सोमवार, 25 दिसंबर 2017

रजाई बनाम कंबल

           पचीस दिसंबर पर वाकई ठंडी बहुत बढ़ जाती है। इधर महोबा में क्या है कि अभी तक कंबल ओढ़ने से काम चल जाता है। लेकिन इस पचीस दिसंबर को ऐसा लगने लगा कि अब यहाँ भी रजाई ओढ़नी ही पड़ेगी!  सो घर से आते समय पिछले साल वाली रजाई उठा ले आए। वैसे तो, अपने देश में रजाई को सनातनी नहीं ही माना जा सकता क्योंकि रजाई शब्द में संस्कृतनिष्ठता नहीं है, रजाई शब्द विदेशी भाषा टाइप का शब्द प्रतीत होता है। अब चाहे यह देशी भाषा का शब्द हो या विदेशी भाषा का, हाँ, पैंतालीस डिग्री से पाँच-दस डिग्री पर उतरे तापमान के अंतर को यह रजाई ही पाटती है, ऐसे में रजाई को कौन दुतकारेगा!!

            फिर भी न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि अपने देश में कंबल की ही परंपरा सनातनी है। इसीलिए सरकारी या गैरसरकारी दानवीर लोग गरीब रियाया टाइप के लोगों को कंबल ही वितरित करते हैं, जबकि रजाई को वितरित होने का यह गौरव प्राप्त नहीं है। रजाई तो ये दानवीर राजा टाइप के लोग स्वयं ओढ़ते हैं!! फिर रजाई को आखिर यह गौरव क्योंकर प्राप्त हो!! यह दुबला-पतला गरीब आदमी रजाई का बोझ उठा ही नहीं पाएगा..! और फिर गरीबों को रजाई क्यों ओढ़ाएँ? इन्हें राजा थोड़ी न बनाना है! वैसे भी अपना देश गरीबों और संन्यासियों का देश रहा है और इनके लिए कंबल का बोझ उठाना भी थोड़ा आसान होता है; मतलब कांधे पर रखे और चल दिए टाइप से! और यही नहीं, यहाँ के लोग नाराज होने पर "यह लै अपनी लकुटि कमरिया" कहकर कर सब कुछ छोड़कर चल देने वाले लोग होते हैं। सो, इन बेचारे गरीबों को कंबल बाँटना ही मुफीद होता है, ये इसी में जाड़ा काट लेते हैं। वहीं रजाई रजवाड़ों की परंपरा में शामिल है और अगर ऐसा न होता तो जयपुरिया रजाई प्रसिद्ध न होती। आखिर जयपुर रजवाड़ों के लिए ही तो चर्चित रहा है।

          आपको बताएँ, यह जो लिख रहे हैं न, इसे भी रजाई में घुसकर लिख रहे हैं। अभी कुछ देर पहले जैसे ही महोबा पहुँचे तो रजाई का सुख लेने के लिए मन मचल उठा तो, फिर यही किए कि रजाई ओढ़कर रजाई पर ही लिखने लगे। वैसे एक बात है, रजाई ओढ़ लेने की गरमी में मन सरोकारी टाइप का नहीं रह जाता, केवल आत्मसुख या फिर राजसुख की अभिलाषा ही जागती है। इसीलिए रजाई ओढ़ने वाले कुछ-कुछ आलसी टाइप के भी होते हैं। इसी कारण कुछ लोग "खाए-पिए अघाए लोग आलसी होते हैं" कहते हुए रजाई ओढ़ने वालों से कुढ़न भी रखते हैं। खैर, लोग चाहे जो कहें, अगर आप भी रजाई ओढ़ रहे होंगे तो आप भी अलसियायेंगे ही! और सबेरे रजाई छोड़कर उठने का मन नहीं होगा। मैं तो सोचता हूँ, पता नहीं रजाई ओढ़ने वाले अपने इस आलस के चक्कर में देश का विकास कर भी पाते होंगे या नहीं! या फिर रजाई में घुसे हुए अलसियाये विकास के बारे में मनन ही करते रह जाते होंगे!! फिर विकास भाग कर जाएगा कहाँ!  विकास तो ये कंबल ओढ़ने वाले कर-करा देंगे!!

