सोमवार, 25 दिसंबर 2017

रजाई बनाम कंबल

           पचीस दिसंबर पर वाकई ठंडी बहुत बढ़ जाती है। इधर महोबा में क्या है कि अभी तक कंबल ओढ़ने से काम चल जाता है। लेकिन इस पचीस दिसंबर को ऐसा लगने लगा कि अब यहाँ भी रजाई ओढ़नी ही पड़ेगी!  सो घर से आते समय पिछले साल वाली रजाई उठा ले आए। वैसे तो, अपने देश में रजाई को सनातनी नहीं ही माना जा सकता क्योंकि रजाई शब्द में संस्कृतनिष्ठता नहीं है, रजाई शब्द विदेशी भाषा टाइप का शब्द प्रतीत होता है। अब चाहे यह देशी भाषा का शब्द हो या विदेशी भाषा का, हाँ, पैंतालीस डिग्री से पाँच-दस डिग्री पर उतरे तापमान के अंतर को यह रजाई ही पाटती है, ऐसे में रजाई को कौन दुतकारेगा!!

            फिर भी न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि अपने देश में कंबल की ही परंपरा सनातनी है। इसीलिए सरकारी या गैरसरकारी दानवीर लोग गरीब रियाया टाइप के लोगों को कंबल ही वितरित करते हैं, जबकि रजाई को वितरित होने का यह गौरव प्राप्त नहीं है। रजाई तो ये दानवीर राजा टाइप के लोग स्वयं ओढ़ते हैं!! फिर रजाई को आखिर यह गौरव क्योंकर प्राप्त हो!! यह दुबला-पतला गरीब आदमी रजाई का बोझ उठा ही नहीं पाएगा..! और फिर गरीबों को रजाई क्यों ओढ़ाएँ? इन्हें राजा थोड़ी न बनाना है! वैसे भी अपना देश गरीबों और संन्यासियों का देश रहा है और इनके लिए कंबल का बोझ उठाना भी थोड़ा आसान होता है; मतलब कांधे पर रखे और चल दिए टाइप से! और यही नहीं, यहाँ के लोग नाराज होने पर "यह लै अपनी लकुटि कमरिया" कहकर कर सब कुछ छोड़कर चल देने वाले लोग होते हैं। सो, इन बेचारे गरीबों को कंबल बाँटना ही मुफीद होता है, ये इसी में जाड़ा काट लेते हैं। वहीं रजाई रजवाड़ों की परंपरा में शामिल है और अगर ऐसा न होता तो जयपुरिया रजाई प्रसिद्ध न होती। आखिर जयपुर रजवाड़ों के लिए ही तो चर्चित रहा है।

          आपको बताएँ, यह जो लिख रहे हैं न, इसे भी रजाई में घुसकर लिख रहे हैं। अभी कुछ देर पहले जैसे ही महोबा पहुँचे तो रजाई का सुख लेने के लिए मन मचल उठा तो, फिर यही किए कि रजाई ओढ़कर रजाई पर ही लिखने लगे। वैसे एक बात है, रजाई ओढ़ लेने की गरमी में मन सरोकारी टाइप का नहीं रह जाता, केवल आत्मसुख या फिर राजसुख की अभिलाषा ही जागती है। इसीलिए रजाई ओढ़ने वाले कुछ-कुछ आलसी टाइप के भी होते हैं। इसी कारण कुछ लोग "खाए-पिए अघाए लोग आलसी होते हैं" कहते हुए रजाई ओढ़ने वालों से कुढ़न भी रखते हैं। खैर, लोग चाहे जो कहें, अगर आप भी रजाई ओढ़ रहे होंगे तो आप भी अलसियायेंगे ही! और सबेरे रजाई छोड़कर उठने का मन नहीं होगा। मैं तो सोचता हूँ, पता नहीं रजाई ओढ़ने वाले अपने इस आलस के चक्कर में देश का विकास कर भी पाते होंगे या नहीं! या फिर रजाई में घुसे हुए अलसियाये विकास के बारे में मनन ही करते रह जाते होंगे!! फिर विकास भाग कर जाएगा कहाँ!  विकास तो ये कंबल ओढ़ने वाले कर-करा देंगे!!

         हम तो, रजाई में राजसुख भोगते हुए अलसियाये हुए से अपनी लेखनी के आत्मसुख में मुग्ध हो सरोकारी होने की अनुभूति प्राप्त कर रहे हैं!!!         

छेड़खानी

           तो छेड़खानी का अजीब मसला छाया हुआ है आजकल! यह बहुत चर्चित शब्द बन चुका है। छेड़खानी पर जितना हो-हल्ला मचता है उतना ही घटने के बजाय यह बढ़ रही है। अभी देखिए गुजरात में क्या हुआ..क्या छेड़खानी में कमी हुई? नहीं, खूब छेड़खानी हुई ! वे आरोप लगाते रह गए और छेड़खानी करने वाले मजा मार ले गए! पता नहीं चुनाव आयोग वाला एंटी रोमियो स्क्वाड कहाँ रह गया। 

           वैसे यह ईवीएम तो बड़ी चतुर-सुजान निकली! या हो न हो, यह भी छेड़खानी करने वालों की चालाकी में फँसकर उन्हें कुछ न बोलती हो! लेकिन वहीं पर, भुग्गापन दिखाने वाले को बेरहमी से चांटा जड़ देती है। और बेचारा चांटा खाने वाला मारे शर्म के कुछ न बोलकर, यही सोचता होगा कि एक सीधे-सादे नियम-कायदा मानने वाले को छेड़खानी किए बिना ही चांटा पड़ गया..! वाकई, इस देश में सीधे-सादे लोगों की हालत "सिधुवा का मुँह कुकुर चाटे" जैसा है कि बेचारा चांटा-फांटा खाकर भी कुछ नहीं बोल पाता। यह बात इस कहानी से कुछ मिलती-जुलती सी है, 

            "एक सँकरी गली से गुजरते किसी लड़के को सामने से एक बेचारी इवीएम टाइप की लड़की आती हुई दिखाई पड़ी। अब गली सँकरी तो सँकरी! इस सँकरी गली में दाएँ-बाएँ चलने का नियम तो लागू नहीं हो सकता! सो, यह सोचते हुए लड़का दाएँ होता है कि बेचारी लड़की उसके बाएँ से निकल लेगी। लेकिन जैसे लड़के ने सोचा वैसे ही लड़की ने भी सोच लिया और दोनों आमने-सामने आ गए। फिर लड़का बाएँ हुआ तो लड़की भी अपनी सोच के मुताबिक अपने दाएँ हुई, फिर तो दोनों आमने-सामने!  इस दाएँ-बाएँ के चक्कर में लड़के के गाल पर लड़की का एक जोरदार चांटा रशीद हो चुका था। मतलब लड़के को अपने भुग्गेपने में छेड़खानी के आरोप में लड़की से चांटा खाना पड़ा। और लड़की से चांटा खाकर मनमसोस कर लड़के ने यही सोचा होगा "जरूर पहले किसी ने इसके साथ छेड़खानी की होगी तभी अति सावधानी में इसने चांटा जड़ा।" 

           अब इतना जरूर होता है चांटा खाकर तिलमिलाए हुए वह लड़का अपनी सफाई में उस लड़की के बारे में "जितनी मुँह उतनी टाइप की बातें" कर उसमें मीन-मेख निकालने की कोशिश कर सकता है। यह प्रवृत्ति अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में यहां मने अपने देश में खूब काम अाती है।

           लेकिन, अगर लड़की किसी ताकतवर कुनबे से हुई, तो चांटा खाने वाले लड़के की शिकायत अनसुनी ही रह जाती है और उसके स्वयं के सभ्य होने की दुहाई भी व्यर्थ चली जाती है। लड़की का चुनाव आयोग जैसा ताकतवर कुनबा लड़के को भली-भांति समझाइश देकर वापस पठा देगा कि "भई हमने तो लड़की में इवीएम जैसा सांस्कारिक साफ्टवेयर भरा हुआ है..देख तू ही अपनी लाइन सीधी रख...कभी दाँए तो कभी बाँए के चक्कर में पड़कर तू ही गलतफहमी पैदा करता है...फिर तो चांटा खाएगा ही..! और दोष इवीएम जैसी हमारी लड़की को देगा! जाओ सुधार करो अपने में..!!"  

              हाँ तो, चाहे लड़की हो या इवीएम, इस देश की यही रवायत है, जो अपनी बात पर दृढ़ता से कायम होते हैं, उनमें ही जानबूझकर नुक्स निकाला जाता है और उन्हें ही, जितनी मुँह उतनी बातें कह कर समाज-बहिष्कृत होने का दंश झेलाया जाता है। लेकिन जनता अब धीरे-धीरे होशियार हो रही है, किसी बात पर स्टैंड लेने वाले को ही वह चरित्रवान समझती है। कभी दाँए कभी बाँए चलने वाले को जनता भुग्गा मानती है, और उसे अपने भुग्गेपन का खामियाजा चांटा खाकर भुगतना पड़ता है। मतलब, अब जमाना एडवांस हो चुका है, छेड़खानी को सभ्यता का अंग माना जाने लगा है, मार तो भुग्गेपने की वजह से पड़ती है। 

रविवार, 3 दिसंबर 2017

काश! कि हम बे-इतिहासी होते!

             उन्होंने कहा हम अपना इतिहास लिए फिरते हैं, समझे! मैंने देखा जैसे वे अपने इतिहास के दम पर कूद-फाँद रहे थे। मैंने सोचा! भाई, इतिहास में बड़ा दम होता है। फिर थोड़ी देर में उनका इतिहास उनके सिर पर चढ़ कर बोलने लगा था। तत्क्रम में मूँछों पर ताव देते हुए वे बोले, "हम इतिहास बदल देने वाले लोगों में से हैं।" मैंने कहा, "किसका इतिहास बदल देगें? अपना या दूसरे का?" उन्होंने कहा, "उनका, जो हमारा इतिहास बदलने की सोचते हैं"  इस पर मैंने हिम्मत जुटाते हुए, उनकी मूँछों पर हाथ फेरते हुए उसकी नोक थोड़ा झुकाते हुए कहा, "यार! अब इसका जमाना नहीं रहा, इन नुकीली खड़ी-तनी मूँछों को लोग जोकरई मानेंगे...इसपर ताव देना बंद करिए।" खैर, वो मेरे मित्र थे, मेरे ऊपर भड़के नहीं। इधर मैं सोच रहा था, न जाने कहाँ से इनपर इतिहास का भूत सवार हो जाता है, वैसे तो हमारे साथ खेलेंगे-कूदेंगे टाइप का खूब गपियाएंगे, लेकिन मूँछ की बात पर अपना इतिहास याद दिलाने लगते हैं, गोया हम बे-इतिहासी हों। 
             
           मूँछ भी इस देश के लिए समस्या है ! इसके चक्कर में इतिहास, इतिहास नहीं रह गया, बल्कि इसे धर्म मान लिया गया है। यह यहीं है कि इतिहास के बिना पर कुछ लोग अपनी मूँछों पर इतराते हैं, और बे-इतिहासी बेचारे बे-कद्री झेलते हैं! 
       
          अपने देश के लोगों के इतिहास में ऐसी असमानता कि बे-इतिहास वाले जहाँ-तहाँ इतिहासवालों के सामने अपना सा मुँह लेकर, मुँह लटकाए बैठे दिखाई दे जाते हैं, जैसे एक बार मैं जब जमींदारी वाले इतिहास के सामने मुँह लटकाए था, तो मेरे दादा जी मेरा मनोभाव ताड़ गए थे और मुझे बताए कि उनके पिता यानी मेरे परदादा ने भी किसी गाँव में चार आने की जमींदारी खरीदी थी। फिर मैंने भी अपने इतिहास को उस जमींदारी वाले इतिहास के सामने उसके टक्कर में खड़ा कर दिया था। मतलब इधर इतिहास से इतिहास के भिड़न्त की प्रवृत्ति खूब विकसित हुई है। 
              खैर, बाद में बे-इतिहास वालों को भी देश के इतिहास पर गर्व करने की सीख दी गई। लेकिन वर्तमान में इतिहास की इस नोचा-चोंथी में सब अपने-अपने हिस्से का इतिहास लेकर भाग खड़ा होना चाहते हैं। ऐसे में बे-इतिहासी बेचारे गर्व करें तो किस पर गर्व करेंगे ! जब देश का कोई इतिहास ही नहीं बचेगा!! वैसे भी, इतिहास केवल वर्चस्ववादियों का ही होता है, जो जितना वर्चस्वशाली उसका उतना ही तगड़ा इतिहास होता है ! यही इतिहास बनाते हैं, बाकी तो इसे पढ़ते भर हैं। लेकिन सब की आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने वाले भारतभूमि में इतिहास-लेखन की परम्परा नहीं रही है। इसीलिए चारण-भाट टाइप का इतिहास लेखन मिले तो मिले लेकिन हेरोडोटस, अलबरूनी वाला इतिहास-लेखन नहीं मिलेगा। शायद तब के जड़ भरत टाइप के भारतीय मनीषी यहाँ की वर्चस्ववादी वितंडावाद को आमजन के लिए अनावश्यक समझ चुके थे, इसीलिए इतिहास-लेखन में हाथ नहीं अजमाए होंगे। 
             यहाँ की जनता जैसे इतिहास में थी वैसे आज भी है। पाँच हजार वर्ष का इतिहास आज भी बदस्तूर जारी है। आजादी की लड़ाई के समय को छोड़ दें तो ये वर्चस्ववादी, जनता को इतिहास में ही ढकेलते रहते हैं। बानगी देखिए! एक ओर एक "माँ" झांसी की रानी आजादी की लड़ाई में "मर्दानी" बनती है, तो दूसरी ओर बिन बच्चे की "पद्मावती" को आज आजादी के बाद "माँ" घोषित किया जा रहा है! मतलब "मर्दानी" पर यह "माँ" भारी है! ऐसी स्थिति में इस आजाद मुल्क में स्वामी दयानंद जी का समाज सुधार भी परवान न चढ़ता, फिर तो गुलामी ही बेहतर होती। ये इतिहास के रखवाले! जौहर-व्रत करने वाले दल के साथ पद्मावती के हाथ में तलवार पकड़ाते तो बाद में एक "माँ" को "मर्दानी" न बनना पड़ता। 
          इस देश के ऐसे दुविधा भरे इतिहास से बेहतर तो यही होगा कि यहाँ का इतिहास कम से कम इतिहास ही बनता रहे, क्योंकि तब किसी की नाक-कान और गर्दन सलामत रहेगी! इसे धर्म बनते देख यही लगता है, काश! कि हमारा देश, बे-इतिहासी देश ही होता! आखिर, आज की दुनियाँ का सिरमौर देश भी तो एक बे-इतिहासी देश रहा है! उसे बनाने वाले भी अपना इतिहास जहाँ का तहाँ छोड़ कर वहाँ आए हैं।

अथ् श्री सीडी-पुराण कथा

            मैं गुस्से से हार्ड-कापी को अपनी टेबल के किनारे सरकाते हुए बिफर पड़ा था। मेरे बिफरने की बात और कुछ नहीं केवल इस हार्ड कापी की सीडी का न मिलना था। हार्ड कापी मेरे सामने थी, लेकिन इसकी सीडी नहीं थी। असल में आजकल सब कुछ डिजिटल हो चुका है, अब हार्ड नहीं साफ्ट की जरूरत होती है, जो पल भर में सीडी से कम्प्यूटर और फिर इंटरनेट की दुनियाँ में पहुँच जाती है। लेकिन कुछ सीडी ऐसी भी होती है जिसकी हार्डकापी बन ही नहीं सकती। वह केवल वायरल की जा सकती है। ऐसी सीडी किसी खास परिस्थिति या क्षण में ही बनती है, जिसका रिक्रियेशन दुबारा संभव नहीं होता जैसे कि उस दिन मेरी बस-यात्रा की बातें थी। 
            उस दिन की बस-यात्रा में कंडक्टर और एक यात्री के बीच होती बहस का स्टिंग कर मोबाइल पर रिकार्ड कर सीडी न बना पाने का मलाल रह गया था। और अगर इस बहस जैसी छोटी घटना का स्टिंग कर पाता तो कैसी सीडी बनती जरा आप भी देखिए - 
            परिवहन विभाग का उड़नदस्ता बस की जाँच कर उतर चुका था और बस चल चुकी थी तथा कंडक्टर बस में यात्रियों की गिनती कर रहा होता है, तभी एक यात्री कंडक्टर से पूँछ बैठता है, 
            यात्री - "कंडक्टर साहब, बस चारबाग तो जाएगी न?" 
            कंडक्टर - "हाँ" 
            यात्री - बस आगे पॉलिटेक्निक चौराहे से ही तो होकर गोरखपुर जाएगी न ?
            कंडक्टर - हाँ, पॉलिटेक्निक चौराहे से ही होकर जाएगी। 
            यात्री - पॉलिटेक्निक चौराहे पर हमें उतार दीजिएगा। 
            कंडक्टर - आपका टिकट चारबाग तक का है, आपको आगे नहीं ले जा सकते। चारबाग में ही उतर लीजियेगा। बस चेक हो जाने पर एक सौ दो रूपए का टिकट कट जाएगा। हम नहीं ले जा सकते। 
             यात्री - अरे, शहर के अन्दर की ही तो बात है.. कौन मिल जाएगा! कोई नहीं मिलेगा। 
             कंडक्टर - देखा नहीं, यहाँ पर गाड़ी चेक हो गई!  हम नहीं ले जा पाएंगे। 
              इस पर यात्री हाथ में मोबाइल लेकर किसी को नंबर मिलाने का दिखावा करते हुए कंडक्टर से कहता है- 
             यात्री - सुनो कंडक्टर, तुम्हारा महाप्रबंधक हमें जानता है.. फलाने ही हैं न, लो अभी मैं बात कराए देता हूँ.. 
               कंडक्टर उस यात्री को ध्यान से देख रहा है! इस बीच यात्री फिर कहता है -
          "अच्छा तुम्हारे विभाग में वित्तीय अधिकारी फला हैं न, उनसे तुम्हारी बात करा देता हूँ... तुम्हारे विभाग में हमें सब जानते हैं।"
          इधर कंडक्टर के ऊपर यात्री का बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था, वह भी यात्री की बातों की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गया था।           यह हुई यात्री और कंडक्टर के बीच के वार्तालाप का घटनाक्रम जो मेरे स्टिंग में सीडी में रिकार्ड हो जाती। 
           खैर, मान लीजिए उस यात्री को, परिवहन निगम विभाग की बसों का ब्रांड एम्बेसडर चुनना होता, तो उसके विरोधी इस सीडी को वायरल कर उसे परिवहन निगम को चूना लगाने वाला घोषित करा कर अपना उल्लू सीधा कर लेते। 
           
           अब आते हैं एक दूसरी सीडी पर, यह सीडी भी, अगर अपने स्टिंग कौशल से इसे बना पाता, जो मेरी बस-यात्रा से ही जुड़ी है, तो कुछ इस प्रकार की होती। इसे चालू करते हैं, आप इसके दृश्य पर अपना दृष्टिपात करिए -
       
          दृश्य - एक व्यक्ति बस में अनायास भद्दी-भद्दी गालियाँ बके जा रहा था। शायद वह नशे में था। बस में महिलाएँ भी सवार थीं। उसकी गालियों के कारण बस में बैठे लोग बहुत असहज हो रहे थे, फिर भी कोई उसे रोक नहीं रहा था। अंत में जब मुझसे नहीं रहा गया तो, उसे डाट कर पुलिस बुलाने की धमकी दी और चुप रहने की बात कही। फिर वह चुप हुआ था। बाद में, बस से उतरते हुए मेरी ओर देखते हुए उसने कहा, "मैं भी पुलिस हूँ...समझे।"
          उसकी बात पर मैंने यही सोचा, "कभी, जब इसे पुलिस-पदक मिलना होता, तो इसे मजा चखाने के लिए मैं आज की बनाई इसकी सीडी लीक कर देता" अपने किए पर शर्मिंदा होता ही और पदक से भी हाथ धोता। आखिर, हम शर्मिंदा तभी होते हैं जब दूसरे हमें आईना दिखाते हैं। 
             खैर, इन दोनों घटनाओं के पात्रों के प्रति मुझे कोई ऐसा अंदेशा नहीं था कि ये भविष्य के नायक बन सकते हैं अन्यथा इनकी सीडी बनाता और इस सीडी का व्यापार भी करता।
             
           एक बात और, उस दिन बस में घटित इन बातों के और भी प्रत्यक्षदर्शी थे, लेकिन वे सभी खामोश और प्रतिक्रियाविहीन थे। फिर भी, मैं जानता हूँ, यदि इन घटनाओं की सीडी रिलीज होती, तो यही तत्समय के खामोश और घटना के प्रति उदासीन लोग देश भर के नियम-कानून के ठेकेदार बने हुए इन व्यक्तियों को जरूर कोसते और इनके विरुद्ध माहौल बनाते। हम तो कहेंगे अब सरकार को सबकी सीडी के बारे में जानकारी लेनी चाहिए, मल्लब चुप रहने और शेखी बघारने वाले की भी। 
         इस देश में सभ्यता के नए चलन में किसी का काम नहीं, उसकी सीडी देखी जाती है! इसीलिए किसी व्यक्ति के काम से जले-भुने लोग उसकी सीडी ही ढूँढ़ते हैं और उस बेचारे की सीडी मिली नहीं कि एक मच्छर सारे तालाब को गंदा कर देता है टाइप से, एक सीडी उसके सब किए कराए पर पानी फेर देती है। हमारे देश में चीजों पर बहुत लोचा और नाइंसाफी है। किसी जज ने कभी सही कहा था, इस देश की जनता मूर्ख है। वाकई! जनता की मूर्खता के कारण ही अपने देश में आज भी तमाम टाइप की असमानता विद्यमान है, और कोढ़ में खाज की भाँति यह सीडी-पुराण भी इसमें खुजली की तरह है। लोग देश विकास की जगह सीडी-विकास में लगे पड़े हैं। यहाँ अच्छे-भले नई उर्जा वाले ऊर्जाहीन, और बिना कुछ किए धरे उर्जाहीन जैसे लोग उर्जावान हो रहे हैं। 
           अब जब सीडी की इतनी ही चर्चा और महत्व है, तो सरकार को भी चाहिए कि सबसे, बिना भेदभाव के, लोकतांत्रिक समानता के उद्देश्य से, किसी भी चयन प्रक्रिया, मतलब नेता से लेकर संत्री तक के प्रतिभागी से, उसकी सीडी के बारे में अवश्य पूँछा जाए। और, योग्यता के मानक निर्धारण की प्रश्नावली में एक नया प्रश्न, संलग्न नोट के साथ, इस तरह का भी होना चाहिए - 
        "प्रश्न - आपकी कोई ऐसी सीडी तो नहीं है जिसकी हार्डकापी न बनाई जा सके और, जो केवल वायरल हो सके? उत्तर केवल "हाँ" या "ना" में दें।
          नोट - उत्तर देने में प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। भविष्य में सीडी मिलने की दशा में निम्न परिणाम होंगे - "नहीं" उत्तर देने वाला प्रतिभागी अयोग्य माना जाएगा। जबकि "है" उत्तर देने वाला प्रतिभागी योग्य बना रहेगा। अयोग्य माने जाने पर उम्मीदवारी या चयन स्वतः निरस्त समझा जाएगा।"
          अब देखिएगा! नेता से लेकर संत्री तक के उम्मीदवार अपनी-अपनी सीडी होना स्वीकार कर लेंगे। सभी लोग इस प्रश्न का उत्तर "है" ही में देंगे! मतलब "हमाम में सब नंगे" वाली दशा प्रमाणित होगी। क्योंकि, क्या पता जाने-अनजाने, यदि कहीं से किसी की सीडी निकल आई तो उम्मीदवारी या सेलेक्शन से भी हाथ धोना पड़ सकता है !! हाँ इस देश के लोगों का यही हाल है। 
        
          ऐसी स्थिति का एक फायदा यह होगा कि जनता को सीडी-पुराण की झंझट से मुक्ति मिलेगी। 
         
        तो, यही है सीडी-पुराण की कथा! जिस सीडी से हार्डकापी न बन सके वही सीडी-पुराण है और उसी की कथा वायरल भी होती है, यह वायरल सीडी इंटरनेट पर आसानी से मिल जाती है। अब समय आ गया है कि अपने देश में लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए सभी नेता से लेकर संत्री तक की सीडी बना हुआ मान लिया जाए। अन्यथा बड़ा अन्याय होगा। 
             अथ् श्री सीडी-पुराण कथा। 

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

विकास की बुकलेट

      आजकल लिखने बैठता हूँ तो मन थका-थका सा अलसियाया हुआ होता है और इस चक्कर में नहीं लिखता हूँ तो, ऐसा लगता है जैसे कोई महान साहित्य रचे जाने से रह गया हो! अब अगर महान साहित्य रचे जाने से रह जा रहा हो, तो फेसबुक पर रहना ही बेकार है। सो, मानसिक आलस्य के कारण और इसके निवारण पर मन को यह सोचकर रोजगार देने की सोची; नहीं तो, फेसबुक की टाइमलाईन यूँ ही आलस्य के भेंट चढ़ती रहेगी!!
        अब आलस आया कहाँ से? पहले मन को इसी खोज पर लगाया। असल में इधर हो क्या रहा है कि इतने विकास कार्यों के बुकलेट बनावाने पड़ रहे हैं; और इस महती विकास कार्य ने बेचारे एक अदद मन को यूजलेस टाइप का बना दिया है कि, इस चक्कर में खाली-खाली पड़े यह मन अलसिया गया है। हाँ वाकई! विकास कार्य कराने से अधिक उसका बुकलेट बनाना कठिन है। अगर यह विकास-पुस्तिका बन जाए, तो समझिए कि विकास-कार्य सफलता से संपन्न हो चुका है। मुझे आज भी याद है, एक बड़े साहब थे, एक बार ऐसे ही जब एक विकास-पुस्तिका पलट भये तो, उस बुकलेट को आहिस्ता से बंंद करते हुए बोले थे, "चलिए हो गया विकास.." तब से यही लगता है कि जितने करीने से सजी-सँवरी विकास की बुकलेट होगी वैसा ही मनमोहक विकास होगा। कथन का निहितार्थ यह कि विकास की असली जगह विकास-पुस्तिका में ही होती है। इसीलिए रात-दिन अब विकास- पुस्तिका बनाने में ही गुजरता रहता है, ऐसे सिचुएशन में मन को भटकने के लिए कोई रास्ता नहीं होता।
          
       हाँ,  विकास-पुस्तिका तैयार करना माथापच्ची का भी काम होता है, अगर इसमें तनिक भी चूक हुई तो गए काम से! नहीं कुछ तो, खटिया तो खड़ी ही हो सकती है, इसीलिए इसे बनाने में बहुत दिमाग लगाना पड़ता है। एक बार ऐसे ही एक विकास-पुस्तिका बनवा रहा था.. जिसमें सारा कुछ विकास ओके टाइप का था, लेकिन न जाने कहाँ से एक मैला-कुचैला आदमी टपक पड़ा और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ाते हुए बोला, "साहब लेव...अभी तक हमारा विकास नहीं हुआ.. सुनवाई करउ" मैंने उसके दिए पुर्जे को पढ़ा...फिर गुस्से से उसकी ओर देखा, मन हुआ कि उससे कह दें, "अबे, विकास कोनउ बुलेट ट्रेन है,जो चली नहीं कि तुम तक पहुँच गई..! अरे, यह चली है, तो तुम तक पहुँचेगी ही..! पुर्जा देने से थोड़ी न पहुँच जाएगी..!!" खैर, मेरीे तमतमाहट भाँप वह बेचारा चला तो गया, लेकिन बुकलेट बनवाने का काम मुझे ठप्प करना पड़ा, अब विकास में हुए इस लैकनेश का उत्तर भी मुझे विकास की बुकलेट में देना था! मतलब विकास-पुस्तिका में कई बार ऐसे प्रश्नों के सटीक उत्तर देने होते हैं, जिसमें सब काम-धाम छोडकर लगना पड़ता है! और, तब कहीं जाकर विकास कार्यों की समीक्षा कराने के लायक एक अदद विकास-पुस्तिका तैयार होती है। मतलब विकास से ज्यादा विकास की एक अदद बुकलेट महत्वपूर्ण है।
          तो, इस चक्कर में ही मन थककर आलसी हो चला है...फेसबुक पर श्रेष्ठ साहित्य रचने के लिए तैयार ही नहीं होता!! अब मन को समझाना पड़ेगा...लिखो, लिखा हुआ अपने-आप साहित्य बन जाता है, जैसे विकास के लेखे से विकास हो जाता है।

खूँटा और विकास

            मेरी समस्या बड़ी अजीब है! वह यह कि विकास कराने और इसकी देखभाल करने वालों के हत्थे चढ़ चुके विकास को क्या कहूँ? मेरे लिए विकास अदृश्य टाइप की चीज नहीं है। कुछ लोग विकास को दुधारू गाय की तरह मानते हैं, ऐसा मैंने लोगों को कहते सुना है और इसी बात पर मुझे अपने बचपन की एक बात याद आती है।
         
           बात मेरे बचपन की है, तब विकास-उकास से मैं नासमझ था, अपने गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाना शुरू ही किया था। उन दिनों मेरे घर में एक गाय हुआ करती थी और शायद गौसेवा के नाम पर वह खूँटे से बँधी रहती थी। कभी कभार जब वह खूँटा तुड़ाकर स्वतंत्र विचरण करना चाहती, तो मेरे बाबा दौड़ाकर उसे पकड़ते और खूँटे से बाँधने के बाद अपने सोंटे से उसकी खूब धुनाई करते। छटांक भर दूध देने वाली वह गाय, ऊपर से दूध दुहते समय लात भी चला देती थी। इस पर भी उसकी धुनाई होती और उस पर पड़ते प्रत्येक सोंटे के वार के साथ बाबा के मुँह से "ही-है" का ठेक निकलता। खैर, उस गाय का दुधारू न होना भी उसमें एक खोट था। तब ज्यादातर देशी गायें इसी तरह की होती थीं; यह तो, अब जाकर विदेशी नस्ल का प्रचार हुआ है और इन विदेशी नस्ल की गायों को पिटते हुए मैंने कभी नहीं देखा है।  
            वैसे तो, आजकल देशी गायों की नस्ल-सुधार का जमाना है और अब इनसे दूध भी बाल्टी भर-भर कर दुहा जाने लगा है। दूध देती इन गायों का स्वयं दूध पिया जाता है तथा मार्केट में भी बेंचा जाता है और विकास का भरपूर एहसास किया जाता है! जो ऐसा नहीं कर पाते उनकी नजरों से विकास ओझल टाइप का होता है। हम अपने शुद्ध देशी टाइप के विकास को, शुद्ध देशी गाय की तरह अब या तो उसे गो-रक्षा दल के हवाले कर धर्मानुभूति करते हैं या फिर इसे बहेतू या अन्ना पशु की तरह लावारिस विचरण करने के लिए छोड़ देते हैं।
           कुल मिलाकर अब अपने देश की आबोहवा बदल चुकी है विकास का मतलब व्यापार, जिससे नोट और वोट दोनों मिलते हों। इसीलिए विकास की खींच-तान बहुत मची हुई है। हर कोई विकास को डंडे के बल पर अपने ही खूँटे से बाँधना चाहता है, खूँटा तुड़ाया नहीं कि डंडा लेकर अपने-अपने तरीके से लोग इस पर पिल पड़ते हैं, या फिर डंडे के बल पर इसे दौड़ाने लगते हैं। अंत में मेरा-तेरा से शुरू होकर विकास की छीछालेदर हो चुकी होती है। अब इसके बाद भी चैन नहीं पड़ता तो, विकास को पगलाया हुआ घोषित कर दिया जाता है। तात्पर्य यह कि, जो विकास को अपने खूँटे से बाँधने में सफल नहीं होता वही विकास के बारे में अनाप-शनाप बोल रहा है। यह बेचारा विकास इस चक्कर में अब राजनीतिक-पशु की तरह हो चला है। इसीलिए विकास को जब भी देखता हूँ, इस छीछालेदर के बीच खूँटे से बँधे इसे हांफते हुए ही देखता हूँ।
           जनता की तो कुछ पूँछो मत, उसे फ्री में विकास नहीं मिलता इसके लिए उसे वोट की कीमत चुकानी पड़ती है, और चुनाव दर चुनाव विकास के खूँटा-बदल में ही भ्रमित होती रहती है। उसके लिए तो खूँटा-बदल ही विकास है। एक बार विकास को लेकर मैं जनता को इसकी असलियत समझाने के चक्कर में पड़ गया कि विकास क्या चीज होती है, इसे समझो! इस चक्कर में मैंने विकास को उसकी सही जगह दिखाने की कोशिश की, तो ऊँचे स्थान पर विराजे ऊँची कुर्सी वाले ने मेरे इस प्रयास को "कुत्सित-प्रयास" कह डाला! मैं डर गया, मैंने समझ लिया, "भइया जो चल रहा है उसी को विकास मान लो, इसमें अपनी टांग मत अड़ाओ!!" और मैंने यही समझा कि, विकास को लेकर ज्यादा "ही-है..ही-है" नहीं करना चाहिए नहीं तो, इसे हिंसक कृत्य मानते हुए ऐसा करने वाले को ही विकास से वंचित कर दिया जाता है।

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

बांध-संस्कृति

        "बंधवा पर महवीर विराजै" बचपन में जब इसे सुना था तब तक बांध से परिचित भी नहीं हो पाया था! इसी दौरान उपमन्यु वाली कहानी जरूर पढ़ी थी और जाना था कि, छोटी सी कोई "बंधी" पानी रोकने के भी काम आती है और ऐसी बंधियों की कितनी जरूरत होती है इसका अहसास उपमन्यु की कथा पढ़कर हो गया था! वाकई!  तब ये छोटी-छोटी बंधियाँ एकदम समाजवाद टाइप की होती होंगी। 
          इसके बाद उस "महवीर" वाले "बँधवा" से परिचित हुआ था! वो क्या कि मैंने सुना था, सन अठहत्तर के बाढ़ में इलाहाबाद में गंगा के बढ़ते जलस्तर को देखकर किसी बड़े इंजिनियर ने इलाहाबाद के डी एम साहब को उसी बाँधवा को काटने का सलाह दिया था कि, इससे बाढ़ का पानी फैल जाएगा और जलस्तर घट जाएगा.. लेकिन डी एम साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि "भइ, अगर बाढ़ के कारण बाँध को कटना ही है तो वह वैसे भी कट जाएगा..इसे काटने की जरूरत नहीं.." खैर, इसके बाद गंगा का जलस्तर घटना शुरू हो गया था और "बँधवा" कटने से बच गया था..!  मतलब ऐसे होते हैं हमारे बड़े-बड़े इंजीनियर और इनकी सलाह!! इसी तरह की सलाहों से बड़े-बड़े बाँध बनाए जाते होंगे।
          हाँ, अब तक तो अच्छी तरह से बांधों से परिचित हो चुका हूँ..इनमें रुके पानी से अपन गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से ऊँचाई से टारबाइन पर गिरते पानी से बिजली बनते हुए जाना है। गुरुत्वाकर्षण-बल ही वह कारण है जिससे कोई भी ऊपर की चीज नीचे चली आती है। यह सहज गति है, प्राकृतिक गति है। हमारी जनता-जनार्दन प्रत्येक पाँच वर्ष बाद कुछ लोगों को पलायन-वेग की गति से ऊपर प्रक्षेपित कर देती है। ये नीचे से ऊपर स्थापित हुए लोग गुरुत्व-बल के विरोधी बन जाते हैं और चीजों पर लगने वाला गुरुत्वाकर्षण-बल धरा का धरा रह जाता है। यही ऊपर पहुँचे हुए लोग नीचे वालों के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाते हैं और उसमें फाटक भी लगाए होते हैं तथा चीजों को नीचे आने के लिए अपने मनमाफिक ढंग से फाटक को खोलते और बंद करते हैं..! तदनुसार ही नीचे वाले हरा-भरा और सुखी होते रहते हैं। मतलब, अगर आप को भी बांध से परिचित होना है तो गुरुत्वाकर्षण के विरोधी बनिए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में घुसकर देखिए, नीचे से पलायित होइए...पता चल जाएगा!! 
     
          इधर अपन भी बाँधों के आसपास घूमकर जायजा ले चुके हैं.. वह क्या कि इन बाँधों के आसपास खूब हरियाली रहती है...इस हरियाली को देखकर मेरा भी मन "लकदक" हो जाता है! मेरा मानना है कि बाँध से दूर वाले इस सब्जबाग को देखकर अपना भी मन लकदक कर लेते होंगे, तभी तो अपने देश में "बाँध-संस्कृति" चल पड़ी है! यह "बाँध" बनाना इसलिए भी जरूरी है कि, इस पृथ्वी पर जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी है, वैसे-वैसे पूंजीवाद भी बढ़ता गया है और छीनाझपटी शुरू हो गई, परिणामस्वरूप अब "मेड़बंधी" से काम चलने वाला नहीं है। इस पूँजीवादी जमाने में मेड़बंधी तो समाजवादी प्रवृत्ति है, इसका त्याग कर बड़े बाँध वाली संस्कृति अपनाना अब अपरिहार्य हो चुका है। 
         ये बड़े बाँध हमें प्रतिकूल परिस्थिति में सुरक्षा का वैसे ही भरोसा देते हैं जैसे कि, जनता से अर्जित ताकत के बल पर ऊपर जाता गुरुत्व-बल का विरोधी कोई नेता नीचे वालों को आश्वासन देता है! इस बाँध-संस्कृति ने जनसंख्या-वृद्धि और समाजवाद के आपस के व्युत्क्रमानुपाती संबंध का खूब फायदा उठाया, जिसमें आदमी का विस्थापन होता है। तो, यहाँ हर व्यक्ति दूसरे को विस्थापित कर अपने लिए बाँध बनाकर उस पर फाटक लगाए बैठा है!

ब्राह्मणवाद

       उस दिन एक नए ज्ञान की प्राप्ति हुई थी...वह इस प्रकार है. एक बात तो है, जो ग्यानी-ध्यानी होते हैं लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं। अब ग्यानी-ध्यानी कौन होता है? यह वह शख्स होता है जो सामनेवाले का कर्म-अकर्म और उसकी छल-छद्म जानने की शक्ति रखता है। इस शक्ति को वह अपने चिंतन-मनन और अनुभव से अर्जित कर लेता है, और यह तभी संभव होता है जब उसे करने को कुछ न हो। धीरे-धीरे ऐसे ही ग्यानी-ध्यानी को "ब्राह्मण" से नवाजा गया और ये समाज में सम्मान के पात्र और पूजनीय हुए। खैर..यहाँ मतलब किसी जाति से नहीं है और जाति वाले इसे दिल पर भी नहीं लेंगे। 
  1.             अब समाज में हर तरह के लोग तो होते ही हैं तो, प्राचीन काल से ही हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं, जो अपने कर्म-अकर्म या छल-छद्म से अर्जित शक्ति के बल पर आमजन पर अपनी मनमानियाँ थोपते आए हैं। अपने यहाँ का आमजन निरा बेवकूफ जो ठहरा! वह ऐसी मनमानियों को डर वश कभी अपनी नियति माना तो कभी अपने कर्मों का फल और फिर सब कुछ सहता रहा। असल में हुआ यह कि यह ज्ञानी-ध्यानी "ब्राह्मण"  सदैव सम्मान का भूखा रहा है जैसा कि अकसर ज्ञानियों की आदत में होता है कि, जब तक इनका यथोचित सम्मान न हो जाए तब तक इन्हें अपने ज्ञानी होने का अहसास भी नहीं होता और इस प्रकार ये सदैव अपने ज्ञान का ही अहसास करते रहना चाहते हैं..! 
  2.             हाँ तो, अकर्मी-विकर्मी या छल-छद्मी की मनमानियों का शिकार आमजन, इन ज्ञानियों या कहें "ब्राह्मणों" की ओर, अपने ऊपर होते इन मनमानियों से त्राण पाने के लिए देखा भी होगा...लेकिन हुआ क्या..? हुआ यह कि, ये महाशय ज्ञानी-ध्यानी सम्मान के भूखे "ब्राह्मण" सम्मान पर बिक गए..क्योंकि अकर्मी-विकर्मी या छल-छद्मी जैसे लोग इन ज्ञानियों को विधिवत किसी आसन पर आसीन करा इनके पाँव पखारते हुए थाल में रोली-चंदन-अक्षत सजाकर चढ़ावे के साथ इनके माथे पर टीका लगाने लगे... और फिर इन ज्ञानियों का ज्ञान आशिर्वाद बन कर इन अकर्मी-विकर्मी और छल-छद्मियों पर ही फूटता रहा तथा यहीं पर इस सम्मान के समक्ष इनका ज्ञान मौन होता रहा। उधर मनमानियों के शिकार आमजन ऐसे "ब्राह्मणों" के ज्ञान से ठगे जाते रहे।
  3.            हाँ, होना तो यह चाहिए था कि इन ज्ञानी-ध्यानी "ब्राह्मणों" को अपने ज्ञान-शक्ति को, अकर्मी-विकर्मी तथा छल-छद्मियों की मनमानियों के शिकार लोगों के हाथों में हथियार बनाकर पकड़ा देना चाहिए था...लेकिन जो नहीं हुआ, बल्कि ये अपने "पूजनीयपने" में ही मस्त हो गए..! यही तो हुआ "ब्राह्मणवाद"..!!!
  4.           मतलब "ब्राह्मणवाद" और कुछ नहीं, बस किसी अत्याचारी-अनाचारी और छल-छद्मी की करतूतों को उजागर न कर उससे चढ़ावे के साथ अपने माथे पर रोली-चंदन-अक्षत का टीका लगवा लेना और इस सम्मान से गद्गद होकर उल्टे उसे ही आशिर्वाद देकर निर्भय बना देना है। 
  5.            मित्रों! इस "ब्राह्मणवाद" को किसी जाति-धर्म तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए...यह प्रवृत्ति किसी भी समाज, संस्था या तंन्त्र में दिखाई पड़ सकता है...यह "ब्राह्मणवाद" ही है जो रोली-चंदन-अक्षत और चढ़ावा ग्रहण कर सब को मौन बना देता है..! और किसी पिछड़े क्षेत्र में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से दिखाई पड़ती है। 
  6.            हाँ, एक बात और...जो "ब्राह्मणवाद" से प्रभावित नहीं होता मुखर होता है, उसके पग-पग पर काँटे बिछाये जाते हैं...कुछ कलम के सिपाही इसके शिकार हो जाते हैं और "ब्रह्मणवादी" लोग उन्हें अपने रास्ते से हटाने का प्रयास करते हैं। 
  7.               तो, अपने-अपने क्षेत्र के "ब्राह्मणवादियों" को पहचानिए...

रविवार, 24 सितंबर 2017

निजता के पैरोकार

           इस देश का गजबै हाल है..किसी की निजता उसे कहाँ से कहाँ ले जाकर खड़ी कर देती है..! हमको तो ई लगता है कि अपन का सुपरीम कोरट ई बात जानता है क्योंकि, उसे भी लगता है, जब हमारा संविधानइ जब व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की बात करता है तो, हम काहे इसमें रोड़ा बनें,  आखिर बिना निजता के व्यक्ति में स्वतंत्रता और गरिमा का प्रवेश हो ही नहीं सकता! तो, कोरट ने झट से निजता को मौलिक अधिकार मान लिया। मानो, अब अपनी गोपनीयता बरकरार रखते हुए खूब स्वतंत्र होकर अपने गरिमा में वृद्धि लाइए..! 
         लो भइया! अभी ये निजता के पैरोकार भाई लोग, खुशी भी नहीं मना पाए थे और निजता पर पहाड़ जैसा टूट पड़ा! ये बाबा लोग भी न, निजता का गुड़ गोबर किए दे रहे हैं..गोपनीयता बरतते-बरतते बाबा तो बन जाते हैं, लेकिन गोपनीयता भंग होने पर बवाली बन जाते हैं। इसका मतलब तो यही निकलता है कि, निजता के ये पैरोकार होते हैं बड़े बवाली..कोई माने या न माने...! शायद कोरट भी यह भांप चुकी है, इसीलिए एक तरफ निजता की चादर देती है तो, दूसरी तरफ चादर सरकने पर यह सरेआम नंगा कर जेल भिजवा देती है..!! मतलब अब आप कहीं यह न कह बैठो कि भाई, यह कोरट तो निजता की कोई इज्जत ही नहीं करती..!
          एक बात बताऊँ..लेकिन अवमानना के लिए क्षमाप्रार्थी होकर.. वह यह कि, उस दिन हमें अपनी न्यायपालिका पर बहुत गुस्सा आया था, निजता के पैरोकारों को उछलते देखकर..! तब मैंने यही सोचा था.. "निजता को मौलिक अधिकार बताकर, अब हमारी न्यायपालिका भी बाबागीरी पर उतर आई है" 
          लेकिन, अपनी न्यायपालिका तो बड़ी चतुर-सुजान निकली, है न?  बिल्कुल कान को घुमाकर पकड़नेवाली है! अगर निजता को मूलाधिकार न मानती तो, अपनी निजता की अक्षुण्णता के बल पर धुरंधर बनने वाले ये बड़े-बड़े लोग यही कहते, "भई, अपने देश में लोकतंत्र का हनन हो रहा है..देश अलोकतांत्रिक बना जा रहा है..न्यायपालिका कुछ कर ही नहीं रही।"
        हाँ, यही सब सोच-विचार कर न्यायपालिका ने कहा, "लो भाई! निजता में लिपटे हुए खूब लोकतांत्रिक बनो, लेकिन निजता हटते ही सलाखों के पीछे तुम्हारी स्वतंत्रता बैठ कर रोएगी भी" और यही कहते हुए कोरट ने बेचारे बाबा को रुला दिया..!! 
       मतलब भइया,  मैं तो कहुंगा, "निजता के ऐ पैरोकारों!  इस न्यायपालिका के झाँसे में मत आओ, नहीं तो निजता-फिजता के चक्कर में किसी दिन यह आपकी स्वतंत्रता भी छीन लेगी।" 
        भाई!  यह सबको पता है.. इस देश के अधिकांश लोग, निजता-विहीन लोग ही हैं...इनके घरों में जाइए तो इनके घरों के दरवाजे खुले मिलते हैं..साँकल भी नहीं चढ़ी होती..इनके चूल्हों तक झाँक लीजिए.. इनके पास छिपाने को कुछ नहीं है...ये बिना निजता के गरिमा-विहीन लोग होते हैं...इनकी स्वतंत्रता दूसरों के रहमोकरम पर निर्भर होती है..और वहीं ये निजता वाले गरिमावान लोग, इन बेचारों की गरिमा और स्वतंत्रता दोनों को खाए हुए बाबा या महामानव बने फिरते हैं..
          हाँ उस दिन निजता के पैरोकारों की खुशी देख मुझे बहुत दु:ख हुआ था...क्योंकि तब कोरट भी बाबागीरी पर मुहर लगाती प्रतीत हुई थी.. लेकिन नहीं, अब जाकर तसल्ली हुई है..आखिर, यह निजता बड़ी खतरनाक चीज है, जेल पहुँचा देती है..! कोरट तो निजता-विहीन लोगों का आदर करती है..!! 
         सुन रहे हो न, निजता के पैरोकारों..? 

रविवार, 20 अगस्त 2017

टेबल पर दौड़ता काम

          "आप तो, काम करते ही नहीं" बहुत पहले यह जुमला मेरे कानों में पड़ा था। तब मैं आश्चर्य से भर उठा था। क्योंकि इस वाक्य को सुनकर मैं सोच बैठा था, "अरे! यह कैसे हो गया कि मैं काम नहीं करता..? मुझे तो काम करने से तो फुर्सत ही नहीं मिलती...! फिर मुझे यह क्यों सुनाया जा रहा..?" असल में तब से बहुत वर्ष गुजर चुके हैं और इस दौरान यह जुमला मेरे कानों में कई बार टकराया..!
      
         इस जुमले को सुन-सुनकर अब मैं सोचने लगा हूँ कि "काम करना" किसको कहते हैं? और लोगों को कब लगता है कि कोई काम कर रहा है?  अतः अब मैं "काम करने की परिभाषा" पर अधिक मशक्कत करने लगा हूँ..और इसकी साधना के लिए वही स्थान चुनता हूँ जहाँ कोई "काम करना" न हो...
           एक बात और...मेरा अपना अनुभव कहता है...हमारे देश में काम के सिद्धिकरण की प्रक्रिया ही काम होता है और इस प्रक्रिया में काम करने वाला अपने सिद्धिकरण का दायित्व निभा-निभाकर बेलगाम घोड़े की भाँति उछल-कूद करते हुए बहुत खुश होता रहता है। इधर काम करने के पूरे सिस्टम में "वशीकरण-मंत्र" का बहुत जोर होता है... इस एक मंत्र के सहारे यह सारा सिस्टम शांतिपूर्ण और सिस्टमेटिक ढंग से काम के प्रवाह में प्रवाहमान होता रहता है। 
         असल में, शायद यही काम करने की मान्यता भी है..!  किसी छोटी सी टेबल पर काम का जन्म होता है, फिर कोई इसे काम का दर्जा देते हुए दूसरी टेबल पर बढ़ाता है...अगला उसे काम मानता है और इसे फिर थोड़े ऊँचे स्थान पर ठेल देता है, वहाँ इसे काम समझ लिया जाता है, यहीं से संस्तुत हुआ यह "काम" और ऊँचे टेबल पर पहुँचता है, कुछ दिनों तक यहाँ पड़े-पड़े यह अपने "काम" होने के गर्वोन्मत्त भाव से भरा रहता है...इसके बाद यह और हाईलेबल से अनुमोदित होकर इतरा उठता है...क्योंकि उसे "काम" होने की मान्यता प्राप्त हो जाती है!!
         अब जाकर इस काम को धरातल पर उतरना होता है, लेकिन नीचे से ऊपर आते-जाते लाल-फीते में बँधा यह काम, या तो अपनी भागा-दौड़ी में थका हुआ होता है या फिर काम मान लिए जाने की गर्वोन्मत्तता में इसे नीचे उतरना रास ही नहीं आता, या फिर यह नीचे आने की अपनी तौहीनी से बचना चाहता है ! खैर, इस मान्यता प्राप्त काम को लाल-फीते वाली उसी फाइल में रहकर आराम फरमाने का भूत सवार हो जाता है।
         और इधर काम करने के सिद्धिकरण पर सारा जोर लगना शुरू हो जाता है काम को दिखना भी तो चाहिए...! अब यहीं से काम के दिखने-दिखाने और करने, न करने का खेल शुरू होता है। इस खेल में "वशीकरण-मंत्र" की जरूरत पड़ती है, क्योंकि कौन काम कर रहा है कौन नहीं..इसे जाँचने और जँचवाने के लिए इसी मंत्र की जरूरत होती है... इस मंत्र में पारंगत होने वाले ही "काम करने वाले" होते हैं, जो इस मंत्र में पारंगत नहीं होते उन्हें "काम न करने वाले की" सिद्धि प्राप्त होती है, और उन्हें "काम न करने" का जुमला सुनाया जाता है...बाकी काम होते हुए देखने की किसी को फुर्सत नहीं है क्योंकि सभी इस वशीकरण-मंत्र के वशीभूत काम को टेबल पर दौड़ाने में लगे होते हैं..!! 

ये गॉडफादर और उनके लोग

      आज उसे अपने गॉडफादर से मिलना था...असल में, यह उसके गॉडफादर ही थे जिनके कारण वह मनचाही जगह पर तैनाती पा जाता था। इस बार भी उसके साथ ऐसा ही हुआ था। उसे एक बार फिर प्राइम स्थान पर तैनाती मिली थी ! हाँ प्रइम स्थान उसके लिए और कुछ नहीं बस उसकी मनचाही पोस्टिंग हुआ करती है। बस ऐसे ही मनचाहे स्थान पर तैनाती पाकर वह एक प्रकार के वीआईपीपने की सुखानुभूति में डूब जाता था और कभी-कभी लोगों पर अपनी पहुँच का रौब भी झाड़ दिया करता। हालांकि लोग उसे बहुत पहुँच वाला भी मान लिया करते थे..फिर तो उसका खूब रंग जमता था..!! इसी का शुक्रिया अदा करने उसे अपने गॉडफादर से मिलने जाना था। 
        
           उसे याद आया, कभी-कभी उसकी टकराहट अपने जैसे लोगों से हो जाया करती है...जिनके भी अपने-अपने गॉडफादर होते हैं..! आज के युग में तो सभी के गॉडफादर होते हैं..! क्योंकि सभी जागरूक हो चुके हैं। लेकिन जिसका गॉडफादर भारी पड़ता है, वही मनचाही जगह पाता है..! अब ऐसे गॉडफादर वालों की भीड़, गॉडफादरों के लिए भी एक समस्या टाइप की बन चुकी है। खैर... 
       
          हाँ तो..वह अपने गॉडफादर के ठौर पर पहुँच गया था...उसने देखा, उसके जैसे अन्य लोग भी गॉडफादर से मिलने आए थे..हो सकता है सभी उसके जैसा ही प्राइम स्थान पाने की अपेक्षा लेकर आए हों..!! खैर.. जो भी हो, उसे गॉडफादर से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ... 
        
         थोड़ी बहुत हाल-चाल लेने देने के बाद गॉडफादर ने उससे पूँछा, "क्यों भई, लोगों के बीच हमारे काम का मूल्यांकन कैसा है..." 
          गॉडफादर की इस बात पर कुछ पल के लिए वह अचकचाया जरूर, लेकिन अगले ही पल उसके मुँह से निकल गया, "लोग अच्छा नहीं कह रहे हैं..लोगों का सोचना है कि कुछ भी तो नहीं बदला..! सब उसी ढर्रे पर चल रहा है..! मेरी सलाह है, आप कुछ नया सोचिए..नए ढंग का करिए, तभी शायद लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरें..?" पता नहीं यह सब उसके मुँह से क्यों और कैसे निकल गया था..जो नहीं निकलना चाहिए था! असल में ये गॉडफादर टाइप के लोग सही बात सुनने के आदी भी तो नहीं होते..! लेकिन, बात मुँह से निकल चुकी थी, तो इसका असर होना ही था... 
          
          गॉडफादर ने अपने पूरे वजूद के साथ उसे घूर कर देखा था...शायद, उसे अपना पालित होने का अहसास कराते हुए वे बोले थे,  "वाह! सही बात बताई! अब हमें गॉडफादर बनना छोड़ ही देना होगा...तभी हम बदलाव का संदेश दे पाएँगे..." इतना कहते हुए उसके उन गॉडफादर ने उसे जाने के लिए भी कह दिया था..
       
            अब तो, काटो तो खून नहीं टाइप से, वह पशोपेश में था कि क्या गॉडफादर होना ही समस्या की जड़ है या फिर उसके जैसे लोग..! लेकिन इसपर उसे सोचने की फुर्सत नहीं थी, वह फिर से उन्हें मनाने के लिए जुट गया था..क्योंकि वह बखूबी जानता था...प्रयासेहिंकार्येणि सिद्धन्ति...आखिर उसे अपना मनचाहा स्थान भी तो लेना था..!! और नियम भी तो यही गॉडफादर जैसे लोग बनाते हैं...बल्कि कहिए कि नियम ही इसलिए बनाए जाते हैं कि गॉडफादर का गॉडफादरत्व कायम रहे..! और ये नियम को मनमाफिक ढाल भी लेते हैं...!!!

यह कील ठोकना

          उस महीने जब सुबह-सुबह मैंने श्रीमती जी को बताया था कि "इस महीने का इतनई वेतन मिला है" सुनते ही वे भड़क उठी थी..! बोली, "फिर क्या जरूरत है वेतन बढ़ाने का..? एक हाथ से दो और दूसरे हाथ से ले लो...ये सरकारें टैक्स के नाम पर नौकरी-पेशा वालों को ही बेवकूफ बनाती हैं.."फिर मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, "नहीं यार...हम वेतन भोगियों का ऊपरी इनकम से खर्चा बखूबी चल जाता है.. सरकारें यह बात जानती हैं...इसीलिए इनकमटैक्स लगाकर अपना दिया वापस ले लेती है।" इसपर श्रीमती जी ने मुझे गुस्साई नजरों से देखा जैसे कहना चाहती हों "फिर क्यों डरते हो? चलाओ न ऊपरी इनकम से खर्चा..!" लेकिन कहा नहीं और पैर पटकते हुए किचन में चली गई और इधर मैं, मन ही मन सोचने लगा था कि उन्हें कैसे समझाऊँ कि, सरकारों का काम ही टैक्स लगाना होता है, सरकार का अस्तित्व ही टैक्स पर निर्भर करता है, टैक्स सरकार का होना सिद्ध करती है और हम वैसे भी सरकारी वेतनभोगी हैं, वह हमें, अपना दिया जानती है, तो, उसकी वसूली तो हमसे करेगी ही..! क्योंकि यह सरकार जिसको नहीं दे रही है, उसके लिए भी तो उसे कुछ करना होता है..! लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि तब वो कहती, "सरकार अपने जिस दिए को न जानती हो, फिर वही करो.! आखिर, वह अपना दिया तो वसूले ही ले रही है..!"
              
           बचपन में साइकिल पर लाल बस्ता लिए जब एक सज्जन हमारे घर आते, तो मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए मेरे दादाजी बताते "सरकार इनसे लगान वसूल कराती है।" मतलब, बचपन में इन्हें देखते ही हमें सरकार की याद आ जाती थी कि, हमारे अलावा कोई सरकार भी होती है, और तब मुझे सरकार पर बड़ा विश्वास होता था। हाँ, दो लोगों को ही देखकर पता चलता था कि सरकार होती है; एक पुलिस और दूसरा ये लगान वसूलने वाले! बाकी और कहीं यह सरकार दिखाई नहीं देती थी। खैर, आज तो चारों ओर सरकार ही सरकार दृष्टिगोचर है...सड़क पर, दुकान पर और यहाँ तक कि घर के चप्पे-चप्पे पर सरकार ने कब्जा जमाता हुआ है..! यही नहीं दवा से लेकर दारू तक यानी जीवन से लेकर मरण तक, अब सब कुछ सरकार की नजर से नहीं बच सकता, मतलब चहुँ ओर टैक्स ही टैक्स..!! बिना टैक्स दिए कल्याण नहीं...
           हाँ, यही सब बताकर मैं श्रीमती जी के गुस्से को शांत करना चाहता था! और उन्हें यह भी बताना चाहता था कि "देखो आज कुछ भी बिना सरकार के संभव नहीं है और अगर तुम्हें सरकार के टैक्स से इतनई गुस्सा है तो चलो फिर किसी जंगल में निवास करते हुए कंद-मूल-फल खा कर जीवन गुजारा जाए...वहाँ सरकार से कोई लेना-देना भी नहीं होगा और न टैक्स का झंझट ही, लेकिन यह भी नहीं कह पाया..!" क्योंकि तब श्रीमती जी कहती,  "अब तो, जंगल भी तो सरकार के कब्जे में है..या फिर, सरकार को टैक्स देने वाले उस जंगल को काट-काट कर अपने टैक्स की भरपाई कर रहे होंगे..ये हमें वहाँ भी नहीं रहने देंगे..!" और फिर वे पैर पटकते हुए मुझसे कहती कि, "अरे जंगल में जाने की बात छोड़ो, सरकार को न जनाने वाले काम करो..जिस पर टैक्स न देना पड़ता हो..जंगल काटने-कटवाने वाले भी यही करते हैं !!" 
        
         मेरे मन में अभी यह उथल-पुथल चल रहा था कि, श्रीमती जी दो कप चाय लेकर मेरे पास आ गई.. हम दोनों साथ-साथ चाय पीने लगे थे... उन्होंने मेरे मायूस चेहरे को निहारा...और मुझसे बोली... "देखो, तुम हमेशा मुझे ही दोष देते हो...तुम्हें याद है न...जब तुम्हारी इस सरकार ने नोटबंदी किया तो, तुम्हारे साथ ही मैं भी कितनी खुश थी..! उस खुशी में, मैं तुम्हारे हर बात में, हाँ में हाँ मिलाती रही... कि...अब जाकर असली समाजवाद आया है..! लेकिन हुआ क्या..? अब फिर सब उसी ढर्रे पर आ चुका है, यहीं तुम्हारे मुहल्ले में ये बड़ी-बड़ी कारें आ गई है..!  कहाँ गया तुम्हारा वह समाजवाद..! और कहाँ गई तुम्हारी सरकार...क्या ये सब बिना सरकार के जाने हो रहा है...आखिर.. तुम्हारे इसी दिए हुए टैक्स से ही यह सब हो रहा है...हाँ, अटके रहो तुम वेतन में..! ... झूँठा गर्व पालते रहो कि मैं तो इतना टैक्सपेयी हूँ..!...हम यहाँ झुँझुवाते रहें..और..लोग हमारे ही दिए टैक्स पर गुलछर्रे उड़ाते रहें...सरकार के चोंचलों को तुम नहीं समझोगे..!!"
        
           वाकई!  मैं श्रीमती जी की बात को बड़े ध्यान से सुनता रहा था...मैं समझ गया था.. पत्नी जी के मन में सरकार को लेकर विश्वास का संकट था..! हम दोनों चाय पी चुके थे। 
         हाँ, इधर जी एस टी भी लागू कर दिया गया है...श्रीमती जी की बात याद कर मन में थोड़ा डर बैठा कि "कहीं यह जी एस टी-फी एस टी सरकार के चोंचले तो नहीं है..!!" लेकिन अपने को थोड़ा सान्त्वना दिया "सरकार को गरीबों के लिए भी तो काम करना होता है..!"
           "बेचारी सरकारों को गरीबों के लिए क्या-क्या पापड़ बेलना पड़ता है..! सैकड़ों साल पहले से यह पापड़ बेलना शुरू हुआ है..!!" सोचते हुए, कहीं पढ़ी हुई यह बात याद हो आई, जब अंग्रेज "लाइसेंस टैक्स" को बदल कर "इनकम टैक्स" बिल लाए थे, तो बाल गंगाधर तिलक ने इसे "लकड़ी में कील ठोकना" बताया था!  मतलब लकड़ी में कील धसानें की भाँति यह टैक्स भी जिसपर लगेगा उसी पर लगता चला जाएगा..!! 
           खैर...इसपर सरकार को मेरी यही सलाह रहेगी कि "भाई सरकार साहब..!! हम लकड़ी तो हईयै हैं, हम पर खूब कील ठोकों और यह जी एस टी-फी एस टी भी ठीक है, लेकिन यही कील हमारे दिए टैक्स पर तथा साथ में अन्य जगहों पर भी ठोकने की जरूरत है... नहीं तो, यही हमारा दिया टैक्स गुलछर्रे में उड़ जाएगा और श्रीमती हम जैसे टैक्सपेयी को झुँझलाते हुए, गाहे-बगाहे चार बात सुनाती रहेंगी..और तुम भी ऐसई टैक्स-फैक्स का पापड़ बेलते रहोगे..!! 

क्रिकेट और बैटिंग

         उस दिन, मेरे वे अन्तरंग मित्र, जिनके साथ बचपन में क्रिकेट भी खेल चुका था, आते ही मुझसे पूँछ बैठे थे, "और क्या हाल-चाल है..बैटिंग-वैटिंग ठीक-ठाक चल रही है न..?" उनकी इस बात पर अचकचाते हुए मैं उन्हें देखने लगा। लगे हाथ वे कह बैठे थे, "भईया..पिच ठीक है, मौका मिला है..पीट लो.."  अब तक मैं उनका मंतव्य समझ गया था। मुस्कराते हुए बोला, "हाँ यार...लेकिन, आजकल आरटीआई, सीबीआई, इनकमटैक्स और नेतागीरी टाइप की फील्डिंग में कसावट थोड़ी ज्यादा ही होती है..बड़ा बच-बचाकर चलना पड़ रहा है..."  "अमां यार हम ये थोड़ी न कह रहे हैं कि हर बाल पर चौका-छक्का जड़ो..! वैसे भी तुम बैटिंग में कमजोर रहे हो...हाँ, एक-एक, दो-दो रन तो ले ही सकते हो..!" मेरे वे परम-मित्र अपनी इस सलाहियत के साथ मुस्कुराए भी।
           इधर मैं चिंतनशील हो उठा था..नौकरी तो ज्यादातर बॉलिंग टाइप करने में ही गुजार दी है। मतलब, गेंदबाजी का ही ज्यादा अभ्यास रहा है और बैटिंग का कम, इसलिए फूँक-फूँक कर, इस नई-नई मिली पिच पर कदम रख रहा था। शायद मेरी इस कमजोरी को ही लक्षित करके मित्र महोदय ने मेरी ऊपरी कमाई पर टांट कसा होगा और इक्का-दुक्का रन लेते रहने की सलाह दे दिया होगा...अभी मैं अपने इसी विचार में खोया था कि उन्हें फिर बोलते सुना-
            "देखो यार...घबड़ाना मत, सट्टेबाजी और फिक्सिंग का जमाना तो हईयै है...गेंदबाजी-फेंदबाजी तो चलती ही रहती है, इससे डरना क्या..! हाँ, थोड़ा-बहुत फिक्सिंग-विक्सिंग भी कर लिया करो।"
         इसके बाद फिर मित्र जी, मुझे हड़काते हुए बोले थे-
         "तुमने नाहक ही अब तक गेंदबाजी में समय नष्ट किया, आखिर कउन गेंदबाज टाटा-बिड़ला बन गया..? अपने सचिन को देखो, बैटिंग के कारण ही तो भारत रत्न ले उड़ा है..आम के आम और गुठलियों के दाम टाइप का पैसा और सम्मान दोनों झटक लिया...जबकि, वहीं गेंदबाज बेचारा पसीना बहाते-बहाते, पता नहीं कहाँ खो जाता है..! क्रिकेट हो या नौकरी, दोनों में बैटिंगइ का खेला होता है, बढ़िया पिच मिल जाए तो कायदे से ठोक लेना चाहिए और अगर तुम बढ़िया बैटर बन गए होते तो, तुम्हारी सात पीढ़ियाँ बैठ कर खाती, सम्मान ऊपर से मिलता। मैं तो कहता हूँ...इसीलिए अपने देश में बैटरों का ही जमाना है, जो जहाँ है वहीं जमे हुए बैटिंग कर रहे हैं..!!"
             अब तक वे इत्मीनान से बैठ चुके थे, हमारी बातचीत आगे बढ़ी। मैंने पूँछा-
            "यह किस बेस पर कह रहे हो कि, अपने देश में बैटरों का ही जमाना है..?"
            "देखो यार, सारे आर्थिक सुधार देश के बैटरों के लिए ही होते हैं, इन सुधारों ने बैटिंग करने लायक बढ़िया पिच भी तैयार कर रखा है...तो,बैटरों का जमाना होगा ही..! समझे?"
             आगे मेरी जिज्ञासु टाइप की चुप्पी देख वे फिर से छाँटना चालू किए -
              "यार.. वैसे भी ले देकर अपना देश, एक ही खेल खेलता है, वह है क्रिकेट, और वह भी, जानते हो क्यों..? क्योंकि, अपना देश आलसियों का देश रहा है...आराम से खड़े रहो और खेलते भी रहो..न हुचकी न धम-धम और खेल भी लिए..! और इसमें भी बैटिंग के क्या कहने, परम आलसी ही अच्छी बैटिंग कर पाता है। इसीलिए तो कहता हूँ, क्रिकेट ही इस देश के लिए सबसे मुफीद गेम है और आजकल, ऊपर से बढ़िया आर्थिक सुधार जैसे कार्यक्रम बैटिंग का माहौल बनाए हुए है..!!"
            यह सब सुनते हुए मैं मित्र को घूरे जा रहा था, इसे भांपकर उनने फिर कहा-
           "जानते हो अपना देश, भ्रष्टाचार में क्यों आगे है...?"
            "अरे यार अब इसमें भी क्रिकेट घुसेड़ रहे हो..?" मैंने कहा।
            "नहीं भाई, आलस..! अगर हम आलसी न होते तो, मेहनत करते, मेहनत की दो जून की रोटी खाते। दिनभर टीवी के सामने दीदे फाड़कर किरकट न देखते। खैर, तुम्हें अब अवसर मिला है..फालतू की बातों में न पड़ो..ढंग की बैटिंग कर लो..तुम्हारे जैसे सब इसी में लगे हैं..।"
           
          उनकी बात का मर्म में समझ रहा था। लेकिन मेरा ध्यान भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट-मैच पर अटका हुआ था। इनमें से कौन जीतेगा ? मुझे इस बारे में चिन्तित देख दार्शनिक टाइप से समझाते हुए वे बोले-

           "छोड़ यार! यह खेल नहीं धंधा है...फकत तीन घंटे का शो है...इससे ज्यादा कुछ नहीं..वही छक्का-चौका और वही बॉलिंग-फील्डिंग..! इससे ज्यादा कुछ नहीं...देशभक्ति की थोड़ी घुट्टी पिए होने के कारण उत्तेजना बढ़ जाती है...नहीं तो, बाकी और कुछ नहीं इस क्रिकेट के खेल में। टास होगा तो, चित या पट में से एक तो आएगा ही...क्रिकेट का मैदान मार लेने से देश महान थोड़ी न हो जाएगा..! उस पर ससुरे ये टीवी वाले उत्तेजना फैला-फैला कर विज्ञापन कमाते हैं... हमीं तुम हैं कि चियर लीडर बने फिरते हैं..!!"
           मित्र की बात अभी समाप्त ही हुई थी कि टीवी के स्क्रीन पर "खेल-भावना" की दुहाई देते हुए कोई ऐंकर कुछ कह रहा था.. मित्र जी यह सुनते ही बिफर पड़े-
           "देखा..! इन ससुरों को क्रिकेट मैच होने के पहले खेल-भावना याद नहीं आई..हारने पर अब खेल-भावना याद आ रही है...इनका धंधा जो हो चुका..!!"
            क्रिकेट का खेल अब तक खत्म भी हो चुका था और मित्र के चक्कर में पूरा खेल देख नहीं पाया था। खैर, इसलिए मेरी खेल-भावना भी बरकरार रही। इधर मित्र के जाने के बाद, नौकरी के पिच पर फील्डरों से बचने के लिए सफल बैटिंग के गुर पर चिंतन-मनन करने लगा था।

शुक्रवार, 23 जून 2017

योगा-वोगा

           आज बहुत दिन बाद स्टेडियम की ओर टहलने निकला था... लगभग पौने पाँच बजे..! वैसे तो रोज ही टहलने का प्रयास कर लेता हूँ, लेकिन जब स्टेडियम जाने का मन नहीं होता, तो अपने आवासीय परिसर में ही कुएँ की मेढक की भाँति कई चक्कर काट लेता हूँ...
          आवास से निकलते ही पता चला कि देर रात बारिश भी हुई थी, क्योंकि परिसर पूरी तरह भींगा हुआ था। इस बारिश से मन को थोड़ी खुशी हुई... स्टेडियम की ओर जाते हुए मुझे दादुर के टर्राने की आवाज सुनाई पड़ रही थी...मैंने ध्यान दिया, एक खाली पड़े प्लाट की जमीन में, बारिश से हुए जलजमाव के बीच से यह आवाज आ रही थी...हाँ, याद आ गया...बचपन में ऐसे ही पहली बारिश के बाद छोटे-छोटे गड्ढों और तालाबों से मेंढकों के टर्राने की आवाजें खूब सुनाई दिया करती थी...बड़ा अद्भुत अहसास होता था...लगता था...इस धरती पर हमारे साथ कोई और भी है..! लेकिन धीरे-धीरे आज हम अकेले होते जा रहे हैं...हमारे कृत्यों से धरती पर यह जीवन सिमटता जा रहा है...जीवन के स्पेस कम हो रहे हैं, उस पर तुर्रा यह कि, हम ब्रह्मांड में जीवन खोज रहे हैं...! खैर...हमारे एक फेसबुक मित्र श्री Rakesh Kumar Pandey जी हैं.. प्रकृति के प्रति उनकी अनुभूतियाँ बहुत ही गहरी हैं...उन्हीं की रचनाएँ पढ़कर, हम भी बदलते मौसम या प्रकृति के आँगन में, गुजारे अपने बीते पलों की यादें ताजा कर लेते हैं... 
          हाँ तो, स्टेडियम पहुँच गए थे....यहाँ भी बगल के गड्ढों से वही मेंढकों के टर्राने की आवाजें आ रही थी...तथा..ऊपर आसमान में उड़ते हुए टिटहरी की "टी..टुट.टुट.." की आवाज सुनाई पड़ी...साथ में कुछ अन्य पक्षियों की चहकने की भी ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगी थी जो, सुबह के खुशनुमा अहसास को द्विगुणित किये दे रही थी...एक बात है..! योगा-वोगा तो करते रहिए, लेकिन जरा सुबह-सुबह निकल कर टहल भी लिया करिए...मजा आएगा...!! 
           टहल कर लौटे..चाय-वाय पीते हुए मोबाइल चेक कर रहे थे, तभी घर से फोन आ गया... मैंने तुरन्त रिस्पांस दिया...असल में सुबह फोन मैं बहुत कम उठा पाता हूँ, बाद में मिस्ड हुई काल देखकर फोन करना पड़ता है...तब डाट भी खानी पड़ती है...फिर उधर से पूँछा गया, "आज बड़ी जल्दी फोन उठ गया..!" मैंने मारे डर के यह नहीं बताया कि फेसबुक चेक कर रहा था, मैंने उन्हें यही बताया कि "एक हमारी दोनों बच्चों के साथ की बहुत पुरानी तस्वीर, हमें देखने को पहली बार मिली है...वही देख रहा था.." फिर उलट कर मैंने ही पूँछा, "वह तस्वीर कब की होगी..?" मुझे बताया गया कि "जब हमारा छोटा बच्चा एक माह का था, शायद तब खींची गई थी.." बेचारी ये महिलाएं..! इन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है.. ये आसानी से भुलावे में भी आ जाती हैं.. खैर.. 
            घर से फिर बात होने लगी...उन्होंने कहा, "ये योग के चक्कर में यहाँ लखनऊ में करोड़ों रूपए बर्बाद कर दिए गए...बाद में इसकी भरपाई कहीं गैस के दाम बढ़ाकर करेंगे या अन्य टैक्स बढ़ा देंगे..ये सब ऐसे ही जनता की भावनाओं से खेलते हैं..! लेकिन, अब सब समझदार हो रहे हैं... बनारस की दशा वैसी ही है.. कोई खास सुधार नहीं...गाड़ियां वैसे ही सड़क पर हिचकोले ले लेकर आगे बढ़ रही थी... वहाँ घाट पर खड़ा वह लड़का कह रहा था...कि...अभी तक 2019 तक बनारस को ठीक कर देने की बात कही जा रही थी...अब 2024 की बात कही जाने लगी है...लेकिन..जनता इतनी बेवकूफ नहीं है" हाँ, श्रीमती जी बनारस, बाबा विश्वनाथ के दर्शन करके आई थी...वही बता रहीं थीं... वैसे, बेचारी इन औरतों को अपने चूल्हे-चक्के की कुछ ज्यादा ही चिन्ता होती है... खैर.. 
         इधर योग को भी एक सरकारी कार्यक्रम जैसा बना दिया गया...डर लगा, कहीं यह योग भी, कोई "योजना" न बन जाए...!! याद आया उस दिन योग कार्यक्रम में अंत में मुझे इसपर कुछ बोलने के लिए कहा गया... मैं ढंग से नहीं बोला था.. क्या बोलता.. अगर कहता "कर्म में कुशलता ही योग है" तो वहाँ उपस्थित तमाम "योगी-जन" अपने अब तक करते आए काम को, और कुशलता से करने लगेंगे..! और अगर कहता "योग चित्तवृत्तियों का निरोध है" तो ये "योगी-जन" अपने अन्दर की रही-सही, बाकी थोड़ी बहुत संवेदना के लिए भी निरोधात्मक उपाय करना शुरू कर देंगे, और भोगेगी बेचारी यह वियोगी जनता..!! इसीलिए, मैं योगोपरान्त दिए गए अपने वक्तव्य में ऊल-जुलूल ही बकता रहा...हाँ आज की सुबह इन्हीं बातों में गुजरी...लेकिन आप इन बातों को लेकर अपना मूड खराब मत करिए... अब धूप तेज हो चुकी है...अगर सुबह टहलने न निकले रहे हों तो, घर में बैठे-बैठे ही योगा-वोगा कर डालिए...बाकी सब चलता है... टेंशन काहे का.... 
          #सुबहचर्या 
           23.6.17

शुक्रवार, 16 जून 2017

टापर

             टापर को अगर व्यंग्यियायें तो कैसे? क्योंकि टापर को व्यंग्यीयाना देश-द्रोह जैसा अपराध होगा यह किसी की देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने जैसा होगा। यह मेरे सामने एक गूढ़ प्रश्न है! सोचता हूँ, देश भर में आजादी के बाद से कितने टापर हो चुके होंगे? हिसाब तो लगाना ही पड़ेगा! हिसाब इसलिए कि देश की जी डी पी या कहिए इससे देश का इकोनामिकली ग्रोथ-रेट पता चलेगा। हमारे कुछ अर्थशास्त्री दावा करते हैं कि अपने देश का ग्रोथ रेट काफी तेज है, जबकि कुछ इसपर असंतोष भी व्यक्त करते हैं। कहीं देश के ग्रोथ-रेट में यह दृष्टव्य उतार-चढ़ाव देश के टापरों से को-रिलेट तो नहीं करती..? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। 
          वैसे इतना तो तय है, ये टापरों की संख्या ही देश की जी डी पी में वृद्धि का कारक होती है। क्योंकि ये टापर जी ही हैं, जो जी-जान से देश सेवा में सन्नद्ध होते हैं। बाकी तो सब लफंटूस बने घूमते हैं। कभी-कभी, मैं उनको महा बेवकूफ मानता हूँ, जो आजकल टापरों के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं। अरे भाई!  इन बेचारों को टापर होने का सुख तो लेने दो, तभी देश में भी सुखक्रांति आयेगी और गरीबों के चेहरों पर मुस्कान तैरेगी! टापरों को हतोत्साहित मत कीजिए। बल्कि इनके सुर-लय-ताल की तारीफ करिए। यही तो हैं, जो ताल में ताल मिलाकर, देश में लयबद्ध ढंग से विकास का काम कर रहे हैं।  ये टापर बखूबी बेसुरे राष्ट्र विरोधी तत्व को देश-सेवा जैसे महत्वपूर्ण काम से अलग कर देते हैं। मैं तो कहता हूँ इसीलिए देश को इन टापरों का ॠणी होना चाहिए।          हमको तो लगता है इन टापरों में, टापर होने के पहले और टापर होने के बाद टापरीय टाइप का अन्दरूनी समझौता होता है, और वह होता है देश-सेवा करने का समझौता..! तभी तो न, टाप करने के बाद इनके मुख से बस यही पहला लफ्ज़ निकलता है "हम देश की सेवा करना चाहते हैं।" हाँ भाई ये टापर लोग, आपस में मिल-बाँटकर देश-सेवा करते हैं...वास्तव में देश-सेवा का मूलाधिकार भी इन्हीं टापरों में ही निहित है।
           इधर कुछ लोग देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की शिकायत भी करने लग रहे थे। तथा कुछ देश की आर्थिक प्रगति की धीमी गति पर अपने वित्तमंत्री की खिंचाई करते भी देखे जा सकते हैं। तमाम अर्थवेत्ता अपने-अपने तईं देश के इस घटती अर्थव्यवस्था दर पर अपने कारण भी गिनाते जा रहे हैं...लेकिन, मुझे तो लगता है, इनके गिनाए कोई भी कारण सटीक नहीं है...आईए लगे हाथ मैं आपको कारण बताए दे रहा हूँ... वह भला हो बिहार के उस पत्रकार का, जिसने सोशल-मीडिया पर एक फोटो वायरल की थी! भाई लोग बिहार बोर्ड परीक्षा में बेसीढ़ी चौथे मंजिल की खिड़कियों पर भी लपक-लपक कर टापर बनाने का काम कर रहे थे। इसके बाद ही बिहार में लोग टापरों की खोजबीन में लगे और "प्रोडिकल-साइंस" विषय के टापर को खोजकर सामने धर दिए थे। तो भाई, सामने आ गया टापर-घोटाला! 
           अब आप तो समझ ही गए होंगे यह टापर-घोटाला ही देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर किए हुए है, और देश को घोटाले की ओर धकेल दे रहा है। मतलब, एकमात्र टापर-घोटाला ही, देश के विकास-दर की उठापटक और यहाँ के घोटालों की जड़ में है। हाँ, जो बेचारे अच्छे टापर होते हैं, देश, विकास की चढ़ाई उन्हीं के माथे कर रहा है। देश में विकास की कमी दिखाई देती है तो इसके पीछे इस टापर घोटाले को ही जिम्मेदार माना जाए। मेरी तो अपनी यह मान्यता है कि, जब तक पूरी तरह टापर रूपी देश के इस महा घोटाले की जड़ में न पहुँचा जाए तब तक आजादी के बाद से जो भी चाहे जिस परीक्षा में बैठा हो, उन सभी को टापर ही माना जाए..कम से कम इसी बहाने हमें भी टापर होने का सुख नसीब हो जाएगा...! बाकी देश-सेवा का काम जारी तो हईयै है...जय हो देश के टापर महराजों की..!! 
          अन्त में, चलते-चलते टापरों के व्यंग्यियाने के इस देश विरोधी लेख में 'टापर' और 'देश-सेवा' की खूब पुनरावृत्ति हुई है..! ऐसा इसलिए कि, टापर और देश-सेवा में बेशकीमती अन्योन्याश्रित संबंध होता है। 

खेती का परदूषण

         वो क्या है कि इधर मैं भी गाँव चला गया था। कुछ खेती-किसानी जैसी बातों पर ध्यान गया तो किसान-आन्दोलन को लेकर किसानी पर लिखने के लिए किसी खेतिहर के खेती करने जैसा मन तड़फड़ाने लगा था। लेकिन गाँव के हालत तो सबको पता ही होते हैं, वहाँ नेटवर्क की समस्या होती है, और गाहे-बगाहे नेटवर्क मिले भी तो, बेदर्दी मानसून की तरह यह कभी आया या कभी न आया। सो, लिखने से मन भी उचट गया था। ऐसे ही तो किसान का भी मन किसानी से उचट जाता है! 
         तो, खेती-किसानी और लेखन-वेखन को मैं एक ही तराजू पर तौलता हूँ। लेखक बेचारा लिख-लिख कर थक जाता है, मगर प्रकाशक भी है कि सरकार टाइप का बना रहता है, उसका मन पसीजता नहीं और लेखक के लेखन को किसी किसान के खेत की उपज टाइप का समझ लेता है। इसी तरह बेचारा किसान भी लेखक की तरह दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाता है। 
        असल में क्या है कि सब कुछ नेटवर्क का ही खेल है, खेती भी नेटवर्क आधारित होती है। वैसे अच्छे नेटवर्क का मिलना हमारे देश में आज भी दैवयोग ही है और भारतीय खेती भी तो दैवयोग पर ही आधारित होती है! दैवयोग का मारा बेचारा यह किसान, एक अलग तरीके का नेटवर्क डेवलप करने के चक्कर में, खेत में पसीना बहाने के बजाय इसी में अपना पसीना बहाने लगता है। फिर अच्छा नेटवर्क मिल जाने पर औने-पौने अपना जोतबही उसी नेटवर्क को सौंपकर थक-हार कर घर लौट आता है। 
         एक बात और है...आज का किसान जन्म लेते ही इस नेटवर्क में स्वयं को जकड़ा हुआ पाता है। बचपन में मुझे याद है, खेती फायदे के लिए नहीं की जाती थी..इसका उद्देश्य पेट भरना हुआ करता था, लोग मजे से खेती किया करते थे और अपने लिए साल भर का अनाज पैदा करने पर ही संतुष्ट हो जाते थे। लेकिन अब क्या है कि आर्थिक लाभ का जमाना है, देश का पूरा सिस्टम इस लाभ के खेल में जकड़ा हुआ है और लाभ के सिस्टम का यह खेल किसानों पर भारी पड़ गया है। खेती तो व्यवसाय नहीं बन पाई, लेकिन उसके बच्चे को भी व्यवसायिक शिक्षा चाहिए, बेटी की शादी में वर पक्ष के लाभ की आकांक्षा में मोटा दहेज देना है...किसी से कमतर न दिखें इसके लिए स्टेटस भी मेंटेन करना है..और इन सब के बाद हारी-बीमारी से बचने के लिए इलाज की मँहगाई जैसे आर्थिक लाभ और जीवन यापन के बीच के अजीब से बन चुके नेटवर्क में उलझे किसान की खेती भी बंधक टाइप की हो चुकी है। लेकिन यह सब, खेती से कहाँ पूरा होगा..? खेती बेचारी कितनी बोझ सहेगी..? फिर तो, किसान को कर्ज में डूबना ही है..!
         देश का यही आर्थिक संजाल गाहे-बगाहे किसानों को भड़काता है, आंदोलित करता है। लेकिन स्वयं किसान आंदोलित होता है, इसपर मुझे सन्देह रहा है और है..! "दैवयोग" पर निर्भर किसान कभी आंन्दोलित हो ही नहीं सकता...यहाँ मैंने बुंदेलखंड में देखा है...लगातार सूखा पड़ने के बाद भी किसान टस से मस नहीं होता.. पानी बरसा तो ठीक नहीं तो, शहरों में भागकर मजदूरी करना ही है, और सरकार है कि आजतक यहाँ के किसानों को सिंचाई का कोई नेटवर्क नहीं दे पायी है। मुझे आश्चर्य है, यहाँ के किसान आन्दोलन क्यों नहीं करते..? कारण, जिनको आन्दोलन करना है वे "सेफ्टीवाल्व" की तरह हैं..किसान और किसानी पर हावी हैं और तमाम संसाधनों पर इन्हीं का कब्जा है। जब कभी ये असंतुष्ट होते हैं तो किसान और किसानी को जरूर मोहरा बना लेते हैं और फिर मतलब सध जाने के बाद चुप बैठ जाते हैं। यही नहीं यहाँ के खनिज-कर्म से बर्बाद होती खेती पर ये पसीजते तक नहीं, इनसे किसानों से कोई मतलब नहीं।
          असल में किसान-आन्दोलन और कुछ नहीं बिचौलियों का अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए छेड़ा गया संघर्ष है, जिससे किसानों का कोई लेना-देना नहीं होता। इनमें से जो तथाकथित किसान आन्दोलनरत दिखाई भी देते हैं उनके घरों में किसानी-कृत्य और कृषि-उपज को "परदूषण" की भाँति देखा जाता है। उस दिन खेती का हालचाल पूँछने पर मेरी चाची किसी ऐसे ही किसान के घर का हालचाल बता रही थी -
         "बेटवा आजकल खेती क हाल का बताएं...पहिले जइसे वाली बात अब नाहीं बा... अब नई बहू शहर से गाँव आवत हैं तो...अरहर दलते हुए छिलका देखि के अपनी सास से कहत हैं कि मां जी इहाँ घर में बहुत परदूषण फइला है, रहना मुश्किल है।"
          तो, भइया जिनके घरों में खेती "परदूषण" की तरह देखी जाती है वही किसान आंदोलन की अगुवाई करते हैं....बाकी हम जैसे लोग, हमारे ही इनकमटैक्स से खरीदी हुई सरकारी सम्पत्तियों को धूँ-धूँ जलते हुए देखने के लिए मजबूर होते हैं। 
     

शुक्रवार, 2 जून 2017

'बाईपास' का कल्चर!

         
              उस  दिन वे, जैसे किसी परेशानी में थे। मिलते ही बोले, "यार, वे सब मुझे बाईपास कर रहे हैं।" मतलब, उन्हें बाईपास किया जाना ही उनकी परेशानी का कारण था। नीचे से आती पत्रावलियाँ उनके टेबल को बाईपास करते हुए सीधे ऊपर वाली टेबल पर चली जा रही हैं। वे अपने होते इस दायित्व-क्षरण के कारण पत्रावलियों के गुण-दोष-अन्वेषण जनित लाभादि से वंचित हो रहे हैं। 
            यह पहला अवसर था जब 'बाईपास' शब्द मेरे जेहन में उमड़-घुमड़ मचाते हुए एक वीआईपी शब्द की तरह व्यवहार करने लगा था। उचकते हुए तब मैं उनसे बोला था, "यार..हमारी संस्कृति में 'बाईपास' वाला कल्चर तो वैसे है नहीं..!"  इसी कथन के साथ मेरा ध्यान बचपन के मेरे अपने कस्बे की ओर चला गया, जब पहली बार मैं किसी नयी-नयी बनी बाईपास-सड़क से रुबरु हुआ था। 
           बचपन में निर्मित उस सड़क के साथ ही 'बाईपास' शब्द से मेरा प्रथम परिचय भी हुआ। तब मैं सोचता, आखिर सूनसान और निर्जन स्थान से गुजरने वाली यह सड़क क्यों बनी ? फिर थोड़ी समझदारी आने पर इस बाईपास-सड़क के बनने का कारण मेरी समझ में आ गया था। 
           एक बार रोडवेज बस से मुझे अपने कस्बे मुँगरा बादशाहपुर से इलाहाबाद जाना हुआ था ; तब बीच में पड़ने वाले सहसों बाजार में भी एक नया-नया बाईपास बना था। लेकिन उस दिन बस ड्राइवर जल्दबाजी के चक्कर में बस को बाईपास सड़क से न ले जाकर सीधे सहसों बाजार के बीच से ले गया था। हड़बड़ी में बाजार की सँकरी सड़क से निकलते हुए बस एक खंभे से रगड़ खा गई और एक महिला का हाथ बुरी तरह चोटिल होकर लहूलुहान हो गया था। बाद में बस ड्राइवर और कंडक्टर की खूब लानत-मलानत हुई थी। इस एक घटना के बाद मुझे 'बाईपास' का महत्व समझ में आया था। शायद, उसी दिन बस ड्राइवर को भी 'बाईपास' की समझ हो गई होगी। 
             जेहन में उभर आए इन खयालों में खोए हुए ही मैं हलकी सी मुस्कुराहट के साथ बोला, "यार, तुम पत्रावलियों की गति में, बंद सँकरे बाजार की तरह अवरोध उत्पन्न करते होगे..इसीलिए तुम बाईपास किए जा रहे होगे...अब ओपन मार्केट का जमाना है, खुली सड़क से रास्ता तय किया करो..और चीजों को फर्राटा भरने दो...ट्रैफिक-पुलिस भी मत बनो"। खैर, मेरी इस बात पर ना-नुकुर करते हुए वे उठकर चल दिए थे। 
            इधर मैं, 'बाईपास' शब्द में खो गया। Bypass वैसे तो अंग्रेजी का शब्द है, लेकिन हिन्दी भाषा में इस शब्द का चलन किसी मौलिक शब्द की तरह ही होने लगा। वैसे भी, हिंदी में ढूंढने पर "उपमार्ग" के अलावा 'बाईपास' शब्द का कोई दूसरा समानार्थी शब्द भी नहीं मिलता। लेकिन bypass से जो अर्थ प्रतिध्वनित होता है, कम से कम "उपमार्ग" शब्द से वैसा अर्थ निकलता हुआ मुझे प्रतीत नहीं होता। "उपमार्ग" में आया हुआ उपसर्ग 'उप', 'उपमुख्यमंत्री' शब्द में आए 'उप' टाइप का ही है। जबकि 'बाईपास' स्वतंत्र वजूद वाले मुख्यमार्ग की तरह होता है, जिसे नजरंदाज करना समस्या को दावत देने जैसा हो सकता है, जैसा हमारी बस के साथ हुआ था। 
          एक बात और है, अपने सटीक अर्थ के कारण ही 'बाईपास' शब्द को आत्मसात किया गया है। इसीलिए मैं चाहता हूँ, यह शब्द हिन्दी शब्दकोश में भी स्थान पाए। 
            यहाँ उल्लेखनीय है कि किसी दूसरी भाषा का शब्द हम तभी आत्मसात करते हैं जब उससे अधिक सटीक शब्द हमें अपनी भाषा में नहीं मिलता। किसी भाषा और उसकी शब्दावली पर ध्यान देने पर यह बात स्पष्ट होती है कि भाषा और बोली पर संस्कृति का जबर्दस्त प्रभाव होता है। मतलब कोई भी भाषा-बोली अपने क्षेत्र की संस्कृति को भी अभिव्यक्त करती है।
            तो, आखिर हमारी हिन्दी शब्दावली में "बाईपास" का समानार्थी शब्द क्यों नहीं है? और "उपमार्ग" को इसका समानार्थी क्यों नहीं माना जा सकता?
           इसके पीछे हमारे सांस्कृतिक कारण जिम्मेदार हैं। स्पष्ट है कि, कण-कण में भगवान देखने वाले हम "बाईपास" जैसा शब्द ईजाद नहीं कर सकते! मतलब हमारे कल्चर में 'बाईपास' का कोई स्थान नहीं रहा है। वहीं पर हम किसी को छोटा-बड़ा जरूर बनाते रहे हैं और इसी चक्कर में हमने 'उप' ईजाद किया हुआ है। मतलब, 'उप' प्रकारांतर से फ्यूडलिज्म का पोषक है। आजकल यह 'उप' किसी विवाद के शांतिकारक तत्व के रूप में भी प्रयोग होता है। जैसे, किसी को "उप" घोषित करके भी विवाद को टाला जा सकता है। लेकिन बेचारे इस 'उप' को कभी 'मुख्य' होना नसीब होता है या नहीं, यह अलग से चिंतनीय विषय हो सकता है। फिर भी इस 'उप' को राहत इस बात से मिल सकती है कि यदि ज्यादा हुआ तो भविष्य के मार्गदर्शक-मंडल में सम्मिलित होकर यह शांति का जीवन व्यतीत कर सकता है। 
            वैसे तो हम कम या ज्यादा सभी को महत्व देते हैं। फिर भी, यह 'बाईपास' शब्द जहाँ से आया है, वहाँ के लोग हमसे ज्यादा विकसित और सभ्य क्यों दिखाई देते हैं?
           असल में, हमारे यहाँ 'उप' और 'मुख्य' का चक्कर कुछ ज्यादा ही है ! और 'मुख्य' को मुख्य बनाए रखने हेतु ही 'उप' का सृजन हुआ है। बेचारा यह 'उप', उपेक्षा टाइप की फीलिंग से बचने के लिए अपनी व्यर्थ की महत्ता दिखाता है और फिर, अपने अवरोधक टाइप के विहैव के कारण 'बाईपास' का शिकार होता है।
           वास्तव में हम ऊपर से लोकतांत्रिक लेकिन अन्दर से अलोकतांत्रिक ही होते हैं। वहीं "बाईपास" में लोकतांत्रिकता का पूरा तत्व होता है, जो किसी के 'बपौती' को जमींदोज करता है। इसी कारण पश्चिमी देश के लोगों में चीजों को बेहिचक बाईपास कर देने का गुण होता है, वे 'उप' या 'मुख्य' में नहीं उलझते ! वहाँ कोई भी 'बाईपास' से चलकर मुख्य हो जाने का लुत्फ उठा सकता है। ये पश्चिमी कल्चर वाले आगे बढ़ना जानते हैं। अगर हम आगे बढ़ना जानते होते तो, हम भी 'बाईपास' जैसा ही शब्द गढ़े होते ! 
             हाँ, हमने 'बाईपास' को आत्मसात तो किया, लेकिन हमारे लिए, आगे बढ़ाने की बजाय यह किसी की उपेक्षा करने में कुछ ज्यादा ही काम आता है। इस प्रकार अपने देश में 'बाईपास' के सौजन्य से, हम अपने तरीके से सुखी और दुखी हो लिया करते हैं। 
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