मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

लाल बत्ती

      वे दौड़-दौड़ कर अपनी लाल बत्ती उतार रहे हैं। जैसे बत्ती उतारते हुए ये कह रहे हों, “लो अभी हम भी, आम आदमी टाइप का बने जा रहे हैं।”  मतलब यही एक बत्ती ही तो थी, जो उन्हें आम आदमी नहीं बनने दे रही थी। अब इन्होंने आम आदमी बनने का ठान लिया है, लालबत्ती उतार कर ही दिखाएंगे। और हाँ, अब आम आदमी के लिए काम करते हुए उसके जैसा दिखना भी तो चइए! 
        
         भाई, अजब तमाशा है!! दरअसल इस देश को, इसी तरह से समस्याओं का इलाज भी मिलता रहा है, एकदम चूरनछाप अंदाज में..! कि, चूरन फांकों और समस्या से निजात पाओ, वैसे ही लालबत्ती उतारो और वीवीआईपी-पने से निजात पाओ। इधर जनता भी खुश है, जैसे उसके हाथ कोई मनरेगा टाइप की योजना लग गई हो और उसकी रोजमर्रा की समस्या खतम!! 
         
           लेकिन आपको नहीं पता, ये लालबत्ती उतारे हुए लोग तो, आवश्यक सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले लोग हैं! सच तो यह है, इन लाल बत्ती वालों की यह एक अदद बत्ती ही तो थी जिसे देखते ही हम इनसे सावधान हो जाते थे। हमें तो बस चिन्ता इस बात की हो रही है कि इनकी लालबत्ती उतर जाने से अब हम इनसे कैसे सावधान होंगे? फिलहाल संतोष की बात यही अावश्यक सेवाओं की बत्ती लिए हुए तो ये दिखेंगे ही! आखिर आमजन के भाग्योदय का अधिकार भी तो इनने थाम रखा है। लेकिन अपने देश का यह आमजन बेचारा “जाहीं विधि राखे राम ताहीं विधि रहिए” की मान्यता का चिरकालिक विश्वासी है, उसे अपने भाग्योदय की कोई जल्दी नहीं पड़ी है। फिर भी, भाग्योदय का नारा बुलंद करने वाले कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो कुर्सीधारी व्यक्ति के आभामंडल के सितारे बन उसके चारों ओर निरंतर परिक्रमा-पथ पर चलायमान होते हैं और फिर ऐसे आभामंडल से युक्त वह कुर्सीधारी देवतूल्य होने का दर्जा प्राप्त कर लेता है। हाँ तो भाई, अब उतारते रहो बत्ती!! 
      
           एक दिन बिना बत्ती की गाड़ी देखी थी। एकदम आम आदमी टाइप जैसी गाड़ी, बस उसका माडल थोड़ा अलग किस्म का था, लेकिन बिना लालबत्ती के भी, उसे देखते ही मैं समझ गया, “हो न हो यह वीवीआईपी गाड़ी है!” और, मैं ही नहीं कोई भी दृष्टि-दोष-बाधित आदमी बिना लालबत्ती के भी इसे लाल बत्ती वाली गाड़ी समझ लेता। क्योंकि, अपना भाग्य बदलवाने के चक्कर में, मेरी समझ से, उस वीवीआईपी गाड़ी के आभामंडल के सितारे की तरह, उसका चक्कर काटते हुए हाँफते, लाँघते, आम आदमी को रौंदते मुस्दंडे टाइप के लोग उस गाड़ी के आगे-पीछे भागे चले जा रहे थे ! लो, अब उतरवाओ लालबत्ती! क्या-क्या उतरवाओगे भई?

रविवार, 16 अप्रैल 2017

कृपया दर्शन को धर्म में न बदलें..

          कोई भी संस्कृति तलवार के बल पर कायम नहीं रखी जा सकती। तलवार के बल पर कायम संस्कृति में केवल बूचड़खाने की ही संस्कृति पनपती है, जो शायद किसी भी सभ्य समाज को स्वीकार नहीं होगा। संस्कृति तो तर्कों की स्वतंत्रता में पल्लवित होती है और इससे जो श्रेष्ठतम निकलता है वही सर्वमान्य बन जाता है तथा बहुत सारे मजाक समय की गर्त में खो जाते हैं। हमारी संस्कृति में देवताओं का मजाक उड़ाना कोई नई बात नहीं है, हमारे बीच वेद को न मानने वाली दार्शनिक विचारधारा भी रही है और इसके प्रति किसी हिंसक विरोध का इतिहास भी नहीं मिलता।
         हमारे यहाँ सत्य को चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कहा गया है, मतलब हम अन्तिम सत्य को इन तर्कों से होते हुए ही पाते हैं। वाकई, बौद्ध दर्शन में भी माध्यमिक शून्यवाद का प्रतिपादन वेदों के चार तर्को के आधार पर ही किया गया है, यही नहीं जैन दर्शन मे भी "अनेकान्तवाद" हमारी तर्क प्रणाली का सर्वोत्तम उदाहरण रहा है ।
         यहाँ गीता का यह श्लोक भी द्रष्टव्य है-
         नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
         उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।
"असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सतका अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व, तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है ।"
            अर्थात, कहने का आशय यही है कि हम भाव, अभाव, अभावाभाव और भावाभाव के परे जाकर चरम सत्य को खोजने का दर्शन प्रस्तुत किए हैं। सच तो यह है, जिस सनातन संस्कृति की बात हम करते हैं उसका आधार वेद, उपनिषद और वेदान्त की दार्शनिक विचारधारा ही रही है और इसके बिना सनातन संस्कृति का कोई अस्तित्व ही नहीं। फिर अब क्यों एक छोटी सी बात हमें अपनी मान्यताओं पर खतरे के रूप में दिखाई देने लगी है?
         एक बात और, जिसे हम सनातन सभ्यता कहते हैं इस सभ्यता में हमें एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ किसी की हत्या उसकी किसी विचारधारा को लेकर की गई हो। जबकि युरोपियन सभ्यता में सुकरात को भी विष का प्याला पीना पड़ा था। हम अपने देवी देवताओं के जिन अस्त्र-शस्त्रों का बखान करते हैं वह भी अन्याय के ही विरुद्ध था न कि किसी वैचारिक विरोधी की हत्या के लिए।
          "हम भारत पर गर्व करते हैं" आखिर ऐसा क्यों? क्या हम भारत की गरीबी पर गर्व करते हैं ? या अमानवीय जातीय भेदभाव वाली व्यवस्था पर गर्व करते हैं? या फिर हम अपनी काहिली पर गर्व करते हैं? नहीं हम इन सब पर गर्व नहीं करते। हम गर्व करते हैं अपनी भारतीयता पर और अपनी सर्व समावेशी संस्कृति पर ! शायद हम भारतीयों की यही जमापूँजी भी है नहीं तो, हम आज तक अपने देश को क्या दे पाये हैं..? ये हमारे देवताओं के गिनाए जा रहे अस्त्र-शस्त्र भी इस भारत की गरीबी, भुखमरी, जातिवाद, असमानता, भ्रष्टाचार, को मिटाने के काम नहीं आ रहे हैं। इन भोथरे अस्त्रों से अब किसी धर्मस्थापना का युद्ध नहीं लड़ा जा सकता क्योंकि ये भोथरे हो चुके हथियार मात्र सुविधाभोगियों के लिए ही रह गए हैं। यदि ये हथियार काम आए होते तो भारत हजार वर्षों की पराधीनता में न जकड़ा रहा होता।
            भाई मेरे ,यह कहना बौद्धिकवाद नहीं है वास्तविकता है, धर्म के हथियार से लोगों को केवल कुछ दिनों तक बरगलाया जा सकता है और धर्मस्थापना इसके बल पर होती भी नहीं। भारत में भारतीयता यदि आज भी बची है तो आम मेहनतकश रोजमर्रा की साधारण सी सहज जिन्दगी जीने वालों के ही कारण ही, बाकी संकट में ये अस्त्र-शस्त्र उठाने की बाते करने वाले लोग पीछे दुबक जाते हैं या फिर गुलछर्रे उड़ाने की जुगत भिड़ा लेते हैं, उदाहरणार्थ, अंग्रेजों के समय यही सुविधाभोगी वर्ग गुलामी का कारण रहा है। तो..
           बस हमारी यही चिन्ता है कि हम मात्र एक सम्प्रदाय भर बनकर न रह जाएं। एक साम्प्रदायिक सोच में जकड़े हुए हम वैज्ञानिक सोच, मानवीयता, वैचारिक स्वतंत्रता और तार्किकता से कोसों दूर होते चले जाएंगे, जैसा कि जब से हमने अपने दर्शन को धर्म में बदला है तब से देख रहे हैं और इस चक्कर में हम किसी नए वैज्ञानिक सोच को फिर नहीं जन्म दे पाए हैं..!!!

नाहक ही जान चली गई!


        आज सुबह टहलने निकला तो देखा गायें, आराम से बैठी पगुरा रहीं थी, लगा इनका पेट भरा हुआ है। ये अन्ना जानवर हैं, मतलब इनका कोई मालिक नहीं या फिर इन्हें ऐसे ही लोग भटकने के लिए छोड़ देते हैं। इधर क्या है कि बुंदेलखंड में अन्नाप्रथा जोरों पर प्रचलित है, गौवंशीय पशुओं को लोग छुट्टा छोड़ देते हैं। यह एक तरह से सामाजिक कुप्रथा का रूप धारण कर चुका है। हमारे पूर्वांचल जौनपुर में, हम बचपन से जिस पशु का कोई राजी-गहकी न हो ऐसे पशु को बहेतू पशु कहते आए हैं। ये अन्ना पशु, बहेतू टाइप के ही पशु होते हैं।

         तो, इधर बुंदेलखंड में खेत अब धीरे-धीरे खाली हो चले हैं, फसलें कट चुकी हैं। इन बेचारे अन्ना गौपशुओं को चरने के लिए कम से कम फसल से खाली हुए खेत मिलने लगे हैं, नहीं तो, अभी कुछ दिन पहले झुंड के झुंड अन्ना पशुओं को कोई न कोई इनसे अपनी फसलों को बचाने के चक्कर में इधर से उधर हांकता दिखाई पड़ जाता। खैर आज ये यहाँ बैठे आराम से पगुराते दिखे। इन गौपशुओं को देखते ही मुझे ध्यान आया, कल की ही बात है, जब एक व्यक्ति मुझे बता रहा था, उसके मुहल्ले में एक पंडितजी हैं जो अपनी गाय को एक रोटी खिलाकर दूध दुह लेते हैं, इसके बाद उसे अन्ना पशु की तरह छोड़ देते हैं, और अगर वह गाय बेचारी जाना नहीं चाहती है तो पंडित जी उसके ऊपर पानी छोड़कर उसे जाने पर मजबूर कर देते हैं। यह उनका रोज का काम है, और वह गाय बेचारी दिनभर अन्ना पशु बनकर भटकती रहती है। खैर..
           
           मैंने कई बार यहाँ के लोगों से पूर्वांचल के बारे में बताया कि हमारे यहां जौनपुर में गौवंशीय पशुओं के प्रति ऐसी कोई कुप्रथा नहीं है। कोई अपनी गाय चाहे वह दुधारू न भी हों, फिर भी उन्हें पालते हैं, गौ-सेवा करते हैं। मुझे याद है बचपन में यदि कभी हमारे खेत में कोई छुट्टा जानवर फसल को नुकसान पहुँचाता मिलता तो हम उसे गांव के दूसरे छोर पर हाँक आते थे।

           इस बार अपने गाँव जाने पर मैंने बुंदेलखंड के अन्नाप्रथा की चर्चा करते हुए जब कहा कि अपने यहाँ ऐसी कोई प्रथा नहीं है और इसीलिए कोई छुट्टा गौवंशीय पशु दिखाई नहीं पड़ता, तो मुझे बताया गया, "अरे ऐसा नहीं है यहाँ भी लोग अब अपने बेकार हुए गौपशुओं को छोड़ देते हैं, जो फसलों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं, इन पशुओं को हाँक कर फला जगह की बाउंड्री में कर दिया जाता है, वहाँ ऐसे ही जब चार-छह पशु इकट्ठे हो जाते हैं तो फिर वहीं से उन पशुओं को बाहर भेज दिया जाता है इसके लिए पांच-छह हजार रुपये वे उठवाने के ले लेते हैं।" मैं सुनकर दंग हो गया था, सोचा यहां का अन्नाप्रथा तो बुंदेलखंड से भी क्रूर है, कम से कम बुंदेलखंड में ऐसा होता तो नहीं दिखाई देता। यहां हांकने, और पशुओं को चोरी से किसी छोटी गाड़ी में पैसों के लालच में भरकर ले जाने देने वाले सभी गौ को माता कहने वाले लोग ही होते हैं।

          उस दिन टीवी पर राजस्थान में गौ तस्कर के नाम पर एक हत्या पर परिचर्चा को देखकर सोचा था, कि इस बात को आपसे शेयर करुँगा, उस बेचारे की नाहक ही जान चली गई! लेकिन फिर भूल गया। सुबह गायों को पगुराते देखकर यह बात याद हो आई।

ईवीएम का व्यवहार

           उन दिनों बैलेट पेपर से वोटिंग का जमाना था, हम भी बूथ-बूथ मजिस्ट्रेट बने फिर रहे थे तब नौकरी के भी शुरुआती दिन थे, तो ठसक भी था। ऐसे ही वोटिंग के दिन मजिस्ट्रेटी करते-करते जब एक बूथ पर पहुँचे तो दिन के लगभग इग्यारह बज रहे होंगे पीठासीन अधिकारी जी ने बीस-पच्चीस पर्सेंट वोटिंग बताया था और मतदाताओं की कोई लाइन-वाइन भी वहाँ नहीं लगी थी, मतलब एकदम सुचारू ढंग से परिपूर्ण शान्तिपूर्ण दृश्य था...मैं इत्मीनान के साथ दूसरे मतदान केंद्र की ओर निकल पड़ा था। करीब एक घंटे बाद मैंने फिर इसी मतदान केंद्र की ओर रुख किया था। उस बूथ की ओर जाते हुए मुझे रास्ते में उसी बूथ की ओर से लौटते हुए एक नेता जी अपने लाव-लश्कर के साथ दिखाई पड़े थे। खैर, मैं बूथ पर पहुँचा बूथ पर शांतिपूर्ण सन्नाटा था, पीठासीन अधिकारी ने अबकी बार मतप्रतिशत सत्तर प्रतिशत बताया! मैं इस मतप्रतिशत से उचक कर पीठासीन से बोल बैठा, “एक घंटे में ही मतप्रतिशत पच्चीस से सत्तर कैसे पहुँच गया, जबकि यहाँ मतदाताओं की लाइन भी दिखाई नहीं दे रही?” इस पर पीठासीन ने बताया कि मतदाता लोग मत डालकर चले गए हैं, हमें कोई समस्या नहीं है। खैर.. 
            
            पीठासीन की बातों से मैं विचलित सा हो गया था, निश्चित रूप से अचानक बूथ से लौटते नेता जी ही बढ़े मतप्रतिशत का कारण थे। मैं समझ नहीं पा रहा था, शायद, उनके कुर्ते की जेब में ही मतदाता भरे रहे हों, तब वो नेता जी मुझे यूटोपिया के गुलिवर जैसे विराट पुरुष नजर आने लगे थे, और वोटर सहित हम स्वयं, नेता जी के जेब में समाने वाले बौने नजर आए ! खैर, तब मैं उदास सा एक पेड़ की छाया में आ खड़ा हुआ अपने अकर्त्तव्यनिर्वहन पर मन मसोसकर सोचने लगा था। उस समय मेरा ड्राइवर मेरे पास आया और बोला, “साहब, जब पीठासीन सब ठीक बता रहा है तो आपको क्या पड़ी है, आइए दूसरी ओर चलें, यहाँ खड़े रहना ठीक नहीं” और फिर मैं भी अपनी मजिस्ट्रेटी अपने जेब में रख वहाँ से खिसकना ही उचित समझा था। 
      
              खैर, ये हुई बैलेट पेपर की बात अब आते हैं ईवीएम पर। अभी बीते चुनाव में मैं स्वयं जिले भर के मतदान कार्मिकों के प्रशिक्षण का प्रभारी था, मतलब जनपद के सभी मतदान कार्मिकों को ईवीएम का प्रशिक्षण दिलवाना था, जनपद भर के इंजीनियरों को मास्टर ट्रेनर बनवाया और इनसे प्रशिक्षण कार्य कराया गया। सबको माक पोल द्वारा बताया गया कि देखो, “जिसको वोट दिया जा रहा है उसी को वोट जा रहा है।” चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ, और इधर अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम पर मुझे भी गर्व हुआ।  
        
             लेकिन कहते हैं न, काम की सफलता से उपजी खुशी किसी से देखी नहीं जाती और ईवीएम पर ही वोट चोरी करने का आरोप मढ़ दिया गया। बेचारी एक मशीन, जिसे किसी राजनीति से कोई मतलब नहीं, कोई जीते कोई हारे, उस पर कोई फर्क नहीं, उसी बेचारी मशीन पर आरोप! किसी ने मशीन को हैक कर लिया, मशीन में छेड़छाड़ कर दिया..!! या यह ईवीएम न हुई नेता जी की जेब हो गई, जिसमें मनचाहा वोट भर लो और अपने ठप्पे लगा-लगा बैलेट-बाक्स में डाल दो जैसा, उन नेताजी ने बैलेट पेपर वाले चुनाव में किया था।
         
           इस आरोप के बाद तो मेरे ईवीएम प्रशिक्षण पर पानी फिर गया..अब तो प्रशिक्षण का श्रेय लेने में भी धुकधुकी उठ रही है, कि कहीं छेड़खानी का आरोप हमीं पर न मढ़ दिया जाए। इस ईवीएम ने तो हमें भी धोखा दे दिया..! आखिर, मेरे सामने ईवीएम का व्यवहार सौ टके ईमानदारी वाला था, जिसका वोट उसी को मिलता हुआ इसने दिखाया था…तो फिर, यह गड़बड़ कहाँ हुई..! खैर.. ईवीएम बेईमान कैसे हो गई इस खोज में मैं निकल भी लिया..
        
           संयोग से मुझे गली के किसी नुक्कड़ पर, नेता जी अपने उसी पुराने टाइप वाले दबंगई के अंदाज में वोटर से ईवीएम में डाले गए उसके वोट का पता पूँछते दिखाई पड़ गए, मरियल सा वोटर उनके सामने खड़ा रिरिया रहा था, नेता जी की मैंने भी आवाज सुनी, “क्यों बे, तू अगर हमें वोट दिया होता तो हम हारते कैसे..?” अपने मूँछों को ताव देते नेता जी की ओर देखते हुए वोटर रिरिया रहा था, “अरे नहीं नेता जी, ऊ मशीनवा में वोटवा हम आपही को दिये रहे, जरूर ऊमा कुछ गड़बड़ रहा होगा..ऊ तोहार वोट ऊनका मिलि गवा..” बस फिर क्या था नेता जी को भी जैसे अपने हारने के कारण का क्लू मिल गया, “अब ई ईवीएम ही तो है, यह अपने ऊपर लगे आरोप पर सफाई देने के लिए थोड़ी न प्रेसकांन्फ्रेंस करेगा” और, नेता जी के चेहरे पर चुनावी हार के बाद पहली बार खुशी छलक उठी थी,चेहरे का पसीना पोंछते हुए झट से हाईकमान को अपना मोबाइल लगा दिया, “अरे ऊ का है कि ईवीएम में भोट आप ही को पड़ा था, लेकिन ईवीएम ने ही अन्दरखाने गड़बड़ कर आपका सारा भोट विरोधी पक्ष मे ट्रांसफर कर दिया!” वाह भाई नेता जी! वोटर को तो आपने कहीं का न छोड़ा, मतलब चुनाव हारे तो ईवीएम ने हराया और चुनाव जीते तो ईवीएम ने जिताया..! गोया, वोटर गया तेल लेने। 
         
           वाकई, इस ईवीएम ने अब पाशा उलट दिया है यह मशीन न होकर महानायक हो गया है, गुलिवर की तरह विराट मानव! इस ईवीएम को जाति-धर्म का गुणा-गणित नहीं मालुम, इसने तो निश्चित ही अपना काम ईमानदारी से किया होगा अन्यथा बैलेट-पेपर वाले जमाने के विराट मानव आज असहाय टाइप के बौने न बन गए होते !! खैर, भैलेट-पेपर से भोटिंग होता तो कम से कम इनके लिए एक घंटे में दो-चार सौ वोट बैलेट-बक्स में ठूँसने में आसानी रहती, लेकिन ससुरा ईवीएम, ऐसा काम झटापट नहीं निपटाता, दूसरे सीटी भी बजाता रहता है…
       
            अब यह बात मेरे समझ में आ गई, ईवीएम ने वोटर को उसका वोट सौंप दिया है, किसी और को, उसके वोट पर कब्जा जमाने नहीं दे रहा! बौखलाए लोग इस ईवीएम को ही रास्ते से हटाने के प्लान में लग गए हैं, अन्यथा वोटर की बजाय नेता जी इस बेचारी मशीन के विरोध में न होते। मैं तो ईवीएम के विरोधी नेताओं से बस इतना ही कहुँगा, “नेता जी..ई.अब आप भी ऐसा साफ्टवेयर डेवलप करें कि यह ईवीएम, चोरी हुआ आपका वोट, आपको वापस लौटा दे।”

सेल्फी

        इस समय किसी को कुछ समझाना बड़ा मुश्किल काम है, क्योंकि सब सेल्फियाए हुए से हैंं। क्या समझने वाला और क्या समझाने वाला दोनों एकदम सेल्फिश टाइप के हो चुके हैं। ये हाथ में मोबाइल कैमरा लिए हुए जैसे अपने देखने का नजरिया ही बदल डाले हैं, इन्हें केवल अब अपने को ही देखने से फुर्सत नहीं है। ये मोबाइल उठाए जहाँ मन में आए सेल्फी विथ डिफरेंस टाइप का मनमाफिक पोज धारण कर चेहरे को विभिन्न कोणों से विचुकाते हुए आड़े-तिरछे हो सेल्फी वाले कैमरे में निहारते हुए देखे जा सकते हैं।
         सेल्फियाने के बाद इन्हें अपना संसार बड़ा मनमोहक लगता है, बल्कि जीवन और जगत की प्रत्येक वस्तु को सेल्फी के मोड में ही रख कर देखना शुरू कर देते हैं, या उससे अपने को अटैच कर लेते हैं और कैसा भी दृश्य हो उसे बैकग्राउंड में रख झट से कैमरा आन कर एक सेल्फी हो जाए के अन्दाज में प्रकट हो जाते हैं। आशय यह कि पूरी दुनियाँ जैसे इनकी सेल्फी के लिए ही बनी है।
         सच में इस सेल्फी ने देखने का नजरिया ही बदल दिया है, अब लोग अपनी सेल्फी के साथ दूसरों की सेल्फी को केवल इसीलिए निहारते हैं कि अपनी सेल्फी को और चमकदार तथा भव्य बना सकें। मतलब तेरी सेल्फी से मेरी सेल्फी बढ़िया है टाइप का। कई बार ऐसा भी होता है कि एक खासा अच्छा-भला, हँसने-बोलने, मुस्कुराने वाला और दिलदार  इंसान कैमरा देखते ही अपना पोज बदल अचानक सेल्फिया उठता है, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चलने लगी हो और वह किसी किरदार में खो गया हो।
          दिक्कत यही है, सेल्फी रोग से ग्रस्त इंसान हाथ में मोबाइल लिए बस केवल और केवल सेल्फी वाले फोटो के साथ अपने को ही लोगों पर जबरिया प्रक्षेपित करने में मशगूल हो जाता है। एक अजीब से व्यामोह में जैसे फंसा हुआ सा उसे दूसरों की सेल्फी से जैसे अन्दर ही अन्दर चिढ़ सी हो जाती है। अरे भाई! जरा सोचिए, हमें सेल्फियाने का अधिकार है तो क्या दूसरे अपनी सेल्फी नहीं ले सकते..? अपनी ही सेल्फी हम दूसरों पर क्यों थोपें..!
          वैसे यह इस सेल्फी रोग के खतम होने का कोई चांस दिखाई नहीं देता...चलिए तब तक हम अपने-अपने सेल्फी मोड में ही बने रहें। जो सेल्फी नहीं ले सकते उन्हें अपने बैकग्राउंड में रख सेल्फियाते रहें।

हम काम तो कर रहे हैं!

बुंदेलखंड में फँसे पड़े हैं और इस खंड में गर्मियों के दिनों में विकास विभाग की नौकरी कुछ ज्यादई दौड़-धूप वाली हो जाती है, मतलब यहाँ काम करते हुए दिखना बहुत जरूरी होता है। इधर यहाँ के लोग हैं कि, मतलब जिनके लिए काम करना है, उनकी जैसी यह चिर-मान्यता चली आ रही है कि सरकारें ही सब काम करती हैं, क्योंकि भाई, हम तो फिजिकल समस्या से पीड़ित हैं, हम तो कुछ कर ही नहीं सकते! यहाँ की राजनीति भी इन सब बातों का खूब फायदा उठाती है। यहाँ विकास का पहिया भी उसी तरह से चलने लगता है, कि देखो भाई, हम काम तो कर रहे हैं, अब तुम फायदा न उठा पाओ तो इसमें हमारी क्या गलती?

           जैसे सरकार ने यहाँ छोटी, बड़ी, मझोली जैसे कई स्तरों वाली कृषि मंडियाँ खूब बनवाई, अब अगर यहाँ के लोग इसका फायदा न उठा पाएँ तो बेचारी सरकार का क्या दोष..! एक बात है, मैंने इतनी कृषि उत्पादन मंडियाँ उन क्षेत्रों में भी नहीं देखी हैं जिन क्षेत्रों में बम्पर कृषि उत्पादन होता है। मैंने इन मंडियों को देखकर यही अनुमान लगाया हुआ है कि शायद कोई सरकार इन खाली पड़ी और विरानी मंडियों को देखकर पसीजते हुए अब सिंचाई संसाधनों का विकास करेगी, तब जाकर कृषि उत्पादन बढ़ेगा और मंडियों में उपज आएगी। यह तो निश्चित है कि इन मंडियों में उपज आने में अभी लंबा सफर तय करना होगा। लेकिन चिंता है, तब तक कहीं इन मंडियों की दशा इस क्षेत्र में भ्रमण के दौरान देखे गए अच्छे-भले उस हैंडपंप जैसी न हो जाए जिसे एक ग्रामीण ने चबूतरा बना कर ढक दिया था। नीचे हैंडपंप का फोटू दिए दे रहे हैं देख लीजिएगा।
     
            मैं तो कहता हूँ यहाँ बेचारी सरकारें विकास तो करना चाहती हैं लेकिन यहाँ के लोगों की मानसिकता ही खराब होती है। अब पता नहीं क्यों खराब हुई है यह मानसिकता? यह भी एक शोध का विषय है, या मंडियों जैसे विकास कार्यक्रमों का तो इसमें हाथ नहीं? खैर.. हमसे क्या हम तो काम करते हुए दिखना चाहते हैं, भाई यह हमारी रोजी-रोटी का प्रश्न है, नकारा बनने से बेहतर है कुछ काम करके दिखाओ, कृषि मंडी बनाओ, बावजूद इसके कि अभी तक खेतों तक पानी ही नहीं पहुँचा पाए हैं।
    
             हाँ तो मित्रों, इसी देखने दिखाने के चक्कर में कभी-कभी प्रापर नींद नहीं ले पाते तो सुबह का टहलना कैंसिल कर देते हैं। लेकिन कल जब सुबह पाँच बजे टहलने के लिए घर से निकलने लगे तो पहली ही नजर पतझड़ से पत्ती विहीन हुए पीपल के पेड़ की टहनियों के बीच से झाँकते खूबसूरत चाँद पर पड़ी, ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी कैनवास पर कोई खूबसूरत चित्र दिख गया है, मतलब डंठलनुमा डालियों के बीच से यदि चाँद जैसी रोशनी छिटकते हुए दिखाई दे तो देखने वाले को ऐसा दृश्य, खूबसूरत दिखाई देने लगता है। खैर..अपनी पत्तियाँ खो चुके उस पेड़ को यह चमकाता चाँद कितनी खुशी दे पा रहा होगा यह बेचारा वह पीपल का पेड़ ही जाने..!
             
            अब आगे बढ़े तो एक गौ-माता अपने बछड़े के साथ सड़क के किनारे पालिथीन में कुछ तलाश रही थी, इधर मैं भी आज फोटू लेने के मूड में ही निकला था झट से फोटू खींच लिया। इसके आगे बढ़ा तो एक हैंडपंप से पानी भर कर सिर पर एक के ऊपर एक घड़ा रखे जाते एक महिला दिखी, पीतल टाइप का घड़ा रोशनी में खूबसूरत ढंग से चमक रहा था, सोचा इस दृश्य को भी अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लूँ, जेब से मोबाइल निकाल फोटू लेने को ही हुआ था कि अचानक ध्यान आ गया कि ऐसी गलती नहीं करनी है, और अगर कहीं इस फोटू लेने के चक्कर में रोमियो एंड कम्पनी का सदस्य समझ लिया गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे, फिर बिना फोटू लिए धीरे से मोबाइल को जेब में डाल लिया था।
        
            अंत में, चीजें ऐसे ही चलती रहती हैंं..या हम बदल नहीं पाए..किसी खूबसूरती में खो गए....!!!

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

भावनाओं की नहीं तर्क करने की आजादी होनी चाहिए...

         कोई मेरे भगवान को भला-बुरा कहे तो भी मेरा खून नहीं खौलता... शायद, मैं कायर तो नहीं...? लेकिन नहीं मैं अपने को कायर नहीं समझता...क्योंकि मैं जिस भगवान को मानता हूँ.. वह अपनी निन्दा या प्रशंसा से तनिक भी प्रभावित नहीं होता...वह समभाव बना रहता है..! मेरा भगवान..बस हो सकता है, इन बातों को देख-सुनकर मुस्कुराता भर हो...!! मैं अपने भगवान की इस अदा का कायल हूँ....इसीलिए, जब कोई मेरे भगवान को गाली देता है, तो मेरी भक्ति मेरे भगवान में और दृढ़ हो जाती तथा गाली देने वाले की ओर देखकर मैं भी बस मुस्कुरा देता हूँ...
         ..... अगर हमारे अन्दर स्वयं की आलोचना सुनने का माद्दा नहीं है तो हम दूसरों की आलोचना किस मुँह से कर सकते हैं...? फिर तो, यदि कोई अपनी खराबी को ही अपनी अच्छाई मान रहा हो और इसे वह अपनी भावना का विषय बताए तो हम उसकी आलोचना कैसे कर सकते हैं? क्योंकि तब उसकी भी भावना आहत हो सकती है! हमें चीजों को व्यापक नजरिए से देखना चाहिए। हमें भावना आहत होने के तर्क को न मानते हुए अपने मत को स्थापित करने के लिए ठोस तर्क प्रस्तुत करने चाहिए। अन्यथा, हम वैचारिकता के अन्धकूप में अपने को ढकेले हुए पाएंगे, जैसा कि आज दुनियां में अपनी भावनाओं को लेकर छेड़े गए हिंसक संघर्षों में हम देख सकते हैं।

मूर्खता के दराज में

          वैसे, मूर्खता लेखन-कला टाइप एक बुद्धिमत्ता पूर्ण कृत्य है। तो, मूर्खता अपने आप में एक बुद्धिमत्तापूर्ण कला है। विश्वास मानिए! यदि कोई अपने को लेखक मानकर बुद्धिमान समझता है तो यह उसकी एक बड़ी भूल होगी। घर में तो निश्चित ही उसे मूर्ख समझा जाता होगा। यही नहीं, कई बेचारे भावुक कवियों को तो घर के अलावा बाहर वाले भी मूर्ख मानकर ही इनकी चुटकी लेते देखे जा सकते हैं।वैसे ये कवि बेचारे बेहद भावुक किस्म के जीव होते हैं और भावुकता अपने आप में मूर्खतापूर्ण बुद्धिमत्ता ही होती है। तो, लेखकों में मूर्खतापूर्ण ढंग की बुद्धिमानी होती है। इसी वजह से कवियों, खासकर मंचीय कवियों की लोग अजीब ढ़ग से तफरी भी लेते हुए देखे-सुने जाते हैं!

       और हाँ, लेखन कला में आजकल व्यंग्य का बड़ा जलवा है, यहाँ प्योर बुद्धिमानी दिखाई देती है। मतलब प्रत्येक व्यंग्यकार आज सबसे बड़ा बुद्धिमान है। अब जो सबसे बड़ा बुद्धिमान होता है हम उसे क्या कहेंगे! निश्चित ही वह मूर्खता के पायदान से होते हुए बुद्धिमानी के आसन तक पहुँचा होगा। प्रत्येक व्यंग्यकार अपने में जेम्सवाट टाइप का ही होता है। लेकिन मैं किसी भी व्यंग्यकार की टेढ़ी अंगुली से घी निकलता नहीं देख पाता। बेचारे ये लाख सरोकारी बनें, केवल छप-छपाकर खप जा रहे हैं और घी खाने वाले अपनी तईं घी खाते जा रहे हैं। यहाँ बुद्धिमत्ता और मूर्खता सब गड्डमड्ड टाइप का हो रहा है।

        तो, यहाँ इति सिद्धम यह कि, मूर्खता एक तरह से बुद्धिमत्ता की पूर्वपीठिका ही होती है, और दोनों एक दूसरे में ऐसे मिले होते हैं जैसे दूध में पानी। कुल मिलाकर दोनों कोरे हो ही नहीं सकते। कुछ लोग अपने हिसाब से इसमें मिलावट करके इसका फायदा भी उठाते हैं, मतलब, अवसरानुकूल मूर्ख या बुद्धिमान हो लेते हैं। उदाहरण यही कि एक मेरे गऊ टाइप के बेचारे जानने वाले हैं, वो दंद-फंद जैसे बुद्धिमत्तापूर्ण झंझट से बचे रहना चाहते हैं और अपनी भावभंगिमा तथा हाव-भाव ऐसे बनाए फिरा करते हैं कि कोई पहली नजर में ही उन्हें मूर्ख घोषित कर दे। और ऐसे में कोई इन्हें दंद-फंदी काम सौंपता भी नहीं, और ये महाशय अपनी मूर्खता के किस्से मुझसे मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बताते हैं। इसी तरह एक सज्जन और हैं जो बढ़-चढ़कर अपनी बुद्धिमानी का डंका बजाते रहते हैं, वे अपनी इसी बुद्धिमानी के बल पर सारे दंद-फंदी काम हथिया लेते हैं, और अकसर काम की बढ़िया सलाह भी देते रहते हैं, लेकिन बहुत सारे लोग उनकी इस बुद्धिमानी से खफा होकर कभी-कभी उनकी मूर्खतापूर्ण बुद्धिमत्ता की चर्चा हमसे कर बैठते हैं। अब मेरी समस्या यह होती है कि हम मूर्खता को बुद्धिमानी माने या बुद्धिमानी को मूर्खता! हमारे तो समझ में ही नहीं आता कि इसमें मूर्खता कहाँ छिपकर बैठ गई है।

        अब आते हैं एक अन्य स्थिति पर, एक साहब एक सज्जन को जबरन मूरख साबित करने पर तुले हुए हैं और वे सज्जन ऐसे कि अपनी मूर्खता छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं। यहाँ कुछ-कुछ अंगुली टेढ़ी कर घी निकालने का मामला बनता दिखाई देता है। लेकिन घी जमा नहीं तो कैसे निकले! सज्जन बेचारे अपने नजरिए से पिले पड़े रहते हैं और साहब अपने नजरिए से, जैसे दोनों एक दूसरे के नजरिए को समझना ही नहीं चाहते या फिर समझते हुए नासमझी। मतलब, यहाँ इन दोनों की बक-झक में कोई तीसरा इन्हें मूर्ख ही समझ बैठेगा, लेकिन बात ऐसी है नहीं वे दोनों अपने-अपने में बेहद बुद्धिमान जीव हैं, दोनों अपने-अपने छिपे मन्तव्य को छिपाकर कहना चाहते हैं, लेकिन खुलकर नहीं कह रहे होते और बात नहीं बनती है। कहने का मतलब मूर्खता अप्रकट टाइप की बुद्धिमानी ही होती है।

      मैं इसे मूर्खता की पदवियों से सिद्ध कर सकता हूँ, वह क्या है कि एक बार पढ़ाई के दौरान हम कुछ मित्रों के बीच मूर्खता की पदवियों का निर्धारण हो रहा था पम्पलेट में मैंने अपना नाम सबसे नीचे पाया, जबकि मूर्खशिरोमणि, मूरखाधिराज, महामूर्ख आदि पदवियाँ दूसरे मित्र ले उड़े थे। मूर्खता के लिए इस पदवी निर्धारण से मुझे बड़ी कोफ्त हुई और मैं मायूस सा हो गया, तभी मैंने समझा था कि मैं कम बुद्धिमान हूँ इसीलिए मूर्खता के सबसे निचले पायदान पर रखा गया हूँ। और उधर मूर्खता के सबसे ऊँचे पायदान पर आरूढ़ मित्र अपनी मूर्खता पर इतराते हुए इस खुशी में पार्टी देने की तैयारी करने लगे थे। अब आप ही तय करिए कि मूर्खता बुद्धिमानी की प्रतीक नहीं तो और क्या है..!

            अब आपसे एक अन्य टाइप की मूर्खता का जिक्र करना चाहते हैं तब कक्षा सात-आठ में पढ़ रहे होंगे। हमारे साथ पढ़ रहे हमारे एक सहपाठी के पिता कई महीनों बाद बम्बई से आए थे और मैं अपने सहपाठी से इस खुशी में मिठाई खाने का जिद कर बैठा। खैर, हम चवन्नी-अठन्नी वाले तब मिठाई कहाँ से खरीद पाते, लेकिन मेरी भी जिद बरकरार रही और ऐसे ही दो-तीन दिन गुजर गया था। तभी वे मेरे सहपाठी, एक-दो और मित्रों के साथ मेरे समक्ष मिठाई खिलाने का प्रस्ताव ले आए और मुझे क्लास रूम में ले आए। फिर एक डेस्क की ओर इशारा करते हुए बोले, “आपके लिए मिठाई यहाँ रखे हैं, ले लो..” और इधर मैंने भी मिठाई खाने की खुशी में आव देखा न ताव डेस्क की दराज में हाथ डालकर मिठाई निकाल झट से मुँह को समर्पित कर लिया। बस क्या था, सहपाठियों के हँसी के फव्वारे फूट पड़े थे। बाद में हँसने का कारण यह बताया गया कि दरअसल जिस मिठाई को मैंने खाया था उसे किसी अन्य छात्र ने छिपाकर रखा था। तब मैंने समझा मेरे सहपाठी मेरी मूर्खता पर हँस रहे थे। लेकिन मैंने बिना किसी से कहे अपनी मूर्खता का विश्लेषण किया और उन मित्रों से कहा “यार चाहे जो हो, मिठाई बहुत ही स्वादिष्ट थी आप सब ने ऐसी मिठाई अब तक नहीं खाई होगी!” मुझे एहसास हुआ कि इसके बाद उनके चेहरे पर कौतूहल के भाव आ गए थे और हँसी थम चुकी थी, इधर जिस मूर्खता पर मैं अन्दर ही अन्दर लज्जित सा था वह मेरी बुद्धिमानी में बदल चुकी थी। मतलब यही कि मूर्खता के फायदे भी होते हैं और जो फायदा पहुँचाए वही बुद्धिमानी भी होती है!

      खैर, एक अनायास टाइप की मूर्खता होती है जिसमें लेना-देना कुछ नहीं होता, वह कौतूहल से उपजने वाले कृत्य से सम्बन्धित मूर्खता होती है, इस मूर्खता में बुद्धिमानी खोजना रह गया है, लेकिन हो सकता है इसमें भी जेम्सवाट वाली बुद्धिमानी छिपी होती हो…!

         निष्कर्षतः मूर्खता नाम की कोई चीज नहीं होती मूर्खता बुद्धिमानी का एक स्तर ही होता है।

       अन्त में, जब आप मूर्खता जैसे विषय पर लिखे मेरे इस आलेख को पढ़ेंगे तो दो बातें समझ में आएंगी..जैसा कि अमूमन व्यंग्य में होता है ; या तो मेरी लिखी बात आपके समझ में आयेगी या नहीं आएगी। अगर आप पढ़कर मेरी बात को समझ जाते हैं तो यह मेरी मूर्खता है और यदि नहीं समझते हैं तो फिर यह मेरी बुद्धिमानी का पर्याय है..! वैसे धीरे से मैं आपको बताना चाहता हूँ कि पढ़ने के बाद मैं भी नहीं समझ पाया कि मैंने क्या लिखा है..?