रविवार, 28 मई 2017

मेरे मानहानि का मामला!

           उस दिन आफिस की डाक देखते-देखते अचानक एक शिकायतनुमा पत्र पर मेरी नजर ठहर गयी! उसे एक ही झटके में पढ़ गया। दिमाग भन्नाया। घंटी दबाया और दबाता ही रहा। हड़बड़ाया चपरासी सामने आ खड़ा हुआ। कार्यालय सहायक को तत्काल हाजिर कराने का उसे फरमान सुनाया।

      कार्यालय सहायक आ‌ गए। उन्हें शिकायती पत्र पढ़ने के लिए दे दिया।
      “सर ! इस प्रकरण पर अभी कोई डिसीजन ही नहीं हुआ है! फर्जी शिकायत कर दिया इसने! सरासर आपकी मानहानि किया है!!” कार्यालय सहायक ने पत्र पढ़कर मेरे ऊपर शिकायत के प्रभाव का आकलन किया। 
    दर‌असल शिकायती-पत्र में मुझपर उत्कोचग्रहण कर शिकायत अनसुनी करने का आरोप लगाया गया था। 
    

    “शिकायतकर्ता के विरुद्ध थाने में एफआईआर दर्ज कराकर हाईकोर्ट में उसके विरुद्ध मानहानि का दावा भी ठोकुंगा!” शिकायत से भन्नाया हुआ मैं बोला।
         
        “सर, परेशान न हों। यह तो शिकायतकर्ता की आदत है। इसी तरह से वह सरकारी कर्मचारियों को ब्लैकमेल करता है। यही नहीं, इसके लिए सूचना के अधिकार का भी इस्तेमाल करता है। उचित होगा कि पहले उसे नोटिस भेजकर इस शिकायत के संबंध में उससे  साक्ष्य मांगा जाए, फिर विधिक कार्यवाही हो!” कार्यालय सहायक ने राय दिया।
       
          “देखिए! जब ब्लैक होगा, तब न मेल होगा! वैसे भी ब्लैकमेल होना घाटे का सौदा है। क्योंकि कोई एक हो तो ब्लैकमेल हो लीजिए, लेकिन आजकल जिसे देखो वही ब्लैकमेल करने को तैयार बैठा है! कहां तक ब्लैकमेल हुआ जाए? शिकायतकर्ता तो शिकायतकर्ता! सरकारें भी अपने कर्मचारियों को ब्लैकमेल करने पर उतारू हैं..ब्लैकमेल होइए तो होते जाइए! ठीक है शिकायतकर्ता को एक तगड़ी नोटिस जारी करा दें...मैं भी उसे बताउंगा कि किससे पाला पड़ा है उसका!” लगभग गुस्से में कह गया मैं।
      कार्यालय सहायक ने मुझे ऐसे देखा जैसे मेरे चेहरे के किसी ब्लैक स्पाॅट से मेल बढ़ाना चाहते हों, वैसे मैं दाढ़ी में तिनका खोजने वालों से सावधान रहता हूँ! बहरहाल मेरे मान की हानि के रिस्टोरेशन की प्लानिंग पर काम शुरू हुआ और शिकायतकर्ता को एक तगड़ी नोटिस जारी हो गया। इसी बीच मैंने भी अपने एक वकील मित्र को फोन मिला दिया पूरी बात से अवगत कराने के बाद मैंने कहा-
         

        “देखो यार, एक शिकायतकर्ता ने मेरा मानहानि किया है, उसे सबक सिखाने के लिए मुकदमा दायर करना है।”
     
          “हूँ.., लेकिन यार, इसमें कौन सी मानहानि, यह तो सरकारी मुलाजिमों में आम चलन की बात है! कैसे प्रमाणित करोगे कि तुम उत्कोचाग्रहण नहीं किए हो?" वकील मित्र की इस बात ने मुझे ही कटघरे में खड़ा कर दिया। लेकिन इसपर सफाई न देकर सीधे तथ्य की बात पर आया, "चलो मान लिया कि शिकायत दबाने के लिए मैंने उत्कोच लिया है, लेकिन क्या इसे कोई प्रमाणित कर पाएगा? जबकि अभी तक मैंने शिकायत भी नहीं दबाई है!" 

         "दबायी नहीं या दबी नहीं? यदि नहीं दबायी तो क्यों! क्या दबाने लायक वजन नहीं मिला?" बात में हास्यरस का पुट देने के प्रयास में वकील मित्र ने कहा।

           "यार, मजाक छोड़ो, फ़िलहाल तो मुझे उस शिकायतकर्ता को ही दबाना है।" कहने को तो कह गया, लेकिन मित्र की वकील-बुद्धि से भी डर लगा कि कहीं वह यह न कह दे कि, "अच्छा!! जिससे शिकायत स्वयं दब जा‌ए।" खैर, इसकी जगह उसने गंभीर आवाज में यह पूंछा, "अच्छा छोड़ो! कितने का मानहानि हुआ कुछ बताओगे भी? क्या हिसाब लगाया है अपने मान की हानि का? कितने का दावा ठोकूं?
       
        “अरे वकील तुम हो कि मैं! जिस लेबल का सरकारी नौकर हूँ, क्या उससे तुम मेरे मान का मूल्य नहीं आंक सकते?" हालांकि मैं फिर डरा कि कहीं वह यह न कहे कि "शिकायत से ही पता चल गया है तुम्हारे लेबल का!" इसलिए उसके बोलने से पहले ही मैंने कहा, "बाकी तुमसे क्या छिपा है मेरा! मित्र भी हो! शिकायत की फोटो कापी भेज रहा हूं उसे पढ़कर मेरे मानहानि का हिसाब लगा लो।"  लेकिन इसके लिए वह तैयार नहीं हुआ। मजबूरन मुझे ही अपनी मानहानि का हिसाब करना पड़ा। अपने मान का रेट लगाना बहुत मुश्किल  हुआ! काफी माथापच्ची करने पर भी जब मुझे अपना मान-दर समझ में नहीं आया, तो शिकायत में उल्लिखित उत्कोच लेने की मात्रा को ही मैंने अपना मान-दर मानकर उतना ही मानहानि होना मान लिया। इस पर वकील मित्र ने जोरदार ठहाका लगाकर कहा, "यार तुम्हारे मान की बस यही कीमत है! इससे ज्यादा तो मेरे वकालतनामा की फीस है! तुम्हारा केस लड़ने में मुझ जैसे वकील की ही अवमानना है!"

      खैर, दोस्ती का तक़ाज़ा देकर मैंने अपने मानहानि का हिसाब समझाकर उससे कहा, "मैं ठहरा ईमानदार टाइप का, इस हिसाब में ज्यादा फेरबदल की गुंजाइश नहीं बन रही! और यहां बात मेरे मान-दर की नहीं, शिकायत दबाने का चार्ज भी इससे ज्यादे का नहीं बनता! मेरे लिए तो कोर्ट में वाद दायर करना ही पर्याप्त है। इससे ईमानदार सिद्ध होकर मैं चार्जशीटेड होने से बच सकता हूँ, और विभागीय ब्लैकमेल से भी मेरा बचाव होगा! यहां मेरी मदद करो।"   

       शायद मदद की बात पर पसीजकर उसने कहा, "तुमने सही कहा, तुम ईमानदार टाइप के हो, लेकिन सच तो यह है कि आज ईमानदारी की कोई कीमत ही नहीं! इसलिए ईमानदारों की इज्जत भी नहीं है। तुम ठहरे मित्र! मुझे मित्र-धर्म के नाते तुमसे वकालतनामे की फीस तो नहीं लेना है, लेकिन मुंशी-उंशी और रिट वगैरह के टाइपिंग का कुछ खर्चा-वर्चा तो पड़ता ही है, तो ऐसा है, जितने की मानहानि आंके हो उसमें बीस हजार और जोड़कर मानहानि-दावा कोर्ट में पेश करेंगे..आकर हलफ़नामे पर हस्ताक्षर कर देना! और इसके साथ फोन भी काट दिया। मुझे रिलैक्स जैसी फीलिंग आई, गोयाकि मेरा गया मान वापस लौट आया हो! इधर शिकायत से उपजा तनाव कम होने से मैं कुर्सी पर बैठे-बैठे कुछ ऊँघने टाइप का लगा।
       
        जज सहब के सामने मैं गवाह के कटघरे में खड़ा था, उन्होंने मुझसे पूँछा -
       
        “हाँ तो मिस्टर….आपने, अपने मान की हानि का आकलन कैसे किया? किन सबूतों और गवाहों के आधार पर और किस तरीके से?”
         
          “मी लार्ड" के उद्बोधन के साथ जज महोदय को मैंने अपने मान निर्धारण की सारी प्रक्रिया समझाई। और अंत में उनसे रिक्वेस्ट किया, "मेरे लाॅर्ड…मुद्द‌ई और गवाह दोनों मैं ही हूं, मेरे दावे के आकलन का सबूत घूस का वह रूपया है, जिसे शिकायतकर्ता ने मुझे दिया ही नहीं! उसने झूठ बोला है और झूठ बोलना पाप है, शिकायतकर्ता पापी है, उसके पाप की सजा उसे मिलनी चाहिए और मानहानि के एवज में वह रूपया मुझे दिलवाया जाए।"

        ठीक है..ठीक है..चलो मान लिया कि शिकायतकर्ता ने झूठ बोला और वह दोषी है और इसकी सजा भी उसे मिलेगी। लेकिन उसके झूठ बोलने से तुम्हारी इज्जत कैसे गई?"

        जज साहब के इस प्रश्न का उत्तर मैं चाह कर भी नहीं दे पा रहा था। तभी संकटमोचक की तरह मेरा मित्र भागा-भागा आया और मुझे कठघरे से निकाल कर मेरे स्थान पर खड़ा हो गया और वहीं से बोला, "हुजूर! आखिर इज्जत क्यों नहीं जाएगी? शिकायती-पत्र में, जितने रूप‌ए लेने की बात कही गई है, क्या मेरे मुवक्किल की औकात उतने ही रूपए लेने की है? इसे और भी बढ़ाकर कहा सकता था! लेकिन शिकायतकर्ता ने मेरे मुवक्किल की कीमत कम कर दी, इससे जन सामान्य के बीच उसके पद का अवमूल्यन हुआ है और इसके उनकी आय में भी कमी आई है! यह बेइज्जती नहीं तो और क्या है?"   

        "वाह! मित्र ने गज़ब की दलील दी है" सोचकर मैं खुशी से उछल पड़ा।
   
        लेकिन “मिस्टर वकील! यह सब मैं कैसे मान लूँ?" जज साहब के इस प्रश्न पर मैं मित्र की ओर देखने लगा।

     "परवर-दिगार-ए-आलम! वैसे ही जैसे मैं यहां का सबसे बड़ा वकील हूं और उसी के हिसाब से मेरी फीस भी है, जिसे देना बड़े लोगों के बस की ही बात है! लेकिन यदि मेरी फीस कम हो जाए, तो क्या लोग मुझे बड़ा वकील मानेंगे? बल्कि इससे मेरी आय ही नहीं इज्जत भी घटेगी और मैं टुटपुँजिहा वकील कहलाऊंगा! इसी प्रकार शिकायतकर्ता ने मेरे मुवक्किल की इज्जत घटाकर उसे टुटपुँजिहा पदधारक बना दिया।" 

      वाह क्या बात है, वकील हो तो ऐसा ही, क्या दोस्त मैंने पाया! मित्र की इस दलील पर खुशी से मैं बल्लियों उछल पड़ा। तभी जज साहब की आवाज़ सुनाई पड़ी- 

       "जैसाकि आप ने कहा कि आप बड़े वकील हो, और इसीलिए आपकी फीस भी बड़ी है। कोई टुटपुँजिहा वेतनभोगी आपको अपना वकील नही बना सकता। इसका मतलब यही है कि आपका मुवक्किल टुटपुँजिहा नहीं, बड़ा आदमी है। और आज तक ईमानदारी से किसी को बड़ा आदमी बनते हुए मैंने नहीं देखा। दूसरी बात, यदि वह ईमानदार है तो हलफ़नामे में मानहानि के अपने ही हिसाब को फर्जी तरीके से बीस हजार क्यों बढ़ाया?" जज साहब के इन प्रश्नों से वकील साहब विचलित से दिखाई पड़े। यह देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं कूदकर फिर से कठघरे में चला आया! जज साहब से बोला,
       
          “मी लार्ड! वकील साहब मेरे मित्र हैं, मुझसे फीस नहीं लेंगे, मानहानि में प्लस यह बीस हजार रूपया इन बेचारे मेरे वकील साहब के अन्य हर्जे-खर्चे का है…जिसमें उनके मुंशी-उंशी का खर्चा शामिल हैं।”
       
          इस बात पर जज साहब अब और नाखुश दिखाई पड़े। मेरे वकील मित्र से मुखातिब होकर कहा-
   
        “वकील साहब! इस दलील से प्रतीत होता है कि आपका मुवक्किल आज भी काले धन के सृजन में लिप्त है, अन्यथा आप जैसा बड़ा वकील उसकी वकीली न करता! और क्योंकि घोड़ा घास से यारी नहीं कर सकता इसलिए वकील फीस न ले यह भी असंभव है!! बावजूद इसके यदि कोई यारी करता है तो उससे बड़ा बेवकूफ कोई नहीं! ऐसा बेवकूफ मेरी अदालत में वकालत करे, यह अदालत की अवमानना होगी! इसलिए क्यों न आपका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जाए?" इसके तुरंत बाद जज ने मुझे भी घूरा, "और आप, जो मिस्टर वकील साहब के मित्र बने फिरते हो, बहुत चालू चीज हो! अपने मानहानि के दावे में फर्जी तरीके से बीस हजार रूपए बढ़ाकर इसका हिसाब छिपाया है और झूठा हलफ़नामा दाखिल किया! इस तुच्छ मुकदमे के लिए बड़ा वकील खड़ा करने से स्पष्ट है कि आपकी आय में कोई कमी नहीं हुई है और न ही इज्जत घटी है! फिर काहे का मानहानि? इन तथ्यों से सिद्ध है कि आप काले धन के सृजन और झूठा हलफ़नामा देने के दोषी हो! चूंकि काले धन के सृजन-प्रक्रिया का सीधा साक्ष्य मिलना संभव नहीं, जिसके बिना पर सजा सुनाई जा सके। इसलिए क्यों न, आपकी अर्जित संम्पत्तियों की ईडी और इनकमटैक्स विभाग से जाँच कराकर साक्ष्यों पर आपकी सजा मुकर्रर हो?"
     
        यह सुनते ही काटो तो खून नहीं टाइप से मैं भौंचक होकर सोचा, कहां आकर मानहानि के चक्कर में फंस गया!! जज साहब हथौड़े को उठाकर ऑर्डर-ऑर्डर जैसा कुछ करने ही जा रहे थे कि मेरा वकील बना मित्र कठघरे से निकलकर पेशकार के पास पहुंच गया और उसके कान में कुछ बुदबुदाया। इसके तुरंत बाद पेशकार ने भी जज साहब के कान में जाकर कुछ कहा। फिर क्या था! बिना 'ऑर्डर-ऑर्डर' के ही हथौड़े को धीरे से मेज पर रखा और अगली तारीख पर उभय पक्षों की उपस्थिति में व्यापक बहस होने की बात कहकर उठ ग‌ए।  
     
          इधर जज साहब को देखकर मित्र महोदय मुस्कुरा रहा था। उनके जाने के बाद वह मेरी ओर मुखातिब हुआ। उसके चेहरे का भाव बदला हुआ था। उसने कहा, "बड़े आए मेरा मित्र बनने! क्या जरूरत थी मुझे अपना मित्र बताने की? और मुझसे फीस नहीं लेंगे यह कहने की? देख रहे हो न, जज साहब भी कह रहे थे कि मित्रता को कानूनी दर्जा हांसिल नहीं! ऐसा करिए अभी बीस हजार मुझे पेशगी के तौर पर दीजिए, बाकी अगली तारीख पर देखेंगे।"

          मित्र की बात पर मैं उलझन में आ गया, एटीएम कार्ड भी नहीं लिए हूँ, कैसे करूँ? कहाँ से जुगाड़ूँ इस बीस हजार रूपए को! मैं एक अजीब सी साँसत में था! अचानक वर्तमान में आ गया! फालोवर कहता सुनाई दिया “चलिए साहब, ढाई बज ग‌ए हैं लंच कर लें” मुझे झपकी सी आ गई थी। 

         कुछ दिन बाद कार्यालय सहायक मेरे सामने आए तो उनके हाथ में एक चिट्ठी थी, उसे दिखाकर कहा -
         “साहब, शिकायतकर्ता ने नोटिस का जवाब दिया है लेकिन अपने आरोपों का साक्ष्य न देकर गोल-मोल बातें ही लिखा है, मानहानि के मुकदमे के लिए किसी वकील से बात किया या नहीं?”
          “अरे बड़े बाबू! छोड़िए…मानहानि-फानहानि को! जनहित में मानहानि सह लेना चाहिए, इसी में सब की भलाई है!” 

बुधवार, 24 मई 2017

बिना शीर्षक का व्यंग्य बे-कालर जैसा!

        “फलाने! तुम सुन लो, मैं तुम्हारा कालर पकड़ कर घसीटते फला जगह हुए ले जाऊँगा..” इस वाक्य को सुनकर मुझे पक्का यकीन हो चला कि किसी के हाथ किसी के गिरेबान तक या तो पहुँच चुके हैं या फिर पहुँचने वाले हैं...मतलब गिरेबान पर निगहबान हैं आँखें..! टाइप का कोई देश-भक्ति से लबरेज हाथ ही कालर की ओर रुख कर सकता है।
       
          इस कथन के वाकिये से जूनियर क्लास में पढ़ते समय का एक वाकया मुझे याद हो आया। तब हम दो सहपाठी बच्चे एक दूसरे का कालर पकड़े हुए काफी देर तक हिलाते-डुलाते रहे थे। वो तो मास्साब के डर से हम एक दूसरे का कालर छोड़ कालर-वालर ठीक करते हुए क्लास रूम में फिर घुस गए थे, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो…! खैर..
     
           एक बात तो तय है, कालर पकड़म-पकड़ाई के खेल में कालर में थोड़ा सिकुड़न जरूर आ जाता है लेकिन इसे तानतूनकर फिर से खड़ा किया जा सकता है।  मतलब इससे एक तरह का हड़काने जैसा विरोध प्रदर्शन वाला काम तो हो सकता है, लेकिन कालर का कोई खास हर्जा-खर्चा नहीं होता, सिवा फिर से बटन टाँकने (यदि कालर पकड़ने से बटन-वटन टूटा हो तो) के! कुल मिलाकर इस्त्री फिराई के साथ दो-चार रूपए के खर्च में ही कालर फिर से खड़ा हो जाता है।
       
           वैसे एक बात तो है, असली नेता सचमुच के समझदार होते हैं..! ये व्यर्थ की कालर वाली चुनौती में पड़कर दो-चार रूपए भी नहीं खरचना चाहते इसीलिए अपनी वेशभूषा में बिना कालर का कुर्ता शुमार किये हुए हैं, अब कोई क्या पकड़ कर घसीटेगा! अपने इस ड्रेसकोड के साथ ये नेता पूर्णरूपेण सुरक्षित होकर बिन्दास घूमते हैं।
          
           लेकिन कुछ नौसिखिया टाइप के नए-नए भए नेता भी होते हैं। जो बे-कालर वाले कुर्ते की बारीकी नहीं समझते और एकदम से आम आदमी वाले फैशन में कालर वाली शर्ट पहनकर बोल-बोलकर अपने ऊँचे कालर की ओर इशारा करते रहते हैं। लेकिन जमाना बड़ा खराब है, अगर ऐसी ही शर्ट पहनना ही है तो मौनी बाबाओं से सीख लेते हुए मौन रहना ही श्रेयस्कर होता है, अन्यथा चिढ़न में किसी का भी हाथ गिरेबान तक पहुँच सकता है और फिर घसीटे जाने का खतरा मँडराता ही रहेगा!
         
          तो, बिना शीर्षक के व्यंग्य टाइप का बे-कालर बने रहना ही ठीक रहेगा, लोग खिंचाई नहीं कर पाएँगे।

एक जामग्रस्त देश का दार्शनिक व्यू!

         उधर बेचारी भारतीय सेना सीमा पर पाकिस्तानी बंकर को तबाह करने में लगी है और इधर भारत के अंदरखाने में हम या तो जाम लगाए बैठे हैं या जाम में फँसे भये पड़े हैं।
     अभी उस दिन पाँच बजे सुबह यह सोचते हुए घर से निकला था कि साढ़े तीन या फिर चार घंटे में अपने कार्य स्थल पर पहुँच ही जाएँगे। लेकिन हाईवे पर करीब आधे घंटे की ड्राइव के बाद जाम से सामना हो ही गया। मेरे आगे-पीछे वाहनों की लम्बी आड़ी-तिरछी कतारें लग चुकी थी। यूँ ही जाम में फंसे-फंसे वहीं एक स्थानीय व्यक्ति से मैं जाम का कारण पूँछ बैठा था-
   “भईया सबेरे-सबेरे यहाँ जाम लगने की कोई संभावना तो होती नहीं फिर काहे यह जाम लगा है?”
      उस बेचारे ने कहा -
    “अरे..वही पुलिस वालों की वसूली-फसूली के चक्कर में ये ट्रक वाले आड़े-तिरछे निकलने के चक्कर में जाम लगा बैठते हैं...हाँ, वैसे यहाँ जाम लगने का कोई कारण नहीं होता…”
        खैर, पुलिस वाली बात को कोई तवज्जो न देते हुए मैं जाम का कारण तलाशता रहा, क्योंकि लोग इन बेचारे पुलिसवालों के पीछे नाहक ही हाथ धोकर पड़े रहते हैं। फिलहाल आधे घंटे बाद सरकना चालू हुआ और सरकते-सरकते दस मिनट बाद जब जाम से फारिग हुआ, तो जाम लगने का कोई कारण नजर नहीं आया।
      हाँ, जाम ने हमें एक नए दार्शनिक ज्ञान की अनुभूति कराई! वह यह कि, हमारे भारतीय दर्शन में आया कार्य-कारण सिद्धांत एकदम से झूँठा है। मेरे नवाअर्जित इस ज्ञान के अनुसार, बिना कारण के ही कार्य घटित होता रहता है तथा कार्य और कारण दोनों एक दूसरे से अलग, स्वतंत्र और चिरस्थायी तत्व होते हैं। इसीलिए यहाँ सदैव कार्य और कारण दोनों समानांतर विद्यमान रहते हैं तथा हमारे देश के लोग अपने-अपने तईं इस कारण और  कार्य की भोगानुभूति में मशगूल रहते हैं।
      तो, इसप्रकार समस्या चिरस्थायी टाइप का एक कार्य ही है। खैर, बिना कारण के घटित कार्य का सामना करते हुए चालीस मिनट विलंब से मैं अपने गंतव्य पर पहुँचा था।
        इसी तरह कल भी जाम जैसे एक चिरस्थायी कार्य के बीच मैं फँस गया था। इस बेमतलब के जाम में मेरा घंटे भर का समय चला गया और इसमें फँसे-फँसे मैंने सुना, कोई कह रहा था -
       “इस समय पुलिस वालों की ड्यूटी बदलती है.. चौराहे पर ट्रैफिक को नियंत्रण करने वाला कोई नहीं होगा…पुलिसवालों के आने पर ही जाम खुल पाएगा।”
      मतलब यह देश बड़ा रहस्यमयी टाइप का है! जहाँ पुलिसवाले हों वहाँ जाम...और...जहाँ पुलिसवाले न हों वहाँ भी जाम...!! इस देश में, किसी का कहीं होना या न होना सब बराबर ही होता है।
         एक बात और, अपने देश में ड्यूटी बदलने का समय सबसे क्रूसियल टाइम होता है। अभी एक वायरल वीडियो में दिखाई पड़ा कि किसी रेल टिकट खिड़की पर एक महिला कर्मचारी लाइन में लगे लोगों को टिकट देने के बजाय नोटों के बंडलिंग में मशगूल है…यात्रियों के हो-हल्ले पर वह बोलती है -
         “यह ड्यूटी बदलने का समय है”
      अब किसी की ट्रेन छूटे तो छूटे उसका क्या जाता है! उसकी ड्यूटी बदलने का समय हो चुका है। यही नहीं ड्यूटी बदलने के समय ही यहाँ आतंकी हमला भी हो जाता है। आशय यह कि अव्यवस्था वाले टाईम में व्यवस्थित होना हम नहीं सीख पाये हैं।
         अब कल वाले जाम को ही लीजिए…इसकी तह में जाने पर मुझे दो बातों की स्पष्टानुभूति हुई…एक तो हम स्वयं व्यवस्थित नहीं होते, दूसरे किसी और के लिए कोई स्पेस भी नहीं छोड़ना चाहते। उस जाम में, एक ट्रक वाला मेरे कार के दायीं ओर से आकर सामने की छूटी थोड़ी सी खाली जगह में ही अपने ट्रक को आड़े-तिरछे घुसेड़ने का प्रयास करने लगा था, बल्कि इस चक्कर में उसने दूसरों का भी रास्ता अवरुद्ध कर दिया। जब मैंने उसे टोकते हुए कहा -
     “ट्रक को स्कूटी बना लिए हो का” तो खींसें निपोर मुस्कुराते हुए वह बोला था -
    “थोड़ा आगे बढ़ा लें..पीछे जाम लग रहा है।”                
       मतलब, यहाँ हर कोई समस्या का कारण अपने से आगेवाले पर ही थोपने का आदी है। खैर…
       अपना देश एक जामग्रस्त और स्पेसविहीन देश बन चला है। कहते हैं, कोई चौराहा हो या चार लोग हों, ये मिलकर आगे की राह के विकल्प सुझाते हैं और  रास्ता खोलते हैं। लेकिन यहाँ अपने देश में किसी चौराहे पर चार लोग इकट्ठा हुए नहीं कि जाम लगा बैठते हैं..! छोटे-बड़े सभी टाइप के बौद्धिक फितूर वाले ड्राइवर आड़े-तिरछे होकर आगे निकलने की होड़ में किसी भी खाली स्पेस पर कब्जा जमा कर लोगों का आगे बढ़ना ही मुश्किल कर देते हैं।

रविवार, 14 मई 2017

मेरी गार्दनिक तन्यता !

      वाकई, बेचारा यह दिल, दिल ही तो है, जो पता नहीं कब किस बात के लिए हुड़कने लगे! जैसे, आजकल यह किसी सम्मान-मंच से सम्मानित होने के लिए हुड़क रहा है। हुआ यूँ कि, एक मेरे स्नेही सज्जन कुर्सी पर बैठने के समय के मेरे कामों की मुझसे जबर्दस्त प्रशंसा कर गए थे..! तब फूलकर मैं ऐसे कुप्पा हुआ था, जैसे उन महाशय ने प्रशंसा के पम्प से मुझमें गौरवबोध का हवा भर दिया हो।
     एक बात है, प्रशंसित मनुष्य का दिमाग गौरवबोध की हवा से फूलकर उड़ते गुब्बारे की भाँति उर्ध्वगामी हो जाता है, फलस्वरूप गर्दन तन कर अकड़ जाती है। इसीतरह एक बार गर्दन के अकड़पने से मैं लगभग डर गया था, क्योंकि उठती मेरी मुंडी से गर्दन के शुतुरमुर्गी हो जाने का खतरा मुझे जान पड़ा था। लेकिन इस खतरे के आभास के साथ ही मेरा ध्यान सम्मान-मंचों पर सम्मानित होती शख्शियतों की गर्दनों पर भी चला गया।
        अकसर ऐसे मंचों पर सम्मान-लब्धता के दौरान इन शख्शियतों की गर्दनें पुष्प-मालाओं के लिए छोटी पड़ जाती हैं, और तब ये महानुभाव अपनी माल्यार्पित गर्दनों से पुष्प-मालाओं के जखीरे स्वयं उतारते हुए देखे जा सकते हैं, ताकि कोई बचा-खुचा सम्मानकर्ता भी माल्यार्पण कर अपनी भड़ास पूरी कर सके। इस तरह ये बेचारी महान शख्शियतें सम्मान-कर्ताओं के सम्मान का सम्मानपूर्वक खयाल भी रखती हैं। यदि मैं सम्मानाकांक्षी के रेस में न होता, तो माल्यार्पित गर्दन वाले सम्मान-लब्ध शख्स द्वारा मेरी पुष्प-माला के साथ ऐसे किसी भी दुर्व्यवहार पर, मैं अवश्य अपमानित महसूस करता। क्योंकि, मेरी यही कामना रहेगी कि सम्मानित महानुभाव के गर्दनार्पित मेरी पुष्प-माला मेरे ही समक्ष न उतारी जाए।
        इन बातों से मैं समझ गया था कि सम्मानार्जन करने वाले की गर्दन लंबी होनी चाहिए और मैं स्वयं “हमको लिख्यौ है कहा, हमको लिख्यौ है कहा” की भाँति अपनी प्रशंसा खोजते-फिरने लगा था। मेरे लिए तो वही भगवान है जो मेरी प्रशंसा करे, सो मैंने मन ही मन ठान लिया कि प्रशंसित होता हुआ मैं अपनी गर्दन को अधिकतम संख्या में पुष्प-मालाओं के जखीरे को धारण करने में समर्थ बनाऊँगा जिससे बेचारे माल्यार्पण करने वालों का भी सम्मान बरकरार रहे, आखिर दूसरों को मान देने से ही तो अपना भी मान बढ़ता है..! यही मानार्जन का सीधा सा फंडा भी होता है। सम्मानदाताओं के प्रति इस सहृदयता पर मेरा गौरवबोध और भी मचल उठा था और उस समय सारा ध्यान गर्दन की लंबाई पर चले जाने से मेरे पैरों का संतुलन थोड़ा गड़बड़ाया भी और मैं गिरते-गिरते बचा था। खैर...
          एक दिन तनी हुई गर्दन के साथ मुझे मेरा प्रखर व्यक्तित्व आभासित हुआ और मैंने स्वयं को किसी सम्मान-समारोह-मंच के लायक सर्वथा योग्य पाया था। आखिर, तनी हुई गर्दन माल्यार्पण के लिए ही होती है, वह तो फांसी है जिससे बचने के लिए गर्दन न रहे तो ठीक है। अब मैं एक अदद सम्मान-मंच के जुगाड़ में पड़ गया था।
        आखिर में, मैंने अपनी बलवती होती सम्मानाकंक्षा अपने एक परिचित मुँहलगे के समक्ष जाहिर कर ही दिया,
      "आजकल अच्छे कामों की कोई पूँछ नहीं..ऐसे कामों की तो कहीं चर्चा ही नहीं होती!”  
     खैर, मेरे हित-चिंतकनुमा उन मुँहलगे ने मेरी सम्मानाकंक्षा का उत्साहवर्धन करते हुए समर्थन किया -
       “बात है, तो बात दूर तलक जानी चाहिए..आखिर ऊपरवाले भी तो कुछ समझें!"
      यहाँ पर उनने “ऊपरवाले” शब्द का ऐसे उल्लेख किया जैसे यह “ऊपरवाला” लेखक का कोई हितचिन्तकनुमा प्रकाशक हो! खैर, बात आगे बढ़ी और मेरे लिए सम्मान-मंच के प्रबंधन की जिम्मेदारी मेरे उन मुँहलगे परिचित ने संभाल ली।
         वैसे तो, किसी सम्मान-मंच से घोषित रूप से सम्मानित होने के अपने खतरे भी होते हैं, क्योंकि सम्मानित हुए व्यक्ति की बाद में टाँग खिंचाई शुरू हो जाती है! इसीलिए मेरा मानना है कि खूब जी कड़ा करके सम्मानित होने के लिए सम्मान-मंच पर जाना चाहिए और सम्मानोपरांत की सभी अच्छी या खराब परिस्थितियों के लिए योग्य हो लेना चाहिए, तभी सम्मान धारण करने में गनीमत है। अन्यथा, मैंने ऐसे तमाम सम्मानधारकों को फ्रस्ट्रेशन में यह सोचते हुए देखा है-
     "बेकार में सम्मानित हुए इससे अच्छा तो अ-सम्मान की ही अवस्था थी।"
    फिर भी, अपनी कुर्सी के बल पर उसके परिक्षेत्र में आल-इन-आल टाइप के लोगों को सम्मानित हो लेने में कोई समस्या नहीं होती क्योंकि इनके लिए यह रोजमर्रा का काम होता है। ये ऊँची कुर्सियों पर बैठने वाले लोग होते हैं, जो हर जगह खपने और हर चीज को खपाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। सम्मान इनके लिए बाईप्राडक्ट की तरह होता है, जिसका ये बखूबी इस्तेमाल करना भी जानते हैं।
         आखिर एक दिन मेरे वे मुँहलगे अपने साथ एक व्यक्ति को लेकर टपक ही पड़े! वैसे उस व्यक्ति से मैं पहले भी मिल चुका था। मित्र टपके नहीं थे बल्कि उनका आगमन हुआ था। आगमन उनका होता है जिनके आने की हमें प्रतीक्षा रहती है और यहाँ मैं भी प्रतीक्षारत था क्योंकि, एक अदद सम्मान-मंच के जुगाड़ की बात जो थी! मेरे उन मुँहलगे परिचित ने साथ वाले का परिचय देते हुए कहा -
      “ये महाशय, सम्मान-समारोह आयोजित कर सम्मानजनक काम करने वाले को सम्मानित करने का काम करते हैं, इस तरह के काम के लिए इनकी स्वयंसेवी संस्था ‘जन-जागृति’ सरकार द्वारा पुरस्कृत होकर सम्मानित भी हो चुकी है…आपका सम्मान-समारोह आयोजित करा लेने के बाद इनकी संस्था के जनजागरण संबंधी कार्यक्रम का वार्षिक लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा .!”
         इसके बाद मेरे उन मित्र ने आगे और कहा,
      “ऐसा है, इस सम्मान-समारोह के आयोजन से लगे हाथ दो काम होगा, एक  तो आप सम्मानित होंगे और दूसरे इनकी संस्था का टारगेट भी पूरा हो जाएगा..और हाँ..सम्मान-समारोह का सारा खर्च यही उठाएंगे...बस आपको उस समारोहित-जनजागरण कार्य का एक प्रमाण-पत्र भर इस्यू करना होगा।”
       परिचित की इस मुँहलगई पर मैं नेत्र बंद कर विचार-निमग्न हो “प्रमाण-पत्र भर इस्यू करने” तथा अपने “सम्मानित होने” के बीच के तुलनात्मक भारीपने को हिये-तराजू पर रखकर तौलने लगा था। अाकस्मात् बेचैनी में मेरी आँखें खुली और सीधे मित्र जी के चेहरे पर फोकस्ड हुई, सकपकाते हुए से उन्होंने साथ आए व्यक्ति की ओर देखकर कहा -
      “देखिए!  मुझे तो मंच पर ही आपके सम्मान में ज्यादा लाभ नजर आ रहा है, इससे आपकी पॉपुलैरिटी मैं इज़ाफा भी होगा और भविष्य में किसी राजनीतिक दल का टिकट भी आपको मिल सकता है...चुनाव भी जीत सकते हैं..! बाकी मंच की साज-सज्जा और अन्य बातों पर इस बेचारे का खर्च भी तो होगा, ऐसे में प्रमाण-पत्र इस्यू करना कोई घाटे का  सौदा नहीं है...हाँ, यदि कोई बात होगी तो कहीं से “मीट आउट” कर लिया जाएगा।”
        मित्र टाइप मुँहलगे की इस बात पर उनके साथ आया व्यक्ति भी सहमति के अन्दाज में अपना सिर जोरदार तरीके से हिलाने लगा था! उसे इस तरह मुंडी हिलाते देख मैंने मन ही मन सोचा -
     “पता नहीं...यह बेवकूफ ‘मीट आउट’ का मतलब समझ भी रहा है या नहीं..।”
       खैर, अगले दिन “जनजागृति” संस्था द्वारा किए जाने वाले जनजागरण कार्यक्रम की प्रस्ताव संबंधी पत्रावली मेरे समक्ष अनुमोदनार्थ प्रस्तुत की गई। मैंने पत्रावली का त्वरित निस्तारण करते हुए, इस पर अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दिया और जनजागरण कार्यक्रम के तत्काल सफल आयोजन हेतु त्वरित ढंग से कार्यवाही करते हुए इसका अविलंब आयोजन सुनिश्चित कराने के निर्देश सबंधी पत्रालेख पर भी हस्ताक्षर कर दिए।
         पत्रालेख पर हस्ताक्षर कर लेने के बाद अपनी तनी हुई गर्दन पर ध्यान देते हुए सोचा -
       “अब सब कुछ त्वरित-त्वरित ही होगा..! लेकिन..देखे-सुने से तो अब तक ‘जगत गति टारे नहिं टरी’ टाइप के चिरकालिक सत्य की ही प्रतीति हुई है...फिर आखिर, किस बेवकूफ ने किस उद्देश्य से तत्काल, अविलंब, सुनिश्चित करें, जैसे शब्दों को गढा़ होगा.?”
    खैर, ऐसे शब्दों को शासकीय धत्कर्मों में सहयोगात्मक शब्द मानकर इन शब्दों के गढ़ने वाले को मैंने मन ही मन धन्यवाद भी ज्ञापित किया और इन शब्दों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।
       जो भी हो, कुछ दिनों बाद मेरे लिए सम्मान-समारोह के आयोजन की घड़ी आ ही गई! उस दिन सधे हुए कदमों से गरिमामयी अंदाज में उस सम्मान-समारोह-मंच पर पहुँचा था। मंच की साज-सज्जा देखकर सोचा…
     “लगे हाथ इस मंच को सजाने वाले को भी सम्मानित कर देना चाहिए।”
      “वाकई, यह खूबसूरत मंच मेरे लिए ही सजा था!” मेरे लिए यह गौरवबोध का विषय था, इस अहसास ने मेरी गार्दनिक तन्यता की रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
       मंच की सीढ़ियों पर बूट पड़ते ही मेरी निगाह मंच की कुर्सियों के पीछे लगे बड़े से फ्लैक्सी पर अटक गई, जिस पर “जनजागृति” संस्था के “जनजागरण अभियान” में मेरे “सहयोग” के लिए इस संस्था के “तत्वाधान में” मेरे “सम्मान-समारोह” की बात लिखी गई थी...इसे पढ़ते ही मन खट्टा हो गया और सोचा -
      “अभी इस फ्लैक्सी को नुचवा कर फेंकवा दें! मतलब, मेरे “अभियान” को इस संस्था वाले ने हाईजैक कर अपना अभियान बना लिया और बदले में मुझे “सहयोग” का झुनझुना थमा दिया..! वाह भाई, मेरे लिए सम्मान-मंच मुहैया कराने की इतनी बड़ी कीमत वसूलेंगे ये संस्था वाले!!”
      यही सोचते-साचते मुस्कुराहटों के पीछे अपना गुस्सा छिपाने लग गया था। इधर मंच के कोने में दुबके खड़े मेरे तथाकथित मित्र महोदय मेरे अन्दर के भाव को न जाने कैसे मेरी किस भंगिमा से ताड़ गए और कुरसी पर विराजते ही मेरे पास आकर मेरे कान में बुदबुदाने लगे थे -
        “देखिए आप परेशान न हों, चीजों को मैंने मीट आउट करा लिया है, अब थोड़ी-बहुत छूट तो देनी ही होगी, चीजें बैलेंस्ड हो जायेंगी!”
         खैर, मुँहलगई जैसी इस बुदबुदाहट को मैंने सीरियसली नहीं लिया, लेकिन मन ही मन तय किया कि -
       “बेटा! इस कार्यक्रम के बाद देखता हूँ...तुम्हारा बैलेंस्ड..! अन्यथा, तुमको हांडी में संजोए रख धूप दिखाते रहने से क्या फायदा!!”
       मन में इस तरह का विनिश्चय करते ही मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। मुझे इस तरह मुस्कुराते देख, मेरे विनिश्चय से अनजान कई लोग मुस्कुरा उठे थे, लेकिन इन मुस्कुराहटों के पीछे उन सब के अपने-अपने विनिश्चय भी रहे होंगे, जिससे मैं भी अनजान था।
          इधर, नजर फिराया तो कुर्सियों पर लकदक करते झकास सफेदी में बैठे सज्जन टाइप के दो-चार लोग भी दिखे, इन्हें देख मुझे इस बात की प्रतीति हुई कि सज्जनता सफेदी में निहित होती है। शहर में किसी भी सरकारी टाइप के सोशल ऐक्टिविटी मे सफेद परिधान में ये भाग लेते हुए देखे जा सकते हैं। इनके बिना ऐसा कोई भी कार्यक्रम या समारोह अधूरा माना जा सकता है। हाँ, इनसे मेरी नजरें मिली, नजरें मिलते ही परस्पर मुस्कुराहटों में हम खो गए। मने मुस्कुराहटों द्वारा हम परस्पर अभिवादित भी हो लिए थे। खैर, अब तक विनिश्चय से उपजी अपनी मुस्कुराहट को मैंने अभिवादन-जनित मुस्कुराहट में रूपान्तरित कर लिया था। आखिर, मेरा सम्मान-समारोह था…इस बात का खयाल रखते हुए हमें अपनी भावभंगिमा निर्धारित करनी थी..!
         अब मंच पर मेरे अगल-बगल की समानान्तर कुर्सियों पर स्वयंसेवी संस्था के संयोजक के अलावा मेरे कुछ इने-गिने-चुने सहकर्मी भी विराजमान थे..एक-एक कर मैं इन पर कनखियों से निगाह फिराता जा रहा था..संस्था के संचालक को देखकर “प्रमाण-पत्र इस्यू” करने के साथ ही “मीट आउट” की बात फिर याद हो आई..! इन्हें बाद में देखेंगे...सोचकर दूसरी ओर निगाह फिराई…अलबत्ता, साथ में बैठे सहकर्मी मेरे सम्मान में बढ़ोतरी करते प्रतीत हो रहे थे..इनपर निगाह फेर कर सोचा-
       “चलो..मेरे सम्मान के बहाने ये भी थोड़ा-बहुत सम्मानित हो लेंगे.. इसमें कोई हर्ज नहीं..।”
       खैर..कुछ ही क्षणों में मेरे स्वागत का दौर शुरू होने वाला था।
       अब मेरा माल्यार्पण शुरू हो गया था...एक-एक कर लोग अपनी-अपनी पुष्प-मालाएँ मेरे गर्दनार्पित करते जाते और बीच-बीच में गर्दन से उतारी गई वही पुष्प-माला पुनः मेरी गर्दन पर आ सवार हो जाती। यह चक्र कई बार चला। इस बीच मुझे यह अनुभव हुआ कि जैसे, लोग मिलकर मेरी गार्दनिक तन्यता का इलाज कर रहे हैं। लगभग सभी से माला पहनवा लेने के बाद मैं वापस अपनी कुर्सी पर विराजा।
       मंच के सामने सैकड़ों कुर्सियाँ लगी हुई थी। लगभग आधी कुर्सियों पर स्कूली बच्चे और शेष पर मेरे कुर्सी के परिक्षेत्र में आनेवाले मेरे मातहत टाइप के लोग बैठे थे। आगे की गद्दीदार कुर्सियों पर पत्रकार और कुछ वीआईपी जैसे लोग बैठे थे, इनमें से कुछ हमें देखकर मुस्कुराए और कुछ को हम देखकर मुस्कुराए या फिर मुस्कुराहटों के प्रतिउत्तर में हम मुस्कुराते गए। हमारी ये मुस्कुराहटें उपकार और उपकृत जैसी भावना से परिपूरित पवित्र मूक-हास्य टाइप की थी।
        अचानक मुझे, मेरे लिए आयोजित सम्मान-समारोह की यह व्यवस्था अलोकतांत्रिकनुमा लगी, क्योंकि इस समारोह में मुझे लोक-भागीदारी के दर्शन नहीं हो रहे थे। खैर, मंचीय-सम्मान-समारोह में लोकतांत्रिकता जैसे तत्व की गुंजाइश नामिनल ही होती है क्योंकि, अलोकतांत्रिकता मंचीय-सम्मानार्जन की पूर्वपीठिका होती है। सम्मान-समारोह में लोक-भागीदारी का अभाव देख मुझे अपने मुँहलगे परिचित और स्वयंसेवी संस्था के संचालक पर कोफ्त हुई और इनपर मेरा मन भड़ासित टाइप का होने लगा था और मैंने सोचा -
       “ये संस्था वाले ही क्यों, मेरी कुर्सीय परिधि में आनेवाले लोग भी तो मेरे सामने पलक-पाँवड़े बिछाये रहते हैं, बस मेरे कहने भर की देर होती और सजा-सजाया सम्मान-मंच जनभागीदारी के साथ मुझे उपलब्ध हो जाता…लेकिन...ये हमारे ही आदमी से हमें सम्मानित कराने निकल पड़े हैं! खैर..अब इस पर क्या किया जा सकता है...जब मंच पर चढ़ सम्मानित होने का शौक चर्राया हो, फिर तो सम्मान भी ऐसई होता है..!!”
         मित्रनुमा मुँहलगे के प्रति अब मेरी भृकुटी थोड़ी टेढ़ी हो चुकी थी..मैं उनकी मुँहलगई पर पश्चाताप करने लगा था। उनपर मैं भृकुटी थोड़ी और टेढ़ी करता कि उनकी “मीटआउट” बात के खयाल के साथ ही लड़कियों द्वारा कोमल स्वर में गाया जा रहा मेरा स्वागत-गान कानों में पड़ा..मित्र थोड़ा बच गए..! लड़कियों के इस सामूहिक स्वागत-गान में वह इंस्ट्रक्टर मुझे अजीब से मेकअप में लगी...पता नहीं यह मेकअप किस बात पर और क्योंकर था...खैर, यहाँ से ध्यान हटाकर मैंने अपनी तन्द्रा को अपने सम्मान पर फोकस कर लिया। इन बच्चियों ने अपने स्वागत-गान में मेरे स्वागत की पराकाष्ठा कर दी थी...इस स्वागत-गान में पता नहीं किन-किन महानताओं से मैं विभूषित होता रहा...अब मैं अपने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था कि, मैं वही हूँ जो मैं हूँ..!!
        माल्यार्पण और स्वागत-गान वगैरह की औपचारिकताएँ पूरी हो चुकी थी...अब वक्ताओं की बारी थी...सामने कुर्सियों पर बैठे लोगों पर धूप का भी प्रकोप साफ दिखाई दे रहा था। कड़ी धूप में चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हुए भी, ये मेरे सम्मान-समारोह में भागीदारी निभाकर धन्य से हो रहे थे। यही नहीं, जैसे चुनाव जीते किसी नेता के पीछे उनके ठेकेदार टाइप के फालोवर घूमते हैं, वैसे ही ये मुझे सम्मानदान देते हुए अपने ऊपर मेरी नजरों के इनायत होने की कामना करते जान पड़े। लेकिन, एक बात और है, मुझे, एक महान लेखक के शब्दों में, मेरा यह सम्मान “जिनके पैरों तले गर्दन दबी हो, उन पैरों को सहलाना ही श्रेयस्कर है” टाइप का प्रतीत हो रहा था ! शायद लोगों के वक्तव्यों द्वारा मैं इसीलिए सहलाया जा रहा था।
        पहले संस्था के ही पदाधिकारी को बोलने के लिए पुकारा गया..पदाधिकारी महोदय माइक के पास पहुँच कर भरपूर निगाहों से मुझे देखे..तत्पश्चात वक्तव्य देना प्रारम्भ किए..
        “मैंने आज तक इनकी कभी चापलूसी नहीं की..लेकिन आज इनके इस सम्मान-समारोह पर अपने को रोक नहीं पा रहा…” यह वाक्य पूरा करते-करते वक्ता नें मेरे ऊपर फिर निगाह डाली लेकिन उनसे निगाह मिलाने से अब मैं हिचक रहा था। अब इन्हें जियादा एडवांटेज देने के मूड में नहीं था, क्योंकि आगे इनसे सम्मान-समारोह का प्रमाण-पत्र इस्यू करने से लेकर “मीटआउट” होने तक का हिसाब होना बाकी था। जाते-जाते इनने मेरी शान में यह कसीदा पढ़ा -
        जब तक बिके न थे, कोई पूँछा था न हमें,
        जब से खरीदा आपने अनमोल हो गए।

