सड़क मार्ग से गुजरते हुए दूरी बताने वाले
पत्थर पर मेरी निगाह जा पड़ी उस मील के पत्थर पर लिखा था "गदहा" मतलब
गदहा इतने किमी। वाकई इसे "मौदहा" लिखा होना चाहिए। लेकिन किसी शरारती
ने मजा लेने के लिए इसमें "ौ" को मिटाकर तथा "म" को संशोधित
कर "ग" बनाकर इसे "गदहा" कर दिया था। निश्चित रूप से उसे इस
काम में मजा आया होगा।
इसके बाद आगे चलते हुए मैंने देखा हाईवे के किनारे के एक स्कूल का संकेतक
चुनावी पोस्टर से ढका दिखाई दिया। थोड़ा और आगे उस जेब्रा क्रासिंग के संकेतक पर
भी एक चुनावी पोस्टर चस्पा कर उसे भी ढक दिया गया था जिस पर सड़क पार करते एक
नन्हें बच्चे का चिह्न बच्चों की सड़क पार करने की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए
ही लगाया गया होता है। इसके आगे के कस्बे का तो मैं नाम ही नहीं जान पाया क्योंकि
उस कस्बे के नाम के बड़े संकेतक बोर्ड पर किसी हाथ जोड़े नेता का चित्र चिपकाया
गया था। इसी तरह किसी -किसी मोड़ के संकेतकों पर भी ऐसे पोस्टर चिपके हुए दिखाई
दिए जिनके कारण सड़क किधर मुड़ रही है यह पता ही नहीं चल पाता था। रात में ड्राइवर
बेचारों का क्या हाल होता होगा?
एक बार तो मन हुआ कि इन सब की तस्वीरें लेते चलें लेकिन यह सोचते हुए कि
कोई पत्रकार तो हूँ नहीं और नहीं लिया।
निश्चित रूप से ये वे शरारतें हैं जो कानून का उल्लंघन तो करते ही हैं
लेकिन इससे नागरिकों का जीवन भी खतरे में पड़ सकता है। अब ऐसी शरारतें जिससे कानून
का उल्लंघन होता हो लोग कैसे कर जाते हैं? वास्तव में यही ऐसे छोटे-छोटे कारण हैं जो
हमारे समाज के जाहिलपने के साथ हमारी कानूनी व्यवस्थाओं की भी पोल खोलते हैं और
लोग शरारतें करने के लिए प्रोत्साहित होते रहते हैं।
हमें उस संकेतक पर चुनावी प्रचार में हाथ जोड़े नेता का का पोस्टर देखकर
टी.एन. शेषन की याद हो आई। मतलब यदि कानून का चाबुक चलने लगे तो कैसे बड़े-बड़े
चुनावी प्रचार का जलसा भी एक सन्नाटे में बदल जाता था। शरारतों पर कोई कानून कैसे
प्रभावी होता है यह शेषन से सीखा जा सकता है। लेकिन आज हम करते क्या हैं? केवल चिढ़ने-चिढ़ाने
के खेल में मस्त हैं।
आज हमारे समाज में ऐसी ही शरारतें हो रही हैं और हम शरारतों पर चटखारे लेते
हैं! "मौदहा" का "गदहा" बन जाने का मजा लेते हैं। हम बोलते भी
हैं तो एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए और केवल अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ाने के लिए! और
जब किसी शेषन के चुनने की नौबत आती है तो हम उसे हरा देते हैं।
हमारी सोशल मीडिया के लोग इस चिढ़ने-चिढ़ाने के खेल में सबसे आगे है। ऐसे
खेल स्वयं में शरारती होते हैं शायद इसी खेल में लिप्त रहने के कारण हम कानून कैसे
काम करे इस बात को नेपथ्य में फेंककर एक और नेता का हाथ जोड़ा हुआ चुनावी पोस्टर
किसी कानून के संकेतक पर फिर से चस्पा कर देने का अवसर प्रदान कर देते हैं।
यहाँ बस इतना ही कहना है कि किसी की शरारतों पर चिढ़ने-चिढ़ाने वाले लोगों
तुम भी इतिहास के किसी कूड़ेदान में फेंक दिए जाओगे। टीआरपी के खेल में मत उलझो।
"कानून अपना काम करेगा" यह जुमला जिस दिन चल गया उस दिन न शरारतें होगी
और न शरारती। समझे!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें