उन्होंने कहा हम अपना इतिहास लिए फिरते हैं, समझे! मैंने देखा जैसे वे अपने इतिहास के दम पर कूद-फाँद रहे थे। मैंने सोचा! भाई, इतिहास में बड़ा दम होता है। फिर थोड़ी देर में उनका इतिहास उनके सिर पर चढ़ कर बोलने लगा था। तत्क्रम में मूँछों पर ताव देते हुए वे बोले, "हम इतिहास बदल देने वाले लोगों में से हैं।" मैंने कहा, "किसका इतिहास बदल देगें? अपना या दूसरे का?" उन्होंने कहा, "उनका, जो हमारा इतिहास बदलने की सोचते हैं" इस पर मैंने हिम्मत जुटाते हुए, उनकी मूँछों पर हाथ फेरते हुए उसकी नोक थोड़ा झुकाते हुए कहा, "यार! अब इसका जमाना नहीं रहा, इन नुकीली खड़ी-तनी मूँछों को लोग जोकरई मानेंगे...इसपर ताव देना बंद करिए।" खैर, वो मेरे मित्र थे, मेरे ऊपर भड़के नहीं। इधर मैं सोच रहा था, न जाने कहाँ से इनपर इतिहास का भूत सवार हो जाता है, वैसे तो हमारे साथ खेलेंगे-कूदेंगे टाइप का खूब गपियाएंगे, लेकिन मूँछ की बात पर अपना इतिहास याद दिलाने लगते हैं, गोया हम बे-इतिहासी हों।
मूँछ भी इस देश के लिए समस्या है ! इसके चक्कर में इतिहास, इतिहास नहीं रह गया, बल्कि इसे धर्म मान लिया गया है। यह यहीं है कि इतिहास के बिना पर कुछ लोग अपनी मूँछों पर इतराते हैं, और बे-इतिहासी बेचारे बे-कद्री झेलते हैं!
अपने देश के लोगों के इतिहास में ऐसी असमानता कि बे-इतिहास वाले जहाँ-तहाँ इतिहासवालों के सामने अपना सा मुँह लेकर, मुँह लटकाए बैठे दिखाई दे जाते हैं, जैसे एक बार मैं जब जमींदारी वाले इतिहास के सामने मुँह लटकाए था, तो मेरे दादा जी मेरा मनोभाव ताड़ गए थे और मुझे बताए कि उनके पिता यानी मेरे परदादा ने भी किसी गाँव में चार आने की जमींदारी खरीदी थी। फिर मैंने भी अपने इतिहास को उस जमींदारी वाले इतिहास के सामने उसके टक्कर में खड़ा कर दिया था। मतलब इधर इतिहास से इतिहास के भिड़न्त की प्रवृत्ति खूब विकसित हुई है।
खैर, बाद में बे-इतिहास वालों को भी देश के इतिहास पर गर्व करने की सीख दी गई। लेकिन वर्तमान में इतिहास की इस नोचा-चोंथी में सब अपने-अपने हिस्से का इतिहास लेकर भाग खड़ा होना चाहते हैं। ऐसे में बे-इतिहासी बेचारे गर्व करें तो किस पर गर्व करेंगे ! जब देश का कोई इतिहास ही नहीं बचेगा!! वैसे भी, इतिहास केवल वर्चस्ववादियों का ही होता है, जो जितना वर्चस्वशाली उसका उतना ही तगड़ा इतिहास होता है ! यही इतिहास बनाते हैं, बाकी तो इसे पढ़ते भर हैं। लेकिन सब की आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने वाले भारतभूमि में इतिहास-लेखन की परम्परा नहीं रही है। इसीलिए चारण-भाट टाइप का इतिहास लेखन मिले तो मिले लेकिन हेरोडोटस, अलबरूनी वाला इतिहास-लेखन नहीं मिलेगा। शायद तब के जड़ भरत टाइप के भारतीय मनीषी यहाँ की वर्चस्ववादी वितंडावाद को आमजन के लिए अनावश्यक समझ चुके थे, इसीलिए इतिहास-लेखन में हाथ नहीं अजमाए होंगे।
यहाँ की जनता जैसे इतिहास में थी वैसे आज भी है। पाँच हजार वर्ष का इतिहास आज भी बदस्तूर जारी है। आजादी की लड़ाई के समय को छोड़ दें तो ये वर्चस्ववादी, जनता को इतिहास में ही ढकेलते रहते हैं। बानगी देखिए! एक ओर एक "माँ" झांसी की रानी आजादी की लड़ाई में "मर्दानी" बनती है, तो दूसरी ओर बिन बच्चे की "पद्मावती" को आज आजादी के बाद "माँ" घोषित किया जा रहा है! मतलब "मर्दानी" पर यह "माँ" भारी है! ऐसी स्थिति में इस आजाद मुल्क में स्वामी दयानंद जी का समाज सुधार भी परवान न चढ़ता, फिर तो गुलामी ही बेहतर होती। ये इतिहास के रखवाले! जौहर-व्रत करने वाले दल के साथ पद्मावती के हाथ में तलवार पकड़ाते तो बाद में एक "माँ" को "मर्दानी" न बनना पड़ता।
इस देश के ऐसे दुविधा भरे इतिहास से बेहतर तो यही होगा कि यहाँ का इतिहास कम से कम इतिहास ही बनता रहे, क्योंकि तब किसी की नाक-कान और गर्दन सलामत रहेगी! इसे धर्म बनते देख यही लगता है, काश! कि हमारा देश, बे-इतिहासी देश ही होता! आखिर, आज की दुनियाँ का सिरमौर देश भी तो एक बे-इतिहासी देश रहा है! उसे बनाने वाले भी अपना इतिहास जहाँ का तहाँ छोड़ कर वहाँ आए हैं।
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