शुक्रवार, 23 जून 2017

योगा-वोगा

           आज बहुत दिन बाद स्टेडियम की ओर टहलने निकला था... लगभग पौने पाँच बजे..! वैसे तो रोज ही टहलने का प्रयास कर लेता हूँ, लेकिन जब स्टेडियम जाने का मन नहीं होता, तो अपने आवासीय परिसर में ही कुएँ की मेढक की भाँति कई चक्कर काट लेता हूँ...
          आवास से निकलते ही पता चला कि देर रात बारिश भी हुई थी, क्योंकि परिसर पूरी तरह भींगा हुआ था। इस बारिश से मन को थोड़ी खुशी हुई... स्टेडियम की ओर जाते हुए मुझे दादुर के टर्राने की आवाज सुनाई पड़ रही थी...मैंने ध्यान दिया, एक खाली पड़े प्लाट की जमीन में, बारिश से हुए जलजमाव के बीच से यह आवाज आ रही थी...हाँ, याद आ गया...बचपन में ऐसे ही पहली बारिश के बाद छोटे-छोटे गड्ढों और तालाबों से मेंढकों के टर्राने की आवाजें खूब सुनाई दिया करती थी...बड़ा अद्भुत अहसास होता था...लगता था...इस धरती पर हमारे साथ कोई और भी है..! लेकिन धीरे-धीरे आज हम अकेले होते जा रहे हैं...हमारे कृत्यों से धरती पर यह जीवन सिमटता जा रहा है...जीवन के स्पेस कम हो रहे हैं, उस पर तुर्रा यह कि, हम ब्रह्मांड में जीवन खोज रहे हैं...! खैर...हमारे एक फेसबुक मित्र श्री Rakesh Kumar Pandey जी हैं.. प्रकृति के प्रति उनकी अनुभूतियाँ बहुत ही गहरी हैं...उन्हीं की रचनाएँ पढ़कर, हम भी बदलते मौसम या प्रकृति के आँगन में, गुजारे अपने बीते पलों की यादें ताजा कर लेते हैं... 
          हाँ तो, स्टेडियम पहुँच गए थे....यहाँ भी बगल के गड्ढों से वही मेंढकों के टर्राने की आवाजें आ रही थी...तथा..ऊपर आसमान में उड़ते हुए टिटहरी की "टी..टुट.टुट.." की आवाज सुनाई पड़ी...साथ में कुछ अन्य पक्षियों की चहकने की भी ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगी थी जो, सुबह के खुशनुमा अहसास को द्विगुणित किये दे रही थी...एक बात है..! योगा-वोगा तो करते रहिए, लेकिन जरा सुबह-सुबह निकल कर टहल भी लिया करिए...मजा आएगा...!! 
           टहल कर लौटे..चाय-वाय पीते हुए मोबाइल चेक कर रहे थे, तभी घर से फोन आ गया... मैंने तुरन्त रिस्पांस दिया...असल में सुबह फोन मैं बहुत कम उठा पाता हूँ, बाद में मिस्ड हुई काल देखकर फोन करना पड़ता है...तब डाट भी खानी पड़ती है...फिर उधर से पूँछा गया, "आज बड़ी जल्दी फोन उठ गया..!" मैंने मारे डर के यह नहीं बताया कि फेसबुक चेक कर रहा था, मैंने उन्हें यही बताया कि "एक हमारी दोनों बच्चों के साथ की बहुत पुरानी तस्वीर, हमें देखने को पहली बार मिली है...वही देख रहा था.." फिर उलट कर मैंने ही पूँछा, "वह तस्वीर कब की होगी..?" मुझे बताया गया कि "जब हमारा छोटा बच्चा एक माह का था, शायद तब खींची गई थी.." बेचारी ये महिलाएं..! इन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है.. ये आसानी से भुलावे में भी आ जाती हैं.. खैर.. 
            घर से फिर बात होने लगी...उन्होंने कहा, "ये योग के चक्कर में यहाँ लखनऊ में करोड़ों रूपए बर्बाद कर दिए गए...बाद में इसकी भरपाई कहीं गैस के दाम बढ़ाकर करेंगे या अन्य टैक्स बढ़ा देंगे..ये सब ऐसे ही जनता की भावनाओं से खेलते हैं..! लेकिन, अब सब समझदार हो रहे हैं... बनारस की दशा वैसी ही है.. कोई खास सुधार नहीं...गाड़ियां वैसे ही सड़क पर हिचकोले ले लेकर आगे बढ़ रही थी... वहाँ घाट पर खड़ा वह लड़का कह रहा था...कि...अभी तक 2019 तक बनारस को ठीक कर देने की बात कही जा रही थी...अब 2024 की बात कही जाने लगी है...लेकिन..जनता इतनी बेवकूफ नहीं है" हाँ, श्रीमती जी बनारस, बाबा विश्वनाथ के दर्शन करके आई थी...वही बता रहीं थीं... वैसे, बेचारी इन औरतों को अपने चूल्हे-चक्के की कुछ ज्यादा ही चिन्ता होती है... खैर.. 
         इधर योग को भी एक सरकारी कार्यक्रम जैसा बना दिया गया...डर लगा, कहीं यह योग भी, कोई "योजना" न बन जाए...!! याद आया उस दिन योग कार्यक्रम में अंत में मुझे इसपर कुछ बोलने के लिए कहा गया... मैं ढंग से नहीं बोला था.. क्या बोलता.. अगर कहता "कर्म में कुशलता ही योग है" तो वहाँ उपस्थित तमाम "योगी-जन" अपने अब तक करते आए काम को, और कुशलता से करने लगेंगे..! और अगर कहता "योग चित्तवृत्तियों का निरोध है" तो ये "योगी-जन" अपने अन्दर की रही-सही, बाकी थोड़ी बहुत संवेदना के लिए भी निरोधात्मक उपाय करना शुरू कर देंगे, और भोगेगी बेचारी यह वियोगी जनता..!! इसीलिए, मैं योगोपरान्त दिए गए अपने वक्तव्य में ऊल-जुलूल ही बकता रहा...हाँ आज की सुबह इन्हीं बातों में गुजरी...लेकिन आप इन बातों को लेकर अपना मूड खराब मत करिए... अब धूप तेज हो चुकी है...अगर सुबह टहलने न निकले रहे हों तो, घर में बैठे-बैठे ही योगा-वोगा कर डालिए...बाकी सब चलता है... टेंशन काहे का.... 
          #सुबहचर्या 
           23.6.17

शुक्रवार, 16 जून 2017

टापर

             टापर को अगर व्यंग्यियायें तो कैसे? क्योंकि टापर को व्यंग्यीयाना देश-द्रोह जैसा अपराध होगा यह किसी की देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने जैसा होगा। यह मेरे सामने एक गूढ़ प्रश्न है! सोचता हूँ, देश भर में आजादी के बाद से कितने टापर हो चुके होंगे? हिसाब तो लगाना ही पड़ेगा! हिसाब इसलिए कि देश की जी डी पी या कहिए इससे देश का इकोनामिकली ग्रोथ-रेट पता चलेगा। हमारे कुछ अर्थशास्त्री दावा करते हैं कि अपने देश का ग्रोथ रेट काफी तेज है, जबकि कुछ इसपर असंतोष भी व्यक्त करते हैं। कहीं देश के ग्रोथ-रेट में यह दृष्टव्य उतार-चढ़ाव देश के टापरों से को-रिलेट तो नहीं करती..? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। 
          वैसे इतना तो तय है, ये टापरों की संख्या ही देश की जी डी पी में वृद्धि का कारक होती है। क्योंकि ये टापर जी ही हैं, जो जी-जान से देश सेवा में सन्नद्ध होते हैं। बाकी तो सब लफंटूस बने घूमते हैं। कभी-कभी, मैं उनको महा बेवकूफ मानता हूँ, जो आजकल टापरों के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं। अरे भाई!  इन बेचारों को टापर होने का सुख तो लेने दो, तभी देश में भी सुखक्रांति आयेगी और गरीबों के चेहरों पर मुस्कान तैरेगी! टापरों को हतोत्साहित मत कीजिए। बल्कि इनके सुर-लय-ताल की तारीफ करिए। यही तो हैं, जो ताल में ताल मिलाकर, देश में लयबद्ध ढंग से विकास का काम कर रहे हैं।  ये टापर बखूबी बेसुरे राष्ट्र विरोधी तत्व को देश-सेवा जैसे महत्वपूर्ण काम से अलग कर देते हैं। मैं तो कहता हूँ इसीलिए देश को इन टापरों का ॠणी होना चाहिए।          हमको तो लगता है इन टापरों में, टापर होने के पहले और टापर होने के बाद टापरीय टाइप का अन्दरूनी समझौता होता है, और वह होता है देश-सेवा करने का समझौता..! तभी तो न, टाप करने के बाद इनके मुख से बस यही पहला लफ्ज़ निकलता है "हम देश की सेवा करना चाहते हैं।" हाँ भाई ये टापर लोग, आपस में मिल-बाँटकर देश-सेवा करते हैं...वास्तव में देश-सेवा का मूलाधिकार भी इन्हीं टापरों में ही निहित है।
           इधर कुछ लोग देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की शिकायत भी करने लग रहे थे। तथा कुछ देश की आर्थिक प्रगति की धीमी गति पर अपने वित्तमंत्री की खिंचाई करते भी देखे जा सकते हैं। तमाम अर्थवेत्ता अपने-अपने तईं देश के इस घटती अर्थव्यवस्था दर पर अपने कारण भी गिनाते जा रहे हैं...लेकिन, मुझे तो लगता है, इनके गिनाए कोई भी कारण सटीक नहीं है...आईए लगे हाथ मैं आपको कारण बताए दे रहा हूँ... वह भला हो बिहार के उस पत्रकार का, जिसने सोशल-मीडिया पर एक फोटो वायरल की थी! भाई लोग बिहार बोर्ड परीक्षा में बेसीढ़ी चौथे मंजिल की खिड़कियों पर भी लपक-लपक कर टापर बनाने का काम कर रहे थे। इसके बाद ही बिहार में लोग टापरों की खोजबीन में लगे और "प्रोडिकल-साइंस" विषय के टापर को खोजकर सामने धर दिए थे। तो भाई, सामने आ गया टापर-घोटाला! 
           अब आप तो समझ ही गए होंगे यह टापर-घोटाला ही देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर किए हुए है, और देश को घोटाले की ओर धकेल दे रहा है। मतलब, एकमात्र टापर-घोटाला ही, देश के विकास-दर की उठापटक और यहाँ के घोटालों की जड़ में है। हाँ, जो बेचारे अच्छे टापर होते हैं, देश, विकास की चढ़ाई उन्हीं के माथे कर रहा है। देश में विकास की कमी दिखाई देती है तो इसके पीछे इस टापर घोटाले को ही जिम्मेदार माना जाए। मेरी तो अपनी यह मान्यता है कि, जब तक पूरी तरह टापर रूपी देश के इस महा घोटाले की जड़ में न पहुँचा जाए तब तक आजादी के बाद से जो भी चाहे जिस परीक्षा में बैठा हो, उन सभी को टापर ही माना जाए..कम से कम इसी बहाने हमें भी टापर होने का सुख नसीब हो जाएगा...! बाकी देश-सेवा का काम जारी तो हईयै है...जय हो देश के टापर महराजों की..!! 
          अन्त में, चलते-चलते टापरों के व्यंग्यियाने के इस देश विरोधी लेख में 'टापर' और 'देश-सेवा' की खूब पुनरावृत्ति हुई है..! ऐसा इसलिए कि, टापर और देश-सेवा में बेशकीमती अन्योन्याश्रित संबंध होता है। 

खेती का परदूषण

         वो क्या है कि इधर मैं भी गाँव चला गया था। कुछ खेती-किसानी जैसी बातों पर ध्यान गया तो किसान-आन्दोलन को लेकर किसानी पर लिखने के लिए किसी खेतिहर के खेती करने जैसा मन तड़फड़ाने लगा था। लेकिन गाँव के हालत तो सबको पता ही होते हैं, वहाँ नेटवर्क की समस्या होती है, और गाहे-बगाहे नेटवर्क मिले भी तो, बेदर्दी मानसून की तरह यह कभी आया या कभी न आया। सो, लिखने से मन भी उचट गया था। ऐसे ही तो किसान का भी मन किसानी से उचट जाता है! 
         तो, खेती-किसानी और लेखन-वेखन को मैं एक ही तराजू पर तौलता हूँ। लेखक बेचारा लिख-लिख कर थक जाता है, मगर प्रकाशक भी है कि सरकार टाइप का बना रहता है, उसका मन पसीजता नहीं और लेखक के लेखन को किसी किसान के खेत की उपज टाइप का समझ लेता है। इसी तरह बेचारा किसान भी लेखक की तरह दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाता है। 
        असल में क्या है कि सब कुछ नेटवर्क का ही खेल है, खेती भी नेटवर्क आधारित होती है। वैसे अच्छे नेटवर्क का मिलना हमारे देश में आज भी दैवयोग ही है और भारतीय खेती भी तो दैवयोग पर ही आधारित होती है! दैवयोग का मारा बेचारा यह किसान, एक अलग तरीके का नेटवर्क डेवलप करने के चक्कर में, खेत में पसीना बहाने के बजाय इसी में अपना पसीना बहाने लगता है। फिर अच्छा नेटवर्क मिल जाने पर औने-पौने अपना जोतबही उसी नेटवर्क को सौंपकर थक-हार कर घर लौट आता है। 
         एक बात और है...आज का किसान जन्म लेते ही इस नेटवर्क में स्वयं को जकड़ा हुआ पाता है। बचपन में मुझे याद है, खेती फायदे के लिए नहीं की जाती थी..इसका उद्देश्य पेट भरना हुआ करता था, लोग मजे से खेती किया करते थे और अपने लिए साल भर का अनाज पैदा करने पर ही संतुष्ट हो जाते थे। लेकिन अब क्या है कि आर्थिक लाभ का जमाना है, देश का पूरा सिस्टम इस लाभ के खेल में जकड़ा हुआ है और लाभ के सिस्टम का यह खेल किसानों पर भारी पड़ गया है। खेती तो व्यवसाय नहीं बन पाई, लेकिन उसके बच्चे को भी व्यवसायिक शिक्षा चाहिए, बेटी की शादी में वर पक्ष के लाभ की आकांक्षा में मोटा दहेज देना है...किसी से कमतर न दिखें इसके लिए स्टेटस भी मेंटेन करना है..और इन सब के बाद हारी-बीमारी से बचने के लिए इलाज की मँहगाई जैसे आर्थिक लाभ और जीवन यापन के बीच के अजीब से बन चुके नेटवर्क में उलझे किसान की खेती भी बंधक टाइप की हो चुकी है। लेकिन यह सब, खेती से कहाँ पूरा होगा..? खेती बेचारी कितनी बोझ सहेगी..? फिर तो, किसान को कर्ज में डूबना ही है..!
         देश का यही आर्थिक संजाल गाहे-बगाहे किसानों को भड़काता है, आंदोलित करता है। लेकिन स्वयं किसान आंदोलित होता है, इसपर मुझे सन्देह रहा है और है..! "दैवयोग" पर निर्भर किसान कभी आंन्दोलित हो ही नहीं सकता...यहाँ मैंने बुंदेलखंड में देखा है...लगातार सूखा पड़ने के बाद भी किसान टस से मस नहीं होता.. पानी बरसा तो ठीक नहीं तो, शहरों में भागकर मजदूरी करना ही है, और सरकार है कि आजतक यहाँ के किसानों को सिंचाई का कोई नेटवर्क नहीं दे पायी है। मुझे आश्चर्य है, यहाँ के किसान आन्दोलन क्यों नहीं करते..? कारण, जिनको आन्दोलन करना है वे "सेफ्टीवाल्व" की तरह हैं..किसान और किसानी पर हावी हैं और तमाम संसाधनों पर इन्हीं का कब्जा है। जब कभी ये असंतुष्ट होते हैं तो किसान और किसानी को जरूर मोहरा बना लेते हैं और फिर मतलब सध जाने के बाद चुप बैठ जाते हैं। यही नहीं यहाँ के खनिज-कर्म से बर्बाद होती खेती पर ये पसीजते तक नहीं, इनसे किसानों से कोई मतलब नहीं।
          असल में किसान-आन्दोलन और कुछ नहीं बिचौलियों का अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए छेड़ा गया संघर्ष है, जिससे किसानों का कोई लेना-देना नहीं होता। इनमें से जो तथाकथित किसान आन्दोलनरत दिखाई भी देते हैं उनके घरों में किसानी-कृत्य और कृषि-उपज को "परदूषण" की भाँति देखा जाता है। उस दिन खेती का हालचाल पूँछने पर मेरी चाची किसी ऐसे ही किसान के घर का हालचाल बता रही थी -
         "बेटवा आजकल खेती क हाल का बताएं...पहिले जइसे वाली बात अब नाहीं बा... अब नई बहू शहर से गाँव आवत हैं तो...अरहर दलते हुए छिलका देखि के अपनी सास से कहत हैं कि मां जी इहाँ घर में बहुत परदूषण फइला है, रहना मुश्किल है।"
          तो, भइया जिनके घरों में खेती "परदूषण" की तरह देखी जाती है वही किसान आंदोलन की अगुवाई करते हैं....बाकी हम जैसे लोग, हमारे ही इनकमटैक्स से खरीदी हुई सरकारी सम्पत्तियों को धूँ-धूँ जलते हुए देखने के लिए मजबूर होते हैं। 
     

शुक्रवार, 2 जून 2017

'बाईपास' का कल्चर!

         
              उस  दिन वे, जैसे किसी परेशानी में थे। मिलते ही बोले, "यार, वे सब मुझे बाईपास कर रहे हैं।" मतलब, उन्हें बाईपास किया जाना ही उनकी परेशानी का कारण था। नीचे से आती पत्रावलियाँ उनके टेबल को बाईपास करते हुए सीधे ऊपर वाली टेबल पर चली जा रही हैं। वे अपने होते इस दायित्व-क्षरण के कारण पत्रावलियों के गुण-दोष-अन्वेषण जनित लाभादि से वंचित हो रहे हैं। 
            यह पहला अवसर था जब 'बाईपास' शब्द मेरे जेहन में उमड़-घुमड़ मचाते हुए एक वीआईपी शब्द की तरह व्यवहार करने लगा था। उचकते हुए तब मैं उनसे बोला था, "यार..हमारी संस्कृति में 'बाईपास' वाला कल्चर तो वैसे है नहीं..!"  इसी कथन के साथ मेरा ध्यान बचपन के मेरे अपने कस्बे की ओर चला गया, जब पहली बार मैं किसी नयी-नयी बनी बाईपास-सड़क से रुबरु हुआ था। 
           बचपन में निर्मित उस सड़क के साथ ही 'बाईपास' शब्द से मेरा प्रथम परिचय भी हुआ। तब मैं सोचता, आखिर सूनसान और निर्जन स्थान से गुजरने वाली यह सड़क क्यों बनी ? फिर थोड़ी समझदारी आने पर इस बाईपास-सड़क के बनने का कारण मेरी समझ में आ गया था। 
           एक बार रोडवेज बस से मुझे अपने कस्बे मुँगरा बादशाहपुर से इलाहाबाद जाना हुआ था ; तब बीच में पड़ने वाले सहसों बाजार में भी एक नया-नया बाईपास बना था। लेकिन उस दिन बस ड्राइवर जल्दबाजी के चक्कर में बस को बाईपास सड़क से न ले जाकर सीधे सहसों बाजार के बीच से ले गया था। हड़बड़ी में बाजार की सँकरी सड़क से निकलते हुए बस एक खंभे से रगड़ खा गई और एक महिला का हाथ बुरी तरह चोटिल होकर लहूलुहान हो गया था। बाद में बस ड्राइवर और कंडक्टर की खूब लानत-मलानत हुई थी। इस एक घटना के बाद मुझे 'बाईपास' का महत्व समझ में आया था। शायद, उसी दिन बस ड्राइवर को भी 'बाईपास' की समझ हो गई होगी। 
             जेहन में उभर आए इन खयालों में खोए हुए ही मैं हलकी सी मुस्कुराहट के साथ बोला, "यार, तुम पत्रावलियों की गति में, बंद सँकरे बाजार की तरह अवरोध उत्पन्न करते होगे..इसीलिए तुम बाईपास किए जा रहे होगे...अब ओपन मार्केट का जमाना है, खुली सड़क से रास्ता तय किया करो..और चीजों को फर्राटा भरने दो...ट्रैफिक-पुलिस भी मत बनो"। खैर, मेरी इस बात पर ना-नुकुर करते हुए वे उठकर चल दिए थे। 
            इधर मैं, 'बाईपास' शब्द में खो गया। Bypass वैसे तो अंग्रेजी का शब्द है, लेकिन हिन्दी भाषा में इस शब्द का चलन किसी मौलिक शब्द की तरह ही होने लगा। वैसे भी, हिंदी में ढूंढने पर "उपमार्ग" के अलावा 'बाईपास' शब्द का कोई दूसरा समानार्थी शब्द भी नहीं मिलता। लेकिन bypass से जो अर्थ प्रतिध्वनित होता है, कम से कम "उपमार्ग" शब्द से वैसा अर्थ निकलता हुआ मुझे प्रतीत नहीं होता। "उपमार्ग" में आया हुआ उपसर्ग 'उप', 'उपमुख्यमंत्री' शब्द में आए 'उप' टाइप का ही है। जबकि 'बाईपास' स्वतंत्र वजूद वाले मुख्यमार्ग की तरह होता है, जिसे नजरंदाज करना समस्या को दावत देने जैसा हो सकता है, जैसा हमारी बस के साथ हुआ था। 
          एक बात और है, अपने सटीक अर्थ के कारण ही 'बाईपास' शब्द को आत्मसात किया गया है। इसीलिए मैं चाहता हूँ, यह शब्द हिन्दी शब्दकोश में भी स्थान पाए। 
            यहाँ उल्लेखनीय है कि किसी दूसरी भाषा का शब्द हम तभी आत्मसात करते हैं जब उससे अधिक सटीक शब्द हमें अपनी भाषा में नहीं मिलता। किसी भाषा और उसकी शब्दावली पर ध्यान देने पर यह बात स्पष्ट होती है कि भाषा और बोली पर संस्कृति का जबर्दस्त प्रभाव होता है। मतलब कोई भी भाषा-बोली अपने क्षेत्र की संस्कृति को भी अभिव्यक्त करती है।
            तो, आखिर हमारी हिन्दी शब्दावली में "बाईपास" का समानार्थी शब्द क्यों नहीं है? और "उपमार्ग" को इसका समानार्थी क्यों नहीं माना जा सकता?
           इसके पीछे हमारे सांस्कृतिक कारण जिम्मेदार हैं। स्पष्ट है कि, कण-कण में भगवान देखने वाले हम "बाईपास" जैसा शब्द ईजाद नहीं कर सकते! मतलब हमारे कल्चर में 'बाईपास' का कोई स्थान नहीं रहा है। वहीं पर हम किसी को छोटा-बड़ा जरूर बनाते रहे हैं और इसी चक्कर में हमने 'उप' ईजाद किया हुआ है। मतलब, 'उप' प्रकारांतर से फ्यूडलिज्म का पोषक है। आजकल यह 'उप' किसी विवाद के शांतिकारक तत्व के रूप में भी प्रयोग होता है। जैसे, किसी को "उप" घोषित करके भी विवाद को टाला जा सकता है। लेकिन बेचारे इस 'उप' को कभी 'मुख्य' होना नसीब होता है या नहीं, यह अलग से चिंतनीय विषय हो सकता है। फिर भी इस 'उप' को राहत इस बात से मिल सकती है कि यदि ज्यादा हुआ तो भविष्य के मार्गदर्शक-मंडल में सम्मिलित होकर यह शांति का जीवन व्यतीत कर सकता है। 
            वैसे तो हम कम या ज्यादा सभी को महत्व देते हैं। फिर भी, यह 'बाईपास' शब्द जहाँ से आया है, वहाँ के लोग हमसे ज्यादा विकसित और सभ्य क्यों दिखाई देते हैं?
           असल में, हमारे यहाँ 'उप' और 'मुख्य' का चक्कर कुछ ज्यादा ही है ! और 'मुख्य' को मुख्य बनाए रखने हेतु ही 'उप' का सृजन हुआ है। बेचारा यह 'उप', उपेक्षा टाइप की फीलिंग से बचने के लिए अपनी व्यर्थ की महत्ता दिखाता है और फिर, अपने अवरोधक टाइप के विहैव के कारण 'बाईपास' का शिकार होता है।
           वास्तव में हम ऊपर से लोकतांत्रिक लेकिन अन्दर से अलोकतांत्रिक ही होते हैं। वहीं "बाईपास" में लोकतांत्रिकता का पूरा तत्व होता है, जो किसी के 'बपौती' को जमींदोज करता है। इसी कारण पश्चिमी देश के लोगों में चीजों को बेहिचक बाईपास कर देने का गुण होता है, वे 'उप' या 'मुख्य' में नहीं उलझते ! वहाँ कोई भी 'बाईपास' से चलकर मुख्य हो जाने का लुत्फ उठा सकता है। ये पश्चिमी कल्चर वाले आगे बढ़ना जानते हैं। अगर हम आगे बढ़ना जानते होते तो, हम भी 'बाईपास' जैसा ही शब्द गढ़े होते ! 
             हाँ, हमने 'बाईपास' को आत्मसात तो किया, लेकिन हमारे लिए, आगे बढ़ाने की बजाय यह किसी की उपेक्षा करने में कुछ ज्यादा ही काम आता है। इस प्रकार अपने देश में 'बाईपास' के सौजन्य से, हम अपने तरीके से सुखी और दुखी हो लिया करते हैं। 
                               *****