"अति सर्वत्र वर्जयते" कभी-कभी जब यह वाक्य सामने आता है तो दिग्भ्रमित हो जाता हूँ, इस वाक्य से मेरी सोच, मेरी क्रियात्मकता जैसे पंगु बनने लगती है...हाँ यह एक नीति वाक्य है..शायद हमारे मनीषियों ने अपने अनुभव के बल पर इस नीति-वाक्य की स्थापना किए हों..लेकिन मस्तिष्क में बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि आखिर उन मनीषियों ने किस तरह के "अतियों" का सामना कर इस नीति-वाक्य का खोज किए होंगे...? सच में! यहीं पर हम दिग्भ्रमित हो जाते हैं...और उन "अतियों" की पहचान करने में जुट जाते हैं, जहाँ हम भी इस नीति-वाक्य का अनुसरण करना शुरू कर दें...
मुझे लगता है हमारे देश की संस्कृति "अतियों" से बचने की रही है..अकसर हम मध्यम-मार्ग की खोज करते हुए दिखाई देते हैं..विद्वानों ने भी तमाम धार्मिक ग्रंथों में निहित उपदेशों को मध्यम-मार्ग बताया है...खैर मैं, धार्मिक व्याख्या पर नहीं जा रहा...लेकिन...! ऐसे नीति-वाक्यों से कभी-कभी किसी पथ पर चलते-चलते कदम ठिठकते दिखाई पड़ते हैं...कदम तो आगे पड़ना चाहता है लेकिन इस नीति-वाक्य की शिक्षा के वशीभूत यह कदम जहाँ का तहाँ रुक जाता है और इस नीति-वाक्य से निकलती "वर्जना" मन पर प्रभावी होने लगती है...
मैंने अकसर देखा है..और देखता रहा हूँ....जीवन के कुछ पथ अतियों की माँग करते हैं, अन्यथा वलिदान की अवधारणा न मिली होती...बहुत सारे पथ अतियों से चलकर ही अपने लक्ष्य की ओर ले जाते हैं...लेकिन यदि ऐसे पथिक के समक्ष "अति सर्वत्र वर्जयते" आ जाए तो फिर उस पथ और पथिक का क्या होगा..?
मुझे एक घटना याद आती है..कई वर्ष हो चुके हैं इस बात के..! एक बार एक बेहद सफल माफिया टाइप के व्यक्ति से हमारी बात हो रही थी..उसने बड़े गर्व से हम लोगों से बताया था कि TOI का एक पत्रकार रह-रहकर उसके विरुद्ध खबरें छाप रहा था...उस माफिया ने उस पत्रकार को इसके लिए चेतावनी भी दी थी कि ऐसी खबरें वह न छापे...लेकिन पत्रकार माना नहीं... अचानक उस पत्रकार का स्कूटर से जाते हुए एक्सीडेंट हो गया और टाँग में फ्रैक्चर लेकर हास्पिटल में भर्ती होना पड़ा था...आगे उस माफिया टाइप के व्यक्ति ने बताया था कि, वह उस घायल पत्रकार से मिलने हास्पिटल गया और उसे गुलदस्ता भेंट करते हुए कहा था.."शुक्र मनाइए टाँग ही टूटी वरना जान भी जा सकती थी.."
वाकई! उस माफिया द्वारा पत्रकार को दी गई यह धमकी थी..लेकिन शायद वह पत्रकार भी अपने धुन का पक्का था...! तभी उस माफिया के विरोध में खबरें देने से बाज नहीं आया था। ऐसे ही अपने धुन के पक्के लोगों की घटनाएँ हम अकसर सुनते रहते हैं..उनके साथ क्या होता है, ऐसे धुन के पक्के लोग इस बात की परवाह नहीं करते.. वे हर उस "अति" से गुजर जाना चाहते हैं...जहाँ उनकी धुन उन्हें ले जाना चाहती है..ऐसे लोगों के लिए "अति सर्वत्र वर्जयेत" बेमानी कथन है...
लेकिन सामान्यतः .हम भारतीय अपने धुन के पक्के नहीं होते...हमें "अति सर्वत्र वर्जयते" सिखाया जाता है। हमारे लिए हमारी कोई अपनी "धुन" नहीं होती। सामाजिक, आर्थिक और नैतिकता जैसे पहलुओं पर अतियों से बचने की सलाह देकर हमने किसी तरह निकल लेने का मार्ग बना लिया हैं, और यही नहीं, अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलने के लिए हम ऐसे ही कथनों को नैतिक ढाल बना लेते हैं...
भारतीय जन जीवन में व्याप्त तमाम सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों के पीछे हमारी यही मध्यममार्गी सोच रही है..अकसर किसी बडे़ परिवर्तन के लिए उठाए गए कदम को "अति सर्वत्र वर्जयते" कह कर डरा दिया जाता है..! परिणाम हमारे देश मेंं जातीय भेदभाव के साथ आर्थिक विषमता आज भी कलंक-कथा बनी हुई है। किसी अच्छी सोच के प्रति हमारी दृढ़ता, इस एक वाक्य से डर जाती है। इस डर के कारण किसी बदलाव के मुखापेक्षी बने हम जहाँ के तहाँ खड़े रह जाते हैं...
सच तो यह है...इस एक वाक्य से हमें, अपने कामों के परिणामों से डराया जाता है। गीताकार को शायद इसी बात का इल्म रहा होगा कि हम परिणामों से डरने वाले लोग हैं तभी तो "कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:" कह परिणामों की चिन्ता न करने की बात कही थी..लेकिन इसी कर्म को ज्ञान और भक्ति से संतुलित करने की सीख दे गीताकार ने एक तरह से हमें मध्यममार्गी भी बना दिया। फिर तो हमने इससे "अति सर्वत्र वर्जयते" निकाल कर व्यावहारिक जीवन को एक फलसफा भी दे दिया। इस फलसफे ने देश को बहुत क्षति पहुँचाई है..!
लेकिन बदलाव! अपने धुन के पक्के लोग ही ले आते हैं, जिन्हें परिणामों की चिन्ता नहीं होती..भारतीयों में इसी "धुन" की कमी है..! हम जीना तो चाहते हैं..लेकिन बिना किसी "धुन" के बस जिए चले जाते हैं...एक गुणात्मक-हीन जीवन..! शायद इसी को हम जीना कहते हैं...!! लेकिन यह भी कोई जीना है लल्लू....!!!
- Vinay
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