भ्रष्टाचार में योगदान देने वाली किसी प्रचलित व्यवस्था को बढ़ावा देने वाले जैसे तत्वों पर प्रहार करना बहुत आसान नहीं होता। इस व्यवस्था से सीधी लड़ाई, लड़ाई से बाहर होने का खतरा उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह कि लड़ाई लड़ने वाला लड़ने की योग्यता खो देता है। भ्रष्टतत्व उसे व्यवस्था से ही बाहर कर देते हैं, विशेषतया सरकारी व्यवस्थाएँ ऐसे ही काम करती हैं। यहाँ तमाम ईमानदार अधिकारी इन्हीं कारणों से महत्वहीन पदों पर तैनात कर दिए जाते हैं और सिस्टम उनके अच्छे योगदान से वंचित रहता है।
महाभारत का वह दृश्य बार-बार याद आता है जब युधिष्ठिर ने "अश्वत्थामा मरो" बोलते हुए "नरो वा कुंजरो" को धीमे स्वर में कहा था। और फिर निशस्त्र हुए द्रोणाचार्य को पांडवों ने मार डाला था। कहने के लिए एक अर्धसत्य यदि किसी अन्याय पर विजय दिला सकती है तो उसे नैतिक रूप से अनुचित नहीं माना जा सकता है। तमाम ईश्वरवादी दार्शनिक अवधारणाओं में यह मान्यता निहित मानी जाती है कि ईश्वर सब कुछ अच्छा चाहता है लेकिन सृष्टि के संचालन में बुराईयों की भी अनुमति देता है। इन बातों को कहने का आशय यही है कि किसी भी व्यवस्था को सुधार लाने के लिए हमें उस व्यवस्था का अंग बनना पड़ेगा और इस व्यवस्था में बने रहने के लिए इसकी कुछ गलत बातों को भी स्वीकार करके चलना पड़ेगा अन्यथा यह व्यवस्था सुधारक को अस्वीकार कर सकती है। यहाँ, यह भी कह सकते हैं कि हम चाहकर भी अच्छाई की फुलप्रूफ व्यवस्था नहीं दे सकते।
हमारे देश की तमाम जनोपयोगी संस्थाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी हैं, परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में कालेधन की जबर्दस्त समस्या उठ खड़ी हुई है। भ्रष्टाचार से कई तरह की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विषमताओं की बाढ़ आ गई है। ये विषमताएं भारत नामक देश को अन्दर ही अन्दर खोखला करती जा रही है। इन समस्याओं से लड़ना बहुत आसान भी नहीं है क्योंकि सुधार के किसी भी प्रयास की जबर्दस्त आलोचना प्रारंभ हो जाती है।
अब हजार और पाँच सौ के नोटों पर सरकार के निर्णय की आलोचना शुरू हो गई है। कुछ लोग, इन नोटों के कारण खड़े हुए काले साम्राज्य की अनदेखी करते हुए सरकार के इस सुधार की आलोचना कर रहे हैं जैसे, सरकार ने आम आदमी का ध्यान रखे बगैर ही अचानक इस योजना को लागू कर दिया या कुछ लोग इसे ध्यान भटकाने की साजिश भी करार दे रहे हैं। हालाँकि स्वयं आलोचकों के पास इस समस्या के समाधान के लिए दृष्टिकोण का आभाव है। यहाँ यह देखा जा सकता है सरकार की कोई भी योजना हो वह शतप्रतिशत सफल नहीं हो पाती। लेकिन इस वजह से योजना बंद नहीं की जाती बल्कि योजना में सुधार या बदलाव एक सतत प्रक्रिया की तरह स्वीकार की जाती है। ठीक उसी तरह भ्रष्टाचार और कालेधन पर प्रहार करती हुई हजार या पाँच सौ के नोटों को वापस लेने की योजना है, जो इस मायने में अन्य बातों से अलग है कि इसकी एक छोटी सी सफलता भी इसे शतप्रतिशत सफलता की श्रेणी में खड़ा करेगी। कारण, इससे भ्रष्टाचार और कालेधन के विरुद्ध एक जबर्दस्त संन्देश गया है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में एक तरह के संस्कार बनने का आगाज हुआ है। एक यथास्थितिवाद की मानसिकता में जीते रहने वाले देश के लिए यह मामूली बात नहीं है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में इसे एक ठोस कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन राजनीतिक कारणोंवश हम ऐसा नहीं कर पाते और जनता को ऐसे सुधारों के विरुद्ध तथाकथित राजनीतिक लाभ के लिए बरगलाते रहते हैं।
हम किसी भी व्यक्ति से शतप्रतिशत की आशा क्यों करते हैं? न तो कोई योजना अपने में सम्पूर्ण हो सकती है और न ही व्यक्ति। इसी तरह नोट वापस लेने की योजना में भी हो सकता है। इस निर्णय में कुछ कमियाँ रहीं हो या इससे बेहतर प्लानिंग भी हो सकती हो, लेकिन फिलहाल इससे बेहतर प्रयास और कुछ हो भी नहीं सकता था।
इस भ्रष्ट सिस्टम का बहुत बड़ा काकस है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, परिवारवाद, धर्मोन्माद, आतंकवाद, माफियावाद आदि इस काकस के बेहतरीन हथियार हैं, तथा इस सब के पीछे यही कालाधन और भ्रष्टाचार है। इनसे पार पाना आसान नहीं। यही नहीं किसी भी व्यक्ति या समूह में इस काकस और इनके इस हथियार से लड़ने की हिम्मत नहीं है। तमाम तरह की बुद्धिविलास में उलझे रहने वाले लोग प्रकारांतर से इस काकस की मदद करते हुए ही दिखाई देते हैं और अगर ये बोलते भी हैं तो बस कायरों जैसी व्यंग्यभाषा में ही जो किसी काम की नहीं होती। सरकार की यह वित्तीय नीति, आलोचकों की नजर में, हो सकता है एक छोटा कदम ही हो, लेकिन यह कदम किसी क्रान्ति के बीज के सूत्रपात का कारण भी बन सकती है। देश का आम आदमी इस बात से परेशान नहीं है। वास्तव में परेशानी की बात करने वाले भगोड़े और सुविधाभोगी टाइप के लोग हैं जो केवल बुद्धिविलास में ही उलझे रहते हैं। वाकई, इस देश में किसी बड़े सुधार के लिए इमरजेंसी जैसे हालात ही लाने होंगे। जय हिंद।
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