सोमवार, 29 अगस्त 2016

राष्ट्रीय-एकीकरण-मंच!

         मेरे एक मित्र सरकारी आदमी हैं जो किसी राष्ट्रीय-एकीकरण की गोष्ठी में राष्ट्रीय-एकता के दीप-प्रज्ज्वलक-मंचाध्यक्ष बन कर गए थे, वहाँ से लौटकर उन्होंने अपना अनुभव हु-ब-हू मुझसे शेयर किया। अब हम बिलकुल शान्त-रस के अन्दाज में वैसा ही हु-ब-हू आपको बता देते हैं...
           "बड़ी विचित्र स्थिति है ! इस देश के एकीकरण के लिए सरकारी गोष्ठी भी करनी होती है। इसके लिए बाकायदा एक विभाग बना हुआ है "राष्ट्रीय एकीकरण विभाग" और इन गोष्ठियों के लिए बजट भी जारी किया जाता है। यह विभाग जिलों-जिलों में राष्ट्रीय एकीकरण की गोष्ठी करवाता है। गोष्ठी एक मीटिंग टाइप सी होती है जिसमें वैसे ही काम करने पर चर्चा होती है जिससे राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हो जाए। इस गोष्ठी में सभी धर्मों के उपलब्ध धर्माचार्य, समाजसेवी, जनप्रतिनिधि और अधिकारी आदि सम्मिलित होते हैं। मतलब राष्ट्रीय एकता कायम रखने का यह सरकारी प्रयास होता है। इस मीटिंग के बाद प्रतिभागी गण अपने-अपने तरीके से राष्ट्रीय एकता कायम रखने का प्रयास शुरू कर देते हैं।
          हमारे देश में कोई समस्या आई नहीं कि फौरन उसके निदान के लिए एक विभाग बना दिया जाता है। इससे फौरी तौर पर एक फायदा यह होता है कि कुछ लोगों के लिए नौकरी की जगह निकल आती है और दूसरे समस्या-निदान पर काम भी शुरू हो जाता है। ऐसे विभागों में नियुक्त कर्मी डाक्टर की भाँति नब्ज पकड़ कर समस्या-निदान में तल्लीन भी हो जाते हैं, फिर समस्या, पद, नौकरी, निदान सब बना रहे, इस टाइप से विभाग का काम चल निकलता है। जैसे विकास की कमी है; तो विकास विभाग भी बना है। हाँ, ठीक इसी तर्ज पर "राष्ट्रीय एकीकरण विभाग" देश में राष्ट्रीय-एकता की कमी सिद्ध करता है, जिसे राष्ट्रीय एकीकरण की बैठक से भरना लाजिमी हो जाता है।       
           
          वैसे भी सरकारी बैठकें बड़े काम की होती हैं, इससे एक तो काम होता हुआ दिखाई देता है, दूसरे इसी काम के बदौलत "राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश" अपने उच्चतम बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी बैठक का असंतुष्ट मुखिया सन्तुष्ट होने तक बैठक-दर-बैठक, बैठक का प्लान बनाता रहता है या फिर बैठक का असर खतम होते ही बैठक बुला लेता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश में योगदान न कर पाने वाले को ही राष्ट्रीय एकीकरण विभाग का मुखिया बनाए जाने की परम्परा है। खैर...

           एक बार सरकारी तौर पर आयोजित एक राष्ट्रीय एकीकरण की बैठक को प्रभावी बनाने के लिए बाकायदा बैठक को एक मेलाग्राउंड में आयोजित किया गया। यहाँ राष्ट्रीय एकीकरण का मंच जमीन से पाँच फीट की ऊँचाई पर बना था और गोष्ठी के दौरान मंच के सामने जमीन पर सैकड़ों की संख्या में जनता अपनी चिरपरिचित मुद्रा में बैठी थी। इस मंच पर राष्ट्रीय-एकता के पुरोधा जैसे- नेता, अधिकारी, समाजसेवी, स्वयंसेवी, प्रबुद्ध-जन और विभिन्न धर्मों के धर्माचार्य आदि ठसक के साथ बैठे थे। जैसे, यदि ये न होते तो देश कब का टुकड़ों में बंट गया होता। मंच पर विराजमान विभिन्नताओं से राष्ट्रीय-एकता की पुष्टि होने के साथ यह इस तथ्य की ओर भी संकेत था कि जितनी विभिन्नताएँ होगी उतनी ही राष्ट्रीय-एकता बलवती होगी।
             राष्ट्रीय-एकता का दीप प्रज्ज्वलित होने के बाद गोष्ठी में हुई भाषणबाजी के ज्यादा डिटेल में नहीं जाना है। फिर भी, भावनाओं के ज्वार में वतन जिन्दाबाद, भारत माता की जय, सभी मनुष्यों में एक ही परमात्मा है, इसलिए सब आपस में प्रेम करें, जैसी बातों से निश्चिंन्त हुआ जा सकता था कि हमारी एकता अक्षुण्ण है। हाँ, गोष्ठी में इस एक महत्वपूर्ण बात से भी मुतमईन हुआ जा सकता था कि राष्ट्रीय-एकता के लिए यदि किसी से खतरा है तो वह मंच के सामने जमीन पर बैठी इस जनता से ही है। क्योंकि जमीन पर बैठी जनता के चेहरे मंचासीन प्रदीप्त चेहरों से मेल नहीं खा रहा था। जनता भी टुकुर-टुकुर मंचासीन राष्ट्रीय-एकता के बलशाली महानुभावों को देखे जा रही थी। लेकिन यहीं पर माइक थामें मंच-उद्घोषक ने राष्ट्रीय-एकता कायम रखने के उत्साह में अति भावुकतावश इस तथ्य की उद्घोषणा करते हुए कहा-
           "जनता के चेहरे और यहाँ मंचासीन ऊपर बैठे चेहरों के बीच अंतर मिटेगा तभी सही मायने में राष्ट्रीय-एकता कायम होगी।"
         इसे सुन राष्ट्रीय-एकता के दीप प्रज्ज्वलनकर्ता मंचाध्यक्ष का मन प्रतिक्रियात्मक हो उठा था -
            "ये ल्लो! बोलते-बोलते संचालनकर्ता ने इतनी बड़ी गड़बड़ी कर दी..! म्लान-अम्लान चेहरों के बीच खाईं खोदने की इन्हें क्या जरूरत थी? इस विभेदकारी बयान से हमारी राष्ट्रीय-एकता "गई भैंस पानी में" की तर्ज पर खटाई में पड़ जाएगी...सरकारी बजट से संचालित इस मंच के खटाई में पड़ने से राष्ट्रीय-एकता में एक बड़े घोटाले का आरोप चस्पा हो सकता है..!" 
          ऐसे किसी आरोप से बचने के लिए ऊपर मंच से ही नेता, समाजसेवी, अधिकारी, धर्माचार्य आदि सभी ने मिलकर एक स्वर से जमीन पर बैठी जनता को विभिन्नता में एकता का जबर्दस्त पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया। इन भाषणों पर जनता को ताली बजाते देख राष्ट्रीय एकता के दीप प्रज्ज्वलनकर्ता ने मन ही मन विचार किया -
           "ई जनता कोई बुड़बक थोड़ी न है कि एकता के इस प्रज्वलित दीप को बुझाए..? अरे भाई! म्लान-अम्लान जैसी विभिन्नता में ही तो एकता छिपी हुई होती है..। जमीन पर बैठी जनता इतना तो समझ ही जाती है!" 
          राष्ट्रीय-एकता के किसी सम्भावित घोटाले से बाल-बाल बचे मंचासीन एक स्वयंसेवी सामाजिक कार्यकर्ता ने संचालनकर्ता को आग्नेय नेत्रों से शायद यह सोचते हुए निहारा -
           "बेटा! हम न होते तो तुम तो राष्ट्रीय-एकता का गुड़-गोबर कर ही चुके थे और हम जैसे सम्मानित समाजसेवी बेमतलब के राष्ट्रीय एकता जैसे संवेदनशील मामले में घोटाले का आरोप झेल रहे होते..!"
          राष्ट्रीय एकता के मंचाध्यक्ष अपना भाषण देकर मंचीय राष्ट्रीय-एकता से निवृत्त हो जैसे ही चलने को आतुर हुए उसी समय एक समाजसेवी ने राष्ट्रीय-एकता के मंच के ठीक पीछे बने तम्बू के विश्राम-स्थल में चलने का इशारा करते हुए कहा -
          "आईए, थोड़ी देर यहाँ बैठ लें।"
           शायद अब तक कायम हो चुकी मंचीय-एकता को किसी टूट-फूट से बचाने के संकोचवश एकता के दीप प्रज्ज्वलक मंचाध्यक्ष मंच के पीछे बने उस तम्बूखाने में चले गए। हालाँकि इसी बीच अपने-अपने घर वापसी को बेचैन विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं से उन्हें परिचित भी कराया गया। एक धर्म के धर्मगुरू ने अपने धर्मप्रचारक जी से भी परिचय कराया।
             इस परिचय के बाद राष्ट्रीय-एकता-दीप-प्रज्ज्वलक के माथे पर यह सोचते हुए बल पड़ गया था-  
        
           "धर्मगुरू या धर्माचार्य तक तो बात ठीक थी लेकिन एक धर्म के धर्माचार्य राष्ट्रीय-एकीकरण की इस बैठक में अपने साथ "धर्मप्रचारक जी" को भी लाए थे! अब ऐसा कौन प्रचारक है जो अपनी पार्टी के प्रति भितरघात करेगा? मतलब प्रचारक है तो अपनी पार्टी को जिताएगा ही!"

            इन धर्मप्रचारक के चक्कर में निरीह सी सामने बैठी जनता खींच-तान में फँसती दिखाई दी। जनता पर एक उड़ती सी निगाह डालते हुए इस मंच पर राष्ट्रीय-एकता का अलख जगाने वाले मंचाध्यक्ष ने विचारा -
          "ये धर्म-प्रचारक किसी अन्य खाने की गोट को अपने खाने में फिट करने से बाज नहीं आएँगे...फिर ऐसे में, यदि दूसरे धर्मों के भी धर्मप्रचारक यहाँ जुट आते तो राष्ट्रीय-एकीकरण की इस गोष्ठी का क्या हाल होता? फिर तो राष्ट्रीय एकता के इस मंच को राष्ट्रीय-संसद में बदलते देर न लगती, जिसमें बहिर्गमन एक अनिवार्य तत्व होता है, फिर तो जैसे संसद ठप..वैसे ही राष्ट्रीय-एकता ठप..! और वह बाडीबिल्डर जैसे शरीर वाला दूसरे धर्म का धर्माचार्य इस मरियल से धर्मप्रचारक जी को, एकता गई तेल लेने के अन्दाज में राष्ट्रीय-एकता के परिदृश्य से बहिर्गमन करने के लिए बाध्य कर देता...तथा एक नए तरीके की एकता कायम करने में अपना योगदान दे चुका होता....बाप रे!"
             
            खैर, इसी बीच राष्ट्रीय-एकीकरण के दीप-प्रज्ज्वलक ने तीसरे धर्म के धर्माचार्य की खोज में इधर-उधर देखा लेकिन अपने वतनपरस्ती का खूब बढ़चढ़ कर बखान करने वाले ये धर्माचार्य महोदय अपने धर्म के बड़े पक्के निकले! शायद उनके लिए राष्ट्रीय-एकता कायम रखने का समय हो गया था, इसलिए वे पहले ही इस गोष्ठी को छोड़कर जा चुके थे। यही सब निहारते-अगोरते राष्ट्रीय-एकता के दीप-प्रज्ज्वलक-मंचाध्यक्ष तम्बूखाने में तशरीफ ला चुके थे। 
     
             यहाँ एकता-मंच के पीछे तम्बू में एक स्वयंभू-समाजसेवी, गोष्ठी के आयोजक और पूड़ी-सब्जी छानते कुछ अन्य लोग थे। सम्मान के आग्रही वही स्वयंसेवी सामाजिक कार्यकर्ता, जिनका सम्मान मंच-उद्घोषक के किसी बात से आहत हुआ था, ने रोष व्यक्त करते हुए अपने गोष्ठी के आयोजक से कहा -

             "यदि ऐसा ही रहा तो हम आगे आपकी ऐसी किसी गोष्ठी में नहीं आएँगे"
           और गोष्ठी के लिए आवंटित बजट-व्यय पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए बोले-
            "बजट किसी का, और संचालन किसी और से! फिर इसमें कौन सा इत्ता भारी बजट खर्च हुआ"
             इसपर आयोजक ने क्षमाप्रार्थी-अन्दाज में आगे किसी समस्या की सम्भावना का संहार करने की अंदाज गरज से गोष्ठी के संचालनकर्ता को बिन बुलाया मेहमान बताया। बात आई गई हुई, जैसे कि कोई बात होती है।
         वैसे भी यहाँ बजट-व्यय पर उत्पन्न होनेवाला "राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश" नाममात्र का ही होता, इसलिए इस बजट-व्यय पर दीप-प्रज्ज्वलक का बहुत ध्यान नहीं गया तथा वे यह विचारते हुए चुप रह गए -
          "बाद में आडिट के लिए इस राष्ट्रीय एकीकरण मंच पर हुए व्यय के बिल-बाउचर मँगवा लेंगे।"
          हालाँकि दीप-प्रज्ज्वलक आयोजक से पद में बड़े थे, जो आयोजक से राष्ट्रीय-एकता की गोष्ठी पर हुए बजट का व्यय-विवरण तलब कर सकते थे, लेकिन उन्होंने सोचा -
          "ऐसे किसी व्यय से उपजने वाले राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश पर ध्यान न देना बेवकूफी भरा निर्णय होता है। फिर तो, राष्ट्र की कौन कहे, स्वयं आप उपेक्षित से, अपने कार्यस्थल में, रिश्तेदारों यहाँ तक कि खुद के परिवार के बीच एकता कायम रखने की क्षमता खो देते हैं! जबकि राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश सभी को भेदभाव से मुक्त कर समान धरातल पर लाकर खड़ाकर देता है, जहाँ भाईचारे का एक अद्भुत दृश्य होता है...अब राष्ट्रीय-एकता का ही दुर्भाग्य ही है कि जो इस अंश से दूर भागता है उसे ही राष्ट्रीय एकीकरण विभाग का मुखिया बना दिया जाता है।"
          उस एकता-मंच के पीछे तम्बूखाने में एक म्लान-मुख वाले सिर पर आम-आदमी वाली जैसी टोपी पहने अतीत-जीवी भावुक वृद्ध से परिचय कराते हुए उन स्वयंभू-समाजसेवी ने गोष्ठी के दीप-प्रज्ज्वलक से कहा -
          "ये पुराने समाजसेवी हैं, राष्ट्रीय-एकता और समाज सेवा में ये बहुत योगदान देते हैं, हम भी इनका बहुत सम्मान करते हैं..लेकिन, ये भी बहुत मर्यादा में रहते हैं..बेचारे! अपने सामाजिक स्तर के ही अनुरूप हमसे व्यवहार भी करते हैं..!"
           
          यहाँ इस परिचय के क्रम में राष्ट्रीय-एकता के दीप-प्रज्ज्वलक-मंचाध्यक्ष थोड़ा चौंक पड़े! गेस किया -
        "राष्ट्रीय-एकता के लिए किसी-न-किसी एक को अपनी मर्यादा में रहना ही होता है! एक म्लान-मुखवाले को ही अपनी मर्यादा निभानी पड़ती है..और राष्ट्रीय-एकता के लिए जरूरी मर्यादारूपी अन्तर्धारा इस व्यक्ति के थ्रू होकर ही बहती है...इसलिए, इन्हें जमीन पर भी बैठाया जाता है..! आखिर, राष्ट्रीय एकता जमीन की ही होती है..!!"
           राष्ट्रीय-एकता का दीप-प्रज्ज्वलक चूँकि एक सरकारी आदमी हैं, इसलिए राष्ट्रीय-एकता के इस टैम्परेरी दायित्व से इतर अपने कर्तव्य-निर्वहन के क्रम में ग्रामीण गरीबों के लिए नियुक्त उच्च प्रजाति से सम्बंधित जीव जो खाद्यान्न-वितरक भी था, के यहाँ छापा मारा। छापे में कोई विशेष कमी दृष्टिगोचर नहीं हुई और ग्रामीण जनता भी खाद्यान्न-वितरक से सन्तुष्ट थी । खाद्यान्न-वितरक ने जमीन पर बैठने वाले इन "असामाजिक" लोगों की संन्तुष्टि का कारण बताया -
        "अरे साहब! हम इनसे भेदभाव वाली बात नहीं करते..घर आने पर इन्हें हम चाय-पानी घर के ही कप-गिलास में पिलाते हैं..अलग से कोई दूसरा बर्तन नहीं रखते...लेकिन साहब..! हमारा कोई एक आदमी पहले ही अपना जूठा बर्तन धोना शुरू कर देता है और उसकी देखा-देखी ये भी अपने जूठे कप या गिलास वगैरह धुल देते हैं, फिर इसके लिए हमें कहना नहीं पड़ता...ये हमसे खुश भी रहते हैं, मेरा कोई विरोध नहीं करता..इसीलिए हमारो आदमी प्रधान बनता है..।"
           "यही है हमारी राष्ट्रीय-एकता का राज..! और जानते भी हो? हमारी राष्ट्रीय-एकता और सामाजिक-क्रांन्ति मर्यादा ओढ़कर चलती है..किसी नई-नवेली देहाती दुल्हनिया की तरह..!"
          कहते हुए मित्र ने भी एक मर्यादा भरी चुप्पी ओढ़ ली।" 
    
          "ओह तो ये है राष्ट्रीय-एकता कायम रखने की मर्यादा भरी कहानी..!" अब मैंने सोचा।
                                                --विनय

बुधवार, 24 अगस्त 2016

बस है कि देश है!

           इक्कीसवीं सदी के सत्तरहवें पन्द्रह अगस्त को ढेर सारी देश-भक्ति की बातें हुईं थी। इस देश-भक्ति की खुमारी में ही मैंने बस-यात्रा की। बस-अड्डा परिसर में बाबा-आदम के जमाने के बस अड्डे के जर्जर भवन पर उड़ती सी निगाह डालते हुए एक खड़खड़िया टाइप की बस को छोड़ते हुए वहाँ के कींचड़-पानी से कदम-ताल करते हुए दूसरी कुछ ठीक-ठाक सी दिखनेवाली बस पर जा बैठा था। शाम होने वाली थी। बस चली जा रही थी। अभी तक पन्द्रह अगस्त की खुमारी मेरे ऊपर से नहीं उतरी थी और मैं देश-भक्ति की ताक-झाँक में ही लगा था।
                   इधर कंडक्टर टिकट बनाते हुए आता दिखा। ठीक उसी समय चलती बस के अन्दर की लाईट बुझ गई। बस में बिजली कटौती की कोई सम्भावना नहीं थी। हालाँकि कन्डक्टर तब टिकट बना रहा था। कंडक्टर ने ड्राइवर से अन्दर की लाईट जलाने के लिए दो-तीन बार कहा, "तिवारी लाईट जला दो" इसके बाद बत्ती जली और जैसे ही बस का पहिया देश-भक्ति के किसी गड्ढे से होकर गुजरा बत्ती बुझ गई। कंडक्टर ने पुनः बत्ती जलाने के लिए ड्राइवर से कहा। लेकिन लाईट नहीं जली। कंडक्टर थक-हार कर किसी तरह एक हाथ में मोबाइल वाले टार्च को जलाकर दूसरे हाथ में टिकटवेंन्डिंग मशीन ले टिकट बनाने लगा। मन ही मन मैंने उसके देश-भक्ति की दाद दी। इस बीच यदि कोई फोन आता तो एकदम आम आदमी टाइप व्यक्ति की तरह देश-भक्ति भूल फोन पर बतिया भी लेता। 
            
            इसी दौरान मेरे पीछे से एक बोलती आवाज पर मेरा ध्यान अटक गया। "ये ड्राइवर ससुरा बदमाश है, कन्डक्टर से इसकी नहीं पट रही होगी, इसलिए बत्ती बुझा दिया होगा" इसका समर्थन किसी एक और ने किया। इसपर किसी ने कहा "नहीं बस के अन्दर की लाईट ही खराब है।" इसे सुन ड्राइवर को कोसने वाले ने जैसे आत्मग्लानि के स्वर में कहा हो, "अच्छा बस की लाईट खराब है!" मैंने मन ही मन विचारा, बिना सोचे-समझे किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उचित नहीं होता, नहीं तो देश-भक्ति पर व्यर्थ का प्रश्नचिह्न खड़ा होता है।

            अब न जाने कैसे देश-भक्ति से मेरा ध्यान हट कर बस की चाल पर आ गया। बस-ड्राइवर ड्राइविंग में ज्यादा पेन लेता नहीं दिखा। बस-ड्राइवर की इस मनःस्थिति से अनजान किसी ने जोर से कहा "अबे ड्राइवर! बैलगाड़ी चला रहा है क्या?" साथ ही वह बस की ऐसी चाल से अपना प्लेन छूट जाने की बात भी कह रहा था। तभी दूसरे ने भी ट्रेन मिस हो जाने की बात कह उसके सुर में सुर मिलाया। देखा-देखी ऐसे ही बस तेज चलाने की माँग में कई स्वर उभर आए। मिले सुर में मेरा तुम्हारा जैसा देश-भक्ति का जलवा दिखाई देने लगा लेकिन इसी में कोई देश-द्रोही जैसा स्वर भी उभरा, जो ड्राइवर को डिस्टर्ब न करने की बात भी कह रहा था।
             इधर मैं, देश-भक्ति के आड़े आ रही तमाम समस्याओं पर मन ही मन विचार करते हुए इस बोरिंग सी समय-यात्रा को खर्च करने में तल्लीन था कि बस में मचे इस हलचल से मेरा ध्यान बस की चाल जैसी समस्या पर आ गया। इसके बाद तो यह बस है कि देश या देश है कि बस में उलझ गया। किसी अफीमचिए की तरह मैंने सोचा अरे गंजेड़ियो! काहे झगड़ रहे हो, देश की चाल सुधरेगी तो बस की चाल अपने-आप सुधर जाएगी! आखिर यह बस देश में ही तो चल रही है। इस चाल को लेकर यात्रियों में बहस का स्वर थोड़ा ऊँचा था और हमें लगा जैसे सब गंजेड़ी मिल कर कह रहे हों कि यह बस देश में नहीं सड़क पर चल रही है। देश की चाल से बस की चाल का क्या सम्बन्ध! देश की चाल से बस की चाल को जुदा करने पर उतारू ये गंजेड़ी निश्चित रूप से देशभक्त नहीं कहे जा सकते। 
                
             एक अफीमचिए जैसी खुमारी में ही देश और बस मेरे जेहन में गड्डमड्ड हो चुके थे सो मैंने लड़खड़ाती सी आवाज में कहा, "अरे भाई देश को चलाने वाले कौन सा पेन लेते हैं, पेन लिया नहीं कि इनकी देश-सेवा की नौकरी ही छूटी,आप सब नाहक ही ड्राइवर को कोस रहे हो? आखिर सबके बीवी-बच्चे होते हैं, कहीं बस ठुक-ठुका गई तो इनकी नौकरी गई काम से। आप का क्या, आप तो दूसरी में बैठ जाएँगे, बस है कोई देश नहीं कि बैठे-बैठे दूसरे ड्राइवर का इन्तजार करेंगे।" वैसे मैं देशहित-चिन्तन में इतना तल्लीन हो चुका था कि समझ नहीं पाया कि इसे बोला हूँ कि सोचा हूँ और इस चक्कर में गंतव्य पर पहुँचने की मुझे भी जल्दी है इसे भूल गया। वाकई! अफीमचिए ऐसे ही होते हैं।

               देश-सेवा में आए व्यवधान से कहीं ड्राइवर खिसिया न गया हो क्योंकि बस की चाल और धीमी होते हुए मुझे प्रतीत हुई। वैसे भी कोई भी ड्राइवर ड्राइविंग को लेकर टोंका-टाकी पसंद नहीं करता। ठीक इसी समय मेरे कानों में ड्राइवर के लिए एक आवाज आई, "अरे, इसकी क्या मेरी प्लेन छूट गई तो जितना इसके महीने भर की तनख्वाह होगी उतने का तो मुझे एक दिन में नुकसान हो जाएगा। मैं तो इसका नम्बर नोट करके अपने नुकसान की भरपाई के लिए कम्पलेन करुँगा.." अब लो! इस बात को सुनकर मैं एकदम से चकरा गया और बस की सीट पर उछलते-उछलते बस की छत से टकराते-टकराते बचा। गजब! नाहक ही हम देश की गरीबी का रोना रोते हैं, और देश के नागरिकों को कोसते हैं यहाँ तो किसी के एक दिन की कमाई ही किसी के महीने भर के वेतन के बराबर है और फिर कम्पलेन की सुनवाई की अद्भुत और त्वरित व्यवस्था!! इस झटका-झुटकी में मेरी खुमारी में जैसे थोड़ी कमी आई। ये ल्लो! मैं तो गंजेड़ी निकला असली अफीमची तो ये महाशय निकले। देश-भक्ति से लबरेज और अपने नगरिक अधिकारों से सराबोर!! देश के प्रति इस जिम्मेदार नागरिक के देश-भक्ति के इस जज्बे के प्रति मेरा लार टपक पड़ा। मुझे अब अपनी देश चिन्ता नाहक लगने लगी। गांजे का धुँआ जैसे उड़ गया हो और एहसास हुआ कि खुशी से नहीं हाईवे के किसी रोडब्रेकर और बस की पिछली सीट पर बैठे होने के कारण उछला था। हाँ, एक बात है वह यह कि पीछे बैठने वाले थोड़ा धचका खाए नहीं कि बात-बेबात पर उछल पड़ते हैं। अरे भाई! देश चलने दो धचके वगैरह तो लगते ही रहते हैं इसमें उछलना-कूदना क्या। ऐसे ब्रेकर भी आते रहेंगे। 
     
           अन्दर बस में इसकी चाल को लेकर अभी भी गहमा-गहमी वैसी ही थी। किसी ने कहा, "अरे यार! इसमें ड्राइवर की गलती नहीं है, इस बूँदाबाँदी में बस का वाइपर ही नहीं चल रहा है।" हालाँकि शुरू में ही मैंने वाइपर को काम करते देख लिया था लेकिन उस व्यक्ति बात पर मैंने सोचा हो सकता है वाइपर बस के शीशे पर न चल हवा में चल रहा हो। आखिर देश में भी तो बहुत सी चीजें हवा में चलती हैं। हमारे देश में किसी नेता की तरह ड्राइवर को भी क्लीनचिट मिल सकती है, सोचते हुए मेरा सीना छप्पन इंच का हो गया। हाँ, अब यह ड्राइवर भी अपना काम निर्द्वन्द्वता से तो पूरा कर सकेगा और खामखा हो-हल्ले का शिकार नहीं होगा! लेकिन कुछ बस-यात्री विपक्षी नेता की भाँति इस क्लीनचिट से असंतुष्ट हो बोल पड़े, "जब वाइपर खराब था तो अफसर को बताना चाहिए था।" अफसर! इस शब्द से मेरी देश-भक्ति जैसे अंगड़ाई लेने लगी हो। एक अफसर की देशभक्ति को मैं पहचानता हूँ इसी का तो उसे वेतन मिलता है। उसे समस्या की जानकारी हुई नहीं कि समस्या की ऐसी की तैसी! समस्याओं को तो वह चुटकी बजाते जमीन से हवा में उड़ा देता है और हवा से जमीन पर ला देता है। अगर अफसर को इस समस्या के बारे में कुछ भी पता होता तो वाइपर जैसी कोई समस्या न होती। बस की चाल धीमी न होती और देश की भी चाल तेज होती। मतलब ड्राइवर पर आरोप सिद्ध होता है! देश की धीमी चाल के लिए यही जिम्मेदार है, देशद्रोही कहीं का!

            ड्राइवर पर आरोप सिद्ध होने के अंदेशे में बस-कंडक्टर उसके बचाव में बोला, "अफसर से कौन कहे..किसकी हिम्मत है अफसर से कहने की..? अफसर सुनता है किसी की! अफसर से कह कर क्या आफत मोल लेना है? फिर तो लेने के देने पड़ जाएँगे।" सुनकर मैंने सोचा, अरे बाप रे! क्या अफसर में किमजुनउंन भी छिपा होता है? लेकिन यही तो अफसरी है, जो अफसर मातहतों की सुनने लगें तो फिर उनकी अफसरी क्या! मातहतों से ही तो अफसरी है! अंग्रेजों का जमाना गया और यदि आजाद जनता पर अफसरी दिखाएँगे तो, नेता क्या तेल लेने गए हैं!! वैसे भी जनता अफसर का रौब-दाब देख जुगाड़ संस्कृति से अपना काम निकाल लेती है और नेता अगर तेल लेने गए भी हों तो यह तेल इनके चुनावी-चक्र के पहिए में बखूबी लुब्रीकेंट का काम करती है।
             बस की इस धीमी चाल से यात्री क्रांति न कर बैठें ड्राइवर ने बस रोका और शीशा साफ किया तथा बस लेकर चल पड़ा जैसे कोई प्रधानमंत्री देश-भक्ति के जज्बे में देश लेकर चल पड़ता है। लेकिन बात फिर भी नहीं बनी।बस की चाल देश के विकास की चाल की तरह वैसी की वैसी ही रही। इस चाल से आजिज आकर हमारे ठीक पीछे बैठे क्रांति के लिए सन्नद्ध दो बंधुओं ने क्रांति की असफलता भाँप जुगाड़-संस्कृति का सहारा लेने हेतु दृढ़-प्रतिज्ञ हो उठे। इनमें से एक ने शैम्पू लेकर शीशे पर मलने की बात कही तो दूसरे ने शीशे पर तम्बाकू मलने की बात कही, क्योंकि इससे बस के शीशे पर बूँदे नहीं ठहरेंगी और ड्राइवर को रास्ता साफ दिखेगा। ये बंधु अन्य यात्रियों के हित में नहीं बल्कि एक अपनी ट्रेन छूटने के भय से तो दूसरा हवाई-जहाज छूट जाने के भय से ऐसा कर रहा था। देश-सेवा के इस रूप में मैंने इनकी भलाई में सब की भलाई खोज लिया। दोनों ने बस रुकवा दी और अपने जुगाड़ के अमल में लग गए।
                      इधर इस हड़बोंग में बस खड़ी थी और इसके शीशों पर जुगाड़ मला जा रहा था। हालांकि जुगाड़ मलने में जाया होते समय को देख मैं अपने में ही बड़बड़ाया, "अरे, अब तक बस अपनी उसी चाल से चार-छह किलोमीटर तो निकल ही आई होती.." खैर, बस चली। थोड़ी राहत हुई कि चाल अब तेज थी। क्या पता ड्राइवर का मन पसीजा हो और सोचा हो चलो थोड़ा इस बस के मुसाफिरों के मन की भी कर दें। लेकिन फिर वही पुरानी वाली स्थिति में चाल वापस! अब तो शीशा भी एकदम साफ था। खैर, मैंने सोचा चाहे देश हो चाहे बस हो जिसको जैसे चलना है वैसे ही चलेगा। स्वभाव थोड़ी न बदल जाता है। फिर जैसे-तैसे कर मंथर-मंथर चाल से शहर में प्रवेश किए! अब पों-पाँ-पीं के बीच फँस चुके थे। हवाई जहाज वाले बंधु तो उतर चुके थे..हाँ! ट्रेन पकड़ने वाले बंधु जरूर फँसे पड़े थे। उनकी ओर ध्यान गया तो किसी से मोबाईल पर बतियाते हुए कह रहे थे, "अभी तो जाम में फंसे हैं" सुनते ही मैं मुस्कुरा उठा जैसे किसी व्यंग्य में पढ़ी लाईन सुना हो। सोचा हमारी देश-भक्ति भी पों-पाँ-पीं जैसे ऐसे ही किसी जाम में फंस चुकी है और हम भी इसमें फँसे पड़े हैं। सोचा देश-भक्ति की जाम खुले तो घर पहुँच जाएँ। अन्त में अपनी मुस्कुराहटों के बीच मैंने सोचा "लो भाई यहाँ भी अगर जुगाड़ मलने की गुंजाइश हो तो मल लो..आप के साथ हम भी लाभान्वित हो लेंगे" और पों-पाँ-पीं के शान्त होने का इन्तजार करने लगा।

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

समस्याओं की चिल्ल-पों

             देश में समस्याओं का अम्बार है और क्या नेता..! क्या अभिनेता..! क्या कवि-साहित्यकार-पत्रकार...! और क्या रोडमास्टरी करनेवाले...! सभी अपने-अपने तईं इन समस्याओं को हल करने में जुटे पड़े हैं... और समस्या है कि हल होने का नाम ही नहीं ले रही। खैर..
         ऐसे में बेचारी निरीह इस समस्या की क्या दशा है..? वह भी कम नहीं है..! वह भी तो चालाक ही निकली..इतने हलकार को देख जैसे वह भी गर्वोन्मत्त हो चुकी है..और यह "समस्या के आगे सब मिलि बीन बजावै, अरु समस्या खड़ी पगुराय!" के साथ मनुहारी दृश्य उपस्थित कर रही है! हाँ.. समस्या और उसके हलकारों के बीच अब यही स्थिति बन चुकी है।
             लेकिन ये हलकार इस समस्या को छोड़कर जाने वाले भी नही..कोई इसके सामने सानी-पानी लेकर खड़ा है, तो कोई इसकी सींग पकड़े "यूरेका-यूरेका" चिल्ला रहा है तो कोई इसकी पूँछ पकड़ बोल रहा है "मिल गई समस्या की जड़!" और साथ में ही इन्हें घेलवा में जयकारा भी मिलना शुरू! आखिर समस्या के जो हलकार ठहरे..!! इन हलकारों के लिए समस्या इति सिद्धम्..।
              अन्त में, अब हम तो यही मानने लगे हैं.. हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही है कि देश के सारे लोग देश की समस्या को हल करने के लिए लग गए हैं।
           अगर आप बाकी हैं, तो आप भी अपना सब-कुछ फेंक-फाँक कर समस्या के हल में जुट जाएँ...फिर ये मौका हाथ न आएगा..! न सही तो समस्या का पैर ही पकड़ लें या समस्यावेत्ता बन अपने जयकारे का मजा लूटें..! और...इधर मैं..! मैं..हाँ, मैं क्या करूँ... अरे हाँ!! अपने नाम से सटे "तिवारी" हटा कर लोगों को और कुछ न सही ब्राह्मणवाद से ही मुक्ति दे दूँ... कैसा रहेगा..?