बात उन दिनों की है जब पहली बार मैंने वेलेंटाइन डे का नाम सुना था। "वैलेंटाइन डे" का नालेज, मेरे जनरल नालेज में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी के रूप में एड हुआ था। जहाँ-तहाँ मैं अपना यह नवार्जित ज्ञान बघारता फिरता कि, देखो एक वैलेंटाइन डे भी होता है! और, इसकी चर्चा को "फैशन" की श्रेणी में मानता, यानी एकदम आधुनिक टाइप की नई सोच से रूबरू हुआ था।
वाकई, बड़ा फैशनेबल है यह वैलेंटाइन डे! फैशन तो बदलने वाली चीज ही होती है, जो न बदले फिर उसमें फैशनवाली बात कहाँ! और जब तक दिखावा न हो तब तक फैशनवाली बात भी नहीं जमती। अब कोई चुपचाप वैलेंटाइन मना ले तो प्रेम का मतलब ही क्या?
हाँ, वो मध्ययुगीन प्रेमी निरे बेवकूफ रहे होंगे जो चुपचाप प्रेम को सहते हुए "गूँगे के गुड़" टाइप वाले प्रेम में मगन होकर "भरे भौन में करतु हैं नैनन ही सो बात" में अपना प्रेम-जीवन बर्बाद कर देते रहे होंगे। भला प्रेम भी कोई सहने की चीज है! लेकिन तब के बेचारे इन प्रेमीजनों का इसमें दोष भी तो नहीं था..! समाज के मारे तब के प्रेमीजनों को कोई बाजार दिखानेवाला भी तो नहीं पैदा हुआ था। महाकवियों ने तो प्रेम-भावना को ही मटियामेट कर दिया था।
प्रेमीजन कोई भगवान तो होते नहीं कि अपने प्रेम-पात्र को प्रेमाभिभूत कर दे? आखिर प्रेमीजन बिन लुभे और लुभाये कैसे एक दूसरे को अपने प्रेमजाल में फंसाएंगे? इसके लिए बाजार की जरूरत पड़ती ही है..! लेकिन प्रेम में बाजार के इस महती योगदान को कबीर ने अपने बेवकूफी भरे अंदाज में यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि "प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।" लेकिन, पता नहीं कबीर के जमाने में बाजार-वाजार होता भी था या नहीं या वे केवल बाजार का नाम ही सुने थे। अगर वे बाजार गए होते तो अपने इस दोहे में प्रेम की ऐसी तौहीन न करते। अरे भाई! जो बाजार में न बिक सके फिर वह किस काम की चीज...! मेरी समझ में तो यही है कि जिसकी कीमत न आंकी जा सके उसकी कोई कीमत नहीं! इसीलिए हमारे यहाँ दूल्हा तक बिकता है, और पैसेवाले लोग कीमती दूल्हे में ही विश्वास जताते हैं। हाँ महँगे दूल्हे की खोज प्रकारांतर से कीमती प्रेम की ही खोज और गारंटी होती है। लेकिन भला हो बाजार का जिसके कारण अब खोज-खोजाई का वह दौर भी समाप्त होने वाला है, प्रेमीजन अब स्वयं बाजार में खड़े होकर रेडीमेड प्रेम प्राप्त कर लेते हैं और उनका प्रेम यहीं बाजार में भटकता मिल भी जाता है।
तो महात्मा कबीर जी यदि आज होते तो मैं उनसे यही कहता जिस प्रेम की कीमत न आँकी जा सके, भला उसे हम प्रेम कैसे मान लें? और कहता, "कबीर दास जी एक आप थे, एक वो वैलेंटाइन बाबा हैं! आपको तो बाजार का कोई नालेज ही नहीं था कि वहां क्या बिकता और क्या बिक सकता है! और वो वैलेंटाइन बाबा को प्रेम के बारे में भरपूर नालेज था.. वो प्रेम को बाजार में बिकवाना भी जानते थे।"
शायद यही कारण था कि हमारे देश में वैलेंटाइन बाबा का जलवा आर्थिक सुधारों के साथ ही आया और तभी से बाजारों में "प्रेम हाट बिकाय" का स्कोप भी खड़ा हो गया। यही नहीं अब तो प्रेमीजनों यानी गर्लफ्रेंड और ब्वॉयफ्रेंड की सरे बाजार कीमत आँकी जाने लगी है और राजनीति में भी ऐसे जन धमाल मचाने लगे। खैर..
मेरा तो यही मानना है कि अपने देश में वैलेंटाइन डे का उतना स्कोप नहीं था जितना वहाँ, जहाँ वैलेंटाइन बाबा हुए थे। वहाँ तो विवाह पर ही पहरा बैठाया गया था। इसीलिए वे प्रेमियों के लिए लड़े थे। मतलब अविवाहितों के विवाहित होने के या उनके प्रेमाधिकार को लेकर अपना जान तक न्यौछावर कर दिए थे। लेकिन अपने यहाँ ऐसी बात तो है नहीं। यहाँ तो प्रेम करो या न करो विवाह कर लो और सात जन्मों का बंधन निभाओ और निभाते चले जाओ वाले प्रेम का प्रचलन पहले से तो हईयै था! अब ऐसे जन्म-जन्मांतर वाले प्रेम में ऊब तो होनी ही थी। इस प्रेम में थ्रिल और रोमांच खतम हो जाता है और ऐसा प्रेम, सुबह-दोपहर-साँझ होते हुए शेष अगले जनम की बात कह कर अस्ताचलगामी हो जाता है, आखिर प्रेम भी तो कोई चीज ही होती है, जिसे ढलना भी होता है। अब ऐसे में असली प्रेमियों के लिए प्रेम में उबाऊपन या बासीपन गँवारा नहीं हो सकता। लेकिन लाइसेंस-राज हर चीज में आड़े आ जाता है।
तो भाई, आज के प्रेमीजन ऐसे जन्म-जन्मांतर वाले प्रेम से इतर एक दूसरा वैलेंटाइन डे वाला प्रेम चाहते हैं लाइसेंस-राज से मुक्त वाला प्रेम! इस वाले प्रेम में थ्रिल और रोमांच भी होता है। यहाँ प्रेम में लुका-छिपाई जैसे खेल के साथ ही पहरेदारों से भी बचने और इसकी कीमत आंकने का बखूबी खेल भी होता है। अब ऐसे में प्रेमियों के लिए वैलेंटाइन डे वाला प्रेम मुफीद और मजेदार तो होना ही है। वैलेंटाइन डे पर प्रेम के लाइसेंस-राज पर चोट पहुँचाकर उदात्त-प्रेम की संकल्पना साकार की जाती है तथा प्रेम में उदारीकरण का संघर्ष एक कदम और आगे बढ़ चुका होता है। जय हो वैलेंटाइन बाबा की..!!
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