता ने न्याय पाने के लिए दस वर्षों तक निरन्तर संघर्ष किया था और अन्ततोगत्वा न्याय पाने में सफल हुई थी। श्रीमती जी बता रही थी कि उस पीड़िता लड़की ने कहा कि "यदि मेरा मामला इतना चर्चित न हुआ होता तथा स्वयंसेवी संगठनों से मदद न मिली होती तो शायद मुझे न्याय मिलना नसीब न होता।" लड़की ने यह भी बताया कि उसे ब्लैंक चेक भर लेने का लालच भी दिया गया था लेकिन वह न्याय के लिए अडिग रही थी।
        उस पीड़िता के अनुसार न्यायालय के अन्दर सुनवाई के दौरान भी उसे कई बार पीड़ादायी स्थितियों से गुजरना पड़ता था। पत्नी ने मुझे बताया कि वह लड़की (पीड़िता) कह रही थी कि एक बार न्यायालय में सुनवाई चल रही थी तो स्वयं जज उससे बयान लेते हुए बहस कर बैठे थे और जब उसने जज से कहा कि सर आप मुझसे इतना सब कुछ पूँछ रहे हैं लेकिन मेरा बयान नोट नहीं कर रहे हैं तो जज साहब बोले, "हाँ..हाँ..जाकर यह बात भी मीडिया को बता दो.."
       पत्नी ने यह भी बताया कि उस पीड़िता के अनुसार न्यायालय में सुनवाई के दौरान उसकी जैसी ही कुछ अन्य बलात्कार-पीड़ित लड़कियां भी आया करती थी लेकिन उन सब का मामला मीडिया या स्वयंसेवी संस्थाओं के बीच इतना चर्चित नहीं था, वे लड़कियाँ बेहद दुखी मन से उससे कहती कि "तुम्हारा मामला इतना चर्चित है! तुमको तो न्याय मिल जाएगा लेकिन हमारा क्या होगा? वे लड़कियाँ भयभीत भी रहती थी तथा न्याय पाने का उनका हौसला भी दिनों-दिन घटता जा रहा था।"
         पीड़िता ने बताया कि न्याय पाने की उसकी लड़ाई में मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों ने भी खूब साथ दिया, यहाँ तक कि उसने अपनी पूरी लड़़ाई इस मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों के बलबूते लड़ी। घटना के समय झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली उस अनपढ़ लड़की को इस दौरान स्वयंसेवी संगठनों ने स्नातक स्तर तक शिक्षित होने में सहयोग किया तथा कम्प्यूटर चलाने में भी उसे दक्ष बनाया गया।
        वास्तव में अपने बलबूते न्याय की लड़ाई लड़ना बेहद दुष्कर और उबाऊ प्रक्रिया बन चुकी है! और अगर यह लड़ाई किसी बलात्कारी के विरुद्ध लड़ी जा रही हो तो फिर कुछ नहीं कहा जा सकता! अकसर यह लड़ाई अधूरे रास्ते में ही दम तोड़ देती है। इस लड़ाई में पीड़िता को ही हर स्तर पर हिकारत भरी नजरों का सामना करना पड़ता है और यहाँ तक कि न्यायालय में भी जैसे इन्हें ही कठघरे में खड़ा किया जाता है, तथा जैसे पूरा समाज बलात्कारी के ही पक्ष में आ खड़ा होता है!
           -vinay
Show