उस दिन पोषण मिशन कार्यक्रमों के एक निरीक्षण में मैं एक आँगनवाड़ी केंद्र पर गया था। उस केंद्र पर गाँव के तीन अन्य केन्द्रों के बच्चे और उन बच्चों के कुपोषण से सम्बन्धित रिपोर्ट के बारे में मैंने बारी-बारी से आँगनवाड़ी सहायिकाओं से जानकारी लेने लगा था।
एक आँगनवाड़ी केंद्र की रिपोर्ट में तीन कुपोषित बच्चे मिले, जिसमें दो लड़कियाँ और एक लड़का था। इसी प्रकार दूसरे केंद्र से एक कुपोषित बच्ची की रिपोर्ट थी। फिर मेरा यह सोचकर माथा ठनका कि लड़कियों के कुपोषण का कारण उनके माता-पिता का इन बच्चियों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया होगा। मैंने अपनी इस धारणा से वहाँ उपस्थित आँगनवाड़ी सहायिकाओं को अवगत कराया। उन आँगनवाड़ी सहायिकाओं ने मेरी इस बात का प्रतिवाद करते हुए मुझे पूरी रिपोर्ट देखने के लिए कहा। फिर मुझे अन्य दो केन्द्रों के कुपोषण सम्बन्धी रिपोर्ट में लड़कों की संख्या अधिक मिली और कुपोषित बच्चों में लड़के और लड़कियों का लैंगिक अनुपात बराबर हो गया।
अन्त में, आँगनवाड़ी सहायिकाओं ने मुझे यह भी अवगत कराया कि जो बच्चियां कुपोषित हैं उनमें दो बच्ची पैदाइशी कुपोषित थी तथा गाँव के लोग अब लड़के लड़कियों में भेद नहीं करते। वहाँ लोगों ने हमें यह भी बताया कि इस गाँव के प्राथमिक विद्यालय में सबसे ज्यादा लड़कियाँ ही पढ़ती हैं।
हमारे बीच अभी यही बातें हो रही थी कि उसी समय एक मोटरसाइकिल से दो लोग एक बच्ची को लेकर आए! उस बच्ची को दिखाते हुए आँगनवाड़ी सहायिका ने बताया कि "सर! यह बच्ची बहुत कुपोषित थी, इसकी माँ इसे लेकर जिला अस्पताल में चौदह दिन तक भर्ती रही अब इस बच्ची में काफी सुधार हो चुका है।"
अब मेरा दृढ़ विश्वास हो चला था कि महोबा जैसे जनपद के एक पिछड़े गाँव में कम से कम बच्चियों के लालन-पालन में उनके माता-पिता कोई भेदभाव नहीं करते। यही नहीं प्राथमिक विद्यालयों के भ्रमण में भी मैंने इस बात का नोटिस लिया है कि गाँव के इन विद्यालयों में छात्राओं की संख्या छात्रों के अपेक्षाकृत अधिक है, जो गरीब और पिछड़े वर्ग से ही आते हैं। आज महिला दिवस पर यह मुझे आश्वस्तिकर प्रतीत होता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें