बतकचरा
'बतकचरा' में कुछ बातों का संग्रह है, ये बातें किसी को सार्थक, तो किसी को निरर्थक प्रतीत हो सकती है। निरर्थक लगें तो यही मान लीजिएगा कि ये बातें हैं इन बातों का क्या..!
बुधवार, 30 मार्च 2022
बदलता भारत
मंगलवार, 15 मार्च 2022
अब 'फार्च्यूनर' की नहीं, आम आदमी की राजनीति
रविवार, 30 जनवरी 2022
गांधी-मुद्रा पर कंन्फ्यूजन
सुबह-सुबह मुझे गांधी जी की पुण्यतिथि की याद आ गई, जो आज है। सुबह की टहलाई भूलकर मैं गांधी जी पर फोकस हो चुका था। सोच रहा था कि युग बदल रहा है, व्यक्ति की मान्यताएं और धारणाएं बदल रही हैं। लेकिन इधर बेचारे गांधी जी को लेकर बड़ा कंन्फ्यूजन उत्पन्न हो रहा है। पहले ये महात्मा हुए फिर राष्ट्रपिता हुए और जैसे-जैसे राजनीति परवान चढ़ी तो अवतार यानि कि ऊपरवाले की श्रेणी में भी आते गए। और इस श्रेणी में आते ही इन्हें लेकर विवाद होना शुरू हो गया। यह सही बात है कि ऊपरवाले को लेकर धरती पर और खासकर अपने देश में तो बहुत ही चकल्लस है! इन्हें रिलिजन, पंथ या मजहबी खांचे में फिट करके लोग खूब मेरा-तेरा करते हैं, पता नहीं इससे इनकी भद् पिटती है या रक्षा होती है यह तो वही जानें! लेकिन तेरा-मेरा करने वाले लोग अपने-अपने रसिकों के बीच खूब यश लूटते हैं और लोकतंत्र को परवान चढ़ाते हैं। वैसे तर्क करने के अधिकार का नाम ही लोकतंत्र है और कहते हैं कि तर्क से रौशन-ख़याली बढ़ती है, जिससे व्यक्ति का आत्मिक विकास होता है। लेकिन इस्मत चुगताई ने देश में बढ़ते रौशन-ख़याली को लेकर यह भी लिखा है "जितनी-जितनी मुल्क में रौशन-ख़याली बढ़ती जा रही थी, लोग शिद्दत से फ़िर्क़ापरस्त होते जा रहे थे।" तो क्या लोकतंत्र में फ़िर्कापरस्ती बढ़ती है? शायद बढ़ती भी हो, क्योंकि लोकतंत्र में आप्तवाक्यों का खूब चलन है। जितने प्रकार के महापुरुष हुए हैं उतने ही प्रकार के नेता हो गए हैं! तथा उतने ही प्रकार के आप्तवाक्यों के खांचे बनाकर लोकतंत्र को विकेंद्रित कर देश में लोकतंत्र को समृद्ध करने का कार्यक्रम चालू है! अब भला आप्तवाक्यों पर कोई तर्क कर सकता है, नहीं न। यही तर्कातीत होना ही तो फ़िर्कापरस्ती है।
लेकिन मैं फ़िर्कापरस्ती की ज़हमत में नहीं पड़ना चाहता। मेरा कंन्फ्यूजन इस बात पर है कि गांधी जी की कौन सी मुद्रा स्वीकार करूं कि किसी विवाद में पड़े बिना इनका अनुयायी बनकर मैं भी देश के लोकतंत्र को समृद्ध कर इसके मजे ले सकूं! वैसे स्वतंत्रता के बाद महात्मा या राष्ट्रपिता वाली गांधी-मुद्रा का अब कोई अर्थ नहीं, इस रूप में ये महोदय अपनी सेवा समाप्त कर चुके हैं और खाली-पीली इनकी ऐसी अराधना से कोई लाभ भी नहीं, उल्टे लोग फ़िरकी भी ले सकते हैं कि देखो बड़ा गांधीवादी बना फिर रहा है! इस प्रकार इसमें लाभ की बजाय हानि ही ज्यादा है। रही बात गांधी के ऊपरवाले स्वरूप की तो इसमें भी फायदा नहीं! वैसे भी अपने देश में भगवान की वैरायटियों में क्या कोई कमी है, यहां तो प्रत्येक टाइप के संकट दूर करने वाले भगवान विराजमान हैं, यदि इनसे संकट दूर हो रहा होता तो यह देश संकट-मुक्त ही होता! वैसे आधुनिक युग में नाइंटी नाइन पर्सेंट संकटों को पैसे से दूर किया जा सकता है। इसलिए पैसे को खुदा मान लेने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन यदि किसी चीज को खुदा मान लेने से कोई साम्प्रदायिक समस्या उत्पन्न होती है तो फिर यह बात तो मानी ही जा सकती है कि पैसा खुदा भले ही न हो, लेकिन संकट दूर करने में खुदा से कम भी नहीं। इस प्रकार मैं समझता हूं कि पैसे हों तो आदमी हंड्रेड परसेंट संकट से मुक्त हो सकता है। शायद यही कारण है कि आज के युग में पैसे का ही बोलबाला है, लोग गांधी पकड़ा कर काम निकलवाने की बात खुलेआम कहते सुने जाते हैं। शायद संकटों के दृष्टिगत ही चारों ओर केवल गांधी पकड़ाई का ही कार्यक्रम चलन में है।
अरे वाह! वाकई में गांधी के सब रूपों से बढ़कर यह गांधी-मुद्रा ही तो है जो संकट में ऊपरवाले से भी बढ़कर मदद करती है! और यही गांधी-मुद्रा है जो सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक, सर्वस्वीकार्य है और जिसकी धर्मनिरपेक्षता निर्विवादित रूप से सिद्ध है! बस मुझे समझ आ गया कि इस गांधी-मुद्रा को स्वीकार करने में कोई हीलाहवाली नहीं करनी चाहिए!! बल्कि अपने ऊपर आने वाले संकट की मात्रा और उसके प्रकार की कल्पना कर इस गांधी-मुद्रा को सम्मान के साथ खांचों में संरक्षित करते जाना चाहिए! चाहे इसके लिए घर में बेसमेंट के साथ उसकी दीवारों, आलमारियों में ऐसे गोपनीय खांचे ही क्यों न बनवाने पड़े!! भला इससे बढ़कर गांधी जी के सम्मान और संकट से अपनी रक्षा करने का कोई दूसरा उपाय हो सकता है, नहीं न?
तो, जब अकर्मण्य और चुक चुके लोग हाल ही में एक व्यापारी के घर से बरामद बेशुमार गांधी-मुद्रा का उदाहरण देकर और उसके जेल की हवा खाने की बात बताकर कहें कि गांधी का ऐसा सम्मान करने में भी आफत है, तो उसकी बात हवा में उड़ाकर उसपर कान न धरा जाए! क्योंकि उसकी बातें राजनीति से प्रेरित हो सकती है, ऐसा राजनीतिपरस्त व्यक्ति आप और देश के लोकतंत्र, दोनों को हानि पहुंचाना चाहता है।
इस निष्कर्ष की प्राप्ति के साथ आज की सुबह मुझे बेहद मानसिक शांति की अनुभूति हो रही है। बाहर हॉकर के द्वारा अखबार फेंके जाने की आवाज आई है। अखबार उठाने चल रहा हूं। #चलते_चलते मुझे गांधी के मान पर एक बात याद आई। गांधी के आग्रह पर एक बार गोपाल कृष्ण गोखले दक्षिण अफ्रीका गए। वहां से लौटते समय उन्होंने गांधी जी को समझाया था कि 'देखो, हम सब बूढ़े हो रहे हैं। हम लोगों का क्या ठिकाना, कब पके आम की तरह झर जाएं। तुम्हारी अपनी मातृभूमि के प्रति भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी यहाँ बसे भारतीय भाइयों के प्रति। देशभक्ति का किसी भी दूसरी भक्ति से कोई मुकाबला नहीं।... यह एक ऐसी लकीर है जो एक बार खिंच गई तो मृत्यु भी हार जाती है पर वह नहीं मिटती।' इसके बाद गांधी से बोले, 'मैं तुम्हारा इंतज़ार करुंगा। देश को तुम्हें सौंपे बिना नहीं मरुंगा।' और गांधी जी भारत लौटे भी थे। बाकी इतिहास आपको भी पता है, इससे सिद्ध होता है कि गांधी जी इस देश की गुलामी का संकट दूर करने के काम आए थे। इससे यह भी सिद्ध है कि गांधी जी संकट के समय काम आते हैं।
गुरुवार, 26 अगस्त 2021
स्वप्निल इंटरव्यू
सिस्टमपंथी
माफिया और गुर्गे
रिश्तों का डिजिटलाइजेशन
नया साल आ गया। आधी रात से लेकर लगभग शाम तक शुभकामनाओं का रेलमपेल लगा रहा। वैसे बचपन में तो नहीं, लेकिन जब कालेज लगभग छोड़ चुका था, तब पता चला था कि नए साल में ग्रीटिंग-कार्ड दिया जाता है। लेकिन वह जमाना भी कब का बीत चुका है। भई, एक बात यह भी है अब कोई जमाना ज्यादा समय तक ठहरता ही नहीं! जमाना आया नहीं कि गया। बल्कि मैं तो कहूं जमाना भी अब सरपट भाग रहा है जैसे कि आदमी भागता है! आखिर आदमी से ही तो जमाना है। पल-पल छिन-छिन बदलते आदमी का कोई ठिकाना नहीं तो जमाना ही अपना ठिकाना क्यों बनाए? इसीलिए जमाना भी आया नहीं कि सरपट भागते हुए 'क्या जमाना था' में बदल जाता है, खैर।
तो ग्रीटिंग कार्ड सजाने-सजने का जमाना चला गया और आया मैसेज का! हां मैसेज का!! न रंग लगे न फिटकरी और रंग चोखा। वैसे मैं नहीं जानता कि फिटकरी का चोखे रंग के साथ क्या ताल्लुक है। लेकिन मुहावरा है सो इसे लिखने में यूज कर लिया। मतलब यही कि बढ़िया से बढ़िया मैसेज रेडीमेड मिल जाता है, इसके लिए बेचारे हृदय को परिश्रम करने की अब जरूरत नहीं होती और वैसे भी आजकल के लोगों का हृदय भी कमजोर होता है, इससे जितना कम से कम काम लिया जाए उतना ही स्वास्थ्यवर्धक है। जबकि पहले ग्रीटिंग-कार्डों की दुकान पर जाना उनमें से बढ़िया ग्रीटिंग छांटना और फिर संबंधित तक इसे पहुंचाने में पर्याप्त जहमत उठानी होती थी। आज प्रदूषण के जमाने में इतनी तिकड़म भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता। खैर फिर बेहतरीन आप्सन के रुप में आया मोबाईल मैसेज का जमाना। इसमें मैसेज लिखने के लिए दिल और दिमाग को एक बार यूज कर उसे बहुतेरे स्वजनों को एक साथ फारवर्ड कर देने की सुविधा भी मिली। तब ये मैसेज भी किसी को बासी नहीं लगता था और लगे क्यूं? क्योंकि इसमें 'फारवर्डेड' का पता नहीं चलता था। मैसेज पाने वाला बेचारा मात्र इसे अपने लिए भेजा हुआ मानकर प्रेषक के वर्जिनल प्रेम से अभिभूत हो जाया करता था।
लेकिन वह क्या जमाना था! और आज व्हाट्सएप का जमाना आ गया है। अब तो रेडीमेड बने-बनाए संदेश के ऐप भी बन चुके हैं, बस थोड़ी मेहनत कीजिए एक से एक बढ़िया संदेश या कहें बात, नहीं तो विचार ही कह लीजिए, मिल जाएंगे और व्हाट्स ऐप पर कापी पेस्ट कर अपने मित्रों-सुहृदयों को भेजते जाइए! मतलब शुभकामनाएं और मंगलकामनाएं लिखने के झंझट से भी मुक्ति! कहने का आशय यह है कि आज के महान तकनीकी दौर में डिजिटलाइज्ड मंगलकामनाएं और शुभकामनाएं उपलब्ध हैं जो सुहृदों के हृदय को सुहृदय बनाने के काम आती हैं। गजब का यह संबंधों के डिजिटलाइजेशन का जमाना है। लेकिन इसमें एक ख़तरा बस यही है कि थोड़ी सावधानी की जरूरत होती है क्योंकि 'फारवर्डेड' से आपका कोई अति संवेदनशील साहित्यिक टाइप का इष्ट-मित्र आपके 'फारवर्डेड' संदेश को "प्रकृति के यौवन का श्रृंगार/ करेंगे कभी न बासी फूल" जैसे साहित्यिक भाव से ओवरलुक न कर दे। आखिर ताज़गी तो सबको चाहिए ही होती है।
लेकिन आजकल के डिजिटलाइजेशन युग में संदेशों के आदान-प्रदान में परफेक्ट टाइमिंग का ख़्याल रखना चाहिए। मतलब किसी के डिजिटलाइज्ड सुख-दुख में तत्काल शरीक हो लेना चाहिए। ऐसा इसलिए कि एक बार मेरी नज़र एक फेसबुकीय फ्रेंड के पोस्ट पर पड़ी जिसमें किसी अतिप्रिय स्वजन के शोक में उनका इज़हार-ए-दुख कुछ ऐसा था कि उनके लिए यह पूरा संसार निरर्थक और बेमानी हो चला था। उनके दुख की इस घड़ी में साथ देने के लिए मैंने दुख में दुखी होने वाले एक सांत्वनापरक संदेश को गूगल से खोजकर कापी किया और उन दुःखी हृदय आत्मा के वाल पर पेस्ट करने ही जा रहा था कि मेरी दृष्टि उनके एक लेटेस्ट पोस्ट पर पड़ी, जिसमें वे डांस टाइप की मुद्रा में किसी पार्टी में मिले 'इंज्वॉय' का बखान करते हुए गौरवान्वित फील कर रहे थे। अब बताइए! मेरा हृदय कौन सी मुद्रा धारण करता? उन्हें सांत्वना देता या कि उनकी डांस मुद्रा के साथ मैं भी गौरवान्वित फील करता? कुछ डिसाइड न कर पाने की स्थिति में चुपचाप उनकी वाल से खिसक लेने में ही मैंने भलाई समझा। ठीक यही स्थिति डिजिटल प्लेटफार्म पर खुशी जाहिर करने वाले भी पैदा कर सकते है।
खैर, आजकल के क्षणजीवी इंसान के मनोभाव भी इस डिजिटल जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए तैयार है। विकासवाद की सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट की थियरी एकदम फिट बैठ रही है, क्योंकि इस ज़माने में युगानुरूप आदमी का हृदय आटोमेटिकली डिजिटलाइज्ड हो चुका है! इसीलिए उसके मनोभाव भी डिजिटली ढंग से प्रवाहित होते हुए कट-पेस्ट की सुविधा का लाभ ले रहा है।
लेकिन मोबाइलीकरण के इस ज़माने में आदमी को तकनीक और वह भी कम्प्यूटर का ज्ञान होना बेहद जरूरी है। अन्यथा मानवीय संबंधों के निर्वहन में वह फिसड्डी साबित होगा। फिर भी इस ज्ञान का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए। नहीं तो टच-बोर्ड आपके संबंधों को दूसरा आयाम भी दे सकता है। क्या है कि मनोभावों के इमोजीकरण के दौर में एकबार एक सुहृद मित्र ने मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ मुझे एक बेहद खूबसूरत संदेश भेजा। उसे देखते ही मैं आह्लादित हो गया और आव देखा न ताव विनीत भाव से उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए उतावला हो उठा। इस उतावलेपन में धोखे से टचस्क्रीन पर अंगुली एक बेहद गुस्से से लाल चेहरे वाली इमोजी पर टच कर गया और वह इमोजी सेंट भी हो गई। उस समय बड़ी असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था मुझे! तबसे उनसे अपने लिए खूबसूरत मैसेज पाने के लिए तरस गया हूँ। दूसरी बार ऐसी ही एक और गलती मैंने एक अन्य मित्र के साथ किया। उन बेचारे ने अपनी सफलता का बखान करते हुए एक संदेश डाला। उनके साथ अपने संबंधों को उच्च आयाम पर पहुंचाने के लिए उनकी इस सफलता पर उन्हें तत्काल बधाई संदेश भेजने की आवश्यकता को महसूसा, लेकिन जल्दबाजी में मोबाइल के टच-स्क्रीन को ऐसा टच किया कि उनके खुशी के इस अवसर पर जार-जार आंसू बहाने वाला इमोजी सेंट कर दिया। मुझे अपनी इस गलती का अहसास होता उसके पहले ही मेरी वह दुखी होने वाली इमोजी उनके द्वारा 'सीन' भी हो चुकी थी! मेरी एक चुटकी बेवकूफी से मित्रता दांव पर लग गई।
वैसे हर ज़माने के ख़तरे भी अपनी तरह के ही हैं। लेकिन इन खतरों के पार हमारे डिजिटलाइज्ड सोशल मीडियायी संबंध लाइव रहने चाहिए। हां इतना ज़रूर है कि नव वर्ष पर शुभकामना संदेशों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर इन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे कि साहित्यकार और उसमें भी व्यंग्यकार का संदेश, श्रेष्ठ-जनों या विशिष्ट-जनों का संदेश, साहब का मातहत के लिए या मातहत का साहब के लिए, मतलब निकालने वाला, दोस्ती जताने वाला, औपचारिक-अनौपचारिक आदि-आदि टाइप से!
इस लेख को पाठक-गण कृपया दिल पर न लें बल्कि संदेशों का आदान-प्रदान करते रहें और इनका मज़ा लें। यह दुनिया है जमाना तो बदलता ही रहेगा।