बात बचपन के पंद्रह अगस्त की है...उस समय मैं गाँव के प्राथमिक विद्यालय
में पढ़ता था...हम बच्चों में पंद्रह अगस्त मनाने का बहुत उत्साह होता था..मेरी बड़ी
बहन जो इस दुनियाँ में अब नहीं हैं इस दिवस पर आयोजित होने वाले बाल-गोष्ठी के लिए
मुझे दो गीत सिखाए थे...पहला.. “हम बच्चे हैं छोटे-छोटे, काम हमारे
बड़े-बड़े...”...और..दूसरा.. “लहरे तिरंगावा तोर रे सिपहिया..” मैंने बड़े उत्साह से
बहन के सिखाये हुए इन दोनों गीतों को उस बाल-गोष्ठी में सुनाया था...फिर मास्टर जी
अन्य बच्चों को भी कुछ न कुछ सुनाने के लिए प्रेरित करने लगे थे...अचानक उसी समय
एक बेहद गरीब परिवार के बच्चे ने आगे बढ़ कर अपना वह गाना सुनाया था... “लड़िका
रोवैं माई-माई हम मलाई लेबइ ना...” हम अन्य बच्चे इस गाने को सुनकर हँसने लगे
थे...इसी लिए वह लड़का और उसका वह गीत आज के दिन मुझे याद आ जाता है....आज मैं
सोचता हूँ...मैं तो गाने सीख कर गया था लेकिन उस साथी बच्चे ने जो सुनाया था वह
स्वतःस्फूर्त था...!
खैर...इस स्मृति में कोई खास बात नहीं
है...बात तो बस इतनी है कि मेरे गाँव के बगल के गाँव का वह लड़का बाद में रोडवेज
में नौकरी पा गया था..और उसकी पत्नी वहाँ
की प्रधान चुनी गयी थी...और.. मैं...फेसबुक में कभी-कभी कुछ न कुछ पोस्ट करने लायक
बन गया..! हाँ..पिछले दिन एक प्राइमरी विद्यालय के निरीक्षण के समय मैं विद्यालय
के उन मासूम बच्चों में अपने बचपन के प्राथमिक स्कूली दिनों के उन्हीं चेहरों को
तलाशते हुए से कुछ-कुछ भावुक सा होने लगा था..और वहाँ मास्टर जी के रूप में जो भी
थे मैंने उनसे कहा था...इन बच्चों के चेहरों की ओर देखिए...इनमें कहीं न कहीं कुछ
ललक झलक रही है...इनकी आँखों में झाँक कर हमें इसे पहचानना होगा..
हाँ....पंद्रह अगस्त
१९४७ ने इसे पहचानने का अवसर हमें उपलब्ध करा दिया है अब हमारी ज़िम्मेदारी है... बच्चे
को मलाई जरुर देना है....इनको रोने न दें...! देखें कितना कर पाते है.....लोग कहते
हैं कि “लिखता हूँ..” इससे डर लगता है...कहीं लिखने-कहने में ही समय न बीत जाए...!
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