         हम तो, रजाई में राजसुख भोगते हुए अलसियाये हुए से अपनी लेखनी के आत्मसुख में मुग्ध हो सरोकारी होने की अनुभूति प्राप्त कर रहे हैं!!!         

छेड़खानी

           तो छेड़खानी का अजीब मसला छाया हुआ है आजकल! यह बहुत चर्चित शब्द बन चुका है। छेड़खानी पर जितना हो-हल्ला मचता है उतना ही घटने के बजाय यह बढ़ रही है। अभी देखिए गुजरात में क्या हुआ..क्या छेड़खानी में कमी हुई? नहीं, खूब छेड़खानी हुई ! वे आरोप लगाते रह गए और छेड़खानी करने वाले मजा मार ले गए! पता नहीं चुनाव आयोग वाला एंटी रोमियो स्क्वाड कहाँ रह गया। 

           वैसे यह ईवीएम तो बड़ी चतुर-सुजान निकली! या हो न हो, यह भी छेड़खानी करने वालों की चालाकी में फँसकर उन्हें कुछ न बोलती हो! लेकिन वहीं पर, भुग्गापन दिखाने वाले को बेरहमी से चांटा जड़ देती है। और बेचारा चांटा खाने वाला मारे शर्म के कुछ न बोलकर, यही सोचता होगा कि एक सीधे-सादे नियम-कायदा मानने वाले को छेड़खानी किए बिना ही चांटा पड़ गया..! वाकई, इस देश में सीधे-सादे लोगों की हालत "सिधुवा का मुँह कुकुर चाटे" जैसा है कि बेचारा चांटा-फांटा खाकर भी कुछ नहीं बोल पाता। यह बात इस कहानी से कुछ मिलती-जुलती सी है, 

            "एक सँकरी गली से गुजरते किसी लड़के को सामने से एक बेचारी इवीएम टाइप की लड़की आती हुई दिखाई पड़ी। अब गली सँकरी तो सँकरी! इस सँकरी गली में दाएँ-बाएँ चलने का नियम तो लागू नहीं हो सकता! सो, यह सोचते हुए लड़का दाएँ होता है कि बेचारी लड़की उसके बाएँ से निकल लेगी। लेकिन जैसे लड़के ने सोचा वैसे ही लड़की ने भी सोच लिया और दोनों आमने-सामने आ गए। फिर लड़का बाएँ हुआ तो लड़की भी अपनी सोच के मुताबिक अपने दाएँ हुई, फिर तो दोनों आमने-सामने!  इस दाएँ-बाएँ के चक्कर में लड़के के गाल पर लड़की का एक जोरदार चांटा रशीद हो चुका था। मतलब लड़के को अपने भुग्गेपने में छेड़खानी के आरोप में लड़की से चांटा खाना पड़ा। और लड़की से चांटा खाकर मनमसोस कर लड़के ने यही सोचा होगा "जरूर पहले किसी ने इसके साथ छेड़खानी की होगी तभी अति सावधानी में इसने चांटा जड़ा।" 

           अब इतना जरूर होता है चांटा खाकर तिलमिलाए हुए वह लड़का अपनी सफाई में उस लड़की के बारे में "जितनी मुँह उतनी टाइप की बातें" कर उसमें मीन-मेख निकालने की कोशिश कर सकता है। यह प्रवृत्ति अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में यहां मने अपने देश में खूब काम अाती है।

           लेकिन, अगर लड़की किसी ताकतवर कुनबे से हुई, तो चांटा खाने वाले लड़के की शिकायत अनसुनी ही रह जाती है और उसके स्वयं के सभ्य होने की दुहाई भी व्यर्थ चली जाती है। लड़की का चुनाव आयोग जैसा ताकतवर कुनबा लड़के को भली-भांति समझाइश देकर वापस पठा देगा कि "भई हमने तो लड़की में इवीएम जैसा सांस्कारिक साफ्टवेयर भरा हुआ है..देख तू ही अपनी लाइन सीधी रख...कभी दाँए तो कभी बाँए के चक्कर में पड़कर तू ही गलतफहमी पैदा करता है...फिर तो चांटा खाएगा ही..! और दोष इवीएम जैसी हमारी लड़की को देगा! जाओ सुधार करो अपने में..!!"  

