अभी पिछले दिनों एक समाचार पर बरबस ध्यान चला गया था; वह यह कि मध्यप्रदेश
में एक पति-पत्नी ने शर्म-वश आत्महत्या कर लिया क्योंकि स्वयं उनके निजी पलों का
वीडियो जो स्वयं उन्हीं के द्वारा बनाया गया था उन्हीं की गलतियों के कारण वायरल
हो गया था| इस समाचर ने मन को उद्वेलित करने के साथ दुःख और विक्षोभ से भी भर दिया|
निश्चित रूप से पति-पत्नी द्वारा इस आत्महत्या का कारण उनके अपने निजी पलों के
विडियो का वायरल होना नहीं रहा होगा अपितु इसके पीछे उस सामाजिक अवधारणा का
दुष्प्रेरण रहा होगा जिसके कारण वे ऐसी स्थितियों का सामना नहीं कर पाए होंगे| यहाँ
इस बात को समझना होगा कि चीजों के प्रति हम कैसी अवधारणाएँ बनाते हैं? जो हमें
कुंद मनःस्थिति में धकेल सामाजिक या व्यक्तिगत विद्रूपताओं की एक अंधी सी गली में
छोड़ देती हैं, जहाँ से निकल पाना बहुत ही दुष्कर होता है| यहाँ हम भूलते हैं कि
जीवन का आनंद उसकी समग्रता में है; ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, युद्ध, प्रेम,
शान्ति जैसे भाविक तत्व जीवन की समग्रता के हिस्से हैं और जीवन इन सब में संतुलन
का नाम है| हम जीवन को समस्याग्रस्त वहीँ बनाते हैं जब इस समग्रता के किसी एक तत्व
पर ही ध्यान केन्द्रित कर देते हैं और यह ध्यानाकर्षण व्यक्ति तथा समाज दोनों
स्तरों पर होता है|
‘खजुराहो’ जैसे शब्द
को सुन मन में कैसी अवधारणाएँ बनती हैं? निश्चित रूप से इसे अश्लीलता का
पर्यायवाची मान लिया गया है; यहाँ तक कि हम अपने बड़ों के सामने इस शब्द के उच्चारण
से भी बचना चाहते हैं| शायद निजी पलों के वायरल होने पर उस दंपति की आत्महत्या के
पीछे कुछ ऐसी ही सामाजिक अवधारणा का दुष्प्रभाव पड़ा होगा|
हजारों वर्ष पूर्व के
भारतीयों का जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोंण रखने वाली उस मानसिकता का क्षरण इस
स्तर पर पहुँच गया है कि खजुराहो जैसे भारतीय स्थापत्य-कला के इस बेजोड़ नमूने से स्वयं
हम भारतीय आज भी अपरिचित से हैं| आश्चर्य है; जहाँ की कला के अवलोकन हेतु विदेशियों
के लिए हवाई-सेवा से उस स्थल को हम जोड़ते हैं वहीँ अपने लिए इसकी चर्चा बस थोड़े से
सामान्य ज्ञान की सीमा तक करते हुए मौन हो जाते हैं| शायद इस स्थापत्य-कला के कई
पक्षों में से एक पक्ष इसकी मिथुन-मूर्तियों से, हमने अपनी नैतिकता को इस तरह से
समन्वित कर लिया है कि इस सम्बन्ध में हमारा विमर्श नैतिकता और बौद्धिकता की अंधी
गलियों में खो जाता है| जीवन में जब हम किसी एक ही भाव पर केन्द्रित होते हैं तो
फिर इसका कोई न कोई पक्ष कमजोर होने लगता है; यहाँ तक कि चीजों के प्रति ‘नैतिक’
और ‘अनैतिक’ जैसा हमारा दृष्टिकोंण भी अपने ‘अति’ में स्वयं उन्हीं चीजों को नैतिक
और अनैतिक नहीं रहने देता; यह तब होता है जब हमारी दृष्टि से ‘समग्रता का भाव’ ओझल
हो जाता है|
यहीं पर एक कहानी याद
आती है; राजा नृग को एक मृग के बच्चे से बहुत प्रेम हो गया था वह रात-दिन उसी की
सेवा-सुश्रुषा में खोए रहते थे, उस मृग के बच्चे के प्रति उन्हें इतना लगाव हो गया
था कि अपने परिवेश के प्रति वह अनजान से हो गए| इसी एक भाव से लिपटे रहने के कारण
एक बार घर आये कुछ ऋषियों की वे उपेक्षा कर बैठे, उन ऋषियों ने राजा को शाप दिया
कि ‘जिस मृग के कारण वे उनकी उपेक्षा करने के लिए विवश हुए उसी मृग के रूप को
प्राप्त होंगे” अंत में राजा नृग मृत्यु के बाद मृग-योनि में जन्म लिए| यहाँ हम
देख सकते हैं कि मृग के बच्चे से राजा का प्रेम अनैतिक नहीं था बल्कि राजा का यह
एक नैतिक कृत्य ही था लेकिन फिर भी एकांगी ही था, इसीलिए राजा को शापित होना पड़ा|
पिछले दिनों के
खजुराहो भ्रमण में जीवन के इसी ‘समग्रता सम्बन्धी भाविक-तत्व’ से परिचित हुए; सच
में यह जीवन बड़े ही सहज ढंग से प्रकृति के अवदानों से ही ‘भौतिक’ और ‘भाविक तत्वों’
को ग्रहण कर आत्मनियंत्रित होता रहता है| खजुराहो के मंदिरों का स्थापत्य और इन
मंदिरों की दीवालों के पत्थरों पर तराशी गयी मूर्तियाँ भारतीय स्थापत्य कला के अद्भुत
नमूने तो हैं ही, लेकिन इनका दर्शन एक अलग दर्शनानुभूति कराता है| खजुराहो का यह
स्थापत्य भारतीय जीवन-दर्शन के चारों प्रमुख स्तंभों अर्थात धर्म, अर्थ, काम,
मोक्ष का श्रेष्ठतम कलात्मक अभिव्यक्ति होने के साथ ही एक संतुलित जीवन-दर्शन की
अर्थवत्ता ग्रहण किए हुए है| खजुराहो के मंदिरों की इस कलात्मक अभिव्यक्ति का
अवलोकन करते समय जब मेरे सहकर्मी ने मुझसे सकुचाते हुए कहा, “सर, इन्हें केवल कला
की दृष्टि से ही देखना चाहिए...” तो इस पर मैंने ध्यान नहीं दिया क्योंकि तब तक
इसे मैं भारतीय जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति मान चुका था| मेरे एक सहकर्मी का इस तरह
सकुचाते हुए सलाह देना खजुराहो की प्रचारित ‘अश्लीलता’ को लेकर था| लेकिन मैंने
इन्हें देखते हुए अनुभव किया कि जब एक पूर्ण दृष्टि खजुराहो के स्थापत्य पर पड़ती
है तो अश्लीलता का लेश-मात्र भी दर्शन नहीं होता बल्कि अपनी सम्पूर्णता में यहाँ
का स्थापत्य जीवंतता की अनुभूति कराता है| इसे देखते हुए मेरे मन में यही कौंधा कि
जीवन एक समन्वित दृष्टि का ही नाम है; और इस समन्वय में ही आनंदानुभूति है|
खजुराहो के मन्दिरों
को निहारते हुए मैंने देखा कि यहाँ की लगभग सभी मूर्तियाँ को खण्डित करने का
प्रयास किया गया था| इन खंडित मूर्तियों के सम्बन्ध में एक स्थानीय व्यक्ति जो
मेरे ही साथ चल रहा था उसने बताया, “औरंगजेब ने अपने सैनिकों को इन मंदिरों को पूर्णतया
नष्ट करने का आदेश दिया था, सैनिकों ने उसके आदेश का पालन करना शुरू किया तो
उन्हें आभास हुआ कि यहाँ की कलाकृतियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं और दुबारा ऐसी कलाकृतियों
को निर्मित किया जाना संभव नहीं होगा तब सैनिकों ने यहाँ के मंदिरों को पूर्ण रूप
से नष्ट करने से इनकार कर दिया| इसके बाद औरंगजेब ने मूर्तियों को खंडित करने का
आदेश दिया और इस प्रकार ये मंदिर पूर्णरूप से नष्ट होने से बच गए तथा केवल
मूर्तियों को ही आंशिक रूप से क्षति पहुँचाई गयी|” खजुराहो के मंदिरों की
मूर्तियों को औरंगजेब या उसके पहले के किसी अन्य आक्रांता ने क्षति पहुँचाई हो लेकिन
मुझे यह एक प्रकार की हिंसा ही प्रतीत हुई क्योंकि ऐसा करके जीवन्तता को क्षति
पहुँचाई गयी थी जिसकी भरपायी होना असंभव था| वास्तव में जो समाज जीवन की
सर्वांगीर्णता को समझता है वह हिंसक नहीं होता, समाज या व्यक्ति के स्तर पर हिंसा
जैसी वृत्ति की उत्पत्ति का कारण एक समग्र-दृष्टि का खंडित होना ही होता है|
एक वृहद् जीवन-दृष्टि
वाला व्यक्ति ही कलाकार हो सकता है और यह कलाकार हिंसक नहीं होता| अपने इसी विचार
के साथ ही चंदेल कालीन उन कलाकारों की मनःस्थितियों को टटोलने का मैंने मन ही मन
प्रयास किया जिसकी प्रेरणाओं के कारण खजुराहो के ये बेजोड़ नमूने आकार ग्रहण कर
सके| चंदेलकालीन वे शिल्पी अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के साथ छेनी और हथौड़े से जीवन
की कलात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान किए| निश्चित रूप से वे शिल्पी जिन्होंने
खजुराहो को गढ़ा पाखंडी नहीं रहे होंगे, तभी तो बिना लाग-लपेट के यहाँ का स्थापत्य जीवन
के विविध रूपों को अंगीकृत करते हुए एक समन्वित-दृष्टि के साथ उसे उस आध्यात्मिकता
की ओर ले जाते हुए दिखाई देता है जो ‘जियो और जीने दो’ का सन्देश देते हुए मानव-जीवन
में असीम शान्ति का मार्ग प्रशस्त करता है| शायद यही कारण है कि जिस खजुराहो को हम
अश्लीलता का पर्यायवाची मान बैठे हैं वहीँ पर महावीर का जैन मंदिर भी अवस्थित है
जो उसी शैली में निर्मित है| वास्तव में जीवन को जब हम समन्वित दृष्टिकोंण के साथ
देखते हैं तो न तो इसमें अश्लीलता होती है और न ही हिंसा का स्थान होता है; शायद
खजुराहो के मंदिरों के साथ निर्मित जैन मंदिर इसी तथ्य की ओर संकेत करता है|
यहाँ हम समझ सकते हैं कि पति-पत्नी द्वारा
शर्म-वश आत्महत्या करना, कहानी में राजा नृग की मनोदशा, आक्रांताओं द्वारा खजुराहो
के स्थापत्य को क्षति पहुँचाना और यहाँ तक कि खजुराहो को अश्लीलता का पर्याय समझ
लेना एकांगी दृष्टिकोंण का परिणाम हैं| इसी एकांगी दृष्टिकोंण के कारण समाज या
व्यक्ति में एक तरह का ‘इज्म’ विकसित होता चला जाता है|
अपने-अपने ‘इज्म’ का
मुझे ध्यान तब आया जब किसी ने मुझसे कहा कि ‘आज हम ऐसी कलाकृतियाँ नहीं गढ़
सकते..!’ उसी समय मैंने उससे कहा, “नहीं आज तो हम हवाई जहाज से लेकर न जाने
क्या-क्या बना रहे हैं ये भी तो आज की ही कलाकृतियाँ है..!” यह कहते ही मेरा ध्यान
इस पर गया कि खजुराहो की कलाकृतियाँ तो भारतीयों की ही देन है लेकिन आज का यह सारा
वैज्ञानिक प्रगति इसमें भारतीयों की सोच का कितना योगदान है? शायद न के बराबर..!
इसका कारण यही है कि शुरुवाती भारतीय सभ्यता किसी ‘इज्म’ का शिकार नहीं थी लेकिन समय
बदलने के साथ ही हम अपने-अपने ‘इज्म’ के शिकार होते चले गए और एक कुंद मनःस्थिति
में पहुँच गए जिसमें किसी वैज्ञानिक सोच का स्थान नहीं होता और जिसका परिणाम यही
हो सकता है कि हम ऐसी महान कलाकृतियाँ नहीं गढ़ सकते|
वास्तव में कुछ का
‘इज्म’ खजुराहो के मंदिरों में भी किसी न किसी तरह का ‘इज्म’ खोज लेगा लेकिन
खजुराहो की स्थापत्य-कला जीवन-सापेक्ष होते हुए स्वयं के जीने और दूसरों को जीने
देने की प्रेरणा देती है तथा यहाँ की कला किसी को अपने ‘इज्म’ का शिकार नहीं बनाती
जबकि हमारा ‘इज्म’ हमें बहकाता है और हमारा ही शिकार करता है|
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