रविवार, 29 जनवरी 2017

बाजारवाद के "इंन्फिल्ट्रेटर"

              हम लोग बाजारवादी दुनियाँ में रहते हैं। बाजार बनाना जानते हैं, और बाजार में माल बिकवाना भी। हम बाजार के लिए चालाकी के साथ मांग जनरेट करते हैं। माँग के विरुद्ध मांग खड़ी कर देते हैं, मतलब अगर माँग उस माल की हो और बेंचना इस माल को चाहते हैं, तो उस माल के विरुद्ध अभियान छेड़ हम उसकी बिक्री की संभावना समाप्त कर देते हैं। बाजारवाद में दिल-दिमाग भी बाजार के ही हिसाब से चलने लगता है, बाजार जो बेचना चाहता है वही चीज बिकती है। बाजार में सम्मोहन की शक्ति होती है। सम्मोहित ग्राहक सरे बाजार न मोल-तोल कर पाता है और न ही बाजार में चीजों को उलट-पुलट कर देख पाता है। यहाँ खरीददार की नहीं, बाजार की चलती है।
            आज बाजार में माल भरपूर है। अब माल नहीं, बाजार ने माल पर कब्जा कर लिया है। इस बाजार में कोई भी माल बिक जाता है। यही मार्केटिंग है। आज मार्केटिंग का ही जमाना है और जो तमाशे में माहिर होता है उसी के पास भीड़ भी होती है। यह बाजार जबर्दस्त तमाशेबाज है, इस तमाशे को लोग ललचाई निगाहों से देखने के लिए अभिशप्त हैं, तो कुछ इस तमाशे को लूट ले जाना चाहते हैं। वैसे, बाजार में धक्कामुक्की भी बहुत होती है। बाजार के भीड़ की धक्कामुक्की से बचाए रखिए, इसी में गनीमत है।
                तो, आज टहलने नहीं गया था.. असल में कल शाम पाँच बजे से रात नौ बजे तक और इसके पहले वाली शाम को भी ऐसे ही चार घंटे तक "सर्जिकल-स्ट्राइक" हेतु मैराथन बैठक में व्यस्त रहे थे। भाई, हम सरकारी योजनाओं पर सर्जिकल-स्ट्राइक दूसरे सेंस में करते हैं। इस सर्जिकल-स्ट्राइक का जगह और समय हमें अपने हिसाब से तय करना होता है। सो इसी स्ट्राइक की तैयारी में हम मैराथन बैठक करने में जुटे रहे, सबेरे जल्दी कैसे उठेंगे..!  असल में लगातार इस तरह सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारियों में व्यस्त रहने का मुख्य कारण यही था कि जब "इंन्फिल्ट्रेटर" अपने काम में व्यस्त थे तब हम निश्चिंत से सो रहे थे । मतलब, हम लकीर पीटने वाले लोग हैं, सरकारी व्यवस्था में सरकारी लोग केवल लकीर ही पीटने का काम करते हैं और इतनी जोर से पीटते हैं कि पीटने की आवाज खूब सुनी जा सके। हम इसी को सर्जिकल-स्ट्राइक कहते हैं। ये "इंन्फिल्ट्रेटर" हम सरकारी आदमियों की लकीर पीटने की आदत को खूब समझते हैं, और इधर बेचारे नागरिक चुपचाप "इंन्फिल्ट्रेशन" सहते रहते हैं। कभी-कभी आँख खुल भी जाती है, तो हम भी अपने अभियान पर इंन्फिल्ट्रेटरों की खबर लेने में सन्नद्ध हो जाते हैं । खैर..यह कर्तव्य-पारायणता की बात गाहे-बगाहे घोषित करनी होती है, इसके लिए सर्जिकल स्ट्राइक करनी ही होती है ! इंन्फिल्ट्रेटर इससे भयभीत होते ही हैं और हमारे हाथ भी कुछ न कुछ तो लगता ही है। इस तरह किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक पर दो-तरफा लाभ होता है।
           हाँ, तो आज की #दिनचर्या में एक बात यह भी शामिल रही कि हम एक गाँव में निकल गए थे..निकल क्या गए थे। गाँव में, गरीब महिलाओं को प्रशिक्षित सा करना था, जिससे वे भी अपनी गरीबी से सर्जिकल स्ट्राइक कर सकें। खैर वो तो, उनको प्रशिक्षित किया ही लेकिन, उनके दिमाग पर, हम जो सर्जिकल टाइप की थियरी अपना रहे थे, उस सर्जिकल थियरी का उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था...उनके चेहरों पर कोई चमक नहीं आई। मतलब, सारा प्रशिक्षण बेकार साबित हो रहा था। मैंने महसूस किया कि आज तक हुए किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में इन तमाम ग्रामीण गरीब महिलाओं को न तो कोई जानकारी है और न ही इसका कोई प्रभाव है। सारे के सारे सर्जिकल स्ट्राइक व्यर्थ और दिशाहीन प्रतीत हो रहे थे !  जैसे, आजादी के बाद कभी कोई सर्जिकल स्ट्राइक ही न की गई हो! और यदि की गई हो भी तो, सब व्यर्थ की कवायद भर रहे होंगे, अन्यथा इनके चेहरों पर भी चमक होती।
                 इनमें से कई गरीब ग्रामीण महिलाएँ केवल एक घंटे की, गरीबी को दूर करने वाली सर्जिकल ट्रेनिंग प्राप्त करने के लिए छह घंटे पैदल ही चलकर आई थी। क्योंकि, किराए के पैसे खर्च करने लायक इनकी क्षमता-संवर्धन का विकास हम आज तक नहीं कर पाए हैं। यही नहीं, इनके दो बीघे खेत तक हम आज तक पानी भी नहीं पहुँचा पाए हैं। पता नहीं इनके लिए कौन सा सर्जिकल-स्ट्राइक आजादी के बाद हमने किया है? आज भी इनकी इस दशा का जिम्मेदार इनके हक-हुकूक पर हमारा "इंन्फिल्ट्रेशन" ही रहा। 
             हमारे सर्जिकल-स्ट्राइक की पोल खोलते हुए एक महिला ने बताया भी, "ऊँचे लोग ही इस सब का फायदा उठा ले जाते हैं" मतलब हमारा सर्जिकल-स्ट्राइक इनके लिए किसी काम का नहीं होता। इन्हें तो "इंन्फिल्ट्रेशन" का शिकार होना ही है। बल्कि हम सर्जिकल-स्ट्राइक के बदले तमाम "इंन्फिल्ट्रेटर" पैदा करते हैं। शायद इसीलिए किसी सर्जिकल स्ट्राइक का प्रभाव इन तक नहीं पहुँचता है। क्षमता-संवर्धन के पश्चात इन गरीब महिलाओं को घर वापस लौटने की चिन्ता भी थी क्योंकि घर लौटने में इन्हें देर होने पर अँधेरा हो जाता। हम भी गरीबी दूर करने की अपनी सर्जिकल थियरी यहीं समाप्त कर वापस लौट आए थे। 
           बात यह नहीं कि हममें देशभक्ति नहीं है, या हम सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध करते हैं, हम भी आप जैसे ही देशभक्त हैं, बस बाजार में एक ही तरह के माल को खपाने के लिए बिना उस माल के गुण-दोष का परख किए उसे ही श्रेष्ठ माल नहीं बताना चाहते। हाँ, हम भी, किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बेतरह हिमायती हैं और सर्जिकल स्ट्राइक को पागलों की तरह प्यार करना चाहते हैं, बस इसका प्रभाव इन ग्रामीण गरीब महिलाओं के चेहरों पर भी दिखना चाहिए। अन्यथा ऊपर-ऊपर ही भाई लोग, सर्जिकल स्ट्राइक का मजा ले उड़ते रहेंगे, और बोलने भी नहीं देंगे। ये भाई लोग, अपने माल का ऐसा बाजार तैयार कर देंगे कि कोई दूसरा, अपने माल के बारे में या दूसरे माल की चर्चा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा।
              भाई लोग, किसी को ब्लाक-वलाक करने की जरूरत मैं नहीं समझता। अन्यथा, बाजार में माल परखने की क्षमता प्रभावित हो जाएगी। वैसे अगर बिना परखे कहीं किसी का खराब माल ले लिया तो यह बेचारी देशभक्ति जेब में ही धरी रह जाएगी.. देशभक्ति तो देशवासियों के बीच बाँटने की चीज होती है, केवल अपने लिए या सीने में ही छिपाए रखने के लिए नहीं होती...नहीं तो, वो बेचारे महात्मा जी! अरे वही, जिनका कल यानी दो अक्टूबर को जन्मदिन पड़ता है..हाँ, वही गाँधी जी, ग्राम- स्वराज की कल्पना न करते। खैर..
             #चलते_चलते
             बहुत अधिक बुद्धिवादी-विमर्श या बौद्धिकता भी उन्मादकारी हो सकती है, इससे भी बचें। घटनाएँ तो घटती रहती हैं उन्हें घट जाने दीजिए..या..घटते रहने दीजिए...बस, ऐसी बातों को लेकर बैठें न रहें, बाजार न बनाएँ। सबकी सुनें, ब्लाक-वलाक तो दूर की बात है।
             --Vinay
            #दिनचर्या 20/29.9.16

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