आधी रात गुजर चुकी थी...अर्ध-निद्रित अवस्था में ही मैंने
चलती बस की खिड़की से बाहर देखने का प्रयास किया... बाहर भादों की काली रात..! नहीं-नहीं..चाँदनी
रात में भादों की सप्तमी का चाँद दिखाई दिया..! दूर पानी में इस चाँद की परछाई भी
दिखी...तभी आभास हुआ कि किसी पुल के ऊपर से गुजर रहे हैं...इस समय हम यमुना नदी के
पुल से गुजर रहे थे... हाँ ध्यान आ गया कल अष्टमी की रात होगी...कृष्ण जन्माष्टमी..!!
सोचा ऐसे ही किसी भादों की अष्टमी की रात को नवजात कृष्ण को सूप में लिटाकर और इसे
सिर पर ले वसुदेव ने इसी यमुना को पार किया होगा...तब घने बादलों से
घिरी वह काली रात थी...और तो और...यमुना भी उस दिन अपने उफान पर थी तथा कृष्ण के
पाँव के अँगूठे को छूकर ही मानी थी...
मैं बस की
खिड़की से ही इस रात के आकाश में बादलों को खोजने लगा...इस भादों की सप्तमी की रात
में हमें बादल का कोई टुकड़ा नजर नहीं आया...हाँ आकाश में चाँदनी के साथ तारे भी
छिटके दिखे...! सोचा कल जब जन्माष्टमी होगी तो निश्चित रूप से भादों की वह काली
रात नहीं होगी... वृन्दावन के उस ग्वाले के लिए अब हम रेगिस्तान निर्मित करते जा
रहे हैं.. अगर वह जन्म भी लेगा तो उसमें वे संवेदनाएं कहाँ से आएंगी...क्योंकि
वृन्दावन की वे कुंज गलियाँ अब खो गई हैं...
हमारे किए धरे पर प्रकृति भी हमसे रूठ चुकी
है...आखिर भादों की यह चाँदनी रात क्या कहती है...!! कुछ लोगों के लिए यह एक
नकारात्मक सोच से उपजा विचार लगा सकता है... लेकिन ऊपर के इस चित्र को देखिए...
जब मैं यहाँ इस
गाँव में पहुँचा तो महिलाओं के बीच आपस में पानी भरने को लेकर बतकही हो रही थी...
बुन्देलखण्ड में महोबा का यह क्षेत्र अब सूखे से पीड़ित हो चला है.. महीनों से
यहाँ ढंग से पानी नहीं बरसा है..खेत और तालाब दोनों सूख रहे हैं... आने वाला दिन
यहाँ और भयावह हो सकता है...सूखे जैसी स्थिति बन रही है..!
उधर कुछ दिनों
पहले यमुना और बेतवा में बाढ़ की जलराशि और इसे यूँ ही बहता देख मन में एक लालच
जाग जाता था कि काश..! इसे हम महोबा के सूखते तालाबों तक पहुँचा पाते...!! लेकिन
आजादी के इतने सालों के बाद भी अपने किए-धरे पर शर्मिंदा होने का मन कर आया...!
आखिर हम लोगों ने
किया क्या..? हम अब तक एक
लिफ्ट कैनाल की योजना भी नहीं बना पाए हैं कि इन नदियों के बाढ़ के दिनों की
व्यर्थ होती जलराशि को इसके माध्यम से महोबा जैसे जनपद के तालाबों तक पहुँचा कर
उसे भर सके...जो सूखे जैसे गाढ़े दिनों के लिए काम आए...और सूखते हैंडपंपों में भी
जलस्रोत निकल पड़े...और तो और...हमने यहाँ खेतों की सिंचाई के लिए कोई भी ढंग का
सिंचाई संसाधन विकसित नहीं कर पाए हैं...लेकिन बुंदेलखंड पैकेज में बड़ी-बड़ी
कृषि-मंडियां जरुर बना दिए हैं....खेत तो सूखे हैं फिर इन कृषि-मंडियों का क्या
काम...!
यहाँ बस इतना ही
कहना है कि उस नटखट कान्हा के लिए पहले हम वृन्दावन की वैसी ही कुंज गलियाँ बना
दें फिर उसके जन्म का सोहर गाएं... ये रूठे बादल भी तब शायद हमसे खुश हो जाएं...
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