              हाँ तो, चाहे लड़की हो या इवीएम, इस देश की यही रवायत है, जो अपनी बात पर दृढ़ता से कायम होते हैं, उनमें ही जानबूझकर नुक्स निकाला जाता है और उन्हें ही, जितनी मुँह उतनी बातें कह कर समाज-बहिष्कृत होने का दंश झेलाया जाता है। लेकिन जनता अब धीरे-धीरे होशियार हो रही है, किसी बात पर स्टैंड लेने वाले को ही वह चरित्रवान समझती है। कभी दाँए कभी बाँए चलने वाले को जनता भुग्गा मानती है, और उसे अपने भुग्गेपन का खामियाजा चांटा खाकर भुगतना पड़ता है। मतलब, अब जमाना एडवांस हो चुका है, छेड़खानी को सभ्यता का अंग माना जाने लगा है, मार तो भुग्गेपने की वजह से पड़ती है। 

रविवार, 3 दिसंबर 2017

काश! कि हम बे-इतिहासी होते!

             उन्होंने कहा हम अपना इतिहास लिए फिरते हैं, समझे! मैंने देखा जैसे वे अपने इतिहास के दम पर कूद-फाँद रहे थे। मैंने सोचा! भाई, इतिहास में बड़ा दम होता है। फिर थोड़ी देर में उनका इतिहास उनके सिर पर चढ़ कर बोलने लगा था। तत्क्रम में मूँछों पर ताव देते हुए वे बोले, "हम इतिहास बदल देने वाले लोगों में से हैं।" मैंने कहा, "किसका इतिहास बदल देगें? अपना या दूसरे का?" उन्होंने कहा, "उनका, जो हमारा इतिहास बदलने की सोचते हैं"  इस पर मैंने हिम्मत जुटाते हुए, उनकी मूँछों पर हाथ फेरते हुए उसकी नोक थोड़ा झुकाते हुए कहा, "यार! अब इसका जमाना नहीं रहा, इन नुकीली खड़ी-तनी मूँछों को लोग जोकरई मानेंगे...इसपर ताव देना बंद करिए।" खैर, वो मेरे मित्र थे, मेरे ऊपर भड़के नहीं। इधर मैं सोच रहा था, न जाने कहाँ से इनपर इतिहास का भूत सवार हो जाता है, वैसे तो हमारे साथ खेलेंगे-कूदेंगे टाइप का खूब गपियाएंगे, लेकिन मूँछ की बात पर अपना इतिहास याद दिलाने लगते हैं, गोया हम बे-इतिहासी हों। 
             
           मूँछ भी इस देश के लिए समस्या है ! इसके चक्कर में इतिहास, इतिहास नहीं रह गया, बल्कि इसे धर्म मान लिया गया है। यह यहीं है कि इतिहास के बिना पर कुछ लोग अपनी मूँछों पर इतराते हैं, और बे-इतिहासी बेचारे बे-कद्री झेलते हैं! 
       