      खूब तालियाँ बजी..लेकिन मैं ताली बजाना भूल दिमाग को, कौन किसको खरीदा..कौन बिका...कौन किसके लिए अनमोल हुआ, जैसी बातों पर चकरघिन्नी की तरह नचाने लगा था। इसके बाद अन्य वक्ताओं ने भी मेरीे शान में खूब कसीदे पढ़े...मैं कसीदों के आधार पर अपने लिए सम्मान की मात्रा का भी आकलन करता जा रहा था।
       इस प्रकार मेरे सम्मान समारोह का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ अपनी प्रशंसा के कसीदे दर कसीदे सुन एक अज्ञानी की भाँति आत्मविभोर हो चुका था। अब मैं भी एक सम्मानित शख्स था।
       अंत में मेरा भी भाषण हुआ। अपने भाषण में मैंने कसीदों की कीमत अदा की और एक ज्ञानी की भाँति यहाँ उपस्थित अपने मातहतों को अपने तरकश के तीरनुमा तत्काल, अविलंब, त्वरित ढंग से कार्य सुनिश्चित करने-कराने वाले शब्दों को, सम्मान के पीछे का छुपा हुआ एजेंडा बताते हुए जनहित में इन शब्दों को उचित ठहराया। एक तरह से यह इस बात की चेतावनी थी कि मेरे सम्मान का एजेंडा ऐसे ही चलता रहेगा। अगले दिन मेरे सम्मान-समारोह की खबरें अखबारों में छायी हुई थी, इन खबरों को पढ़कर अपने सम्मान की यह पूरी कहानी आपको बताने के लिए मैं प्रेरित हुआ।

मंगलवार, 9 मई 2017

हवाई-चप्पल की घिसाई

          "आप लोग, लोगों को चप्पल घिसवाने से बाज आईए" एक शिकायत-समाधान-प्रकोष्ठ में सुना गया था यह वक्तव्य! सुनकर हवाई-चप्पल पर भी व्यंग्यनुमा कुछ लिखने का क्लू सा मिल गया। वैसे इस बात पर मैं इतना तो कहुँगा, "चप्पल पहनने वाले का चप्पल कोई घिसवाता नहीं, पहनने वाला स्वयं अपनी चप्पल घिस लेता है।"
       
           मैंने स्वयं देखा है, बल्कि देखा ही नहीं अनुभव भी किया है कि लोग घिसी-घिसाई हवाई-चप्पल की बद्धी बदल-बदल कर, तब तक पहनते रहते हैं, जब तक उसमें रंचमात्र भी घिसने की संभावना बची रहती है। लेकिन हो सकता है दुनियाँ अब और बदल गई हो, क्योंकि आज डिजाइनर टाइप के चप्पलों का भी जमाना है, इसीलिए हवाई-चप्पल पर बात होने लगी है। शायद, इन्हीं डिजाइनर हवाई-चप्पल पहनने वाले के लिए हवाई जहाज में सफर करने की बात की जा रही है।
          
         अब जो भी बात हो, बेचारे हवाई-चप्पल पहनने वाले को अपना चप्पल घिसने से फुर्सत मिले तभी तो वह हवाई-जहाज पर सवार हो पाएगा? मैं तो मानता हूँ उसे इस काम से फुर्सत मिल ही नहीं सकती।
          
         एक दिन एक चमचमाते बूटनुमा जूते और एक घिसी-पिटी हवाई-चप्पल के बीच हुई वार्ता को मैंने भी सुना था -
        
          वह चमचमाता बूट हवाई-चप्पल को आईना दिखाते हुए कह रहा था - "क्यों री...तू घिस-घिसकर बड़ी ट्रांसपिरेंट होती जा रही है..फिर भी तू अपने मालिक को छोड़ नहीं रही !"
          
          चमचमाते बूट में अपने उभरे अक्स को देख सकपकाते हुए चप्पल ने कहा - अब मुझसे नहीं चला जाता पर क्या करूँ.. मेरा मालिक मुझे छोड़ता ही नहीं!"
         
          इस पर चमचमाता बूट घिसी हुई हवाई-चप्पल से बोला - "चलो अच्छी बात है, तुम जितनी घिसती हो उतनी ही हमारी चमक भी बढती है।"
          
         इस वार्तालाप के बीच में एक तीखे स्वर ने जूते और चप्पल के बीच के वार्ताक्रम को तोड़ दिया -
          
        "देखो, तुम्हारा नाम सर्वे सूची में नहीं है...मैं कुछ नहीं कर सकता, मैं नियम-कानून ताक पर रखकर काम नहीं कर सकता..!"
       
          "हुजूर! इसमें मेरा क्या दोष है.. मैं तो कई बार आया.. लेकिन मेरी कोई सुनवाई ही नहीं.. सूची में नाम नहीं, तो मेरा कउन दोष..मैं क्या करूँ?"
        
         "क्या करूँ, मतलब ? अरे भाई! अब तो हवाई-चप्पल वाले भी हवाई जहाज से उड़ सकते हैं! जाओ, हवाई-जहाज से उड़कर दिल्ली चले जाओ और सूची में अपना नाम सम्मिलित करा कर फिर वापस आकर बताओ..तब देखते हैं..समझे!"
            
           इस आवाज के साथ ही जूते में हलचल हुई और इसकी चमक में चप्पल का अक्स खो गया। हाँ, चमकते बूट के आईने में घिसे-पिटे हवाई-चप्पल को अपनी निरीहता की झलक मिल चुकी थी । वाकई, घिस-पिट कर निरीह हो जाना ही होता है।
          
         देखा ! हवाई-चप्पल वाले को हवाई-जहाज से उड़कर दिल्ली जाने की सलाह दी जा रही है, इसे चप्पल घिसवाना तो नहीं ही कहा जा सकता..! बल्कि हवाई-जहाज में उड़ना तो हवाई-चप्पल पहनने वाले की खुशनसीबी है!! हम तो कहेंगे कि चप्पल घिसाई चप्पल पहनने वाले की स्वयं की खुराफात है।
           
           वैसे मैं,चप्पल पहनने को फैशन मानता हूँ, क्योंकि चप्पल पहने पैरों को बार-बार निहारता रहता हूँ, इस फैशन के चक्कर में ही मैं भी चप्पल पहनता हूँ।
      
           एक बात और है, चप्पल पहनना रिलैक्स टाइप की फीलिंग टच लिए होता है, बस जूते पहनने वालों के बीच असहजता आ जाती है क्योंकि ये जूते वाले लोग अपने बीच चप्पल वाले को हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। लेकिन कुछ भी हो, चप्पल पहनना नेता बनने का प्राथमिक लक्षण भी है। कुछ लोग तो हवाई-चप्पल पहन-पहन कर नेता बन बैठे हैं, इसीलिए हवाई-चप्पल वालों को ज्यादा तरजीह देने की जरूरत नहीं है।

                               ……..

कड़ी निंदा की लाबीइंग

             एक दिन क्या हुआ कि, मैं सुबह-सुबह अखबार की प्रतीक्षा में, अनमने से बैठा हुआ था, तभी मेरे एक मित्र पधारे। मैंने आवभगत की। बातों-बातों में मित्र जी एक तीसरे की बात ले बैठे और न जाने क्या-क्या भड़ास निकालते रहे, हलाँकि मैं चुप ही रहा पर गौर से उनकी बातें सुनता रहा था। मेरी चुप्पी पर वे मित्र महोदय भी अनमने हो गए और मुझसे बोले  "आप कुछ बोलते ही नहीं" खैर मैं क्या बोलता! मैं उनके मामले को द्विपक्षीय मामला समझ रहा था। असल में जिस व्यक्ति की वे निंदा कर रहे थे उससे मेरा भी कुछ न कुछ संबंध था। वे शायद मुझसे भी अपने मित्र के लिए किसी कड़ी टाइप की निंदा की अपेक्षा कर रहे थे और अपने उस मित्र जो कि मेरे भी परिचित थे, के विरुद्ध जनमत तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अपनी बातों में मेरी रुचि न देखकर उन्होंने ऐसा मुँह बनाया जैसे मेरे न बोलने से उनकी कोई कूटनीतिक पराजय हुई हो।
          खैर, मित्र की बातों से मुझे यह तो विश्वास हो चला था कि इन बेचारे की पीड़ा जायज है और ये निंदारस के चक्कर में नहीं, बल्कि पीड़ित मन से अपने मित्र की निंदा कर रहे थे। खैर, मैंने उन्हें यह कहते हुए विदा किया कि यह आप दोनों के बीच का मामला है और अगर अपने मित्र को कोई माकूल जवाब देना है तो, उन तक उनके नापसंदगी वाले काम की कड़ी निंदा पहुँचा दीजिए, अन्यथा आपस में मिल-बैठकर मामला सुलटा लें। मित्र बेचारे मेरा मुँह देखने लगे और फिर वापस चले गए थे।
           इधर मित्र के जाने के बाद मैं भी थोड़ा परेशान हो गया था। शायद, वे मुझसे निराश होकर गए थे, इस बात से मेरा मन पश्चाताप से भर उठा था। मैं जानता था उनका नेचर आमने-सामने माकूल जवाब देने लायक नहीं है, इसीलिए मुझसे अपने मन की भड़ास निकालने आ गए थे। शायद वे अपने मित्र के अनपेक्षित काम के खिलाफ एक माहौल भी बना रहे थे।
        वैसे, कोई जरूरी नहीं कि हम निंदा को मजाक का ही विषय बनाएं या किसी के प्रति कही गई कोई बात हर समय निंदा ही मानी जाए। आखिर, किसी के खराब काम की चर्चा करना निंदा थोड़ी न होता है!
           इस बीच अखबार वाला अखबार फेंक कर जा चुका था। मैंने अखबार उठाया तो, उसकी पहली ही खबर पर मेरी नजर पड़ी, जहाँ देश की सरकार पाकिस्तान के सन्दर्भ में कह रही थी "हम माकूल जवाब देंगे" फिर छपा था "इस बर्बर कृत्य की हम कड़ी निंदा करते हैं" बस, इसे पढ़ते ही लगा जैसे, गुब्बारे की सारी हवा निकल गई हो..! मतलब दे दिया गया माकूल जवाब!! वैसे, मैंने भी राहत की साँस ली कि चलो बिना खून-खराबे और बिना किसी अतिरिक्त परेशानी के माकूल जवाब दे दिया गया है।
            इधर "कड़ी निंदा" का अर्थ क्या है? क्या यह किसी तरह का जवाब है और अगर जवाब है भी तो कितना माकूल है? जैसे प्रश्न का उत्तर मैं खोजने बैठ गया था। वैसे, 'कड़ी निंदा' को मैं एक हद तक माकूल जवाब मानता हूँ क्योंकि एक बार इसकी मारक-क्षमता से मेरा सीधे साक्षात्कार हो चुका है।
         वो क्या है कि नौकरी के मेरे शुरुआती दिन थे, बड़ा जज्बा था मन में कुछ कर के दिखाने का..! अब काम करके रिपोर्ट तो करनइ होता है, सो मैं भी काम करके रिपोर्ट करता, फिर उच्च लेवल पर इस रिपोर्ट की समीक्षा होती। एक बार क्या हुआ कि हमारी रिपोर्ट में काम की प्रगति अन्य की अपेक्षा कम आँकी गई और अगले दिन हमें लिफाफे में एक प्रेम-पत्र टाइप का कुछ मिला, पत्र खोलने पर इसमें लिखा पाया कि "फला योजना में आपकी खराब प्रगति के कारण आपकी कड़ी भर्त्सना की जाती है।"  नई-नई नौकरी थी...पत्र पढ़कर काटो तो खून नहीं टाइप का, मैं बेतरह परेशान हो उठा..! और इस "कड़ी भर्त्सना" में निहित जबर्दस्त मारक-क्षमता का मुझे पहली बार अहसास हुआ था। मेरे काम के प्रतिफल के रूप में बास द्वारा दिए गए इस माकूल जवाब से मैं विचलित हो गया और अगले ही दिन पत्र लेकर बास के सामने हाजिर हो गया था।
          बास से मैंने सफाई दी, "सर, मैंने बहुत मेहनत की है इस काम में! और एकदम सही रिपोर्टिंग की है, मैं फर्जी रिपोर्टिंग नहीं करता, आप चाहें तो दूसरे के प्रशंसित काम से मेरे काम की तुलना ग्राउंडलेबल पर करा सकते हैं..इसके बाद ही ऐसा पत्र जारी किया जाए"
           मेरे बास सहृदय टाइप के व्यक्ति थे, जोर से हँसे और मुझसे बोले, "इस पत्र को इतनी गंभीरता से क्यों ले रहे हो यार..! जाओ अपना काम करो.. और हाँ रिपोर्टिंग-उपोर्टिंग भी थोड़ा बहुत सीख लो"।  बास से मिलकर मैं लौटते समय एक बार पत्र पर लिखे "कड़ी भर्त्सना" शब्द पर फिर से निगाह डाली..अबकी बार इस शब्द को देख मैं मुस्कुराने लगा था क्योंकि बास से मिलकर मैंने इसकी मारक-क्षमता को डिफ्यूज कर दिया था। हालाँकि, मुझे इसकी मारक-क्षमता का भी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। खैर, "कड़ी निंदा" और कड़ी भर्त्सना" दोनों समानार्थी होते हैं, इनकी तुलना से मैं इस विनिश्चय पर पहुँचा कि 'कड़ी निंदा' को माकूल जवाब मान लेना चाहिए।
           वैसे, 'कड़ी निंदा' के अपने फायदे भी होते हैं, मतलब, 'कड़ी निंदा' करने वाला ऐसा करके अपनी स्थिति भी सेफ करता है और अगले वाले को अपनी रिपोर्टिंग में कह सकता है-
           "देखो जी, मैंने भी काम लेने का और काम करने का जबर्दस्त प्रयास किया है और अपने इस प्रयास में ही मैंने खराब काम करने वालों की 'कड़ी भर्त्सना' की है!"
         वैसे एक बात तो है वह यह कि, हमारा देश रिपोर्टिंग प्रक्रिया में विश्वास करने वाला देश है। यहाँ ग्राउंडलेबल वर्क की कोई अहमियत नहीं होती, केवल और केवल रिपोर्टिंग करने और रिपोर्ट तैयार करने में ही जूझते रहना होता है, बल्कि इस चक्कर में ग्राउंडलेबल का वर्क भूल जाता है। इस देश में एक तरह से रिपोर्टिंग का सिस्टम विकसित किया गया है। इस रिपोर्टिंग के खेल में महारत हांसिल कर "कड़ी निंदा" करने वाला सफलता के शिखर पर पहुंच जाता है, अन्यथा बाकी 'कड़ी भर्त्सना' तो झेलते ही हैं। इस देश में प्रत्येक नीचे वाला अपने से ऊपर वाले को केवल और केवल रिपोर्ट करने में ही व्यस्त है। एक बात और, यहाँ लोकतंत्र है और जनता सर्वोपरि है, इसलिए सरकारें भी जनता को 'कड़ी निंदा' की रिपोर्टिंग करती रहती हैं। यह सरकारों पर रिपोर्टिंग सिस्टम का प्रभाव नहीं तो और क्या है..! फिर हम अपने रिपोर्टिंग सिस्टम के चक्कर में भूल जाते हैं कि पाकिस्तान हमारा मातहत नहीं है कि "कड़ी निंदा" के मारक असर से बिलबिलाता हुआ हमारी मेज पर दौड़ा चला आएगा!!
           हमने तो अपने अनुभव से यही सीखा है कि 'कड़ी निंदा' बिना ग्राउंडलेबल का वर्क होता है। मतलब, जो ग्राउंडलेबल के वर्क से बचना चाहते हैं वही 'कड़ी निंदा' करते हैं और इसे रिपोर्टिंग प्रक्रिया का एक हिस्सा भर मानते हैं। यदि ग्राउंडलेबल को समझ कर वर्क किया जाए तो फिर, असली दोषी की पहचान कर कार्रवाई करनी होती है, तब किसी 'कड़ी भर्त्सना' की जरूरत ही नहीं होगी। इस देश में कोई वर्ककल्चर तो कभी रहा ही नहीं, केवल रसनिष्पत्तियों पर हमारी तमाम थीसिस रही है इसी कड़ी में हमने 'निंदा रस' की भी खोज किया हुआ है। इस रस को निचोड़कर स्वयं पीते हैं तथा औरों को भी पिलाते हैं कि "लो भाई! कड़ी निंदा के रस में डूबे रहो..!" शायद यही कारण है, हमारा देश 'निंदा-रस' में डूबे रहने वाले लोगों का देश बन चुका है।
          सोचता हूँ, पता नहीं मेरे वे मित्र बेचारे, मेरी सलाह मानकर अपने मित्र के साथ द्विपक्षीय वार्ता से अपना मामला सुलटा रहे होंगे या कि जवाब देने के लिए ग्राउंडलेबल पर वर्क कर रहे होंगे, या फिर निंदा की लाबीइंग करते ही अब तक घूम रहे होंगे..! खैर, मिलने पर पूछेंगे।