मैंने दो वर्ष पूर्व के अपने तीन अक्टूबर के एक पोस्ट को आप सब से आज शेयर किया है। उक्त पोस्ट में, बचपन में "अहिंसा परमोधर्मः" और "कांटा बोने वालों के लिए फूल बोने" जैसी देखी-सुनी बातों से बाल-मन में बनते संस्कारों की संक्षिप्त सी चर्चा थी। वास्तव में जब इस पोस्ट को लिखा था, तब भारत-पाक के बीच आज के जैसा युद्ध का वातावरण नहीं था।
लेकिन, आज इस "अहिंसावादी" पोस्ट की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है, और रणभेरी की आवाज सुनने-सुनाने वालों के बीच यह आवाज, मेमने की आवाज मानी जाएगी। तो क्या अहिंसा की आवाज को हम मेमने की आवाज कह देंगे? इसे समझना होगा।
अहिंसा, क्रोध और भय पर विजय प्राप्त कर लेने की अवस्था है और एक संतुलित दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त करती है। वास्तव में अहिंसा से विवेक, बुद्धि और संवेदना जैसे गुणों का विकास होता है, जिससे श्रेष्ठ जीवनमूल्य निर्मित होते हैं। अहिंसक होना पागलपन न होने की गारंटी है। यही अहिंसक वृत्ति किसी युद्ध में विजय का कारण बनती है। एक अहिंसक कभी नहीं कहता, "मैं हिंसक नहीं हूँ।"
भाई लोग! सच में, हमारा देश अब अहिंसक नहीं रह गया है, क्योंकि हमारे श्रेष्ठ गुण धीरे-धीरे लुप्त होते गए हैं, श्रेष्ठ गुणों के इस क्षरण के कारण हमारे आत्मविश्वास को बहुत क्षति पहुँची है। अगर कोई अहिंसा की बात करता है तो, इसका मतलब कायर होने की बात नहीं करता, वह व्यक्तित्व में गरिमा और दृढ़ता की बात करता है। हम परसाई जी के शब्दों में हम कह सकते हैं -
"राष्ट्रीय नेतृत्व में व्यक्तित्व की गरिमा और दृढ़ता बहुत अर्थ रखती है।"
हाँ, यह गुण केवल अहिंसा से ही उपजती है। युद्ध तो केवल एक तात्कालिक उपाय भर होता है, दीर्घकालिक उपायों पर हमें काम करना चाहिए, जिसमें हमारे श्रेष्ठ संस्कार ही काम आते हैं। सही मायने में अमेरिका एक अहिंसक देश है, और वह अहिंसक देश इसलिए है कि उसे अपने नागरिकों की बेहद चिन्ता रहती है। इस चिन्ता से पार पाने में, उस देश के तमाम सांस्थानिक उपाय और नागरिकों के स्वयं के कर्तव्य निर्वहन का ही योगदान है। उस देश में बेमतलब का उन्माद नहीं फैलता, वहाँ काम होता है।
और यहाँ हम, साल भर बेकाम बैठे रहते हैं, लेकिन कभी-कभार किसी उन्माद के साथ कूद-फाँद कर अपने देश-सेवा जैसे कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। आखिर, हमें अपने नागरिकों की कितनी चिन्ता है? चीजों को हमें संभालना आना चाहिए चाहे वह युद्ध हो या कुछ और..! सैनिकों की विधवाओं का रुदन हृदय-विदारक होता है। वैसे, गीता पढ़ने वाले जानते हैं कि, युद्ध अवश्यंभावी हो जाने पर टलता भी नहीं। लेकिन व्यर्थ की दुदूंभि या कहें, गाल बजाने से बचना भी चाहिए। सैनिक किसी टीवी के सामने नहीं, युद्ध के मैदान में होते हैं।
हाँ, अगर ये बड़े-बड़े माफिया, उद्दंड नेता, जनता-गरीबों की योजनाओं के पैसों पर गुलछर्रे उडा़ने वाले लोग और अपने अधिकारों के ठसक भरे ऐंठन में जीने वाले जैसे लोग युद्ध लड़ने मैदान में जा रहे हों तो, अभी इसी वक्त भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध लड़ लेना चाहिए।
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