वो क्या है कि इधर मैं भी गाँव चला गया था। कुछ खेती-किसानी जैसी बातों पर ध्यान गया तो किसान-आन्दोलन को लेकर किसानी पर लिखने के लिए किसी खेतिहर के खेती करने जैसा मन तड़फड़ाने लगा था। लेकिन गाँव के हालत तो सबको पता ही होते हैं, वहाँ नेटवर्क की समस्या होती है, और गाहे-बगाहे नेटवर्क मिले भी तो, बेदर्दी मानसून की तरह यह कभी आया या कभी न आया। सो, लिखने से मन भी उचट गया था। ऐसे ही तो किसान का भी मन किसानी से उचट जाता है!
तो, खेती-किसानी और लेखन-वेखन को मैं एक ही तराजू पर तौलता हूँ। लेखक बेचारा लिख-लिख कर थक जाता है, मगर प्रकाशक भी है कि सरकार टाइप का बना रहता है, उसका मन पसीजता नहीं और लेखक के लेखन को किसी किसान के खेत की उपज टाइप का समझ लेता है। इसी तरह बेचारा किसान भी लेखक की तरह दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाता है।
असल में क्या है कि सब कुछ नेटवर्क का ही खेल है, खेती भी नेटवर्क आधारित होती है। वैसे अच्छे नेटवर्क का मिलना हमारे देश में आज भी दैवयोग ही है और भारतीय खेती भी तो दैवयोग पर ही आधारित होती है! दैवयोग का मारा बेचारा यह किसान, एक अलग तरीके का नेटवर्क डेवलप करने के चक्कर में, खेत में पसीना बहाने के बजाय इसी में अपना पसीना बहाने लगता है। फिर अच्छा नेटवर्क मिल जाने पर औने-पौने अपना जोतबही उसी नेटवर्क को सौंपकर थक-हार कर घर लौट आता है।
एक बात और है...आज का किसान जन्म लेते ही इस नेटवर्क में स्वयं को जकड़ा हुआ पाता है। बचपन में मुझे याद है, खेती फायदे के लिए नहीं की जाती थी..इसका उद्देश्य पेट भरना हुआ करता था, लोग मजे से खेती किया करते थे और अपने लिए साल भर का अनाज पैदा करने पर ही संतुष्ट हो जाते थे। लेकिन अब क्या है कि आर्थिक लाभ का जमाना है, देश का पूरा सिस्टम इस लाभ के खेल में जकड़ा हुआ है और लाभ के सिस्टम का यह खेल किसानों पर भारी पड़ गया है। खेती तो व्यवसाय नहीं बन पाई, लेकिन उसके बच्चे को भी व्यवसायिक शिक्षा चाहिए, बेटी की शादी में वर पक्ष के लाभ की आकांक्षा में मोटा दहेज देना है...किसी से कमतर न दिखें इसके लिए स्टेटस भी मेंटेन करना है..और इन सब के बाद हारी-बीमारी से बचने के लिए इलाज की मँहगाई जैसे आर्थिक लाभ और जीवन यापन के बीच के अजीब से बन चुके नेटवर्क में उलझे किसान की खेती भी बंधक टाइप की हो चुकी है। लेकिन यह सब, खेती से कहाँ पूरा होगा..? खेती बेचारी कितनी बोझ सहेगी..? फिर तो, किसान को कर्ज में डूबना ही है..!
देश का यही आर्थिक संजाल गाहे-बगाहे किसानों को भड़काता है, आंदोलित करता है। लेकिन स्वयं किसान आंदोलित होता है, इसपर मुझे सन्देह रहा है और है..! "दैवयोग" पर निर्भर किसान कभी आंन्दोलित हो ही नहीं सकता...यहाँ मैंने बुंदेलखंड में देखा है...लगातार सूखा पड़ने के बाद भी किसान टस से मस नहीं होता.. पानी बरसा तो ठीक नहीं तो, शहरों में भागकर मजदूरी करना ही है, और सरकार है कि आजतक यहाँ के किसानों को सिंचाई का कोई नेटवर्क नहीं दे पायी है। मुझे आश्चर्य है, यहाँ के किसान आन्दोलन क्यों नहीं करते..? कारण, जिनको आन्दोलन करना है वे "सेफ्टीवाल्व" की तरह हैं..किसान और किसानी पर हावी हैं और तमाम संसाधनों पर इन्हीं का कब्जा है। जब कभी ये असंतुष्ट होते हैं तो किसान और किसानी को जरूर मोहरा बना लेते हैं और फिर मतलब सध जाने के बाद चुप बैठ जाते हैं। यही नहीं यहाँ के खनिज-कर्म से बर्बाद होती खेती पर ये पसीजते तक नहीं, इनसे किसानों से कोई मतलब नहीं।
असल में किसान-आन्दोलन और कुछ नहीं बिचौलियों का अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए छेड़ा गया संघर्ष है, जिससे किसानों का कोई लेना-देना नहीं होता। इनमें से जो तथाकथित किसान आन्दोलनरत दिखाई भी देते हैं उनके घरों में किसानी-कृत्य और कृषि-उपज को "परदूषण" की भाँति देखा जाता है। उस दिन खेती का हालचाल पूँछने पर मेरी चाची किसी ऐसे ही किसान के घर का हालचाल बता रही थी -
"बेटवा आजकल खेती क हाल का बताएं...पहिले जइसे वाली बात अब नाहीं बा... अब नई बहू शहर से गाँव आवत हैं तो...अरहर दलते हुए छिलका देखि के अपनी सास से कहत हैं कि मां जी इहाँ घर में बहुत परदूषण फइला है, रहना मुश्किल है।"
तो, भइया जिनके घरों में खेती "परदूषण" की तरह देखी जाती है वही किसान आंदोलन की अगुवाई करते हैं....बाकी हम जैसे लोग, हमारे ही इनकमटैक्स से खरीदी हुई सरकारी सम्पत्तियों को धूँ-धूँ जलते हुए देखने के लिए मजबूर होते हैं।
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