शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

राजनीति में "अहिंसा"

             मैंने दो वर्ष पूर्व के अपने तीन अक्टूबर के एक पोस्ट को आप सब से आज शेयर किया है। उक्त पोस्ट में, बचपन में "अहिंसा परमोधर्मः" और "कांटा बोने वालों के लिए फूल बोने" जैसी देखी-सुनी बातों से बाल-मन में बनते संस्कारों की संक्षिप्त सी चर्चा थी। वास्तव में जब इस पोस्ट को लिखा था, तब भारत-पाक के बीच आज के जैसा युद्ध का वातावरण नहीं था। 
           लेकिन, आज इस "अहिंसावादी" पोस्ट की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है, और रणभेरी की आवाज सुनने-सुनाने वालों के बीच यह आवाज, मेमने की आवाज मानी जाएगी। तो क्या अहिंसा की आवाज को हम मेमने की आवाज कह देंगे? इसे समझना होगा। 
               अहिंसा, क्रोध और भय पर विजय प्राप्त कर लेने की अवस्था है और एक संतुलित दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त करती है। वास्तव में अहिंसा से विवेक, बुद्धि और संवेदना जैसे गुणों का विकास होता है, जिससे श्रेष्ठ जीवनमूल्य निर्मित होते हैं। अहिंसक होना पागलपन न होने की गारंटी है। यही अहिंसक वृत्ति किसी युद्ध में विजय का कारण बनती है। एक अहिंसक कभी नहीं कहता, "मैं हिंसक नहीं हूँ।" 
                 भाई लोग!  सच में, हमारा देश अब अहिंसक नहीं रह गया है, क्योंकि हमारे श्रेष्ठ गुण धीरे-धीरे लुप्त होते गए हैं, श्रेष्ठ गुणों के इस क्षरण के कारण हमारे आत्मविश्वास को बहुत क्षति पहुँची है। अगर कोई अहिंसा की बात करता है तो, इसका मतलब कायर होने की बात नहीं करता, वह व्यक्तित्व में गरिमा और दृढ़ता की बात करता है। हम परसाई जी के शब्दों में हम कह सकते हैं -
        
"राष्ट्रीय नेतृत्व में व्यक्तित्व की गरिमा और दृढ़ता बहुत अर्थ रखती है।" 
            हाँ, यह गुण केवल अहिंसा से ही उपजती है। युद्ध तो केवल एक तात्कालिक उपाय भर होता है,  दीर्घकालिक उपायों पर हमें काम करना चाहिए, जिसमें हमारे श्रेष्ठ संस्कार ही काम आते हैं। सही मायने में अमेरिका एक अहिंसक देश है, और वह अहिंसक देश इसलिए है कि उसे अपने नागरिकों की बेहद चिन्ता रहती है। इस चिन्ता से पार पाने में, उस देश के तमाम सांस्थानिक उपाय और नागरिकों के स्वयं के कर्तव्य निर्वहन का ही योगदान है। उस देश में बेमतलब का उन्माद नहीं फैलता, वहाँ काम होता है। 
              और यहाँ हम, साल भर बेकाम बैठे रहते हैं, लेकिन कभी-कभार किसी उन्माद के साथ कूद-फाँद कर अपने देश-सेवा जैसे कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। आखिर, हमें अपने नागरिकों की कितनी चिन्ता है?  चीजों को हमें संभालना आना चाहिए चाहे वह युद्ध हो या कुछ और..! सैनिकों की विधवाओं का रुदन हृदय-विदारक होता है। वैसे, गीता पढ़ने वाले जानते हैं कि, युद्ध अवश्यंभावी हो जाने पर टलता भी नहीं। लेकिन व्यर्थ की दुदूंभि या कहें, गाल बजाने से बचना भी चाहिए। सैनिक किसी टीवी के सामने नहीं, युद्ध के मैदान में होते हैं।
             हाँ, अगर ये बड़े-बड़े माफिया, उद्दंड नेता, जनता-गरीबों की योजनाओं के पैसों पर गुलछर्रे उडा़ने वाले लोग और अपने अधिकारों के ठसक भरे ऐंठन में जीने वाले जैसे लोग युद्ध लड़ने मैदान में जा रहे हों तो, अभी इसी वक्त भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध लड़ लेना चाहिए। 

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

सर्जिकल स्ट्राइक

             हम लोग बाजारवादी दुनियाँ में रहते हैं, बाजार बनाना जानते हैं, बाजार में माँग के हिसाब से माल बिकवाना भी, इसके लिए चालाकी के साथ मांग जनरेट कर देते हैं। हाँ, अगर माँग इस बात की हो और बेंचना उस बात को चाहोगे तो, फिर दूसरे माल के बिक्री की संभावना समाप्त हो जाती है। इस बाजारवाद में अपना यह दिल-दिमाग भी पूरे तरीके से बाजार के हिसाब से ही चलने लगता है, मतलब कुछ दूसरी चीज खरीदने- सोचने का मन ही नहीं करता। दूसरी बात सबसे महत्वपूर्ण यह होती है कि, ऐसी स्थिति में चीजों का न तो मोल-तोल कर पाते हैं और न ही उन्हें उलट-पुलट कर देख सकते हैं , ऐसा करना  बाजार से भगा दिए जाने का कारण बनता है, माँग और आपूर्ति का यही सिद्धांत भी है।
              लेकिन यहाँ बाजार में, आपूर्ति भरपूर है, निर्वाध है, बाजार पर कब्जा है, तो माल छाया हुआ है और किसी माल के बाजार पर छाने में उसके पसंदगी-नापसंदगी का बहुत बड़ा हाथ होता है, यही इसे खूब बिकवाता भी है .! हाँ, इस बहुत बिक रहे माल को उसके बहुत बिकने की बात पर दोष नहीं दे सकते। इसके पीछे, कुछ अन्य विक्रेताओं की बदमाशी भी होती है, वे किसी बाजार में नापसंदगी वाले माल को उतारने की गलती करते हैं, प्रतिक्रिया में दूसरा दुकानदार बाजार में पसंदगी वाला माल उतारबदेता है, अब इस दूसरे माल को बाजार में चल पड़ने का ऐसा शै लग जाता है कि, वह हाथों-हाथ लिया जाने लगता है.!! फिर तो बाजार में नापसंदगी वाले माल की चर्चा करना भर बाजार से खदेड़ दिए जाने का कारण बनता है ! हाँ, इस बाजार का तमाशा देखना चाहते हैं तो, बस खरीदने-बेचने के पचड़े से बचे रहिए, और तो यहीं पर खड़े होकर बाजार में घूमने का मजा लूटिए..बस, अपने को बाजार की भीड़ की धक्कामुक्की से बचाए रखिए। इसी में गनीमत है।
      
         हाँ तो, आज कहीं टहलने नहीं गया था.. असल में कल शाम पाँच बजे से रात नौ बजे तक और इसके पहले वाली शाम को भी ऐसे ही चार घंटे तक सर्जिकल स्ट्राइक हेतु मैराथन बैठक में व्यस्त रहे थे। अब दायित्व में सर्जिकल स्ट्राइक तो रहता ही है, बस जगह और समय हम अपने हिसाब से तय करते हैं। सो समय तय कर ही इसमें जुटे थे..। अब शाम को देर तक सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारी में व्यस्त रहेंगे तो सबेरे जल्दी कैसे उठेंगे..!  असल में लगातार इस तरह सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारियों में व्यस्त रहने का मुख्य कारण यही था कि जब "इंन्फिल्ट्रेटर" अपने काम में व्यस्त थे तब हम निश्चिंत से सो रहे थे । परिणामतः ये इंन्फिल्ट्रेटर अपना काम करते रहे और नागरिक चोट पर चोट खाते रहे। बेचारे नागरिक की हालत मरता क्या न करता जैसी हो चुकी थी, वह करे भी तो क्या और कैसे करे? हम इस स्ट्राइक का समय चुनने और जागने में ही इतनी देर कर चुके थे कि तब तक नागरिक अपने अधिकार क्षेत्र में इंन्फिल्ट्रेशन चुपचाप सहते रहे थे। लेकिन, कभी-कभी आँख खुल भी जाती है, हम भी अपने अभियान पर इंन्फिल्ट्रेटरों की खबर लेने में सन्नद्ध हो गए। खैर..यह कर्तव्य-पारायणता की बात गाहे-बगाहे घोषित करनी होती है, इसके लिए सर्जिकल स्ट्राइक करनी ही होती है ! इंन्फिल्ट्रेटर इससे भयभीत होते ही हैं और हमारे हाथ भी कुछ न कुछ तो लगता है तथा कुछ कर देने का भी प्रमाण मिलता है। इस तरह किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक पर दोतरफा लाभ होता है। 
             
           हाँ, तो आज की #दिनचर्या में एक बात यह भी शामिल रही कि हम एक गाँव में निकल गए थे..निकल क्या गए थे। गाँव में, गरीब महिलाओं को प्रशिक्षित सा करना था, जिससे वे भी अपनी गरीबी से सर्जिकल स्ट्राइक कर सकें। खैर, वो तो, उनको प्रशिक्षित किया ही लेकिन, उनके दिमाग पर, हम जो सर्जिकल टाइप की थियरी अपना रहे थे, उस सर्जिकल थियरी का उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था...उनके चेहरों पर कोई चमक नहीं आई। मतलब, सारा प्रशिक्षण बेकार साबित हो रहा था। मैंने महसूस किया कि आज तक हुए किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में इन तमाम ग्रामीण गरीब महिलाओं को न तो कोई जानकारी है और न ही इसका कोई प्रभाव है। सारे के सारे सर्जिकल स्ट्राइक व्यर्थ और दिशाहीन प्रतीत हुए..!  जैसे, आजादी के बाद कभी कोई सर्जिकल स्ट्राइक की ही न गई हो, और की भी गई हो तो सब व्यर्थ की कवायद भर रहे होंगे, अन्यथा इनके चेहरों पर भी चमक होती। 
                 इनमें से कई गरीब ग्रामीण महिलाएँ केवल एक घंटे की, गरीबी को दूर करने वाली सर्जिकल ट्रेनिंग प्राप्त करने के लिए, पैदल आने-जाने में लगने वाले छह घंटे समय की दूरी को, पैदल ही नाप कर आई थी। क्योंकि, किराए के पैसे खर्च करने हेतु इनमें किसी प्रकार के क्षमता-संवर्धन का विकास हम आज तक नहीं कर पाए हैं। यही नहीं, हम आज भी इनके दो बीघे खेत तक पानी नहीं पहुँचा पाए हैं, पता नहीं कौन सा सर्जिकल स्ट्राइक आजादी के बाद हमने किया है। 
    आज, हमारे सर्जिकल स्ट्राइक की पोल खोलते हुए एक महिला ने बताया भी कि, ऊँचे लोग ही इस सब का फायदा उठा ले जाते हैं, मैंने सोचा, शायद इसीलिए किसी सर्जिकल स्ट्राइक का प्रभाव इन तक न पहुँचा हो। फिर, इन गरीब महिलाओं को जल्दी वापस लौटने की चिन्ता भी थी, क्योंकि, देर होने पर लौटने में अँधेरा हो जाता, हम भी गरीबी दूर करने की अपनी सर्जिकल थियरी यहीं समाप्त कर वापस लौट चले थे। 
           बात यह नहीं कि हममें देशभक्ति नहीं है, या हम सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध करते हैं, हम भी आप जैसे ही देशभक्त हैं, बस बाजार में एक ही तरह के माल को खपाने के लिए बिना उस माल के गुण-दोष का परख किए उसे ही श्रेष्ठ माल नहीं बताना चाहते। हाँ, हम भी किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बेतरह हिमायती हैं और सर्जिकल स्ट्राइक को पागलों की तरह प्यार करना चाहते हैं, बस इसका प्रभाव इन ग्रामीण गरीब महिलाओं के चेहरों पर भी दिखना चाहिए। अन्यथा ऊपर-ऊपर ही भाई लोग, सर्जिकल स्ट्राइक का भी फायदा ले उड़ेंगे और बोलने भी नहीं देंगे। अपने माल का ऐसा बाजार तैयार कर देंगे कि कोई दूसरा अपने माल के बारे में या दूसरे माल की चर्चा करने, कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। 
              भाई लोग, किसी को ब्लाक-वलाक करने की जरूरत मैं नहीं समझता। अन्यथा, बाजार में माल परखने की क्षमता प्रभावित हो जाएगी। वैसे अगर बिना परखे कहीं किसी का खराब माल ले लिया तो यह बेचारी देशभक्ति जेब में ही धरी रह जाएगी.. देशभक्ति तो देशवासियों के बीच बाँटने की चीज होती है, केवल अपने लिए या सीने में ही छिपाए रखने के लिए नहीं होती...नहीं तो, वो बेचारे महात्मा जी! अरे वही, जिनका कल यानी दो अक्टूबर को जन्मदिन पड़ता है..हाँ, वही गाँधी जी, ग्राम- स्वराज की कल्पना न करते। खैर..
             #चलते_चलते
             बहुत अधिक बुद्धिवादी-विमर्श या बौद्धिकता भी उन्मादकारी हो सकती है, इससे भी बचें। घटनाएँ तो घटती रहती हैं उन्हें घट जाने दीजिए..या..घटते रहने दीजिए...बस, ऐसी बातों को लेकर बैठें न रहें, बाजार न बनाएँ। सबकी सुनें, ब्लाक-वलाक तो दूर की बात है। 
                                         --Vinay 
                                         #दिनचर्या 20/29.9.16