सबेरे-सबेरे सोकर उठा तो तरह-तरह के उवाचों और हो-हल्लों के बीच मैंने अनुमान लगा लिया कि हो न हो लोकतंत्र पर एक बार फिर कोई खतरा मँडरा रहा है..!! वाह भाई वाह..! अपने देश में लोकतंत्र तो बड़ा पिद्दी निकला..!! एक खतरे से फारिग नहीं हो पाता कि दूसरा खतरा आ घेरता है। जबकि इसी देश में और भी तमाम चीजें हैं, लेकिन उनपर खतरा नहीं मँडराता..! यह लोकतंत्र भी न, लोकतंत्र न होकर जैसे कोई जू-जू का बच्चा हो, जब देखो तब खतरे में पड़ा रहता है।
आँख मींचते बिस्तर छोड़ मैं उठ खड़ा हुआ और इन जैसे तमाम खतरों के बीच अलसुबह ही अपने वाले भगवान की मूर्ति का दर्शन करने निकल पड़ा। चलते-चलते क्षितिज पर उभर रहे सूरज पर निगाह गड़ी और मैंने "जानि मधुर फल" वाले सौन्दर्यबोध के साथ उन लाल बाल-सूरज को लाल सलाम दिया। वैसे भी, इस सर्वहारा टाइप के देश में लोकतंत्र, लाल रंग के राजनीतिक सौन्दर्यबोध के बिना चल नहीं सकता। इधर सूरज महाशय भी, निहारते-निहारते लाल से पीले होते गए और उनके सौन्दर्यबोध कराने की क्षमता से मैं सहम गया ! समय के साथ रंग बदलते सूरज मुझे बेहद लोकतांत्रिक टाइप के प्रतीत हुए। इस बीच मैंने देखा, चमकीले होते सूरज की देखरेख में चिड़ियों का एक झुंड भी मजदूरों की तरह धूप में पसीना बहाने उड़ चला लेकिन इधर हम अभी सूरज से लाल सलामी पर ही अटके थे!
खैर, परिवर्तन को प्रकृति का नियम मानकर मैंने किसी छवि से चिपकना उचित नहीं समझा। क्योंकि अकसर मैंने प्राचीन होती मूर्तियों को म्यूजियम में ही पहुँचते देखा है ! ऐसे ही उस दिन पुरानी मूर्तियों को कला-नमूनक के तौर पर मैंने वहाँ संरक्षित देखा। लेकिन, इस प्रत्यक्षीकरण के साथ मैं मूर्ति-भंजक कला से भी परिचित हुआ तथा वहाँ संरक्षित सभी मूर्तियों को खंडित अवस्था में देखा। जैसे, किसी की नाक टूटी, तो किसी का सिर विहीन धड़, तो किसी की टांग टूटी मिली..! मूर्तियों के इस खंडन-कला को नायाब-नमूना मानने वाला ही था कि गाइडनुमा उस व्यक्ति के यह बताने पर कि सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले मूर्ति-विरोधी शासकों की मूर्ति-भंजक कला का ये नमूना भर हैं! मैं उस मूर्ति-भंजन कला पर सिहर उठा। फिर विस्मित होते हुए सोचा, "म्यूजियम में संरक्षित इन खंडित मूर्तियों को देखकर जन्नत से अपनी इस कला पर वे आज अवश्य ही गर्वित होंगे !" क्योंकि, यहाँ आकर अब ये कलात्मक प्रदर्शन की चीज बन चुकी हैं।
हलांकि, इन सब के बीच एक क्षण तो मूर्ति-भंजकों के प्रति कोफ्त हुई, लेकिन अगले ही पल भंजन-कला में क्रूरता देखने से मन ने इनकार कर दिया। बल्कि, मुझे ऐसे लोग लोकतंत्र के प्रेेेेमी के साथ ही लोकतंत्र के सेनानी टाइप के लगे ! और फिर म्यूजियम के उस परिसर में तलवार हाथ में लिए अकड़ से मूर्तिवत खड़ा वह राजा भी अपने समय का, भावी भारत के लोकतंत्र और यहाँ के सर्वहारा-वर्ग का प्रणेता जान पड़ा। वाकई ये राजा लोग, जिनके होते हुए यह खंडन-कला विकसित हुई होगी, बड़े जीवट वाले दूरदर्शी तथा बहादुर रहे होंगे। निश्चित ही, हजार या सैकड़ा साल पहले इनके ऐसे ही ठाट-बाट के सामने मूर्ति-भंजन किया गया होगा..!! इसी के साथ मूर्ति-भंजकों और इस अकड़ूँ राजा के प्रति मन श्रद्धावनत होकर सोचने लगा, "अहो..! यदि ये उस समय न होते, तो हम आज एक महान लोकतांत्रिक देश बनने की ओर अग्रसर ही न हुए होते..बताइए..! न जाने ऐसी कितनी मूर्तियों के बनने और टूटने के बाद यह देश आज के जैसा बना होगा..!!" इस प्रकार अपने देश का लोकतंत्र, मूर्ति-गढ़क मजदूर से लेकर मूर्ति-पूजक से होते हुए मूर्ति-भंजक तक की एक महान-यात्रा है, जिसके हर एक पड़ाव पर एक महान देश-प्रेमी मिलेगा।
वैसे भी, इस देश में मूर्ति-विसर्जन का कल्चर भी है, पूजा हुई नहीं कि मूर्ति विसर्जित..!! वाकई, इस कल्चर में बाजे-गाजे के साथ भीड़ के सामने बकायदा उत्सव-भाव से विसर्जन कार्य संम्पन्न किया जाता है और विसर्जित मूर्ति अपने एकाकी पन के साथ क्षरित होते हुए घुलती रहती हैं। मतलब आगे फिर मूर्तियों के गढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, इससे मजदूरों को काम मिलना एवं व्यापारियों का बिजनेस बढ़ना हो जाता है। इधर लोकतंत्र के नुमाइंदों के बीच, मजदूरों का भल्लोभाई बनने के चक्कर में उनकी गढ़ी मूर्तियों पर फूलमाला चढ़ाने की प्रतिस्पर्धा भी विकसित हो जाती है। जिससे फूलों की खेती को बढ़ावा मिलने के साथ किसानों की पौ-बारह होती है। शायद यही कारण है कि इस देश का सर्वहारा वर्ग गद्गगद होकर छेनी-हथौड़ा लिए झोला उठाए कहीं भी, किसी की भी मूर्ति गढ़ने के लिए तैयार बैठा रहता है। इस कल्चर में, हमारे देश के परम लोकतांत्रिक-देश बनने और आर्थिक आत्मनिर्भरता का भरपूर स्कोप छिपा है।
इन स्थितियों के बरक्स मूर्तियों का बनना या बिगड़ना, तोड़ना या तुड़वाना या इनका विसर्जन करना ही लोकतंत्र है, इसी कल्चर में पले-बढ़े हम लोकतांत्रिक देश बने। आखिर, जिन देशों में मूर्तियों का कल्चर नहीं होता वे निरे अलोकतांत्रिक टाइप के होते हैं और लोकतंत्र वहाँ पानी भरता होगा या फिर खूबसूरत म्यूजियम वाले विकसित टाइप के देश होंगे। अपना देश तो विकासशील लोकतांत्रिक देश है, तमाम उवाचनुमा हो-हल्ला यहाँ लोकतंत्र के पुष्ट होने का प्रमाण है। कुछ भी हो, अपने देश के लोकतंत्र का लबादा भी यहाँ की मूर्ति-कल्चर जैसा ही है।
इधर जिसे कोई भगवान मान ले उसकी परिक्रमा करना भी जरूरी होता है। अन्यथा उसे अपने भगवान की कृपादृष्टि हासिल नहीं होती। एक बात है, आराध्य की कृपादृष्टि पाने के लिए उनके परिक्रमा पथ पर अपने तर्क और बुद्धि को पीछे छोड़कर चलना होता है, शायद तभी अपने अच्छे दिनों की कामना करनी चाहिए। मैं भी अपने भगवान के परिक्रमा-पथ पर था, उस पथ पर सुध-बुध खोए श्रद्धालुओं के बीच भिक्षार्जन हेतु तरह-तरह के दिव्यांग टाइप के लोग कतार में बैठे मिले। जिनकी ओर मैंने एक फूटी कौड़ी भी नहीं फेंकी। इसी बीच एक पीत वस्त्रधारी मुस्टंडा मेरे लिए अच्छे दिनों के अपने आशीर्वचनों के साथ मेरे पीछे हो लिया। मैंने अपने अच्छे दिनों की कामना में दिव्यांगों का खयाल किए बिना उसे दस रूपए का एक नोट पकड़ा दिया और दक्षिणा पाते ही वह मुस्टंडा आशिर्वचनों के साथ वापस हो लिया। इधर मैं भी परिक्रमा पूरी कर चुका था। वाकई! जिस देश में मूर्तियाँ होती हैं, वहाँ ऐसे ही परिक्रमा-पथ होते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें