अपने-अपने आभामंडल के बडे़ उपयोग हैं। कुछ लोग तो अपने इस आभामंडल के प्रति इतने जागरूक होते हैं कि देवताओं से प्रेरणा लेते देखे जा सकते हैं। मतलब जितना बढ़िया जिसका आभामंडल, उतना ही बढ़िया उसकी पूजा और चढ़ावा। एक बात और, कुछ लोग अपना आभामंडल स्वयं गढ़ते हैं, तो कुछ दूसरों से गढ़वाते हैं! इसके लिए बकायदा अभियान भी चलाते हैं, मतलब इसपर बहुत बारीकी से काम होता है। इस मामले में एक छोटा सा उदाहरण फेसबुकियों का ले सकते हैं, लाईक-कमेंन्ट की चाहत में, इन्हें अपने-अपने आभामंडल को बहुत बारीकी से समृद्ध और चमकीला बनाने का प्रयास करते हुए देखा समझा जा सकता है।
आखिर, किसी को कुछ तो समझा जाए..! यही समझने-समझाने के लिए यहाँ शूरता-वीरता, आदरणीयता-फादरणीय, स्वघोषित दानवीरता या फिर स्वनामधन्य ख्यातिलब्धता जैसी हरकतों पर फोकस जाता है, हाँ कुछ इसी टाइप से गुणीजन सोशल मीडिया पर नमूदार होते हैं। और, इसके पहले कि कोई अन्य व्यक्ति इन गुणी प्रतिभाओं का सम्मान करे उसके पहले हमें ही यह काम कर देना चाहिए, नहीं तो इसमें चूक अपने स्वयं के लिए गढ़े जा रहे आभामंडल को क्षति पहुँचती है क्योंकि हम अपने और दूसरे का आभामंडल इसी तरह गढ़ सकते हैं। यह गढ़न-प्रक्रिया एकदम से नियत परिक्रमा-पथ पर नक्षत्रीय गति की तरह ही है! इस मामले में चाहे सोशल-मीडिया हो या फिर राह चलते, लोगों की दरियादिली देख मुझे अपनी बेदरियादिली खटकने लगती है और मुझे अपने ऊपर बहुत कोफ्त होती है !
अब यही बात ले लीजिए, आखिर गरीबी का भी तो अपना आभामंडल होता है, मैं किसी को भीख देने में बहुत आनाकानी करता हूँ, भीख देना मुझे लगभग नापसंद है। भीख न देना पड़े इसलिए जेब में सिक्के लेकर नहीं चलता और जेब में सिक्का न होने की बात से भीख न देने के पापबोध से स्वयं को बचा भी लेता हूँ। आखिर भीख में लोग सिक्के ही तो डालते हैं कटोरी में.!
एक सुदूर धार्मिक यात्रा-पथ पर जब छोटे बच्चे का हाथ पकड़े एक औरत ने अपनी गरीबी के आभामंडल से मुझे प्रभावित करने का प्रयास किया, तो मैंने उसे नजरअंदाज कर दिया था। अपने इस प्रभाव को असफल होते देख वह मुझसे बरबस बोली थी "अरे, कुछ पुन्य तो कमाई ल्यो.." इसपर मैंने जब उससे कहा "मुझे ऐसे पुन्य नहीं कमाना" तो चिढ़कर यह बोलते हुए, "तो यहाँ पाप कमाई आए हो" दूसरी ओर चली गई थी। इसलिए मैं कहता हूँ, यदि हम किसी के आभामंडल का सम्मान नहीं कर रहे तो हो सकता है पाप कमा रहे हों..! पाप-पुन्य, मतलब दंड-पुरस्कार के फेर में भी हम आभामंडलों के गिरफ्त में आ जाते हैं..!!
लेकिन इसमें भी बड़ी समस्या है, उस यात्रा-पथ पर ट्रेन में मैं अनमने ही सही, एक अंधे पर कुछ दयालु टाइप का हुआ तो एक सहयात्री ने मेरी इस दयालुता पर पानी फेरते हुए कहा, "अरे, ये सब बने होते हैं।" और उसने इस मामले में मुझसे अपनी सिद्धानुभूति के हवाले से कहा, "ऐसे ही मैंने एक विकलांग पर दया दिखाई थी, मैंने देखा ट्रेन रूकते ही वह उछलते हुए दूसरी ओर भागा था..वाह! पैर तोड़ने-मरोड़ने का उसे गजब का अभ्यास था।" उसकी इन बातों से मेरी उभर आई दयालुता के उत्साह पर पानी फिर चुका था। फिर भी मन ही मन मुस्कुराते हुए मैं यह सोच रहा था कि "यदि ऐसे भिखमंगों को ओलम्पिक में अवसर मिले तो जिम्नास्ट में एकाध पदक जीत ही लें! और पदकों का जखीरा अपने देश के कब्जे में हो...लेकिन जिम्नास्ट तलाशना सरकार का काम है और सरकार ऐसे काम ऐसे ही नहीं करती..तो इन बेचारों के लिए यह भिखमंगई ही बढ़िया है जिसमें बिना किसी हुचकीधमधम के काम बन जाता है..ऐसी प्रतिभा का इससे अच्छा उपयोग कहाँ होगा..।" खैर
हमारी ट्रेन पटरी पर दौड़ती जा रही थी। मैं देख रहा था..एक सहयात्री ने जब एक भिखमंगे को दुत्कारा तो एक अन्य अनुभवी यात्री ने कहा, "आप इसको दुत्कार रहे हो, लेकिन अभी वे ताली बजाते हुए आएंगे तो बड़े आराम से उन्हें दस का नोट पकड़ा दोगे" मैंने इस बात पर गौर जरूर किया लेकिन ट्रेन की खिड़कियों से, पीछे भागते जमीन, पेड़ आदि को देख यह सोच रहा था कि गति अवस्था में चीजें कैसे पीछे छूटती जाती हैं और ट्रेन की गति के साथ मैं भी इन बातों को पीछे छोड़ता रहा।
थोड़ी देर बाद सही में, मुझे ताली की आवाज सुनाई पड़ी, जो रह-रहकर तेज होती जा रही थी। "आइ दैया..दे दो.." मैंने उस आवाज के श्रोत की ओर ध्यान दिया तो एक शख्स उस तालीबाज को नोट पकड़ाते हुए दिखाई पड़ा! मैं देखा रहा था, जिसकी ओर भी वह हाथ बढ़ाता वही दस का नोट उसे पकड़ा देता..और अगर कोई अानाकानी करता तो उसकी अश्लीलता भरी छेड़खानी शुरू हो जाती ! उसे अपने ओर आते देख मैं साहस बटोर यह निश्चय करने में जुट गया कि "इन्हें एक पैसा भी नहीं देना...जब उन बेचारे टाइप के भिखमंगों को नहीं दिया तो इन्हें देना एकदम ऊसूलों के खिलाफ और कायराना बात होगी..इन्हें दस रूपए देने से बेहतर भिखमंगों को ही दे देना उचित होता..!" और तालीबाजो की इस हरकत को एक तरह से उनकी गुंडागीरी मान रेल-यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था को कोसने लगा था। खैर, इधर मेरे पास बैठे तीन-चार कश्मीरी यात्रियों की ओर ये हाथ बढ़ा-बढ़ाकर दस का नोट देते रहे। लेकिन मैंने गौर किया, पता नहीं क्यों मेरी ओर एक बार भी इनका हाथ नहीं बढ़ा और आसन्न धर्मसंकट से बच गया। जबकि मेरे बगल में बैठे भिखमंगे को दुत्कारने वाले सहयात्री से ये दस का नोट लेकर ही छोड़े। वाकई, कभी-कभी ओढ़ी हुई धीरता और गंभीरता वाला आभामंडल किसी के गुंडागीरी वाले आभामंडल से आपको बचा भी सकती है, यहाँ मुझे आभामंडलों का उपयोग भी समझ में आया।
एक बात है इस यात्रा से मिली सीख के अनुसार, मुझे तो आभामंडल गढ़ना-गढ़वाना एक प्रकार की भिखमंगई प्रतीत हुई, जो ताली बजाने और बजवाने वाली अपने-अपने टाइप की हिजड़ागीरी ही है..! वैसे ये आभामंडल बड़े कमाल के और रहस्यात्मक होते हैं..!!
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