“हमारा
पंचांग विज्ञान से कम नहीं”- गृहमंत्री भारत सरकार। लेकिन कुछ लोगों ने गृहमंत्री
के इस बयान की खिल्ली उड़ाई तथा एक प्रकार से उनके इस कथन को पोंगापंथी के सन्दर्भ
में प्रस्तुत किया।
मेरे दादा
पञ्चांग रखते थे...और वह पञ्चांग हिंदी माह के प्रारम्भ होने के पहले ही खरीद लिया
करते थे...हालांकि वह पञ्चांग पंडिताई करने या ज्योतिष शाश्त्र में विश्वास रखने
के कारण नहीं खरीदते थे, और न ही इन पर विश्वास करते हुए मैंने उन्हें देखा
था...हाँ गाहे-बगाहे परिवार के सदस्य उनसे किसी ब्रत की तिथि, सूर्य-ग्रहण,
चन्द्र-ग्रहण या फिर आवश्यकता पड़ने पर कभी-कभी सूर्योदय या सूर्यास्त का समय तथा
चन्द्र-दर्शन की अवधि या फिर किसी शुभ मुहूर्त आदि के बारे जानकारी प्राप्त करते
रहते थे या फिर वे स्वयं इस पञ्चांग से अपने एकादशी ब्रत की जानकारी कर लिया करते
थे..। एक बार मैंने उनसे पूँछा था कि समय की इतनी सटीक गणना इसमें कैसे की गई है तो
उन्होंने बताया था कि पंडितजन (विद्वत्जन) नक्षत्रों की चाल को भांप कर समय की
गणना कर लेते हैं..। वास्तव में पञ्चांग की काल गणनाएं एकदम सही होती। हाँ इस
पञ्चांग में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति या राशिफल के आधार पर की गयी भाग्यफल जैसी
भविष्यवाणियों पर मैंने कभी विश्वास नहीं किया। यदि इन भविष्यवाणियों के अनुरूप कुछ
घटनाएं घटित भी हुई तो मैंने उन घटनाओं को उन्हें उनके घटने की संभाव्यता के आधार पर ही
माना।
निश्चित
रूप से पञ्चांग भारतीय पद्धति में काल-गणना है, इसमें भूत, वर्तमान तथा भविष्य की
काल-गणना होती है, जिसमें दिन, तिथिवार समय की गणना होती है जिसके आधार पर कुछ
खगोलीय घटनाओं की भविष्यवाणी भी की गयी होती है जो एकदम सटीक होती है। मैं उस समय
आश्चर्य में पड़ जाता था कि बिना किसी आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों के हमारे पंडित
जनों के लिए यह गणना कैसे संभव होता है तथा यह काल-गणना आधुनिक विज्ञान की
भविष्यवाणियों से भी मेल खाती है। कुछ प्रबुद्धजनों द्वारा इस भारतीय ज्ञान पद्धति
की खिल्ली उड़ाना समझ के परे है। यह खिल्ली एक अमेरिकी अखबार में छपे उस कार्टून के
सामान ही है जिसमें मंगल-यान की सफलता पर विश्व के तीन देशों के ग्रुप में शामिल
होने की घटना को पगड़ी और धोती पहने तथा बैल का पगहा पकड़े हमारे प्रधानमन्त्री को
इस एलीट ग्रुप के दरवाजे पर दस्तक देते हुए दिखाया गया था।
वास्तव
में आज देखा जाए तो विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्माण्ड की जो अवधारणा है वह एक तरह
से रूपकों में हमारे पुराणों में बहुत पहले से ही व्यक्त है। बचपन में ही पुराणों
में तीन सर्वोपरि देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ महाविष्णु की भी कल्पना की
गयी है, जो पुराणों में ईश्वर के विराट स्वरुप का वर्णन करती है। मैंने बचपन में
पुराणों में यह भी पढ़ा था कि महा-विष्णु स्वयं अपने आदि-अंत के बारे में भी नहीं
जानते और ये विश्व-रूप हैं। हालांकि बचपन में पढ़ी विष्णु और महाविष्णु की इस अवधारणा से
मैं कन्फ्यूज सा हो जाता तो दादा जी से पूंछता, फिर वे बताते कि विष्णु ही स्वयं में
महाविष्णु हैं...हाँ यह भगवान का विराट रूप है, इसमें यह पूरा विश्व या ब्रहमांड
समाया हुआ है बल्कि यह उसके भी पार तक जाता है, इसीलिए भगवान् भी अपनी सीमा को
नहीं जान पाते...। मैं सुनकर बड़े पशोपेश में पड़ जाता, लेकिन चीजें धीरे-धीरे स्पष्ट
होने लगी..!
वास्तव
में पुराणों में रूपक के माध्यम से ब्रह्माण्ड के बारे में दिया गया यह ज्ञान ही
तो है जिसे आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है, फिर भारतीय ज्ञान-पद्धति की इस तरह
से खिल्ली उड़ाना समझ में नहीं आता...। हाँ हमें किसी अतिरंजना से बचना चाहिए लेकिन
चीजों को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। क्या कोई पश्चिमी देश हमारे इस ज्ञान के
महत्त्व को रेखांकित करे तभी हम इसे स्वीकार करे..?
वास्तव में सड़क पर पड़ा हुआ
पैरों के तले रौंदा जा रहा कागज़ का वह टुकड़ा भी जिसमें कुछ लिखा हो ज्ञानार्जन के
लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है...!
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