शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

"लड़िका रोवइ माई माई हम मलाई लेबई ना.."

         बात बचपन के पंद्रह अगस्त की है...उस समय मैं गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ता था...हम बच्चों में पंद्रह अगस्त मनाने का बहुत उत्साह होता था..मेरी बड़ी बहन जो इस दुनियाँ में अब नहीं हैं इस दिवस पर आयोजित होने वाले बाल-गोष्ठी के लिए मुझे दो गीत सिखाए थे...पहला.. “हम बच्चे हैं छोटे-छोटे, काम हमारे बड़े-बड़े...”...और..दूसरा.. “लहरे तिरंगावा तोर रे सिपहिया..” मैंने बड़े उत्साह से बहन के सिखाये हुए इन दोनों गीतों को उस बाल-गोष्ठी में सुनाया था...फिर मास्टर जी अन्य बच्चों को भी कुछ न कुछ सुनाने के लिए प्रेरित करने लगे थे...अचानक उसी समय एक बेहद गरीब परिवार के बच्चे ने आगे बढ़ कर अपना वह गाना सुनाया था... “लड़िका रोवैं माई-माई हम मलाई लेबइ ना...” हम अन्य बच्चे इस गाने को सुनकर हँसने लगे थे...इसी लिए वह लड़का और उसका वह गीत आज के दिन मुझे याद आ जाता है....आज मैं सोचता हूँ...मैं तो गाने सीख कर गया था लेकिन उस साथी बच्चे ने जो सुनाया था वह स्वतःस्फूर्त था...!
      खैर...इस स्मृति में कोई खास बात नहीं है...बात तो बस इतनी है कि मेरे गाँव के बगल के गाँव का वह लड़का बाद में रोडवेज में नौकरी पा गया था..और उसकी पत्नी  वहाँ की प्रधान चुनी गयी थी...और.. मैं...फेसबुक में कभी-कभी कुछ न कुछ पोस्ट करने लायक बन गया..! हाँ..पिछले दिन एक प्राइमरी विद्यालय के निरीक्षण के समय मैं विद्यालय के उन मासूम बच्चों में अपने बचपन के प्राथमिक स्कूली दिनों के उन्हीं चेहरों को तलाशते हुए से कुछ-कुछ भावुक सा होने लगा था..और वहाँ मास्टर जी के रूप में जो भी थे मैंने उनसे कहा था...इन बच्चों के चेहरों की ओर देखिए...इनमें कहीं न कहीं कुछ ललक झलक रही है...इनकी आँखों में झाँक कर हमें इसे पहचानना होगा..
      हाँ....पंद्रह अगस्त १९४७ ने इसे पहचानने का अवसर हमें उपलब्ध करा दिया है अब हमारी ज़िम्मेदारी है... बच्चे को मलाई जरुर देना है....इनको रोने न दें...! देखें कितना कर पाते है.....लोग कहते हैं कि “लिखता हूँ..” इससे डर लगता है...कहीं लिखने-कहने में ही समय न बीत जाए...! 

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रविवार, 10 अगस्त 2014

महिलायें एक असुरक्षित दुनियाँ में रह रही हैं......!


                 जैसे ही टी.वी. चलाया एक गीत चल रहा था... “बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बाँधा है....” आज रक्षाबंधन है...! शायद इसीलिए चित्रहार जैसे कार्यक्रम में ऐसे ही गीत चल रहे थे...सोचने लगा..! जितने खूबसूरत ये गीत हैं क्या उतनी ही खूबसूरती से हम इसके भावों को ग्रहण करते हैं..? मन में विचार उठा...आज का भाई शायद अपनी बहना को भूल चुका है..तभी तो भाई की कलाई में उसे एक रक्षासूत्र बाँधकर अपने होने का अहसास दिलाना पड़ता है...! वास्तव में इसी भूलने का परिणाम है कि “women in an Insecure world” याद आ गया..!
       हाँ यह एक किताब का नाम भी है जिसे हाल ही में मैंने पढ़ा था...इसमें विश्व में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का एक भयावह चित्र खींचा गया है...जिसके कुछ आंकड़े इस प्रकार है..
  1. संयुक्तराष्ट्र के आकड़ों के अनुसार लगभग 200 मिलियन महिलायें जनसांख्यकीय ढंग से “गायब” हैं, क्योंकि जैविक मानकों में प्रत्येक 103 नवजात लड़कों पर 100 नवजात लडकियां होनी चाहिए..यदि इन आकड़ों में लड़कियों की “मिसिंग” दिखाई दे रही है तो वे या तो मार दी गयी हैं या उपेक्षा और दुर्व्यवहार से उनकी मृत्यु हो गई|
2.        2. आकड़ों के अनुसार प्रति वर्ष लगभग 5000 महिलायें “रसोई दुर्घटना” में दहेज़ आदि कारणों से जला दी जाती हैं.
       “A shocking number of women are killed within their own walls through domestic violence. Rape and sexual exploitation remain, moreover, a reality for countless women; millions are trafficked; some sold like cattle.
      “A sustained demographic ‘deficit’ of 100-200 million women implies that each year 1.5 to 3 million girls and women are killed through gender related violence. Incomparison: each year some 2.8 millionpeople die of AIDS, 1.27 million ofmalaria.3 Or, put in the most horrible terms: violence against women causesevery 2 to 4 years a mountain of corpses equal to the Jewish Holocaust.
       “इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारी धरती पर मृत्यु का एक सबसे बड़ा कारण अन्य कारणों की अपेक्षा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा ही है.”
3.           3. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में पाँच में से एक महिला बलात्कार या बलात्कार के प्रयास से पीड़ित होती हैं, अन्य पश्चिमी देशों में यह आकड़ा 6 में से 1 है.
The number of women forced or sold into prostitution is estimated at anywhere
between 700,000 and 4 million per year. Between 120,000 and 500,000 of them are
sold to pimps and brothels in Europe alone. Profits from the sex slavery market are estimated at US$7-12 billion per year.”
Some facts on women’s status
In all manifestations of poverty, women tend
to fare worse than men:
66 per cent of the world’s illiterate people are women.
Women provide 70 per cent of the unpaid time spent in caring for family members. This unpaid work provided by women is estimated at US$11 trillion per year – onethird of the global GDP.
Women own one per cent of the land in the world.
Women’s participation in managerial and administrative posts is around 33 per cent in the developed world, l5 per cent in Africa and 13 per cent in Asia and the Pacific.
There are only five women chief executives in the ‘Fortune 500’
corporations, the most valuable publicly owned companies in the United States.
Worldwide, only about fourteen per cent of members of parliament are women.
Seven per cent of the world’s cabinet ministers are women. 


       आइए..! रक्षाबंधन का त्यौहार तो हम मनाएं लेकिन ध्यान रखना होगा कि यह त्यौहार तक ही सीमित न रहे..और...आधुनिक फैशन की दुनियाँ का हिस्सा भर बन कर न रह जाए..! वास्तव में महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव ही हमको इस त्यौहार को मानाने का अधिकार देता है...!   

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

ये गर्व के खाँचे...!

    वह शक्ति हमें दो दयानिधे,
                  कर्तव्य मार्ग पर डट जावें | 
पर सेवा पर उपकार में हम, 
                           
निज जीवन सफल बना जावें || 
हम दीन दुखी निबलों विकलों 
                           
के सेवक बन सन्ताप हरें | 
जो हों भूले भटके बिछुड़े 
                           
उनको तारें ख़ुद तर जावें || 
छल-द्वेष-दम्भ-पाखण्ड- झूठ, 
                           
अन्याय से निशदिन दूर रहें | 
जीवन हो शुद्ध सरल अपना 
                           
शुचि प्रेम सुधारस बरसावें || 
निज आन मान मर्यादा का 
                           
प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे | 
जिस देश जाति में जन्म लिया 
                           
बलिदान उसी पर हो जावें ||
          ब्लॉगर मिहिरभोज ने अपने ब्लॉग “तत्वचर्चा” में इस प्रार्थना का उल्लेख यह कहते हुए किया है कि आज भी इस स्कूली प्रार्थना के याद आने पर वह स्वयं को लाइन में खड़ा हुआ पाते हैं...इस प्रार्थना की कुछ पंक्तियाँ मुझे भूल रही थीं जिसे याद करने के चक्कर में उनका यह ब्लॉग मैंने खोजा....
        खैर...! यह प्रार्थना इतने सीधे साधे शब्दों में थी कि इसका भाव मुझमें भी गहरे तक धँस गया था...मेरे भी भाव मिहिर जी के भावों से एकाकार हो जाते हैं... हाँ..!यह प्रार्थना अकसर मुझे तब याद आ जाती है जब कोई कहता है कि उसे अपनी जाति या धर्म पर अभिमान या गर्व है...  
          इस प्रार्थना की अंतिम चार लाइनें मेरे सामने प्रश्नचिह्न बनाती है...आखिर...! हम किस पर अभिमान करें और किस पर बलिदान हों....हाँ..क्या हम अपने-अपने खांचों में रहकर सभी के खांचों की कद्र करें या इन सभी खांचों को ही मिटा दें...? आखिर ये खांचे ही क्यों हैं....? भारतीय समाज के ये खाँचे किस बात को प्रतिबिंबित करते हैं...? ये खाँचे हमारे समाज की सफलता है या असफलता..! कि इस पर गर्व हो या बलिदान हो जाएँ...कभी-कभी लगता है ये खाँचे मिटने चाहिए पर चाह कर भी ऐसा नहीं हो पाता...इन खांचों की लकीरे बहुत गहरी हैं...!
        इन खांचों पर गर्व करने और इन पर बलिदान हो जाने का संस्कार बहुत पुराना है...वैदिक भारत से लेकर यह आजतक चला आ रहा है...तभी तो आज भी पांच हजार वर्ष पुरानी सस्कृति का हम गर्व के साथ उल्लेख करते रहते हैं... हम अपने पौराणिक या महाकाव्य कालीन मिथकों पर दृष्टि डाले तो हम सदैव अपने लिए ही या अपने अहंकार के लिए ही लड़ते हुए दिखाई देते हैं..और वह भी जब तक कि किसी ने हमें लड़ने के लिए बाध्य नहीं कर दिया..! देव और दानवों ने अमृत के लिए लड़ा..! ...तो...राम ने सीता के लिए रावण को मारा..! तो...कृष्ण ने कंस को इस लिए मारा कि वह सीधे ही उनसे टकराने लगा था...यहाँ तक कि महाभारत में उनकी भूमिका भी मात्र दो परिवारों को न्याय दिलाने तक ही सीमित रही...! बात यहाँ इन आख्यानों पर चोट करना नहीं है....इसके पीछे केवल खोजना यह है कि इतने महान (अवतारी) पुरुषों या महान लडाइयों वाले इस देश में जातिप्रथा की वह काली छाया आज भी क्यों बनी हुई है...? जहाँ छुआ-छूत, घृणा, असमानता का भाव आज भी बना हुआ है...वास्तव में देश की बहुसंख्यक आबादी आज भी दलित बन कर क्यों रह रही है..हम चाह कर भी इसे नहीं मिटा पाए हैं...! आखिर क्यों..? शायद इसका कारण यही है कि...हमें अपने इतिहास के आख्यानों से कमजोरों, असहायों, और पीड़ितों के लिए लड़ने का संस्कार ही नहीं मिला है..! हम लड़े तब जब हम पर चोट पड़ी...! हाँ आजादी की लड़ाई जरूर हमने कुछ बदलाव लाने के लिए लड़ी थी लेकिन संविधान बनाकर और आगे की लडाइयों को उसके हवाले कर हम सब कुछ फिर भूल गए...! जबकि विश्व के दूसरे देशों  का इतिहास बताता है कि वहाँ के लोगों का संघर्ष जनहित और सामाजिक सुधारों को लेकर होता था न कि किसी गर्व करने वाले व्यक्तिगत विषयों को लेकर...! आज तमाम पश्चिमी देश हर मायने में इसीलिए हमसे आगे हैं....
        इन विचारों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं..लेकिन जरा सोचें.....किस पर गर्व करें...? और.. किस पर बलिदान हो जायें...? और ऐसा कौन करेगा...? क्या हमने सभी खाँचों को इस लायक बनाया है...कि...इन खाँचों के लोग अपने-अपने खांचों पर गर्व और उस पर बलिदान हो जाने का भाव रख सकें.....? 

रविवार, 3 अगस्त 2014

उद्धव ! मन न भये दस बीस

उद्धव! मन न भये दस बीस
एक हुतौ सो गयो श्याम संग, को अवराधे ईश|
        
      सूरदास की ये पंक्तियाँ जहाँ भक्ति के सगुण और निर्गुण भाव के आपसी द्वंद्व को दर्शाती हैं वहीँ गोपियों और उद्धव के उक्त संवाद में गोपियों के ईमानदार मन की झलक भी मिलती है..वह उद्धव के निर्गुण भक्ति संबंधी किसी ज्ञानोपदेश को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं...क्योंकि उनका मन तो श्याम की भक्ति में रम चुका है...तभी तो वे उद्धव से कहती हैं कि मन दस-बीस नहीं होता..मन तो एक ही होता है जो श्याम संग चला गया है..तो अब किस मन से हम आपके ब्रह्म की आराधना करे..
       वास्तव में मानव ही मन वाला होता है और उसका यह मन बड़ा चंचल होता है..! क्या वह गोपियों के मन जैसा स्थिर हो सकता है..! मानव मन की इसी चंचलता का संकेत युधिष्ठिर ने मन को सबसे तेज गति वाला बताते हुए यक्ष के प्रश्न का उत्तर दिया था...मन सदैव भ्रमणशील भौंरे के समान ही होता है..! मन को साधना मानव के लिए असंभव तो नहीं बल्कि उसके लिए एक दुरूह कार्य अवश्य है...लेकिन सूर की गोपियों ने जैसे उस मन को साध लिया है..तभी तो उद्धव के तमाम तर्कों के बाद भी उनका मन विचलित नहीं होता और उद्धव को गोपियों से फटकार सुननी पड़ती है...
       आज हम अपने उस एक मन को खंडशः विभाजित कर उसे संदिग्ध बना दिए हैं...इस मन की विश्वसनीयता पर स्वयं हमें ही संदेह है..कृष्ण भक्ति में लीन गोपियों के जैसे असंदिग्ध मन की कल्पना हम कर ही नहीं सकते...सभी गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में पागल हैं..लेकिन यहाँ एक दूसरे के प्रति इर्ष्या-द्वेष नहों है..! वास्तव में मन की यह शुद्धता ही इस असंदिग्ध मन का कारण है..
       बात यहाँ गोपियों के मन की ही नहीं हैं... ‘एक चित्त मन’ की हम आलोचना भी कर सकते हैं उसे मानव विकास में रोड़ा भी मान सकते हैं..हम गतिशील मन को चेतना का लक्षण भी कह सकते हैं...लेकिन यदि यह मन ही संदिग्ध हो तो हम क्या कहेंगे...? आज इसी संदिग्ध मन की छाया सर्वत्र मंडरा रही है...सारे वितंडावाद और समस्याओं की जड़ हमारा संदिग्ध मन ही है....
      आइए..! प्रतिदिन के छिपे..! और आज के खुले ‘मित्रता दिवस’ के दिन हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक ईमानदार और सही मन की कामना करे जो हम सभी के जीवन को सुगम और सरल बना दे.....