पेट्रोल पंप का कर्मचारी कार की टंकी में पाइप का नोजल डालकर इत्मीनान से नोट गिनने लगा और मैं पंप के डिजिटल मानीटर पर लीटर और रूपए पर निगाह जमाए सन् चौरासी-पिचासी में अपने विजय सुपर स्कूटर को याद कर रहा था। वो भी क्या दिन थे, सात रूपए में एक लीटर पेट्रोल! लेकिन तब शायद ही कभी उसकी टंकी फुल हुई हो। उन दिनों बिजली-उजली न होने पर (अकसर नहीं होती थी) पेट्रोल पंप वाला हैंडिल घुमाते हुए पेट्रोल भरता। कार की टंकी फुल हुई और चौबीस लीटर पेट्रोल के दो हजार रूपए चुका कर सड़क पर आ गया। आगे बढ़ने पर देखा तेल-ओल के दाम से निश्चिंत घिसई सड़क पर अपने अरयें पैदल चला जा रहा था। अबकी बार मैं आम आदमी को नजरअंदाज करने वाले नेता की तरह उसके बगल से निकल लिया।
इतने वर्षों में तेल के दाम खूब बढ़े, लेकिन दो की जगह चार पेट्रोल-पंप भी खुले। जहाँ पहले बिजली के लिए सेहक रहे थे, वहीं विद्युतीकरण हुआ। यही नहीं एक दौर में बढ़े तेल के दाम को मनरेगा ने जस्टीफाई किया और इसके साथ ही आयी आटोमोबाइल क्रांति ने किसी बड़ी नदी के झरने जैसा तेल का खपत बढ़ाया। मतलब मनरेगा से महँगाई की अर्थव्यवस्था बैलेंस हुई, वहीं दूसरी ओर जनता भी खुश हुई थी..! हाँ, जब-जब तेल के दाम बढ़ते हैं, मनरेगा जैसी क्रांति भी आती है, और फिर महँगाई छू-मंतर हो जाती है। फिर भी हम तेल के बढ़े दाम का रोना रोते हैं।
अचानक मैंने देखा, तेल के दाम को मुँह चिढ़ाते हुए किसी राजनीतिक पार्टी का झंडा लगाए तीन लक्जरी कारें मर्सिडीज, फार्च्यूनर और क्रेटा दना-दन मेरी कार को ओवरटेक कर गये। सिर खुजलाते हुए मैंने सोचा, जरूर ये तेल के बढ़े दाम के विरूद्ध किसी धरने में जा रहे होंगे या फिर इनकी यह भाग-दौड़ बढ़ी महंगाई को बैलेंस करने की कवायद होगी। खैर, आगे हमारी कार एक वृहत्तर जाम में फंस गई..आगे-पीछे कार ही कार। हाँ कुछ ही क्षणों में मैंने स्वयं को ठहरी हुई कारों के सैलाब के बीच में पाया..वाकई! लोगों का महँगाई के विरूद्ध वृहत्तर बैलेंसिंग पावर देख मैं हतप्रभ था..!!
एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, जो भी हो अपने देश में आम से लेकर खास तक, सब में अद्वितीय बैलेंसिंग पावर है! नागरिकों में विद्यमान इसी गुप्त पावर से पूरा देश गतिमान है, जिसमें ध्यान भंग करने की कला लुब्रीकेंट का काम करती है। इसीलिए प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन तक भारत-भूमि पर ध्यान भंग करने का कल्चर खूब फला फूला ! नमूने के तौर पर एक अखबार के मुखपृष्ठ पर छपे "तेल में जारी उबाल, रूपये में गिरावट" के ठीक बगल में इसका मुँहतोड़ उत्तर "बँगलादेशी घुसपैठियों को चुन-चुन कर निकालेंगे" भी छपा मिल जाता है। मतलब ध्यान भंग करने की कला के मार्फत राजनीति अर्थव्यवस्था को भी बैलेंस करती है। इसीलिए हम अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों टाइप के कथनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं। लेकिन जनता को जियादा राजनीति-फाजनीति या अर्थव्यवस्था-फर्थव्यवस्था से मतलब नहीं होता, वह भी महँगाई को अपने मुफ्तखोरी से बैलेंस कर ले जाती है। इसलिए सरकारें अपनी रियाया के लिए मुफ्तखोरी के एजेंडे लेकर आती है।
वैसे असलियत में यहाँ महँगाई कोई मुद्दा नहीं होता, बस हमाम में घुसने भर की देर होती है और फिर सारा कुछ बैलेंस हो जाता है। लेकिन हमाम में घुसे हुए को इससे बाहर वाला पसंद नहीं आता। वह सब को इसमें घुसाना चाहता है। एक बार एक छोटा मुलाजिम हमाम में घुसने से बचना चाह रहा था, इस बात से चिढ़े बड़े मुलाजिम ने बैलेंस करने की गरज से उसे खूब हड़काए और चार्जशीट कर देने की धमकी दे दिए। इस पर उस अधीनस्थ ने अपने उन बड़े साहब के महँगाई से लड़ने के लिए जुटाए संसाधनों पर कटाक्ष किया और कहा, "फिर तो साहब हमसे पहले स्वयं आपको चार्जशीटेड होना पडे़गा" इसपर उन बड़े मुलाजिम ने उसे "डिशबैलेंसिंग प्वाइंट" घोषित कर उस पर हाथ रखना बंद कर दिया। हाँ, कभी-कभी ऐसे ही "डिशबैलेंसिंग प्वाइंट" के कारण महँगाई से लड़ने का प्लान फेल्योर होता है और मजबूरन तेल के बढ़े दाम के विरूद्ध आन्दोलन छेड़ना पड़ता है।
खैर, लौटकर घर आने तक कार में भराया चौबीस लीटर पेट्रोल फुँक चुका था और मैं मन ही मन तेल के लिए खर्चे दो हजार रूपए के जुगाड़ हेतु अपने "बैलेंसिंग पावर" की ओर फोकस कर रहा था।
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