सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

विकास की बुकलेट

      आजकल लिखने बैठता हूँ तो मन थका-थका सा अलसियाया हुआ होता है और इस चक्कर में नहीं लिखता हूँ तो, ऐसा लगता है जैसे कोई महान साहित्य रचे जाने से रह गया हो! अब अगर महान साहित्य रचे जाने से रह जा रहा हो, तो फेसबुक पर रहना ही बेकार है। सो, मानसिक आलस्य के कारण और इसके निवारण पर मन को यह सोचकर रोजगार देने की सोची; नहीं तो, फेसबुक की टाइमलाईन यूँ ही आलस्य के भेंट चढ़ती रहेगी!!
        अब आलस आया कहाँ से? पहले मन को इसी खोज पर लगाया। असल में इधर हो क्या रहा है कि इतने विकास कार्यों के बुकलेट बनावाने पड़ रहे हैं; और इस महती विकास कार्य ने बेचारे एक अदद मन को यूजलेस टाइप का बना दिया है कि, इस चक्कर में खाली-खाली पड़े यह मन अलसिया गया है। हाँ वाकई! विकास कार्य कराने से अधिक उसका बुकलेट बनाना कठिन है। अगर यह विकास-पुस्तिका बन जाए, तो समझिए कि विकास-कार्य सफलता से संपन्न हो चुका है। मुझे आज भी याद है, एक बड़े साहब थे, एक बार ऐसे ही जब एक विकास-पुस्तिका पलट भये तो, उस बुकलेट को आहिस्ता से बंंद करते हुए बोले थे, "चलिए हो गया विकास.." तब से यही लगता है कि जितने करीने से सजी-सँवरी विकास की बुकलेट होगी वैसा ही मनमोहक विकास होगा। कथन का निहितार्थ यह कि विकास की असली जगह विकास-पुस्तिका में ही होती है। इसीलिए रात-दिन अब विकास- पुस्तिका बनाने में ही गुजरता रहता है, ऐसे सिचुएशन में मन को भटकने के लिए कोई रास्ता नहीं होता।
          
       हाँ,  विकास-पुस्तिका तैयार करना माथापच्ची का भी काम होता है, अगर इसमें तनिक भी चूक हुई तो गए काम से! नहीं कुछ तो, खटिया तो खड़ी ही हो सकती है, इसीलिए इसे बनाने में बहुत दिमाग लगाना पड़ता है। एक बार ऐसे ही एक विकास-पुस्तिका बनवा रहा था.. जिसमें सारा कुछ विकास ओके टाइप का था, लेकिन न जाने कहाँ से एक मैला-कुचैला आदमी टपक पड़ा और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ाते हुए बोला, "साहब लेव...अभी तक हमारा विकास नहीं हुआ.. सुनवाई करउ" मैंने उसके दिए पुर्जे को पढ़ा...फिर गुस्से से उसकी ओर देखा, मन हुआ कि उससे कह दें, "अबे, विकास कोनउ बुलेट ट्रेन है,जो चली नहीं कि तुम तक पहुँच गई..! अरे, यह चली है, तो तुम तक पहुँचेगी ही..! पुर्जा देने से थोड़ी न पहुँच जाएगी..!!" खैर, मेरीे तमतमाहट भाँप वह बेचारा चला तो गया, लेकिन बुकलेट बनवाने का काम मुझे ठप्प करना पड़ा, अब विकास में हुए इस लैकनेश का उत्तर भी मुझे विकास की बुकलेट में देना था! मतलब विकास-पुस्तिका में कई बार ऐसे प्रश्नों के सटीक उत्तर देने होते हैं, जिसमें सब काम-धाम छोडकर लगना पड़ता है! और, तब कहीं जाकर विकास कार्यों की समीक्षा कराने के लायक एक अदद विकास-पुस्तिका तैयार होती है। मतलब विकास से ज्यादा विकास की एक अदद बुकलेट महत्वपूर्ण है।
          तो, इस चक्कर में ही मन थककर आलसी हो चला है...फेसबुक पर श्रेष्ठ साहित्य रचने के लिए तैयार ही नहीं होता!! अब मन को समझाना पड़ेगा...लिखो, लिखा हुआ अपने-आप साहित्य बन जाता है, जैसे विकास के लेखे से विकास हो जाता है।

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