मंगलवार, 28 मार्च 2017

गरमी मांगे एयरकंडीशनर

          बड़े भाई लोग, बढ़ रही गरमी पर ऐसा गजब का व्यंग्य मार रहे हैं कि गरमी भी "देखो आगे-आगे होता है क्या" के अन्दाज में झल्लाई हुई फिर रही है! और इधर मैं, गरमी में किसान-गोष्ठी में घूमता फिर रहा हूँ। खैर, मैं मुद्दे की बात पर आता हूँ, वैसे सूरज जब सिर पर चढ़ जाए तभी गरमी चरम पर होती है, लेकिन यह तो हुई मौसम और एक सितारे के गति की बात! हाँ, इससे निकलता है सौ बात की एक बात, सितारा जब बुलन्दी पर होता है तो गरमी बढ़ती ही है, क्या मौसम और क्या आदमी! सितारे के इसी बात पर ध्यान आया कि, जिनका सितारा बुलन्दी पर होता है, उन्हीं के सिर गरमी चढ़कर बोलती भी है, बाकी की गरमी तो पसीना में बह जाती है।

           मेरे सामने मंच के नीचे, किसान-गोष्ठी में बैठे हुए किसानों में कोई गरमी दिखाई नहीं दे रही है। ये बेचारे वैसे भी अपने खेतों में पसीना बहाकर मौसम की गरमी में ठंडा लेते होंगे, तभी गोष्ठी में इत्मीनान से बैठे हैं। मेरे साथ बैठे हुए इन किसानों के प्रतिनिधि ने बताया कि ये किसान उत्साही किसान हैं सबेरे-सबेरे फसल कटाई में पसीना बहा कर इस गोष्ठी में भाग ले रहे हैं। वाकई! ये किसान पसीना बहा लेते हैं तो इन किसान बेचारों को कहाँ से गरमी लगेगी! गरमी तो हम जैसों को लगती है। इस गरमी से आजिज मैं गोष्ठी में बैठे-बैठे ही, मन ही मन एक अदद एयरकंडीशनर की तमन्ना पाल रहा था। मतलब बिना एयरकंडीशनर में बैठे मेरी यह गरमी निकलने वाली नहीं है। 

               अब मुझे अपने लिए एक अदद एयरकंडीशनर का जुगाड़ करना है, तत्काल मेरा ध्यान अपने सितारे पर चला गया और मैंने इस सितारे को अपने सिर चढ़ाया। मैंने गरमी को सिर चढाने की प्रेरणा मौसम की गरमी से ही ग्रहण किया हुआ है। कारण, आप ने अब तक देखा हुआ है कि जब सूरज सिर पर चढ़ जाए तो गरमी अपने चरम पर होती है, फिर क्या होता है कि इस बढ़ी हुई गरमी से ही मौसम बदलने लगता है। मतलब, तब जोर का आँधी-पानी आता है और मौसम खुशगवार हो जाता है..! तो मैने भी अपनी गरमी बढ़ानी शुरु की, इसीलिए मैंने अपना सितारा अपने सिर पर चढ़ाया और गोष्ठी से लौट आया। आखिर, एयरकंडीशनर के लिए दिमाग को भी गरमी का एहसास भी तो कराना था, तभी तो यह दिमाग इसके जुगाड़ के बारे में कुछ कर पाएगा..! 

             अब आप जानते ही हैं कि बुलंद सितारों वालों के मातहत भी होते हैं। तो, एक अदद एयरकंडीशनर की तलाश में अपनी गरमी, विथ आँधी-तुफान, किसी मातहत पर निकालुंगा, उसे जोर का हड़काऊंगा। उस बेचारे मातहत के काम में इतना मीन-मेख निकाल दुंगा कि बेचारा वह मातहत पानी-पानी होकर मुझपर बरस पड़ेगा और इस तरह मेरे एयरकंडीशनर का आटोमेटिक ढंग से जुगाड़ हो जाएगा..! और फिर एयरकंडीशनर के ठंडकपने के लुत्फ लेने के साथ ही मेरे कड़कपने की यशकीर्ति भी अखबारों, मीडिया और सोशल-मीडिया के सहारे दिग्-दिगन्त तक फैलेगा तथा मुझे सेलीब्रिटी होने का एहसास भी घेलवा में मिलता रहेगा। 

           तो भाई, आपका तो नहीं पता, लेकिन मैंने अपने सितारे को सिर चढ़ाकर गरमी से निजात पाने के लिए एक अदद एयरकंडीशनर का जुगाड़ तो कर ही लिया।

           भाई मेरे! यह बगैर पसीने वाली गरमी है, इसीलिए यही गरमी सितारों वालों के सिर चढ़कर बोलती है और जब ऐसा दिखे तो मान लीजिए कोई एयरकंडीशनर की तलाश में है।

चुनाव के बाद

              चुनाव के साथ ही लोकतंत्र का कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुका था और इधर मैं भी जीते हुए नेता की तरह थोड़ा रिलैक्स फील करते हुए रविवारीय मूड में शहर के एक माल की ओर अपनी गड्डी लेकर निकल पड़ा था। वैसे तो इस माल में दो मंजिला अंडरग्राउंड कार-पार्किंग की व्यवस्था है, लेकिन जैसा कि हम देशभक्तों की आदत में शुमार है जो चीज जिसके लिये बना होता है, उसका इस्तेमाल हम वैसा नहीं करते। मतलब इस माल के किनारे सड़क की पटरियों को ही हम भी कार-पार्किंग के लिए यूज करते आ रहे हैं। नेता हो या वोटर, क्या चुनाव के पहले और क्या चुनाव के बाद, जिसकी जो आदत होती है वह नहीं छूटती है।

             इस माल के शुरुआती दो-तीन वर्षों तक जब कभी यहाँ जाना हुआ तो, माल के अगल-बगल की सड़क की पटरियों पर ही फ्री-फंड में मैं भी कार-पार्क कर देता। ऐसे ही एक चुनाव के बाद का कोई दिन रहा होगा जब मैं अपनी गड्डी खड़ी कर चलने को हुआ था, तभी दो मुसडंडे हाथ में रसीद लिये प्रगट हो गये थे और कागज का एक टुकड़ा पकड़ाते हुए मुझसे बीस रूपये पार्किंग-शुल्क के मांगे थे। मेरे यह कहने पर कि `अभी तक तो ऐसा नहीं था´ तो उनने कहा, `अब से ऐसा ही होगा।´ खैर, मैंने भी बिना जद्दोजहद के झट से बीस रूपया पार्किंग-शुल्क-कम गुंडा टैक्स समझते हुये अदा कर दिया था। बाद में मुझे किसी ने बताया था कि `चुनाव बाद अब इनकी सरकार बन चुकी है, इसके लिए इन्हें ऊपर से कहा गया है।´ यह सिलसिला तब से चला आ रहा था। 

             तो, एक वो चुनाव के बाद का दिन था और एक आज के चुनाव के बाद का दिन है। आज पार्किंग के ठेकेदार ने मुझसे पचास रूपए पार्किंग-शुल्क के मांगे। पूँछने पर पार्किंग वाले ने रविवार वाले दिन शुल्क बढ़ जाने की जानकारी दी। अब चुनाव के बाद का मेरा फील गुड जाता रहा और पार्किंग शुल्क की बैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने पर पार्किंग वाले ने बताया,

            `साढ़े सात लाख की बोली के बाद साल भर के लिए पार्किंग का ठेका हासिल किया था।´

                पार्किंग से होने वाली इनकम के बारे में मेरी जिज्ञासा पर उसने बताया,

              `रविवार जैसे दिनों में एक दिन में ही लगभग साठ हजार की आय हो जाती है।´

 

             मतलब, तब मैं यही सोच बैठा,

             `केवल साल भर के रविवार का ही इनकम अट्ठाइस लाख ठहरती है और ठेके की निलामी मात्र साढ़े सात लाख में..! यहाँ तो पूरा गोरखधंधा मचा हुआ है।´

              पार्किंग वाला थोड़ा चिन्तित था क्योंकि उसी के अनुसार,

              `चुनाव बाद तो सरकार बदल गई है, अब फिर से ठेका होगा और ठेकेदार भी बदल जाएंगे..अब उनके वाले लोग ठेका उठाएँगे´।

              जो भी हो, यदि बहुत हुआ तो चुनाव बाद केवल ठेकेदार बदल जाते हैं या फिर ये झंडा बदल लेते होंगे बस। कुल मिलाकर चुनाव बाद भी चुनाव पूर्व वाला गोरखधंधा चलता रहता है, ठेकेदार नेता की मजबूरी होते हैं। यह गोरखधंधा ही चरम-सत्य है, चुनाव तो आते-जाते रहते हैं। खैर..

            चुनाव बाद सब्जी-मंडी भी वैसे ही सजी मिली जैसे चुनाव के पहले सजती थी। सड़क पर डिवाइडर के एक तरफ सब्जी मंडी तो दूसरी ओर से आना जाना हो रहा था। यहाँ आसपास खड़ी गाड़ियों से बचते-बचाते धीरे-धीरे मैं अपनी कार निकाल रहा था। सामने एक स्कार्पियो खड़ी दिखी तो उसके बगल में पर्याप्त खाली जगह से निकल जाने की सोचते हुए मैं आगे बढ़ा ही था कि अचानक दिन के उजाले में ही उस स्कार्पियो की हेडलाइट मेरी आँखों को चौधियाने लगी! जैसे मैंने उसकी कोई तौहीन कर दी हो और हेडलाइट चमकाकर वह मुझे इसके लिए मुझे हड़का रहा हो। खैर, मैं रुका नहीं पास जाने पर मेरी निगाह उस स्कार्पियो के नम्बर-प्लेट पर पड़ी। राजनीतिक पार्टी के झंडे के रंग वाले इस नम्बर-प्लेट पर `विधायक´ लिखा देख मैं हेडलाइट जलाने का चक्कर समझ गया, सोचा-

          `जे बात है..! मतलब चुनाव बाद वाले ये नेता जी जैसे हेडलाइट जलाकर मतदाता की औकात बता रहे हों।´

          मुझे याद आया अभी चुनावपूर्व चुनाव आयोग ने इन लोगों से मोटर-ऐक्ट का खूब पालन करवाया था और अब चुनाव के बाद ये अपने ऐक्ट से हमारी आँखें चौधियानें में लग गए हैं। इस हेडलाइट के साथ ही मुझे यह भी एहसास हुआ कि आम टाइप के आदमी का खेल चुनाव बाद खतम हो जाता है और यह आम आदमी इनके रास्ते का अवरोध टाइप का बन जाता है। तो, अब चुनाव बाद ये नेता लोग ऐसे ही हमारी आँखों पर फोकस मारते रहेंगे। मैंने सोचा,

             ´काश! हमारे देश में चुनाव के बाद की परिस्थिति न हुआ करती..! और मैं तो कहुँगा, हमारे देश को हमेशा लोकतंत्र के मोड में ही डाल देना चाहिए क्योंकि तब आचार संहिता प्रभावित रहेगी।"

             इस तरह चुनाव बाद ये नेता-वेता लोग अलग तरीके का फोकस मारते हुए सदन के बाहर भी नियम-विधायक बने फिरते मिल जाएँगे ! अगर खुदा न खास्ता कोई भूले-भटके बाबूनुमा कार्यपालक इन्हें नियम कानून बताएगा भी तो, ये उससे यही कहते मिलेंगे -

           `जब तुम्हीं को सही-गलत बताना है तो, फिर हमारा क्या काम..? कहो तो मैं इस्तीफा ही दे दूँ..?'

             यह सुनकर किसी बेचारे कार्यपालक की घिघ्घी बँध ही जाएगी, क्योंकि वह नौकर जो ठहरा!

             खैर, ऐसा भी नहीं है, बेचारे जनता के इन प्रतिनिधियों का चुनाव बाद भी अपने वोटरों से सदाशयता बना रहता है। एक बार एक गरीब बूढ़ी औरत को अपने एक चुने जनप्रतिनिधि जी को खरी-खोटी सुनाते और लताड़ते हुए मैंने देखा था,

           `अब अइहो वोट मांगने तो बतउबे..तब तो काकी-माई कहत जीभि नाहीं थकत रहै औउर अब काम करै की बेरी नहीं होई सकथ !´

     

            नेता जी मुसकाते हुए यह सब सुनते जा रहे थे और उस औरत के जाने के बाद ही बोले थे,

          ´भाई ये मेरे वोटर हैं, अब इतना तो सुनना ही पड़ेगा।´

          चुनाव बाद अपने वोटर के प्रति किसी नेता का यह सदाशयता पूर्ण व्यवहार मुझे गहरे तक प्रभावित कर गया और मुझे लगा नेता जी बहुत गुलगुल गद्दी पर बैठे हैं।

              वास्तव में नेता सच और झूँठ से परे की चीज होता है। ये नेता लोग सच और झूँठ की जबर्दस्त धुनाई करते हुए दोनों को मिलाकर अपने लिए अरामदेह पदार्थ का निर्माण करते हैं। इसी पदार्थ से ये अपने लिए गुलगुल गद्दी बनाते हैं और अपनी कुर्सी पर धर इसी पर आराम से बैठते हैं। यदि कोई नेता ऐसी किसी प्रक्रिया से अनभिज्ञ होता भी है तो चुनाव बाद इसमें पारंगत हो जाता है। 

चोरी करि होरी रची, भई तनक में छार

          यह होली भी बीत गई। बीत क्या गई यह तो बचपन से ही बीतती आ रही है। बचपन में होली के दिन भांग के नशे में मुझे अपने अवचेतन में चले जाने का अनुभव प्राप्त है। जैसे नाचना न जानते हुए भी नाचने लगना या फिर ऊल-जुलूल न जाने क्या-क्या लिखते जाना...या फिर बेमतलब की हँसी आई तो हँसते ही चले जाना! हलाँकि फिर चैतन्यावस्था में लौट आने पर यही सब नशे में की गई बेवकूफियाँ लगने लगती हैं! कुल मिलाकर नशेड़ी नशे में मस्तमौला अंदाज में अपने अवचेतन में जाकर खुद-ब-खुद उठा-उठाकर बोधात्मक टाइप की चीजों को ऊल-जुलूल ढंग से फेंकने लगता है। वाकई! होरिहारों द्वारा होली में बोधात्मक-हास्य पैदा किया जाता है, जो अवचेतन की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। इसीलिए नशेड़ी रचनात्मक भी होता है।
            लेकिन हम जैसे फेसबुक पर कुछ टुँटपुजिया टाइप का लिखने वाले लोग लिखते समय खामखा गाहे-बगाहे अपने अवचेतन में चले जाते हैं और वह भी बिना किसी नशे में डूबे हुए! नशे में हुए बिना अवचेतन में जाना ठीक नहीं होता क्योंकि तब दिमाग यहाँ से किसी भी नाचती-फिरती चीज को गलती से हाथ लगा बैठता है, और वह चीज अपनी नहीं होती। वहीं एक नशेड़ी का नशे वाला अवतेतन, उसके मूल स्वभाव को ही पकड़ता है, तब व्यक्ति मौलिक होता है।
          मेरे समझ से साहित्यकार नशेवाली अवस्था में ही जबर्दस्त मौलिक होता है। अन्यथा की दशा में वह खराब हुए दिमाग से लिख रहा होता है। हाँ, बिना नशे में हुए अवचेतन में जाने की आदत पागलपन मानी जा सकती है, मतलब ऐसी स्थिति का लेखन खराब दिमाग का लेखन कहा जाएगा। 

             आज रात की बस-यात्रा में बस ड्राइवर तेज आवाज में टेपरिकार्डर बजाये जा रहा था जिसके एक गाने का मुखड़ा कुछ ऐसा ही था `हम पागल नहीं हैं, हमारा दिमाग खराब है´।
           वैसे एक बात तो माननी ही पड़ेगी, वह यह कि भँगेड़ी या गँजेड़ी वाकई, ये होते हैं बेचारे बड़े मौलिक ही..! अब जनता भी मौलिकता को पकड़ने लगी है। खैर..
          इस बार कई वर्षों बाद गाँव में जलती होली को देखने का अवसर मिला। बचपन में इसी स्थान पर हम भी होली लगाया और जलाया करते थे। गाँव वालों की, चोरी से लकड़ियाँ और उपले लाते और इस होली को ऊँचा और ऊँचा करते जाते। खैर, दादा जी इस बात से चिढ़ते और फिर सुनाते हुए कहते -

             "चोरी करि होरी रची, भई तनक में छार"
           
          मन ही मन अपने दादा जी की यह कहावत याद करते हुए जलती हुई होली को छार होते हुए देखते जा रहे थे।
          कहीं बिना नशे में आए अवचेतन की अवस्था में ही तो नहीं लिख रहा..? खैर....

अभिव्यक्ति या लड़िका की लंगोटी

             इधर दो दिन से परेशान हूँ कि कुछ लिखूँ, लेकिन लिख नहीं पा रहा, कारण व्यस्तता! और यह व्यस्तता कार्य की है और कार्य की   इसी व्यस्तता के चलते मन में उठते विचार अभिव्यक्ति पाने के पहले ही दम तोड़ रहे हैं। इस तरह विचारों को दम तोड़ते देखना और वह भी काम के चलते..! यह स्थिति देश की कार्य-संस्कृति के एकदम खिलाफ जान पड़ती है। पहले कभी सुना रहा होगा "बातें कम, काम ज्यादा" अब तो "बात जियादा और काम कम" जैसी कार्य-संस्कृति का ही बोलबाला है। हाथ कंगन को आरसी क्या, लगे हाथ इसका प्रमाण बोलने की आजादी के लिए झगड़ा करते लोगों को देख सुनकर मिल जायेगा। तो, अभिव्यक्ति पाने के पहले दम तोड़ते अपने विचारों को देख के यही मन होता है कि मैं भी अपनी ही विवेक-बुद्धि के खिलाफ आजादी की मांग करते हुए स्वयं के ही विरुद्ध धरने पर बैठ जाऊं, आखिर तभी न मन बदलेगा! और तभी मन का रुझान "बात जियादा, काम कम" की ओर हो पायेगा। 

           

              एक मुई अभिव्यक्ति है जो, आजकल अपना ठौर तलाशने में ही मशगूल है, कभी यह नेताओं के सिर पर चढ़कर बोलती है तो कभी आजादी के दीवानों के सिर पर बैठ इतराती है। वैसे नेता बिना बोले रह ही नहीं सकता और जो न बोल पाए समझिए वह नेता ही नहीं है। नेता की अभिव्यक्ति, कुत्ता, बिल्ली से लेकर गदहा, चूहा तक की सवारी कर आता है। फिर तो नेताओं की अभिव्यक्ति को कोई समस्या नहीं जान पड़ती। अब ऐसा भी विश्वास हो चला है कि अंग्रेजों ने जाते-जाते नेताओं को ही ठौर-ठिकाना बनाने के लिए अभिव्यक्ति का कान फूँक गये थे। सही भी है नेताओं का आश्रय पाकर अभिव्यक्ति के भी नखरे धरे नहीं किये जा रहे हैं और यह एकदम से घुमन्तु टाइप से कब्रिस्तान होते हुए श्मशान और फिल्मी पर्दे पर बाहुबली, कटप्पा तक घूम आती है। नेताओं के सिर चढ़कर अभिव्यक्ति बोलती है तो खूब बोलती है, मतलब इस तरह कि जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय अभिव्यक्ति..!! 

             देश के युवा टाइप के विद्यार्थीजनों की अभिव्यक्ति कभी-कभी लाइट..कैमरा...ऐक्शन के लिए मचल उठती है। सच में, आज यदि मेरे दादा जी होते तो अभिव्यक्ति की इतनी धमा-चौकड़ी देखकर यही कहते कि "अभिव्यक्ति न होकर लड़िका कइ लंगोटी होइ गइ है"। असल में ये बेचारे न तो बच्चा होते हैं और न ही सयाने और शायद इसी कारण इनपर कोई ध्यान ही नहीं देता जबकि ये इतने बड़े-बड़े युनिभरसिटी पढ़ रहे होते हैं। गाँव-घर में इनके माँ-बाप इनकी अभिव्यक्ति पर लगाम लगाये होते हैं लेकिन नेताओं के सिर चढ़कर बोलती कान फूँक अभिव्यक्ति के जलवे देख ये भी इस अभिव्यक्ति के मतवारे हो उठते हैं, और फिर शुरू हो जाते हैं। ये अभिव्यक्ति का मजा लेने के लिए उतारू होकर "हमरऊ खेल नाहीं बिगरऊ खेल" टाइप का खेल खेलने लगते हैं। खैर.. 

           ये मीडिया वाले भी अभिव्यक्ति को लेकर इन्हीं बच्चों के साथ हुड़दंग मचाना शुरू कर देते हैं। फिर तो, समवेत स्वर में इनकी चिल्ल-पों देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि इस धरती पर अंग्रेज सबसे जियादा बेवकूफ थे, उन्हें देश छोड़कर जाना ही नहीं चाहिए था। देशवासियों को केवल और केवल अभिव्यक्ति की अहर्निश आजादी चाहिए थी। यहाँ, अंग्रेजों को चाहिए यह था कि बस इसी अभिव्यक्ति की आजादी को सभी देशवासियों में बराबर-बराबर बाँट देते और अनन्तकाल तक राज करते।

               अभिव्यक्ति के ऐसे जलवे देखकर भी, रोटी के बदले अभिव्यक्ति चाहिए का मेरा भ्रम दूर हो गया है क्योंकि, मैं ठहरा नान-लेखक एलिमेंट! मतलब जो जिसका एलिमेंट हो उसे ही वह चीज दे दो भाई, कोई बात नहीं। इधर खाली-पीली लिखना ही मेरा काम-धंधा नहीं हो सकता और इसलिए लिखने की आजादी मैं नहीं मांग सकता। इसके लिए पेशा बदलना होगा और पेशा बदल नहीं सकता, क्योंकि तब यह मेरे लिए घाटे का सौदा होगा और घाटे का सौदा मुझे मंजूर नहीं। फिर क्यों मैं धरने पर बैठूँ..! तो भाई जान, यदि लोग इन नारेबाजों को कुछ काम-धंधा सिखाये होते तो हाथ उठा-उठाकर ये भी अभिव्यक्ति के पीछे न पगला रहे होते।

             खैर, नेता बनना भी तो एक पेशा है, और नेताओं के पास जबर्दस्त अभिव्यक्ति होती है, हो सकता है वही वाली आजादी चाहते हों..!! 
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मठाधीशी

रात में दो बजे के बाद बेचैनी में अचानक मेरी नींद खुल गई...बेचैनी कोई खास नहीं थी...एक स्वप्न ने मुझे बेचैन कर दिया था...!

            "मैं एक व्यक्ति के साथ किसी बस्ती में भ्रमण कर रहा हूँ....देखता हूँ...बस्ती में एक स्थान पर चबूतरा बना है..मेरे साथ वाला व्यक्ति मुझे बता रहा है..इस ऊँचे स्थान को आस्थान कहते हैं...आस्थान को मैं मठासन समझ रहा हूँ...जो चबूतरानुमा है..इसके सामने नीचे दूर दूर तक गरीबों का घर या उनके अलग-अलग स्थान फैले दिखाई दे रहे हैं...साथ वाला व्यक्ति बताता है..इस बस्ती में निवास करने वाली जाति का मठाधीश इसी आस्थान पर बैठता है...फिर हमें वह दूसरी बस्ती दिखाता है..उस बस्ती में भी वैसा ही चबूतरानुमा आस्थान है, जिसे मैं बस्ती के मठाधीश का आसन समझ रहा हूँ… फिर वहाँ ऐसी ही अनेकों बस्तियाँ दिखाई देने लगती हैं…उन सभी बस्तियों के अपने-अपने मठासन हैं..उनके अपने-अपने मठाधीश हैं...यह चबूतरेनुमा आस्थान मठाधीशों के लिए है ….ये बस्तियाँ अचानक गरीबों की अलग-अलग बस्तियों में बदल जाती है..और..आस्थान इन बस्तियों के रहनुमाओं का हो जाता है… बस्तियाँ सूनी दिखाई देने लगती हैं...मैं सोच रहा हूँ..इन बस्तियों के अपने-अपने रहनुमा होने के बावजूद  ये बस्तियाँ गरीब और उजड़ी क्यों दिखाई दे रही हैं!....इन बस्तियों को देखता हुआ मैं व्याकुल होता हो रहा हूँ…. “
           बस यही मेरा स्वप्न था…! बेचैनी में मेरी आँख खुल जाती है रात के दो बज रहे थे…अजीब बेवकूफी भरा स्वप्न था…इस स्वप्न का मतलब मैं खोजने लगा...धीरे-धीरे फिर से नींद के आगोश में चला गया….फिर नींद चार बजे खुली...सोचा पाँच बजे उठकर टहलने निकल लेंगे..एक बार फिर सो गया...अब नींद तिबारा खुली तो सुबह के पाँच बज रहे थे….यूँ बिस्तर पर पड़े-पड़े स्वप्न के बारे में सोचता रहा…और आलस्य भगाने का प्रयास भी करता रहा...
         टहलने के लिए निकला तो सुबह के पाँच बजकर बीस मिनट हो चुके थे… रास्ते में एक महिला अपने घर के सामने खुरच-खुरच कर झाड़ू लगा रही थीं… बेचारी महिलाएँ ही घर के अंदर-बाहर सफाई का जिम्मा लिए होती हैं…. कुछ दूर और आगे बढ़ा तो देखा सामने से दो महिलाएँ अपने सिर पर एक के ऊपर एक दो पानी के मटके रखे हुए चली आ रही थी… मतलब घर में पानी की व्यवस्था भी बेचारी औरतों के ही जिम्में होती है.. स्टेडियम पहुँचने पर एक कुतिया अपने चार-पांच पिल्लों के साथ टहलती दिखीं, पिल्लों में उसके दूध पीने की होड़ लगी हुई थी…! वाकई!  मातृत्व धारण करने वाली प्रजाति अद्भुत होती हैं...खैर।
           आज “हिन्दुस्तान” के “नजरिया” में महेन्द्र राजा जैन का एक बेहतरीन लेख “भविष्य की लय-ताल और कविता का भविष्य” पढ़ा। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए -
          “मुद्रण कला के आविष्कार के बाद कविता केवल चुपचाप या फिर एकांत में पढ़ी जाने के लिए लिखी जाती रही है। वह श्रव्य परंपरा से लगातार दूर होती गई।”
            “कविता वस्तुतः भाषा और शब्दों का श्रेष्ठतम चमत्कार है।”
           “कविता लिखित रूप में परिरक्षित की जाती है, लेकिन वह जीवित श्रव्य रूप में ही रहती है।”
             “विदेशी भाषाओं के अज्ञान की तरह ही कविता सुनने की कमी हमें मानवता के अनुभवों से दूर रखती है।”
           खैर, आज के दौर में मठाधीशी के सिवा किसी को कुछ सूझता ही नहीं..कविता में लय कहाँ से आयेगी! हर क्षेत्र में मठाधीशी..अन्य को नियंत्रित करते हुए...
          चलते-चलते एक बात और बता दें... झाड़ू के दिन बहुर आए हैं…यह झाड़ू अजब-गजब हाथों को सुशोभित कर रही है...पर झाड़ूबाजी से सावधान रहना होगा…कि...कहीं झाड़ूबाजी के चक्कर में लोग आपके काम की चीजों पर भी न झाड़ू लगा दें...