रविवार, 29 जनवरी 2017

बजट देश का बनाम घर का

           पहली बात तो यही कि बजट, बजट ही होता है और बजट ही बनकर रह जाता है। वैसे, बजट बनाना टेढ़ी खीर है, देश के बजट पर तो हम दुनियाँ भर की लंतरानी छाँटते हैं, लेकिन वही जब अपने ही घर के बजट की बात आती है तो बडे़-बड़े बजट-विशेषज्ञ धनुहा-बान धर देते है और सारा ठीकरा देश के बजट के ऊपर फोड़कर घर वालों को फुसला देते हैं। यह सोच के हैरत होती है कि देश का बजट प्रस्तुत करने वाले कैसे गाजे-बाजे मतलब शेरो-शायरी के साथ प्रस्तुत करते होंगे! यही नहीं बकायदा बजट को चमचमाते बढ़िया बैग में भरकर सदन के पटल पर लाकर पटक देते हैं। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि, देश का बजट प्रस्तुत होने के बाद, बजट प्रस्तुतकर्ता लोग इस बजट से हाथ झाड़-झूड़कर आराम से दर्शकदीर्घा में खड़े टाइप का हो जाते हैं, और फिर इस बजट को लेकर मचती रहे चिल्ल-पों। इसके बाद बजट को लोक कल्याणकारी का तमगा पहनाना ही होता है। 
          बजट बनाना बडे़ जीवट का काम होता है, क्योंकि बजट का बनना और बजट का गड़बड़ाना, दोनों साथ-साथ चलता है। मतलब बजट बना है तो इसे गड़बड़ाना ही है। यह बजट, चाहे देश का हो या घर का, इसका गड़बड़ होना इसे बनाने की पूर्वमान्यता है। इतना जरूर है कि देश का बजट तो साल में एक बार ही गड़बड़ाता है लेकिन नौकरी-पेशा वाले घरों का बजट प्रत्येक महीने के अंतिम तारीख तक गड़बड़ हो ही जाता है। मतलब घर वाले बेचारे बारहों महीने गड़बड़ बजट का सामना करते रहते हैं।
            यहाँ, मेरा अपना मानना है कि बजट का लोकलुभावन होना ही बजट में गड़बड़ी का कारण बनता है। देश और घर चलाने के लिए दोनों जगहों पर बजट का लोकलुभावन होना लाजमी होता है, नहीं तो मुखिया को समर्थन की प्राब्लम होती है।  लोकलुभावन बजट के दम पर ही मालिक लोग देश या घर में बैठे हुए चैन से शेरो-शायरी कर पाते हैं। लेकिन इस लोकलुभावने बजट से देश और घर में, कहीं खुशी तो कहीं नाराजगी भी पनपती है। लोकलुभावना बजट कुछ-कुछ समाजवादी टाइप का होता है और समाजवाद का हाल सर्वविदित है। घर के छोटे बच्चे घरेलू समाजवाद का मजा उठाकर गुलछर्रे उड़ाने लगते हैं और देश की भाँति घर को भी अनुत्पादक टाइप के वित्तीय दुर्विनियोजन का सामना करना पड़ता है तथा घर के बडे़ बेचारे टापते रहते हैं। ऐसी ही बजटीय व्यवस्था के कारण देश या घर दोनों जगहों पर असंतोष पनपता है और घर के मुखिया को गड़बड़ बजट देने का ताना भी सहना पड़ता है। अब घर को समझाना पड़ सकता है, "भई, जैसा देश वैसा वेश, गरीब देश के घरों का बजट ऐसा ही होता है। जब देश का ही बजट गड़बड़ रहता है तो घर के बजट का गड़बड़ होना लाजमी ही है..खर्चों में कुछ कटौती कर लिया करो।" या फिर यह भी कहा जा सकता है कि, "भई, गरीब देश के घरों का बजट ऐसेइ होता है..अगर हमारा देश गरीब न होता तो हमें भी घर के लिए बजट बनाने की बहुत जरूरत नहीं थी।" 
            यह सही है, घर के बजट को लेकर बहुत दिक्कत होती है, घर वालों को समझाने के सारे तर्क भोथरे साबित हो जाते हैं और घर का मालिक वित्तीय -प्रबंधन में बेवकूफ घोषित कर दिया जाता है। अब घर में कौन समझाए कि "भई वित्त हो तब न, उसे प्रबंधित किया जाए!" 

            वाकई, देश के नेता लोग देश के बजट की कलम से आम आदमी के घरों के बजट की दैनंदिन डायरी पर व्यंग्य लिखते हैं। इस बजट पर चिंतन न तो कोई उच्च आर्थिक वर्ग का करता है और न ही बेचारा टाइप का निम्नवर्ग ही करता है और इन दोनों वर्गों के लिए बजट की चर्चा कोई मायने नहीं रखती। ये उच्च और निम्न आर्थिक वर्गीय लोग बजट को लेकर वाकई बड़े दिलवाले होते हैं। इन दोनों की भाव-भंगिमा बजट बनने के पहले और बजट के क्रियान्वयन के बाद भी एक जैसी ही रहती है। बजट पर चर्चा करने का फैशन केवल मध्यमवर्गीय घरों में ही होता है।
             इतना जरूर होता है कि मध्यमवर्गीय परिवार अपने पड़ोसी घर के बजट की सफलता पर विशेष रूप से निगाह गड़ाए रहते हैं। अकसर घर के मालिकों को पड़ोसी-घर के बजट की सफलता की उलाहना भी सुननी पड़ती होगी "उनके यहाँ से कोई फेरीवाला भी मुँह लटकाए वापस नहीं लौटता।" इस उलाहना को सुनकर किसी-किसी घर के मुखिया को खीझ होती होगी । ऐसे ही एक दिन एक घर के मुखिया को खीझ में अपनी भड़ास निकालते हुए मैंने भी सुना था, "देखो, ऐसे लोगों को बजट बनाने की जरूरत नहीं होती ये लोग देश के बजट में से ही अपने लिए मलाई निकाल लेते हैं और ये इसी मलाई को चाट-चाट कर आलरेडी मोटे होते रहते हैं तथा ऐसे लोग घर के बजट की समस्या से नहीं मोटापे की समस्या से ग्रस्त होते हैं!" खैर...जो भी हो, उस बेचारे मुखिया को उनके घरवालों ने अर्थशास्त्र के बजाय आज के समाजशास्त्र से मलाई खाने की सीख लेने की बात कही थी । 
           एक बात और है घर के बजट पर देश के बजट के साथ-साथ पड़ोसी के घर के बजट का भी बहुत प्रभाव पड़ सकता है। यह घरेलू बजट का ग्लोबलाइजेशन है। अब घर का बजट भी घाटे के बजट की राह पर चल पड़ता है और देश के बजट जैसा ही घर के बजट के लिए भी तमाम तरह के "अर्थोपाय" का सहारा लेना पड़ता है। घर का मुखिया बेचारा अपने "राजस्व घाटे" जैसी अक्षमता को पाटने के लिए "राजकोषीय घाटे" का दंश झेलता रहता है। 
           अन्त में बजट के दंश से बचना है तो घर के बजट को भी देश के बजट जैसा ही होना चाहिए और बजट कागजी रहे तो ज्यादा बेहतर होता है। मतलब, बजट को डपोरशंखी होना चाहिए, हमारे देश का बजट भी ऐसा ही होता है। 
                   #व्यंग्यकीजुगलबंदी

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