          अपने देश के लोगों के इतिहास में ऐसी असमानता कि बे-इतिहास वाले जहाँ-तहाँ इतिहासवालों के सामने अपना सा मुँह लेकर, मुँह लटकाए बैठे दिखाई दे जाते हैं, जैसे एक बार मैं जब जमींदारी वाले इतिहास के सामने मुँह लटकाए था, तो मेरे दादा जी मेरा मनोभाव ताड़ गए थे और मुझे बताए कि उनके पिता यानी मेरे परदादा ने भी किसी गाँव में चार आने की जमींदारी खरीदी थी। फिर मैंने भी अपने इतिहास को उस जमींदारी वाले इतिहास के सामने उसके टक्कर में खड़ा कर दिया था। मतलब इधर इतिहास से इतिहास के भिड़न्त की प्रवृत्ति खूब विकसित हुई है। 
              खैर, बाद में बे-इतिहास वालों को भी देश के इतिहास पर गर्व करने की सीख दी गई। लेकिन वर्तमान में इतिहास की इस नोचा-चोंथी में सब अपने-अपने हिस्से का इतिहास लेकर भाग खड़ा होना चाहते हैं। ऐसे में बे-इतिहासी बेचारे गर्व करें तो किस पर गर्व करेंगे ! जब देश का कोई इतिहास ही नहीं बचेगा!! वैसे भी, इतिहास केवल वर्चस्ववादियों का ही होता है, जो जितना वर्चस्वशाली उसका उतना ही तगड़ा इतिहास होता है ! यही इतिहास बनाते हैं, बाकी तो इसे पढ़ते भर हैं। लेकिन सब की आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने वाले भारतभूमि में इतिहास-लेखन की परम्परा नहीं रही है। इसीलिए चारण-भाट टाइप का इतिहास लेखन मिले तो मिले लेकिन हेरोडोटस, अलबरूनी वाला इतिहास-लेखन नहीं मिलेगा। शायद तब के जड़ भरत टाइप के भारतीय मनीषी यहाँ की वर्चस्ववादी वितंडावाद को आमजन के लिए अनावश्यक समझ चुके थे, इसीलिए इतिहास-लेखन में हाथ नहीं अजमाए होंगे। 
             यहाँ की जनता जैसे इतिहास में थी वैसे आज भी है। पाँच हजार वर्ष का इतिहास आज भी बदस्तूर जारी है। आजादी की लड़ाई के समय को छोड़ दें तो ये वर्चस्ववादी, जनता को इतिहास में ही ढकेलते रहते हैं। बानगी देखिए! एक ओर एक "माँ" झांसी की रानी आजादी की लड़ाई में "मर्दानी" बनती है, तो दूसरी ओर बिन बच्चे की "पद्मावती" को आज आजादी के बाद "माँ" घोषित किया जा रहा है! मतलब "मर्दानी" पर यह "माँ" भारी है! ऐसी स्थिति में इस आजाद मुल्क में स्वामी दयानंद जी का समाज सुधार भी परवान न चढ़ता, फिर तो गुलामी ही बेहतर होती। ये इतिहास के रखवाले! जौहर-व्रत करने वाले दल के साथ पद्मावती के हाथ में तलवार पकड़ाते तो बाद में एक "माँ" को "मर्दानी" न बनना पड़ता। 
          इस देश के ऐसे दुविधा भरे इतिहास से बेहतर तो यही होगा कि यहाँ का इतिहास कम से कम इतिहास ही बनता रहे, क्योंकि तब किसी की नाक-कान और गर्दन सलामत रहेगी! इसे धर्म बनते देख यही लगता है, काश! कि हमारा देश, बे-इतिहासी देश ही होता! आखिर, आज की दुनियाँ का सिरमौर देश भी तो एक बे-इतिहासी देश रहा है! उसे बनाने वाले भी अपना इतिहास जहाँ का तहाँ छोड़ कर वहाँ आए हैं।

अथ् श्री सीडी-पुराण कथा

            मैं गुस्से से हार्ड-कापी को अपनी टेबल के किनारे सरकाते हुए बिफर पड़ा था। मेरे बिफरने की बात और कुछ नहीं केवल इस हार्ड कापी की सीडी का न मिलना था। हार्ड कापी मेरे सामने थी, लेकिन इसकी सीडी नहीं थी। असल में आजकल सब कुछ डिजिटल हो चुका है, अब हार्ड नहीं साफ्ट की जरूरत होती है, जो पल भर में सीडी से कम्प्यूटर और फिर इंटरनेट की दुनियाँ में पहुँच जाती है। लेकिन कुछ सीडी ऐसी भी होती है जिसकी हार्डकापी बन ही नहीं सकती। वह केवल वायरल की जा सकती है। ऐसी सीडी किसी खास परिस्थिति या क्षण में ही बनती है, जिसका रिक्रियेशन दुबारा संभव नहीं होता जैसे कि उस दिन मेरी बस-यात्रा की बातें थी। 
            उस दिन की बस-यात्रा में कंडक्टर और एक यात्री के बीच होती बहस का स्टिंग कर मोबाइल पर रिकार्ड कर सीडी न बना पाने का मलाल रह गया था। और अगर इस बहस जैसी छोटी घटना का स्टिंग कर पाता तो कैसी सीडी बनती जरा आप भी देखिए - 
            परिवहन विभाग का उड़नदस्ता बस की जाँच कर उतर चुका था और बस चल चुकी थी तथा कंडक्टर बस में यात्रियों की गिनती कर रहा होता है, तभी एक यात्री कंडक्टर से पूँछ बैठता है, 
            यात्री - "कंडक्टर साहब, बस चारबाग तो जाएगी न?" 
            कंडक्टर - "हाँ" 
            यात्री - बस आगे पॉलिटेक्निक चौराहे से ही तो होकर गोरखपुर जाएगी न ?
            कंडक्टर - हाँ, पॉलिटेक्निक चौराहे से ही होकर जाएगी। 
            यात्री - पॉलिटेक्निक चौराहे पर हमें उतार दीजिएगा। 
            कंडक्टर - आपका टिकट चारबाग तक का है, आपको आगे नहीं ले जा सकते। चारबाग में ही उतर लीजियेगा। बस चेक हो जाने पर एक सौ दो रूपए का टिकट कट जाएगा। हम नहीं ले जा सकते। 
             यात्री - अरे, शहर के अन्दर की ही तो बात है.. कौन मिल जाएगा! कोई नहीं मिलेगा। 
             कंडक्टर - देखा नहीं, यहाँ पर गाड़ी चेक हो गई!  हम नहीं ले जा पाएंगे। 
              इस पर यात्री हाथ में मोबाइल लेकर किसी को नंबर मिलाने का दिखावा करते हुए कंडक्टर से कहता है- 
             यात्री - सुनो कंडक्टर, तुम्हारा महाप्रबंधक हमें जानता है.. फलाने ही हैं न, लो अभी मैं बात कराए देता हूँ.. 
               कंडक्टर उस यात्री को ध्यान से देख रहा है! इस बीच यात्री फिर कहता है -
          "अच्छा तुम्हारे विभाग में वित्तीय अधिकारी फला हैं न, उनसे तुम्हारी बात करा देता हूँ... तुम्हारे विभाग में हमें सब जानते हैं।"
          इधर कंडक्टर के ऊपर यात्री का बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था, वह भी यात्री की बातों की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गया था।           यह हुई यात्री और कंडक्टर के बीच के वार्तालाप का घटनाक्रम जो मेरे स्टिंग में सीडी में रिकार्ड हो जाती। 
           खैर, मान लीजिए उस यात्री को, परिवहन निगम विभाग की बसों का ब्रांड एम्बेसडर चुनना होता, तो उसके विरोधी इस सीडी को वायरल कर उसे परिवहन निगम को चूना लगाने वाला घोषित करा कर अपना उल्लू सीधा कर लेते। 
           
           अब आते हैं एक दूसरी सीडी पर, यह सीडी भी, अगर अपने स्टिंग कौशल से इसे बना पाता, जो मेरी बस-यात्रा से ही जुड़ी है, तो कुछ इस प्रकार की होती। इसे चालू करते हैं, आप इसके दृश्य पर अपना दृष्टिपात करिए -
       
          दृश्य - एक व्यक्ति बस में अनायास भद्दी-भद्दी गालियाँ बके जा रहा था। शायद वह नशे में था। बस में महिलाएँ भी सवार थीं। उसकी गालियों के कारण बस में बैठे लोग बहुत असहज हो रहे थे, फिर भी कोई उसे रोक नहीं रहा था। अंत में जब मुझसे नहीं रहा गया तो, उसे डाट कर पुलिस बुलाने की धमकी दी और चुप रहने की बात कही। फिर वह चुप हुआ था। बाद में, बस से उतरते हुए मेरी ओर देखते हुए उसने कहा, "मैं भी पुलिस हूँ...समझे।"
          उसकी बात पर मैंने यही सोचा, "कभी, जब इसे पुलिस-पदक मिलना होता, तो इसे मजा चखाने के लिए मैं आज की बनाई इसकी सीडी लीक कर देता" अपने किए पर शर्मिंदा होता ही और पदक से भी हाथ धोता। आखिर, हम शर्मिंदा तभी होते हैं जब दूसरे हमें आईना दिखाते हैं। 
             खैर, इन दोनों घटनाओं के पात्रों के प्रति मुझे कोई ऐसा अंदेशा नहीं था कि ये भविष्य के नायक बन सकते हैं अन्यथा इनकी सीडी बनाता और इस सीडी का व्यापार भी करता।
             
           एक बात और, उस दिन बस में घटित इन बातों के और भी प्रत्यक्षदर्शी थे, लेकिन वे सभी खामोश और प्रतिक्रियाविहीन थे। फिर भी, मैं जानता हूँ, यदि इन घटनाओं की सीडी रिलीज होती, तो यही तत्समय के खामोश और घटना के प्रति उदासीन लोग देश भर के नियम-कानून के ठेकेदार बने हुए इन व्यक्तियों को जरूर कोसते और इनके विरुद्ध माहौल बनाते। हम तो कहेंगे अब सरकार को सबकी सीडी के बारे में जानकारी लेनी चाहिए, मल्लब चुप रहने और शेखी बघारने वाले की भी। 
         इस देश में सभ्यता के नए चलन में किसी का काम नहीं, उसकी सीडी देखी जाती है! इसीलिए किसी व्यक्ति के काम से जले-भुने लोग उसकी सीडी ही ढूँढ़ते हैं और उस बेचारे की सीडी मिली नहीं कि एक मच्छर सारे तालाब को गंदा कर देता है टाइप से, एक सीडी उसके सब किए कराए पर पानी फेर देती है। हमारे देश में चीजों पर बहुत लोचा और नाइंसाफी है। किसी जज ने कभी सही कहा था, इस देश की जनता मूर्ख है। वाकई! जनता की मूर्खता के कारण ही अपने देश में आज भी तमाम टाइप की असमानता विद्यमान है, और कोढ़ में खाज की भाँति यह सीडी-पुराण भी इसमें खुजली की तरह है। लोग देश विकास की जगह सीडी-विकास में लगे पड़े हैं। यहाँ अच्छे-भले नई उर्जा वाले ऊर्जाहीन, और बिना कुछ किए धरे उर्जाहीन जैसे लोग उर्जावान हो रहे हैं। 
           अब जब सीडी की इतनी ही चर्चा और महत्व है, तो सरकार को भी चाहिए कि सबसे, बिना भेदभाव के, लोकतांत्रिक समानता के उद्देश्य से, किसी भी चयन प्रक्रिया, मतलब नेता से लेकर संत्री तक के प्रतिभागी से, उसकी सीडी के बारे में अवश्य पूँछा जाए। और, योग्यता के मानक निर्धारण की प्रश्नावली में एक नया प्रश्न, संलग्न नोट के साथ, इस तरह का भी होना चाहिए - 
        "प्रश्न - आपकी कोई ऐसी सीडी तो नहीं है जिसकी हार्डकापी न बनाई जा सके और, जो केवल वायरल हो सके? उत्तर केवल "हाँ" या "ना" में दें।
          नोट - उत्तर देने में प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। भविष्य में सीडी मिलने की दशा में निम्न परिणाम होंगे - "नहीं" उत्तर देने वाला प्रतिभागी अयोग्य माना जाएगा। जबकि "है" उत्तर देने वाला प्रतिभागी योग्य बना रहेगा। अयोग्य माने जाने पर उम्मीदवारी या चयन स्वतः निरस्त समझा जाएगा।"
          अब देखिएगा! नेता से लेकर संत्री तक के उम्मीदवार अपनी-अपनी सीडी होना स्वीकार कर लेंगे। सभी लोग इस प्रश्न का उत्तर "है" ही में देंगे! मतलब "हमाम में सब नंगे" वाली दशा प्रमाणित होगी। क्योंकि, क्या पता जाने-अनजाने, यदि कहीं से किसी की सीडी निकल आई तो उम्मीदवारी या सेलेक्शन से भी हाथ धोना पड़ सकता है !! हाँ इस देश के लोगों का यही हाल है। 
        
          ऐसी स्थिति का एक फायदा यह होगा कि जनता को सीडी-पुराण की झंझट से मुक्ति मिलेगी। 
         
        तो, यही है सीडी-पुराण की कथा! जिस सीडी से हार्डकापी न बन सके वही सीडी-पुराण है और उसी की कथा वायरल भी होती है, यह वायरल सीडी इंटरनेट पर आसानी से मिल जाती है। अब समय आ गया है कि अपने देश में लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए सभी नेता से लेकर संत्री तक की सीडी बना हुआ मान लिया जाए। अन्यथा बड़ा अन्याय होगा। 
             अथ् श्री सीडी-पुराण कथा।