सोमवार, 29 अगस्त 2016

राष्ट्रीय-एकीकरण-मंच!

         मेरे एक मित्र सरकारी आदमी हैं जो किसी राष्ट्रीय-एकीकरण की गोष्ठी में राष्ट्रीय-एकता के दीप-प्रज्ज्वलक-मंचाध्यक्ष बन कर गए थे, वहाँ से लौटकर उन्होंने अपना अनुभव हु-ब-हू मुझसे शेयर किया। अब हम बिलकुल शान्त-रस के अन्दाज में वैसा ही हु-ब-हू आपको बता देते हैं...
           "बड़ी विचित्र स्थिति है ! इस देश के एकीकरण के लिए सरकारी गोष्ठी भी करनी होती है। इसके लिए बाकायदा एक विभाग बना हुआ है "राष्ट्रीय एकीकरण विभाग" और इन गोष्ठियों के लिए बजट भी जारी किया जाता है। यह विभाग जिलों-जिलों में राष्ट्रीय एकीकरण की गोष्ठी करवाता है। गोष्ठी एक मीटिंग टाइप सी होती है जिसमें वैसे ही काम करने पर चर्चा होती है जिससे राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हो जाए। इस गोष्ठी में सभी धर्मों के उपलब्ध धर्माचार्य, समाजसेवी, जनप्रतिनिधि और अधिकारी आदि सम्मिलित होते हैं। मतलब राष्ट्रीय एकता कायम रखने का यह सरकारी प्रयास होता है। इस मीटिंग के बाद प्रतिभागी गण अपने-अपने तरीके से राष्ट्रीय एकता कायम रखने का प्रयास शुरू कर देते हैं।
          हमारे देश में कोई समस्या आई नहीं कि फौरन उसके निदान के लिए एक विभाग बना दिया जाता है। इससे फौरी तौर पर एक फायदा यह होता है कि कुछ लोगों के लिए नौकरी की जगह निकल आती है और दूसरे समस्या-निदान पर काम भी शुरू हो जाता है। ऐसे विभागों में नियुक्त कर्मी डाक्टर की भाँति नब्ज पकड़ कर समस्या-निदान में तल्लीन भी हो जाते हैं, फिर समस्या, पद, नौकरी, निदान सब बना रहे, इस टाइप से विभाग का काम चल निकलता है। जैसे विकास की कमी है; तो विकास विभाग भी बना है। हाँ, ठीक इसी तर्ज पर "राष्ट्रीय एकीकरण विभाग" देश में राष्ट्रीय-एकता की कमी सिद्ध करता है, जिसे राष्ट्रीय एकीकरण की बैठक से भरना लाजिमी हो जाता है।       
           
          वैसे भी सरकारी बैठकें बड़े काम की होती हैं, इससे एक तो काम होता हुआ दिखाई देता है, दूसरे इसी काम के बदौलत "राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश" अपने उच्चतम बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी बैठक का असंतुष्ट मुखिया सन्तुष्ट होने तक बैठक-दर-बैठक, बैठक का प्लान बनाता रहता है या फिर बैठक का असर खतम होते ही बैठक बुला लेता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश में योगदान न कर पाने वाले को ही राष्ट्रीय एकीकरण विभाग का मुखिया बनाए जाने की परम्परा है। खैर...

           एक बार सरकारी तौर पर आयोजित एक राष्ट्रीय एकीकरण की बैठक को प्रभावी बनाने के लिए बाकायदा बैठक को एक मेलाग्राउंड में आयोजित किया गया। यहाँ राष्ट्रीय एकीकरण का मंच जमीन से पाँच फीट की ऊँचाई पर बना था और गोष्ठी के दौरान मंच के सामने जमीन पर सैकड़ों की संख्या में जनता अपनी चिरपरिचित मुद्रा में बैठी थी। इस मंच पर राष्ट्रीय-एकता के पुरोधा जैसे- नेता, अधिकारी, समाजसेवी, स्वयंसेवी, प्रबुद्ध-जन और विभिन्न धर्मों के धर्माचार्य आदि ठसक के साथ बैठे थे। जैसे, यदि ये न होते तो देश कब का टुकड़ों में बंट गया होता। मंच पर विराजमान विभिन्नताओं से राष्ट्रीय-एकता की पुष्टि होने के साथ यह इस तथ्य की ओर भी संकेत था कि जितनी विभिन्नताएँ होगी उतनी ही राष्ट्रीय-एकता बलवती होगी।
             राष्ट्रीय-एकता का दीप प्रज्ज्वलित होने के बाद गोष्ठी में हुई भाषणबाजी के ज्यादा डिटेल में नहीं जाना है। फिर भी, भावनाओं के ज्वार में वतन जिन्दाबाद, भारत माता की जय, सभी मनुष्यों में एक ही परमात्मा है, इसलिए सब आपस में प्रेम करें, जैसी बातों से निश्चिंन्त हुआ जा सकता था कि हमारी एकता अक्षुण्ण है। हाँ, गोष्ठी में इस एक महत्वपूर्ण बात से भी मुतमईन हुआ जा सकता था कि राष्ट्रीय-एकता के लिए यदि किसी से खतरा है तो वह मंच के सामने जमीन पर बैठी इस जनता से ही है। क्योंकि जमीन पर बैठी जनता के चेहरे मंचासीन प्रदीप्त चेहरों से मेल नहीं खा रहा था। जनता भी टुकुर-टुकुर मंचासीन राष्ट्रीय-एकता के बलशाली महानुभावों को देखे जा रही थी। लेकिन यहीं पर माइक थामें मंच-उद्घोषक ने राष्ट्रीय-एकता कायम रखने के उत्साह में अति भावुकतावश इस तथ्य की उद्घोषणा करते हुए कहा-
           "जनता के चेहरे और यहाँ मंचासीन ऊपर बैठे चेहरों के बीच अंतर मिटेगा तभी सही मायने में राष्ट्रीय-एकता कायम होगी।"
         इसे सुन राष्ट्रीय-एकता के दीप प्रज्ज्वलनकर्ता मंचाध्यक्ष का मन प्रतिक्रियात्मक हो उठा था -
            "ये ल्लो! बोलते-बोलते संचालनकर्ता ने इतनी बड़ी गड़बड़ी कर दी..! म्लान-अम्लान चेहरों के बीच खाईं खोदने की इन्हें क्या जरूरत थी? इस विभेदकारी बयान से हमारी राष्ट्रीय-एकता "गई भैंस पानी में" की तर्ज पर खटाई में पड़ जाएगी...सरकारी बजट से संचालित इस मंच के खटाई में पड़ने से राष्ट्रीय-एकता में एक बड़े घोटाले का आरोप चस्पा हो सकता है..!" 
          ऐसे किसी आरोप से बचने के लिए ऊपर मंच से ही नेता, समाजसेवी, अधिकारी, धर्माचार्य आदि सभी ने मिलकर एक स्वर से जमीन पर बैठी जनता को विभिन्नता में एकता का जबर्दस्त पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया। इन भाषणों पर जनता को ताली बजाते देख राष्ट्रीय एकता के दीप प्रज्ज्वलनकर्ता ने मन ही मन विचार किया -
           "ई जनता कोई बुड़बक थोड़ी न है कि एकता के इस प्रज्वलित दीप को बुझाए..? अरे भाई! म्लान-अम्लान जैसी विभिन्नता में ही तो एकता छिपी हुई होती है..। जमीन पर बैठी जनता इतना तो समझ ही जाती है!" 
          राष्ट्रीय-एकता के किसी सम्भावित घोटाले से बाल-बाल बचे मंचासीन एक स्वयंसेवी सामाजिक कार्यकर्ता ने संचालनकर्ता को आग्नेय नेत्रों से शायद यह सोचते हुए निहारा -
           "बेटा! हम न होते तो तुम तो राष्ट्रीय-एकता का गुड़-गोबर कर ही चुके थे और हम जैसे सम्मानित समाजसेवी बेमतलब के राष्ट्रीय एकता जैसे संवेदनशील मामले में घोटाले का आरोप झेल रहे होते..!"
          राष्ट्रीय एकता के मंचाध्यक्ष अपना भाषण देकर मंचीय राष्ट्रीय-एकता से निवृत्त हो जैसे ही चलने को आतुर हुए उसी समय एक समाजसेवी ने राष्ट्रीय-एकता के मंच के ठीक पीछे बने तम्बू के विश्राम-स्थल में चलने का इशारा करते हुए कहा -
          "आईए, थोड़ी देर यहाँ बैठ लें।"
           शायद अब तक कायम हो चुकी मंचीय-एकता को किसी टूट-फूट से बचाने के संकोचवश एकता के दीप प्रज्ज्वलक मंचाध्यक्ष मंच के पीछे बने उस तम्बूखाने में चले गए। हालाँकि इसी बीच अपने-अपने घर वापसी को बेचैन विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं से उन्हें परिचित भी कराया गया। एक धर्म के धर्मगुरू ने अपने धर्मप्रचारक जी से भी परिचय कराया।
             इस परिचय के बाद राष्ट्रीय-एकता-दीप-प्रज्ज्वलक के माथे पर यह सोचते हुए बल पड़ गया था-  
        
           "धर्मगुरू या धर्माचार्य तक तो बात ठीक थी लेकिन एक धर्म के धर्माचार्य राष्ट्रीय-एकीकरण की इस बैठक में अपने साथ "धर्मप्रचारक जी" को भी लाए थे! अब ऐसा कौन प्रचारक है जो अपनी पार्टी के प्रति भितरघात करेगा? मतलब प्रचारक है तो अपनी पार्टी को जिताएगा ही!"

            इन धर्मप्रचारक के चक्कर में निरीह सी सामने बैठी जनता खींच-तान में फँसती दिखाई दी। जनता पर एक उड़ती सी निगाह डालते हुए इस मंच पर राष्ट्रीय-एकता का अलख जगाने वाले मंचाध्यक्ष ने विचारा -
          "ये धर्म-प्रचारक किसी अन्य खाने की गोट को अपने खाने में फिट करने से बाज नहीं आएँगे...फिर ऐसे में, यदि दूसरे धर्मों के भी धर्मप्रचारक यहाँ जुट आते तो राष्ट्रीय-एकीकरण की इस गोष्ठी का क्या हाल होता? फिर तो राष्ट्रीय एकता के इस मंच को राष्ट्रीय-संसद में बदलते देर न लगती, जिसमें बहिर्गमन एक अनिवार्य तत्व होता है, फिर तो जैसे संसद ठप..वैसे ही राष्ट्रीय-एकता ठप..! और वह बाडीबिल्डर जैसे शरीर वाला दूसरे धर्म का धर्माचार्य इस मरियल से धर्मप्रचारक जी को, एकता गई तेल लेने के अन्दाज में राष्ट्रीय-एकता के परिदृश्य से बहिर्गमन करने के लिए बाध्य कर देता...तथा एक नए तरीके की एकता कायम करने में अपना योगदान दे चुका होता....बाप रे!"
             
            खैर, इसी बीच राष्ट्रीय-एकीकरण के दीप-प्रज्ज्वलक ने तीसरे धर्म के धर्माचार्य की खोज में इधर-उधर देखा लेकिन अपने वतनपरस्ती का खूब बढ़चढ़ कर बखान करने वाले ये धर्माचार्य महोदय अपने धर्म के बड़े पक्के निकले! शायद उनके लिए राष्ट्रीय-एकता कायम रखने का समय हो गया था, इसलिए वे पहले ही इस गोष्ठी को छोड़कर जा चुके थे। यही सब निहारते-अगोरते राष्ट्रीय-एकता के दीप-प्रज्ज्वलक-मंचाध्यक्ष तम्बूखाने में तशरीफ ला चुके थे। 
     
             यहाँ एकता-मंच के पीछे तम्बू में एक स्वयंभू-समाजसेवी, गोष्ठी के आयोजक और पूड़ी-सब्जी छानते कुछ अन्य लोग थे। सम्मान के आग्रही वही स्वयंसेवी सामाजिक कार्यकर्ता, जिनका सम्मान मंच-उद्घोषक के किसी बात से आहत हुआ था, ने रोष व्यक्त करते हुए अपने गोष्ठी के आयोजक से कहा -

             "यदि ऐसा ही रहा तो हम आगे आपकी ऐसी किसी गोष्ठी में नहीं आएँगे"
           और गोष्ठी के लिए आवंटित बजट-व्यय पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए बोले-
            "बजट किसी का, और संचालन किसी और से! फिर इसमें कौन सा इत्ता भारी बजट खर्च हुआ"
             इसपर आयोजक ने क्षमाप्रार्थी-अन्दाज में आगे किसी समस्या की सम्भावना का संहार करने की अंदाज गरज से गोष्ठी के संचालनकर्ता को बिन बुलाया मेहमान बताया। बात आई गई हुई, जैसे कि कोई बात होती है।
         वैसे भी यहाँ बजट-व्यय पर उत्पन्न होनेवाला "राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश" नाममात्र का ही होता, इसलिए इस बजट-व्यय पर दीप-प्रज्ज्वलक का बहुत ध्यान नहीं गया तथा वे यह विचारते हुए चुप रह गए -
          "बाद में आडिट के लिए इस राष्ट्रीय एकीकरण मंच पर हुए व्यय के बिल-बाउचर मँगवा लेंगे।"
          हालाँकि दीप-प्रज्ज्वलक आयोजक से पद में बड़े थे, जो आयोजक से राष्ट्रीय-एकता की गोष्ठी पर हुए बजट का व्यय-विवरण तलब कर सकते थे, लेकिन उन्होंने सोचा -
          "ऐसे किसी व्यय से उपजने वाले राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश पर ध्यान न देना बेवकूफी भरा निर्णय होता है। फिर तो, राष्ट्र की कौन कहे, स्वयं आप उपेक्षित से, अपने कार्यस्थल में, रिश्तेदारों यहाँ तक कि खुद के परिवार के बीच एकता कायम रखने की क्षमता खो देते हैं! जबकि राष्ट्रीय-एकीकरण-अंश सभी को भेदभाव से मुक्त कर समान धरातल पर लाकर खड़ाकर देता है, जहाँ भाईचारे का एक अद्भुत दृश्य होता है...अब राष्ट्रीय-एकता का ही दुर्भाग्य ही है कि जो इस अंश से दूर भागता है उसे ही राष्ट्रीय एकीकरण विभाग का मुखिया बना दिया जाता है।"
          उस एकता-मंच के पीछे तम्बूखाने में एक म्लान-मुख वाले सिर पर आम-आदमी वाली जैसी टोपी पहने अतीत-जीवी भावुक वृद्ध से परिचय कराते हुए उन स्वयंभू-समाजसेवी ने गोष्ठी के दीप-प्रज्ज्वलक से कहा -
          "ये पुराने समाजसेवी हैं, राष्ट्रीय-एकता और समाज सेवा में ये बहुत योगदान देते हैं, हम भी इनका बहुत सम्मान करते हैं..लेकिन, ये भी बहुत मर्यादा में रहते हैं..बेचारे! अपने सामाजिक स्तर के ही अनुरूप हमसे व्यवहार भी करते हैं..!"
           
          यहाँ इस परिचय के क्रम में राष्ट्रीय-एकता के दीप-प्रज्ज्वलक-मंचाध्यक्ष थोड़ा चौंक पड़े! गेस किया -
        "राष्ट्रीय-एकता के लिए किसी-न-किसी एक को अपनी मर्यादा में रहना ही होता है! एक म्लान-मुखवाले को ही अपनी मर्यादा निभानी पड़ती है..और राष्ट्रीय-एकता के लिए जरूरी मर्यादारूपी अन्तर्धारा इस व्यक्ति के थ्रू होकर ही बहती है...इसलिए, इन्हें जमीन पर भी बैठाया जाता है..! आखिर, राष्ट्रीय एकता जमीन की ही होती है..!!"
           राष्ट्रीय-एकता का दीप-प्रज्ज्वलक चूँकि एक सरकारी आदमी हैं, इसलिए राष्ट्रीय-एकता के इस टैम्परेरी दायित्व से इतर अपने कर्तव्य-निर्वहन के क्रम में ग्रामीण गरीबों के लिए नियुक्त उच्च प्रजाति से सम्बंधित जीव जो खाद्यान्न-वितरक भी था, के यहाँ छापा मारा। छापे में कोई विशेष कमी दृष्टिगोचर नहीं हुई और ग्रामीण जनता भी खाद्यान्न-वितरक से सन्तुष्ट थी । खाद्यान्न-वितरक ने जमीन पर बैठने वाले इन "असामाजिक" लोगों की संन्तुष्टि का कारण बताया -
        "अरे साहब! हम इनसे भेदभाव वाली बात नहीं करते..घर आने पर इन्हें हम चाय-पानी घर के ही कप-गिलास में पिलाते हैं..अलग से कोई दूसरा बर्तन नहीं रखते...लेकिन साहब..! हमारा कोई एक आदमी पहले ही अपना जूठा बर्तन धोना शुरू कर देता है और उसकी देखा-देखी ये भी अपने जूठे कप या गिलास वगैरह धुल देते हैं, फिर इसके लिए हमें कहना नहीं पड़ता...ये हमसे खुश भी रहते हैं, मेरा कोई विरोध नहीं करता..इसीलिए हमारो आदमी प्रधान बनता है..।"
           "यही है हमारी राष्ट्रीय-एकता का राज..! और जानते भी हो? हमारी राष्ट्रीय-एकता और सामाजिक-क्रांन्ति मर्यादा ओढ़कर चलती है..किसी नई-नवेली देहाती दुल्हनिया की तरह..!"
          कहते हुए मित्र ने भी एक मर्यादा भरी चुप्पी ओढ़ ली।" 
    
          "ओह तो ये है राष्ट्रीय-एकता कायम रखने की मर्यादा भरी कहानी..!" अब मैंने सोचा।
                                                --विनय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें