कुछ लोग कहते हैं कि अमेरिका और यूरोप के संस्थानों में ऐसे बौद्धिक क्रियाकलाप होते रहते हैं जो वहाँ की लोकतांत्रिक परिपक्वता को प्रदर्शित करते हैं। भाई मेरे, ऐसा कह शायद आप भी ऐसी ही अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं।
तब तो आपको इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि अति बौद्धिक बनकर आप तो पूर्ण स्थिति-प्रग्यता को प्राप्त कर चुके हैं ; जहाँ आप अपनी बर्बादी से भी अप्रभावित रहते हैं। लेकिन आजादी के पैंसठ सालों के बाद भी आम नागरिकों को आपने इस योग्य बनाया ही नहीं कि इनका भी आप जैसा ही बौद्धिक स्तर होता! और ये भी आपके विमर्श को समझते।
लेकिन, वे बेचारे तो आपके बहकाव में मात्र वोट-बैंक बन कर ही रह जाते हैं और आपके किसी विमर्श का हिस्सा तो वे बन ही नहीं पाते! ऐसे में राजनीतिक रोटी की छीना-झपटी तथा कोई देशद्रोही तो कोई देशभक्त सिद्ध होता ही रहेगा। और! आप इस या उस ओर के बौद्धिक जमात के लोग! खिसियानी बिल्ली जैसा खम्भा ही नोचते रहेंगे।
यह देश बेचारा! अपने शेष अबौद्धिक जमात के साथ आपके ऐसे ही पापों को ढोने के लिए अभिशप्त तो है ही।
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